समकालीन जनमत
पुस्तक

मार्क्स कोश

2011 में कांटीन्यूम इंटरनेशनल पब्लिशिंग ग्रुप से इयान फ़्रेजर और लारेन्स वाइल्डे की किताब ‘ द मार्क्स डिक्शनरी ’ का प्रकाशन हुआ। सबसे पहले लेखक बताते हैं कि मार्क्स जितनी मुहब्बत और नफ़रत शायद ही किसी और को झेलनी पड़ी होगी । कारण कि वे कोई सामान्य चिंतक नहीं थे । हेगेल और उनके आलोचकों की आपसी बहसों से पैदा वैचारिक तूफान से गुजरते हुए उन्होंने अलग रास्ता बनाया । वे सिद्धांत और व्यवहार की एकता के पक्षधर थे ।

पचीस साल की उम्र आते आते विश्व क्रांति के सिद्धांतकार की जिंदगी उन्होंने चुन ली। इस क्रांति के जरिए ही उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व को समाप्त होना था जो हजारों साल से सामाजिक वर्गों और उनके बीच संघर्ष का आर्थिक आधार बना हुआ था। इस रूपांतरण की संभावना की जमीन पूंजीवाद की उनकी आलोचना से तैयार हुई । इस आलोचना के जरिए उन्होंने पूंजीवाद की अंतर्विरोधी प्रकृति को उजागर किया और इसके विनाश की ओर ले जाने वाली समाजार्थिक प्रवृत्तियों की पहचान की । लक्ष्य था पूरी दुनिया में ऐसा वर्गविहीन समाज स्थापित करना जो शोषण और उत्पीड़न से मुक्त हो और जिसमें बहुसंख्यक लोग पहली बार समाज व्यवस्था पर सचेतन नियंत्रण कायम करें। कुल मिलाकर यह मानव मुक्ति का विराट सपना था । इसके बाद वे सवाल उठाते हैं कि फिर बहुत सारे लोग मार्क्स के विचारों को मानव मुक्ति में बाधक क्यों समझते हैं ।

इनमें सबसे पहले वे उदारवाद के आरोप बताते हैं । उदारवादियों का कहना है कि संपत्ति का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता की पूर्वशर्त है । इसलिए वे इस मान्यता का विरोध करते हैं कि स्वतंत्रता तभी संभव है जब उत्पादन के साधनों को निजी स्वामित्व की जगह सामाजिक नियंत्रण में लाया जाए । ये लोग मानते हैं कि सामूहिकता के कारण राजनीतिक मनमानी पैदा होती है। इस मामले में मार्क्स की मान्यताओं के पक्ष में सैद्धांतिक तर्क ही काफी नहीं है । बीसवीं सदी में उनके नाम पर स्थापित शासन के अनुभव से इस आरोप को बल मिलता है । उनके विचारों को देखने से लगता है कि वे खुद इन शासनों की नीतियों और कारगुजारियों का विरोध अवश्य करते लेकिन सवाल है कि उनके विचारों में विकृति आई कैसे ।

मार्क्स के देहांत से लेकर 1917 तक समूचे यूरोप की बड़ी समाजवादी पार्टियों ने मजदूर आंदोलन की ताकत पर भरोसा किया और निर्देशक सिद्धांत के बतौर मार्क्स के विचारों को अपनाया । उनमें आपसी सहमति थी कि उनका दायित्व सार्वभौमिक मताधिकार हासिल करना, चुनाव में बहुमत अर्जित करना और अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन के अंग के रूप में अपने समाजों का रूपांतरण शुरू करना है । इसके लिए लोकतंत्र को राजनीतिक क्षेत्र की सीमा से आगे समाजार्थिक क्षेत्र में ले जाना था । इसलिए इन पार्टियों का नाम सामाजिक जनवादी पार्टी था । जब 1917 में रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के बोल्शेविक धड़े ने सत्ता पर कब्जा कर लिया तो परिस्थिति बदल गई ।

उन्होंने अपने शासन को वैधता प्रदान करने के लिए मार्क्स के विचारों में तोड़ मरोड़ शुरू कर दी । निजी संपत्ति के खात्मे का काम तो जोर शोर से करने की योजना बनी लेकिन स्वतंत्रता और लोकतंत्र के प्रति मार्क्स की निष्ठा को भुला दिया गया । विश्वव्यापी कम्यूनिस्ट आंदोलन ने तानाशाही की मार्क्स की आलोचना और लोकतंत्र के सवाल पर उनकी राय को भुला दिया । जिन सामाजिक जनवादी पार्टियों में लोकतांत्रिक मार्क्सवाद की बात होती थी उनका प्रभाव धीरे धीरे कम होने लगा और मानव मुक्ति के सिद्धांतकार के रूप में मार्क्स के पैरोकार राजनीतिक रूप से स्वतंत्र बुद्धिजीवी ही रह गए। लेखकों को उम्मीद है कि मार्क्स के नए पाठक उनके लेखन को बिना किसी पूर्वाग्रह के पढ़ेंगे। उन्हें मार्क्स में पूंजीवाद की गहन आलोचना, आधुनिक सत्ता संरचनाओं का तीक्ष्ण विश्लेषण और मानव संभावना का भरा पूरा दर्शन मिला ।

मार्क्स ने ढेर सारे ऐसे मुद्दे उठाए जिनकी अलग-अलग व्याख्या हुई और तमाम भावावेगपूर्ण बहसें हुईं जिनमें बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ था । ऐसे सवालों पर विचार करने से लेखकों ने परहेज किया है लेकिन मार्क्स के उस मत को प्रस्तुत कर दिया है जिस पर विवाद हुआ और पाठकों को खुद निष्कर्ष निकालने के लिए प्रोत्साहित किया है । इसे उन्होंने मार्क्स-एंगेल्स कोश की जगह मार्क्स कोश ही रखा है और इसके लिए एंगेल्स के विचारों को मार्क्स का विचार नहीं माना है । दूसरी बात कि मार्क्स के विचार आपस में जुड़े हुए हैं इसलिए एक धारणा पर लिखते हुए अन्य धारणाओं का उल्लेख करना पड़ा है । उदाहरण के लिए श्रम को श्रम-शक्ति के बिना नहीं समझा जा सकता, श्रम-शक्ति के लिए मूल्य को समझना होगा और मूल्य के लिए अतिरिक्त मूल्य पर विचार करना होगा ।

बहरहाल प्रविष्टियों की शुरुआत से पहले मार्क्स की बौद्धिक जीवनी दी गई है । इसमें अन्य बातों के साथ उनको दर्शन की अमूर्त दुनिया से ठोस यथार्थ की ओर खींच लाने में पत्रकारिता की भूमिका को रेखांकित किया गया है । मार्क्स की पहली ही किताब ‘हेगेल के अधिकार दर्शन की आलोचना’ में प्रशियाई राज्य की रक्षा के प्रयत्न की आलोचना की गई है और परस्पर विरोधी असमाधेय वर्ग हितों की बात पर जोर दिया गया है । हालांकि हेगेल की अमूर्त धारणाओं को ठोस सामाजिक संबंधों तक ले आने में फ़ायरबाख का योगदान माना जाता है लेकिन मार्क्स क्रांतिकारी राजनीतिक प्रतिबद्धता के मामले में फ़ायरबाख के दर्शन से बहुत आगे निकल चुके थे । उदारवाद की आलोचना ‘आन द ज्यूइश क्वेश्चन’ में इस रूप में प्रकट हुई कि राजनीतिक लोकतंत्र के हासिल होने से ही मानव मुक्ति नहीं हो जाएगी । इससे थोड़ा आगे की यात्रा करते हुए उन्होंने घोषित किया कि सर्वहारा वर्ग अपनी मुक्ति प्राप्त करने की प्रक्रिया में समस्त वर्ग उत्पीड़न का आधार रही निजी संपत्ति का अंत करके सम्पूर्ण मानवता को मुक्ति प्रदान करेगा ।

इस समझदारी के साथ मार्क्स पेरिस पहुंचे । वहां एंगेल्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी लेखन पर निगाह पड़ी और उसके जादू से अप्रभावित न रह सके । मजदूर के साथ होनेवाले अन्याय को जायज ठहरानेवाले राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना ने उन्हें बहुत प्रेरित किया । इसी दिशा में काम शुरू किया और अलगाव की धारणा का विकास किया । मानव सार और उसकी संभावनाभरी क्षमता को आधुनिक उत्पादन पद्धति में लगातार विकृत किया जाता है । उनका यह मानवतावादी दर्शन कम्यूनिज्म को मजदूर के इसी अलगाव को दूर करनेवाले आंदोलन के रूप में समझने की दिशा में ले गया । मार्क्स के परवर्ती आर्थिक सिद्धांतों के आरम्भिक दार्शनिक आधार के रूप में इन पांडुलिपियों के महत्व को लेकर मार्क्सवादियों में जबर्दस्त विवाद रहे हैं ।

फ़्रांस के बाद तीन साल के लिए मार्क्स बेल्जियम आए । सामाजिक राजनीतिक समस्याओं को जन्म देनेवाली भौतिक परिस्थितियों के विश्लेषण की जिम्मेदारी उन्होंने अपने कंधों पर ली । इसके लिए अपने पुराने विचारों से मुक्ति जरूरी थी । इस क्रम में जो लेखन हुआ वह ‘होली फ़ेमिली’ और ‘जर्मन आइडियोलाजी’ में प्रकट है । जर्मन आइडियोलाजी में ऐतिहासिक भौतिकवाद का सूत्रीकरण हुआ । इसके तहत तमाम तरह के सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी संबंधों को आकार देने में भौतिक जीवन के उत्पादन और पुनरुत्पादन को चालक शक्ति माना गया और मानव इतिहास को उत्पादन पद्धतियों के क्रमिक विकास के रूप में देखा गया । वर्ग संघर्ष के विकास की इस धारणा के साथ ही क्रांतिकारी सक्रियता और ठोस छानबीन पर भी जोर दिया गया । चिंतन में यह बदलाव जीवन भर के लिए काम का बोझ लेकर आया । अब से आर्थिक और राजनीतिक विश्लेषण का काम प्रमुख हो गया ।

इस दौर की अर्थशास्त्र की पढ़ाई का नतीजा ‘पावर्टी आफ़ फिलासफी’ है जिसमें प्रूधों पर हमला किया गया है । प्रूधों मजदूर वर्ग के साथ सहानुभूति के बावजूद हड़ताल और ट्रेड यूनियन संगठन का विरोध करते थे । इस समय मार्क्स यथास्थिति को बदलने में बाधक किसी भी विचार का प्रचार अनुचित मानते थे । उन्होंने समूचे यूरोप में बिखरे हुए क्रांतिकारियों के बीच संपर्क कायम करने के लिए पत्राचार समिति भी बनाई । इसकी ही एक बैठक में उन्होंने वाइटलिंग के इस विचार का विरोध किया कि षड़यंत्र के जरिए तत्काल क्रांति की जा सकती है । वे कम्यूनिस्ट लीग की दूसरी कांग्रेस में शामिल होने लंदन गए और लोकतंत्र के लिए होनेवाली लड़ाई में भाग लेने के लिए मजदूर वर्ग का स्वतंत्र आंदोलन खड़ा करने पर जोर दिया । उन्होंने काल्पनिक समाजवादियों के प्रयोगों और वाइटलिंग जैसे दुस्साहसिक प्रस्तावों का विरोध किया । उन्हें संगठन का कार्यक्रम लिखने की जिम्मेदारी मिली जिसका नतीजा कम्युनिस्ट घोषणापत्र था । साथ ही वे आर्थिक सिद्धांतों पर व्याख्यान भी दे रहे थे जिनका संग्रह ‘वेज लेबर ऐंड कैपिटल’ के रूप में हुआ । व्याख्यानों के तत्काल बाद घोषणापत्र लिखा जिसमें आधुनिक वर्ग संघर्ष के विवेचन के साथ ही वर्गविहीन समाज के निर्माण का क्रांतिकारी लक्ष्य निर्धारित किया गया था । इसके छपते ही समूचे यूरोप में लोकतांत्रिक क्रांतियों का लावा फूट पड़ा ।

इसी समय फ़्रांस की अस्थायी सरकार के एक क्रांतिकारी नेता के आमंत्रण पर पेरिस गए । जर्मनी में भी बदलाव आया था इसलिए क्रांतिकारी आंदोलन की मदद के लिए एंगेल्स के साथ कोलोन पहुंचे । फिर से पत्रकारिता के जरिए इस आंदोलन में शिरकत के लिहाज से दैनिक अखबार न्यू राइनिशे जाइटुंग का संपादन संभाला । एक साल के संपादन में लगभग सौ लेख लिखे । जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी का मांगपत्र तैयार किया । सार्वभौमिक मताधिकार का पक्ष लिया । स्थायी सेना की जगह पर जनता को हथियारबंद करने का प्रस्ताव किया । किसानों की मदद, सबके लिए मुफ़्त शिक्षा और प्रगतिशील आयकर के लिए अभियान चलाए । इस दौरान वे लोकतांत्रिक ताकतों के खेमे में ही रहे लेकिन जब देखा कि खुद पूंजीपति वर्ग ही इसे पूरा नहीं करना चाहता तो मजदूर वर्ग के नेतृत्व में और किसानों के समर्थन से लोकतांत्रिक क्रांति के पूरा होने के हामी बन गए । इसके लिए दुस्साहसिक विद्रोह की वकालत करनेवालों का विरोध भी करते रहे । जर्मनी से निकाला मिला तो फ़्रांस गए लेकिन वहां से भी बाहर होना पड़ा । इसके बाद तो जीवन भर का लंदन प्रवास शुरू हो गया ।

सबसे पहले हाल में बीती क्रांति के अनुभवों का निचोड़ निकालते हुए स्थायी क्रांति की धारणा प्रतिपादित की जिसके तहत मजदूर वर्ग को कायर पूंजीपति वर्ग पर पुराने शासक वर्ग की ताकत को मटियामेट करने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए दबाव बनाए रहना था । इस दौर में कम्यूनिस्टों की मांग पूरी होने की संभावना न देखते हुए अर्थतंत्र पर राजकीय नियंत्रण और प्रगतिशील कराधान जैसे उपायों के लिए जनमत बनाने की अपील की । इस समय ही ‘लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर’ लिखी और व्यावहारिक राजनीति की दुनिया में वर्गीय गोलबंदियों का सच उजागर किया । अन्य वर्गों के साथ संश्रय कायम करने में वे मजदूर वर्ग की अगुआ भूमिका चाहते थे ताकि लोकतंत्र को उनके हित में इस्तेमाल किया जा सके लेकिन संसदीय राजनीति का खोखलापन भी उनके सामने स्पष्ट था । इस दुविधा में उन्होंने मजदूर वर्ग की स्वतंत्र राजनीतिक दावेदारी का समर्थन किया और अपने क्रांतिकारी समाजवादी लक्ष्य को पूरा करने के लिए किसी अनुकूल अवसर का इंतजार करने की सलाह दी । लंदन के लंबे प्रवास के दौरान मार्क्स ने मुख्य रूप से तीन तरह के काम किए ।

इसमें पहला काम पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधी स्वरूप के विस्तृत विश्लेषण के लिए राजनीतिक अर्थशास्त्र पर पकड़ मजबूत करना था । इसके लिए उन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम में कम से कम आठ भाषाओं में मौजूद ढेर सारी सामग्री देख डाली । इसके आधार पर प्रकाशन लायक लेखन कठिन काम था । पहले चरण के बतौर ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान’ का प्रकाशन हुआ । इस किताब की भूमिका में अत्यंत संक्षेप में ऐतिहासिक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया । सत्रह साल की पढ़ाई के बाद ‘पूंजी’ का पहला खंड छपा । शेष दो खंड बाद में एंगेल्स के संपादन में प्रकाशित हो सके । पहले खंड के पहले अध्याय में वस्तु पूजा संबंधी विवेचन की दार्शनिकता के बावजूद यह किताब जबर्दस्त है । सरकारी आंकड़ों, सर्वेक्षणों और रपटों के साथ ऐतिहासिक स्रोतों का सहारा लेकर किए गए प्रचंड शोध को सुगठित तर्क के साथ पेश किया गया है । साथ ही ब्रिटेन के कामगारों के जीवन के हृदयविदारक चित्र भी बीच बीच में उकेरे गए हैं । मजदूर वर्ग के व्यवस्थित शोषण के विकास का दार्शनिक विवेचन उस शोषण के अनुभव की समाजशास्त्रीय चीरफाड़ के साथ मिला हुआ है । पूंजीवाद का रूप बहुत हद तक बदल जाने के बावजूद व्यवस्था की गति के नियमों का मार्क्सी विश्लेषण आज भी प्रासंगिक बना हुआ है ।

लंदन में रहते हुए उनके काम का दूसरा प्रमुख क्षेत्र पत्रकारिता बनी। हालांकि वे पत्रकारिता को दोयम दर्जे का काम मानते रहे लेकिन रोजी रोटी का जरिया एंगेल्स के धन के साथ पत्रकारिता से अर्जित आमदनी ही थी । न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून में लगभग 300 लेख प्रकाशित हुए जिनमें उनके ऐतिहासिक विवेक का अंतर्दृष्टिपरक विनियोग मिलता है साथ ही सत्ताधारकों के विरुद्ध प्रचुर क्रोध भी प्रकट हुआ है । इनमें भारत और आयरलैंड में औपनिवेशिक शासन तथा चीन में अफीम का व्यापार थोपने की ब्रिटेन की हरकतों की घनघोर आलोचना है । इसके अतिरिक्त अमेरिका में गुलामी के विरोध में चले आंदोलन के पक्ष में लिखा । साथ ही ब्रिटेन के समाजवादियों और ट्रेड यूनियन नेताओं से सम्पर्क कायम रखते हुए उनके लिए भी लिखते रहे ।

उनकी गतिविधि का तीसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र मजदूर वर्ग की एकता का सांगठनिक प्रयत्न था । इसके तहत उन्होंने इंटरनेशनल में जमकर काम किया । असल में जिस आर्थिक व्यवस्था को चुनौती देनी थी वह अपने जन्म से ही अंतर्राष्ट्रीय थी इसलिए उसके विरोध में आंदोलन भी अंतर्राष्ट्रीय होना तय है । इंटरनेशनल की ठोस उपलब्धियों के कम होने के बावजूद उसका प्रतीकात्मक महत्व बहुत अधिक था । मजदूरों को इससेप्रेरणा मिलती थी तो शासक वर्ग इससे डरते थे । ब्रिटेन के ट्रेड यूनियन नेताओं और यूरोप भर में फैले समाजवादियों को उन्होंने मौजूदा ठोस परिस्थितियों के सतर्क विश्लेषण करने और मजदूर वर्ग की बढ़ती ताकत को संगठित करने की जरूरत का महत्वस मझाया । इंटरनेशनल पर अराजकतावादियों के नियंत्रण की संभावना देखकर उन्होंने इसे बंद करने की सफल योजना बनाई और उसे लागू किया । इंटरनेशनल में उनके काम की बदौलत मुख्यधारा की राजनीति में संघर्ष करने की इच्छुक समाजवादी पार्टियों को अपनी राजनीतिक हैसियत बढ़ाने में मदद मिली । इस समय ‘फ़्रांस में गृहयुद्ध’ नामक किताब उन्होंने लिखी जिसमें पेरिस कम्यून के खूनी अंत से पहले मजदूरों द्वारा अपनाए गए मूलगामी लोकतांत्रिक व्यवहार की भूरि भूरि प्रशंसा की गई थी ।

बहरहाल इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि मार्क्स ने पेरिस कम्यून में मजदूरों की गलती को भुला दिया । बाद के दिनों में तो उन्होंने कुछ देशों में मजदूर वर्ग द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से अपना लक्ष्य हासिल करने की संभावना भी देखी थी । लेकिन इन सबका मतलब पूंजी के विरुद्ध मजदूरों के संघर्ष के केंद्रीय कार्यभार को भूल जाना नहीं था । जीवन के अंतिम महत्वपूर्ण लेखन ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना’ में भी उन्होंने स्पष्ट किया कि समाजवादी पार्टियों को निजी संपत्ति के उन्मूलन तथा पूंजीपति वर्ग के शासन की समाप्ति के प्रति अपनी अविचल निष्ठा हमेशा घोषित करनी चाहिए ।

Related posts

1 comment

Comments are closed.

Fearlessly expressing peoples opinion