2023 में रटलेज से आन्ने गारलैंड माहलेर और पाओलो कापुज़्ज़ो के संपादन में ‘द कोमिंटर्न ऐंड द ग्लोबल साउथ: ग्लोबल डिजाइन/ लोकल एनकाउंटर्स’ का प्रकाशन हुआ । किताब के दो हिस्से हैं । पहले हिस्से में भूमिका समेत कोमिंटर्न की वैश्विक कल्पना पर रोशनी डाली गयी है । दूसरे हिस्से में इस वैश्विक संगठन से उपजे स्थानीय टकरावों का विश्लेषण किया गया है । इस किताब का स्रोत बोलोना विश्वविद्यालय की एक कार्यशाला है । इसके विभिन्न अध्यायों का लेखन कोरोना के दौरान हुआ है । इस किताब की शुरुआत नरेंद्र नाथ भट्टाचार्य उर्फ़ मानवेंद्र नाथ राय से हुई है । 1917 के अप्रैल महीने में वे अमेरिका से मेक्सिको गये । इससे पहले अमेरिका में रहते हुए उन्होंने जर्मन दूतावास से भारत की स्वाधीनता की लड़ाई में मदद के बतौर हथियारों की आपूर्ति का प्रयास किया था । 1915 में ही ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने के लिए धन और हथियार जुटाने के मकसद से उन्होंने दुनिया भर का चक्कर लगाना शुरू किया था और साल भर का अमेरिका प्रवास उसका आखिरी चरण था । इससे पहले वे इंडोनेशिया, जापान, कोरिया और चीन हो आये थे । अमेरिका ने जब जर्मनी से युद्ध छेड़ दिया तो उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया । जमानत के बाद वे भागकर मेक्सिको चले गये । इस यात्रा का फैसला उन्होंने अनजाने नहीं किया था । दुनिया भर के वामपंथी मेक्सिको की क्रांतिकारी गतिविधियों को ध्यान से देख रहे थे । अमेरिका के उपनिवेशवाद विरोधी भारतीयों के लिए क्रांतिकारी राजनीति का नमूना मेक्सिको की क्रांति बन गयी थी । मेक्सिको में रहते हुए उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में बेहद नये नजरिये की जरूरत महसूस हुई । वहीं उन्हें महसूस हुआ कि किसी भी देश की सारी समस्याओं का एकमात्र समाधान उस देश की मुक्ति ही नहीं है । स्पेन के उपनिवेशों की मुक्ति के बावजूद उन्हें औपनिवेशिक समाजार्थिक और नस्ली भेदभाव से आजादी नहीं मिली थी । इन्हीं पुरानी सामाजिक विषमताओं की समाप्ति हेतु मेक्सिको की क्रांति हुई थी जो उनके आगमन के समय भी चल रही थी ।
उन्होंने मेक्सिको के अखबारों में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के बारे में लेख लिखे और छपाये । उसमें उन्होंने भारतीय जनता की गरीबी का कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद और देशी सामंतवाद द्वारा आर्थिक शोषण बताया । इसलिए उनका कहना था कि जनता की मुक्ति के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने के साथ ही विदेशी शासन के स्थायित्व के सामाजिक आधार के रूप में कार्यरत सामंती पितृसत्ताक तंत्र को नष्ट करना होगा । तात्पर्य कि भारत को राष्ट्रीय स्वाधीनता के साथ ही सामाजिक क्रांति की भी जरूरत है ।
मेक्सिको की क्रांति ने उन्हें यह नया परिप्रेक्ष्य प्रदान किया और उत्पीड़नकारी सामाजिक संरचनाओं के बारे में उनकी समझ को कुछ पैना भी बनाया । बहरहाल उसी समय रूस में भी एक क्रांति हो रही थी जिसके फलस्वरूप जल्दी ही मास्को में कोमिंटर्न की स्थापना हुई । प्रथम विश्वयुद्ध के चलते यूरोप की विस्व व्यवस्था ढह रही थी । ऐसे में कोमिंटर्न ने वैकल्पिक व्यवस्था बनाने का संकल्प किया । मार्च 1919 के स्थापना सम्मेलन में इसके प्रतिनिधियों ने लेनिन के इस सिद्धांत को स्वीकार किया कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद एक दूसरे पर निर्भर हैं और उसी समझ के तहत गैर यूरोपीय देशों में कम्युनिस्ट पार्टी खड़ा करने की कोशिश की । इस तरह कोमिंटर्न ने पूंजीवाद पर हाशिये की ओर से दबाव डालने की रणनीति अपनायी । सम्मेलन की समाप्ति पर लेनिन ने दुनिया भर में दूत भेजे जो वहां कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के जरिए सम्भावित समर्थकों को कोमिंटर्न में ले आयें । दूसरे इंटरनेशनल का जोर यूरोपीय सर्वहारा पर था लेकिन कोमिंटर्न ने दुनिया के मजदूरों की मुक्ति का सवाल उठाया । इसका असर यूरोप के बाहर की दुनिया पर बहुत ही गहरा पड़ा । कोमिंटर्न ने खासकर मेक्सिको को संगठन की रणनीतिक महत्व की जगह के बतौर देखा । मेक्सिको की क्रांति रूसी क्रांति से दस साल पहले तो संपन्न हुई ही थी, अमेरिका से उसकी भौगोलिक और आर्थिक निकटता भी उसके रणनीतिक महत्व की भारी वजह था । 1919 के अक्टूबर महीने में कोमिंटर्न के प्रतिनिधि माइकेल स्तेफानोविच बोरोदिन मेक्सिको पहुंचे और मानवेंद्र नाथ राय तथा वहां की समाजवादी पार्टी के अन्य नेताओं से मिले । बोरोदिन और एम एन राय की मित्रता वहीं हुई जिससे फिर राय का लम्बा कम्युनिस्ट जीवन शुरू हुआ ।
कोमिंटर्न के इतिहासकारों के लिए मानवेंद्र नाथ राय का नाम सुपरिचित है । सुपरिचित होने के बावजूद उसे दुहराने की जरूरत संपादकों को महसूस होती है । उनके उदाहरण से हम उस आंदोलन के वैश्विक चरित्र का अनुमान लगा सकते हैं । इससे यह भी पता चलता है कि दक्षिणी गोलार्ध के बौद्धिक और कार्यकर्ता किस तरह अपने विचारों और अनुभवों से कोमिंटर्न को समृद्ध करते थे ताकि स्थानीय लक्ष्यों को पूरा करने में मदद मिल सके । बोरोदिन के साथ वे कोमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस में भाग लेने के लिए 1920 में मास्को भी गये थे । उसमें ही उनकी लेनिन से उपनिवेशवाद विरोधी बुर्जुआ राष्ट्रवादी आंदोलनों के सिलसिले में मशहूर बहस हुई थी । उनका विश्व भ्रमण वर्तमान संदर्भों के लिहाज से व्यर्थ प्रतीत हो सकता है क्योंकि जमीनी राजनीति का वैश्विक परिप्रेक्ष्य विकसित होने के साथ ही संकीर्ण राष्ट्रवाद का भी उभार हुआ है लेकिन इसी संदर्भ में विश्वयुद्धों के बीच के फ़ासीवादी उभार के समानांतर वैश्विक प्रगतिशील राजनीतिक आंदोलनों की विरासत का महत्व बढ़ जाता है । इन आंदोलनों ने राष्ट्रीय, भाषाई और जातीय विभाजनों के पार कार्यकर्ताओं को एकत्र करने का प्रयास किया था । किताब में वर्तमान का ध्यान रखकर ही कोमिंटर्न में साकार उस अंतर्राष्ट्रीय सहकार का विवेचन किया गया है । इसमें साम्राज्यवाद और नस्लभेद विरोधी तथा राष्ट्रवादी आंदोलनों के साथ कोमिंटर्न के फलप्रद तनावों का विश्लेषण हुआ है । इससे वैश्विक राजनीतिक परियोजना और स्थानीय संदर्भों का टकराव तथा संवाद स्पष्ट होता है । वैसे तो कोई एक किताब उस संगठन का समूचा इतिहास नहीं समेट सकती लेकिन इस किताब में छह अलग अलग देशों की प्रसिद्ध शैक्षिक संस्थाओं में कार्यरत विविध अनुशासनों के विद्वानों ने लेख लिखे हैं इसकी वजह से अन्य इतिहासों में छूट गयी बहुत सी बातों को इसमें उजागर किया गया है ।
कोमिंटर्न के अनेक इतिहास लिखे गये हैं और उनकी बातों को दुहराना इस किताब का उद्देश्य नहीं है । पहले का अधिकतर लेखन इसके सांस्थानिक ढांचे, प्रशासनिक निकायों, वैचारिक मोड़ों तथा सोवियत संघ की विदेश नीति के साथ कोमिंटर्न की रणनीति के रिश्तों को केंद्र में रखकर हुआ है । इस लेखन से कोमिंटर्न का इतिहास जिस तरह उभरता है उसमें कोमिंटर्न अपने शुरुआती दिनों में विश्व क्रांति का केंद्र नजर आता है, फिर संयुक्त मोर्चे की नीति अपनायी जाती है लेकिन आखिरकार वह अधिकाधिक नौकरशाहाना केंद्रीकरण की ओर बढ़ता चला जाता है । इसके बाद वह रूसी शासन की विदेश नीति के मातहत आ जाता है और भंग कर दिया जाता है । यह पूरा वृत्तांत सही होने के बावजूद दक्षिणी गोलार्ध की नजर से देखने पर लगता है कि व्यापक सामाजिक वर्गों को एक साथ लानेवाली संयुक्त मोर्चे की नीति तीसरे दौर में भी जारी रही । मतलब कि दूसरे परिप्रेक्ष्य से देखने पर कोमिंटर्न का इतिहास उसके आधिकारिक रूप से तैयार इतिहास से अलग भी हो सकता है । असल में यह मान लिया जाता है कि कोमिंटर्न से जुड़े संगठन ऊपर से जारी सभी निर्देशों का अक्षरश: पालन करते थे जबकि सच यह है कि दक्षिणी गोलार्ध के कम्युनिस्ट अक्सर कोमिंटर्न के निर्देशों की उपेक्षा कर देते थे या बताये गये तरीके से अलग तरह से उसे लागू करते थे ।
कोमिंटर्न के इतिहास लेखन में इस विवाद का कोई समाधान नहीं हो सका है कि स्थानीय घटक ऊपर के निर्देशों के अनुरूप चलते थे या स्थानीय परिस्थितियों और संदर्भों के मुताबिक उन्हें ढालते या एकदम उलट देते थे । दक्षिणी गोलार्ध की नजर से कोमिंटर्न को देखने के लिए इस तनाव को मोलतोल के नजरिये से ही समझना होगा । कभी कभी स्थानीय घटक रूसी नेतृत्व से प्रभावित होते थे और कभी वे केंद्रीय नेतृत्व को अपने मुताबिक नीति निर्माण हेतु प्रभावित भी कर लेते थे । कोमिंटर्न के बारे में जो भी आरम्भिक इतिहास लेखन हुआ उसमें कोमिंटर्न की गतिविधियों का केंद्र पश्चिमी यूरोप और चीन नजर आते हैं । 1990 में अभिलेखागार के सुलभ होने के बाद जो लेखन हुआ उसमें कोमिंटर्न की संरचना और गतिविधियों की नयी जानकारी तो मिली लेकिन भूभाग वही रहा । इस किताब में उत्तर औपनिवेशिक नजरिये का असर है और कम्युनिस्ट आंदोलन की वैश्विकता संबंधी हालिया शोधों से मदद ली गयी है । दक्षिण एशिया पर केंद्रित अध्ययनों के हालिया उभार का भी इस किताब पर अच्छा खासा प्रभाव पड़ा है । इस नये उभार से वैश्विक राजनीतिक आंदोलनों के इतिहास में यूरोप केंद्रीयता को चुनौती मिली है इनकी जटिलता को समझने में मदद मिली है । इस नये दृष्टिकोण से कम्युनिस्ट अंतर्राष्ट्रवाद की भौतिक और वैचारिक विविधता को ग्रहण करने में आसानी हुई है । इससे उन तमाम किस्म के सामाजिक और राजनीतिक व्यवहार को भी अच्छी तरह से विवेचित करना सम्भव हुआ है जिनसे मिलकर ही कोमिंटर्न ठोस जमीन पर नजर आता था ।
बात केवल इतनी नहीं है कि इससे कोमिंटर्न के इतिहास का भौगोलिक विस्तार होगा बल्कि इससे पता चलेगा कि बीसवीं सदी की अनुपनिवेशन की प्रक्रिया, उत्तर औपनिवेशिक राज्यों के गठन और वर्तमान सामाजिक आंदोलनों को आकार देने वाले कौन से नेटवर्क और राजनीतिक संगठन सक्रिय थे । इस मामले में कोमिंटर्न ने दक्षिणी गोलार्ध के राजनीतिक संगठनों पर दो तरह के दीर्घजीवी प्रभाव डाले । पहला कि उसने जातीय, भाषाई या सांस्कृतिक सीमाओं के ऊपर नये तरह की राजनीतिक कल्पना की प्रेरणा प्रदान की जिसमें अर्थतंत्र की समानता का महत्व था । दूसरा कि इसने उपनिवेशवाद विरोधी सम्पर्कों का अंतर्राष्ट्रीय संजाल मुहैया कराया जिसके चलते दुनिया भर के उपनिवेशवाद विरोधी कार्यकर्ताओं का लम्बे समय तक चलने वाला आपसी रिश्ता बना । इस तरह प्रस्तुत किताब में कोमिंटर्न को बीसवीं सदी के उपनिवेशवाद विरोधी विद्रोहों के बहुकेंद्री विश्व इतिहास का ऐसा अंग माना गया है जिसका प्रभाव आज तक के राजनीतिक माहौल पर बना हुआ है ।
दक्षिणी गोलार्ध के राजनीतिक आंदोलनों में कोमिंटर्न का सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक योगदान था कि उसने राष्ट्रवादी, उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों को अंतर्राष्ट्रीय वर्ग आधारित संघर्षों के साथ जोड़ने की कोशिश की । लेनिन और मानवेंद्र नाथ राय के बीच बहस इसी प्रसंग में दूसरी कांग्रेस में हुई । कोमिंटर्न की गतिविधियों को इस क्षेत्र में आगे ले जाने में इस बहस का भारी योगदान है । मार्क्स और एंगेल्स ने राष्ट्रवाद के मुद्दे पर शुरू में बहुत ध्यान नहीं दिया था । विश्व इतिहास की चालक शक्ति उन्होंने वर्ग संघर्ष को माना था । राष्ट्रवाद को उन्होंने ऐसी प्रतिक्रियावादी विचारधारा ही माना जो कुलीन सत्ता को कायम रखने के लिए मजदूरों को लपेट लेती है । बाद में आयरलैंड के सवाल पर उन्होंने अपने रुख को बदला और इंग्लैंड के मजदूर संघर्ष को आयरलैंड के मुक्ति संघर्ष का समर्थन करने की सलाह दी । आयरलैंड संबंधी उनकी सोच समाजवादी क्रांतिकारी रणनीति के लिए नयी बात थी । इसमें पूंजीवादी प्रभुत्व के लिए औपनिवेशिक शोषण की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गयी थी और इसलिए राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के समर्थन का नया रुख अपनाया गया था । बाद में लेनिन ने इस रुख की राजनीतिक सम्भावना को पूर्णता प्रदान की ।
उन्नीसवीं सदी के अंत में राष्ट्रवाद का सवाल फिर से उभरा जब हैब्सबुर्ग साम्राज्य का सामाजिक ताना बाना शहरी प्रवास और तीव्र उद्योगीकरण के कारण बदलने लगा । अचानक मजदूर वर्ग की राजनीति में जातीयता, भाषा और राष्ट्र का सवाल केंद्र में आ गया । ट्रेड यूनियनों और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में बड़े पैमाने पर शामिल होने वाले चेक मजदूर दोहरे शोषण की शिकायत करने लगे और पार्टी के भीतर अपनी जातीयता की औपचारिक मान्यता की अपेक्षा भी करने लगे । न केवल हैब्सबुर्ग बल्कि विशाल भूभाग में फैले रूसी और आटोमन साम्राज्य में भी इसी तरह की समस्याएं नजर आने लगीं । जब यहूदियों के प्रति नफ़रत का माहौल पूर्वी यूरोप में बना तो यहूदी मजदूरों ने अपने स्वतंत्र संगठन बनाये । रूस में लेनिन एक ओर तो केंद्रीकृत पार्टी ढांचे के हिमायती थे लेकिन जातियों के आत्म निर्णय के अधिकार की भी वकालत करते थे । इससे पार्टी के केंद्रीय नियंत्रण के साथ ही रूसी साम्राज्य से लड़ने वाले विविध जातीय संगठनों को भी एक साथ रखने में बड़ी सहूलियत होती थी ।
राष्ट्रीयता के बारे में बोल्शेविकों की यह मान्यता आस्ट्रियाई समाजवादी पार्टी से पूरी तरह अलग थी । ओट्टो बावेर ने बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में इस सवाल पर एक पर्चा लिखा जिसमें उन्होंने किसी भी राष्ट्र को कोई एकसम समुदाय मानने से इनकार कर दिया । उनका मानना था कि राष्ट्र ऐसी विचारधारात्मक निर्मिति है जो बुर्जुआ आर्थिक हितों पर परदा डालने के काम आती है । वे राष्ट्र को सर्वदा परिवर्तनशील ऐतिहासिक परिघटना भी कहते थे जिसमें भाषा और भूभाग तात्कालिक तो होते हैं लेकिन बुनियादी घटक तत्व नहीं होते । एंगेल्स के विपरीत वे कहते थे कि पूंजीवाद और आधुनिकता ने राष्ट्रवाद की ताकत को कमजोर नहीं किया है बल्कि भिन्नता, विषमता और भेदभाव के प्रति लोग पहले से अधिक सचेत हो गये हैं । समाजवाद के तहत राष्ट्रीय भिन्नता को मान्यता उसका बहुत ही बुनियादी नियम होगा । वह अन्य राजनीतिक शासनों के मुकाबले अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के प्रति समाजवादी निष्ठा के बल पर राष्ट्रीय तनावों को कम करेगा । बावेर ने कहा कि समाजवादी समाज में वर्गीय और राष्ट्रीय शोषण की समाप्ति के बाद ही जातियों का समंजस सहअस्तित्व सम्भव है । इस तरह वे समाजवादी पार्टी की सांगठनिक केंद्रीयता और जातियों के आत्मनिर्णय के सिद्धांत को खारिज कर देते थे ।
इसके कारण बोल्शेविकों को इस सवाल पर अपनी नीतियों को और भी स्पष्ट करना पड़ा । लेनिन ने स्तालिन को यह काम सौंपा । स्तालिन ने जाति को समान भाषा, अर्थतंत्र, संस्कृति और भूभाग पर आधारित ऐतिहासिक समुदाय के बतौर परिभाषित किया । इसी आधार पर उनका मानना था कि यहूदी लोग जिस भी भूभाग में रहते हैं उसके राष्ट्र के साथ मिल जायेंगे । त्रात्सकी का कहना था कि लेनिन भी इन विचारों से सहमत थे लेकिन ऐसा लगता है कि वे इस सवाल को राजनीतिक रणनीति का अंग मानते थे । वे राष्ट्र को पूंजीवाद द्वारा उत्पादित तात्कालिक परिघटना मानते थे । साम्राज्यों और उपनिवेशों में वे इसकी साम्राज्यवाद विरोधी राजनीतिक सम्भावना को समझते थे । अक्टूबर क्रांति के बाद स्थापित क्रांतिकारी शासन की नीति को तय करने में इस बहस की केंद्रीय भूमिका रही । आत्मनिर्णय के अधिकार का जिस तरह बोल्शेविकों ने तमाम मामलों में सम्मान किया उसके कारण रूसी साम्राज्य से पीड़ित जातियों के साथ ही पश्चिमी यूरोपीय देशों के उपनिवेशों में भी उनकी लोकप्रियता में बड़ी भारी बढ़ोत्तरी हुई ।
बहरहाल मार्क्स और एंगेल्स की तरह ही लेनिन भी मानते थे कि मजदूरों के हितों का बेहतर प्रतिनिधित्व बड़ी राजनीतिक इकाइयों में होता है और उत्पादन के साधनों के विकास के साथ छोटी राष्ट्रीय अस्मिताओं का वृहत्तर इकाइयों में समेकन होता जायेगा । उनके मुताबिक राजनीतिक टकराव का सली स्रोत सामाजिक वर्ग होते हैं । राष्ट्रीय पहचानों की क्रांतिकारी भूमिका को समझते हुए भी वे उन्हें अस्थायी मानते थे । रूसी गृहयुद्ध की नियति को आत्मनिर्णय के अधिकार ने तय कर दिया । लेकिन इस अधिकार को लागू करना भी जटिल और खतरनाक साबित हुआ । यदि राष्ट्रीय आधार पर विभाजन हो गया तो नव स्थापित शासन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बेहद कमजोर हो जायेगा इसलिए आत्मनिर्णय की वैधता अस्पष्ट ही रही । व्यवहार में सर्वहारा और पार्टी ही इस वैधता के अंतिम निर्णायक माने गये । अलगाव के अधिकार को तो वैसे भी अपवादस्वरूप ही लागू होना था ।
स्तालिन ने अपने लेखन में कहा कि रूसी क्रांति का प्राथमिक ऐतिहासिक महत्व पश्चिमी मजदूर वर्ग के संघर्ष को पूरब के उत्पीड़ित जनगण के साथ साझा दुश्मन साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में एकताबद्ध कर देने में निहित था । कोमिंटर्न की 1919 की पहली कांग्रेस के त्रात्सकी द्वारा लिखित घोषणापत्र में यूरोप के सामाजिक संघर्षों के साथ एशिया और अफ़्रीका के संघर्षों का सीधा रिश्ता स्थापित किया गया था । यूरोप में सर्वहारा शासन का परिणाम उपनिवेशों की मुक्ति समझाया गया था । दोनों के संघर्षों में इस गहरे जुड़ाव के बावजूद क्रांति की शुरुआत यूरोप से ही कल्पित हुई थी जिसे फिर उपनिवेशों में भी फैलना था । इसी माहौल में दूसरी कांग्रेस हुई जिसमें उपनिवेशों के सवाल पर बहस हुई और बाद में इसके लिए बाकू कांग्रेस हुई जिसमें एशियाई क्रांतिकारी आंदोलनों में रिश्ता स्थापित किया गया । दूसरी कांग्रेस में औपनिवेशिक और राष्ट्रीय प्रश्न पर लेनिन की थीसिस पर बहस हुई । बहस में दो बुनियादी सवाल उभरकर आये । एक, विश्व कम्युनिस्ट क्रांति की रणनीति में उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों की भूमिका और दूसरा, बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में संचालित इन मुक्ति आंदोलनों के साथ रिश्ता । लेनिन ने अपनी थीसिस में इन मुक्ति आंदोलनों के प्रसंग में नस्ल का सवाल भी उठाया था ।
लेनिन की थीसिस का विरोध करते हुए एम एन राय ने कहा कि साम्राज्यवादी देशों का पूंजीवाद उपनिवेशों से हासिल मुनाफ़े के बल पर कायम है । उनका कहना था कि पश्चिमी देशों में पूंजीवाद के खात्मे के लिए उपनिवेशों में क्रांति आवश्यक है । इस तरह उन्होंने यूरोपीय औद्योगिक सर्वहारा की प्राथमिकता पर सवाल तो खड़ा ही किया, लेनिन की इस थीसिस को भी उलट दिया कि उपनिवेशों की मुक्ति के लिए पश्चिमी देशों में क्रांति जरूरी है । एम एन राय ने पूंजीवाद विरोधी विश्व क्रांति की धुरी औपनिवेशिक देशों के मुक्ति आंदोलनों को बना दिया । उन्होंने विकास के गैर पूंजीवादी रास्ते की भी वकालत की । वे यह कहते थे कि जिन देशों में संपत्ति अब भी सामुदायिक है और पूंजीवादी उत्पादन का प्रभुत्व नहीं है वहां समाजवादी समाज का विकास तेजी से होगा । बाद में पेरू के जोसे कार्लोस मारियातेगुई पर उनके विचारों का प्रभाव पड़ा जिन्होंने लैटिन अमेरिका की क्रांतिकारी रणनीति बनाने हेतु सामाजिक और सांस्कृतिक विश्लेषण पर जोर दिया और इस मामले में ग्राम्शी की मान्यताओं के करीब पहुंचे ।
एम एन राय की मान्यता कि औद्योगिक देशों की क्रांति के लिए खेतिहर उपनिवेशों की क्रांति जरूरी है उन लोगों को नहीं रुची जो यूरोप केंद्रित नजरिये के हामी थे । लेनिन ने भी क्रांति का हिरावल दस्ता औद्योगिक सर्वहारा को ही माना लेकिन संश्रय के सवाल पर राय के साथ समझौता किया । उन्होंने कहा कि अल्प विकसित देशों में कम्युनिस्टों को साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवादी आंदोलनों का साथ देना होगा भले ही इन आंदोलनों का नेतृत्व बुर्जुआ वर्ग के हाथ में हो । राय का कहना था कि इन आंदोलनों पर मुट्ठी भर कुलीनों का दबदबा है । मेक्सिको और भारत के अनुभव के आधार पर उनका मानना था कि कोमिंटर्न को उपनिवेशों में वर्ग संघर्ष पर ध्यान देना चाहिए । उसे बुर्जुआ लोकतांत्रिक क्रांति का समर्थन केवल तभी करना चाहिए जब उसके साथ भूमि सुधार जैसे वर्गीय सवाल भी जुड़े हों । वे मजदूरों-किसानों का संश्रय कायम करने तथा खेती की जमीन के राष्ट्रीकरण के मुकाबले उसके पुनर्वितरण के पक्ष में थे ।
लेनिन ने उनसे आपसी सहमति पर आधारित थीसिस तैयार करने का अनुरोध किया जिसे पूर्ण बैठक में पारित किया गया । उन्होंने समझ लिया था कि राय द्वारा ग्रामीण मजदूरों हेतु प्रस्तावित राजनीति की समानता बोल्शेविकों के 1917 की कार्यनीति से है । राय की थीसिस में विश्व क्रांति का दक्षिण गोलार्धी परिप्रेक्ष्य नजर आता है । उनके मुताबिक पूंजीवादी देश अपनी स्थिति को मजबूत रखने के लिए उपनिवेशों के मानव और प्राकृतिक संसाधनों का भारी दोहन करते हैं । इस दोहन के बल पर वे यूरोप के कुलीन श्रमिकों को ढेरों रियायतें प्रदान करते हैं । दूसरे इंटरनेशनल ने औपनिवेशि सवाल की उपेक्षा की थी । उन्होंने यूरोप के क्रांतिकारी आंदोलन के साथ दुनिया के अन्य हिस्सों को जोड़ने की जरूरत नहीं समझी थी । उपनिवेशों के क्रांतिकारी आंदोलनों का समर्थन करने की जगह दूसरे इंटरनेशनल के नेता खुद साम्राज्यवादियों के साथ खड़े हो गये ।
एम एन राय के इस मंतव्य से स्पष्ट है कि वे औपनिवेशिक शोषण के प्रति पश्चिमी देशों में मौजूद आंख मूंद लेने के नजरिये की घनघोर आलोचना करते थे । कोमिंटर्न के भीतर भी औपनिवेशिक देशों के राजनीतिक आंदोलनों के प्रति रुख के सवाल पर तनाव दिखायी देता है । इसका समाधान पश्चिम के औद्योगिक मजदूर वर्ग और पूरब के किसानों के बीच संश्रय की वकालत करके निकाला गया । एम एन राय ने अपने संस्मरणों में लेनिन के साथ इस बहस का उल्लेख किया है । लेनिन का व्यवहार उनके प्रति दोस्ताना था लेकिन एम एन राय से आखिरकार वे सत्रह साल बड़े थे । राय का कहना है कि कोमिंटर्न के यूरोपीय नेतागण औपनिवेशिक देशों की सत्ता की गतिकी के बारे में सतही जानकारी रखते थे । वे नहीं समझ पाते थे कि पूंजीवाद को प्रोत्साहित करने वाले ही सामंती सामाजिक संबंधों का लाभ उठाते हैं । मतलब कि सामंती, पूंजीवादी और समाजवादी उत्पादन संबंधों का जो क्रम उत्तरी यूरोप के इतिहास के आधार पर बनाया गया है वह औपनिवेशिक संदर्भ में सही नहीं साबित होता । इन देशों में पूंजीवादी विकास के साथ ही सामंती संबंध भी मजबूत होते हैं इसलिए इन देशों में स्थानीय कुलीनों के साथ सहकार की नीति का अर्थ अपने उत्पीड़कों का सहयोग करना होगा । थीसिस के अंतिम मसौदे में समझौते के बतौर उन्हीं राष्ट्रवादी पार्टियों के साथ कम्युनिस्टों के सहयोग की बात की गयी जो क्रांतिकारी होंगी और इसलिए कम्युनिस्टों की गतिविधियों पर कोई रोक नहीं लगायेंगी । लेनिन और एम एन राय के बीच की यह बहस गांधी के बारे में उनके अलग अलग मूल्यांकन से उपजी थी । लेनिन उनके आंदोलन को प्रगतिशील राष्ट्रवादी आंदोलन समझते थे जबकि एम एन राय उसे प्रति क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन मानते थे ।
कोमिंटर्न के नेताओं को अंदाजा था कि जिन पश्चिमी देशों के कब्जे में उपनिवेश हैं वहां उपनिवेशित जनता के साथ राजनीतिक एकजुटता के कार्यक्रम को लागू करना मुश्किल होगा । इसीलिए उन्होंने संबद्धता की शर्तों में सुसंगत साम्राज्यवाद विरोध को भी एक शर्त के रूप में आठवीं जगह शामिल किया था । औपनिवेशिक देशों की पार्टियों से न केवल वचन बल्कि कर्म में भी उपनिवेशों के मुक्ति आंदोलनों का समर्थन करने की शर्त रखी गयी थी । उन्हें अपने देश के मजदूरों के बीच उपनिवेशों के कामगारों के प्रति भाईचारा विकसित करने और सैनिकों के बीच उपनिवेशों के दमन के विरुद्ध प्रचार चलाने की सलाह दी गयी थी । पश्चिमी देशों के मजदूरों को उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों का समर्थन करने के निर्देश के अतिरिक्त भी कोमिंटर्न की विश्व क्रांति की परियोजना और विभिन्न देशों के आत्मनिर्णय की आकांक्षा के बीच तनाव बना रहा । यह तनाव 1920 की बाकू कांग्रेस में पूरी तरह से व्यक्त हुआ । पूरब की जनता की यह कांग्रेस अजरबैजान की राजधानी में संपन्न हुई ।
पुराने रूसी साम्राज्य के मुस्लिम बोल्शेविक उसूलों से लेकर धार्मिकता तक के विश्वासी थे और मानते थे कि उनकी नियति रूसी लोगों से भिन्न है । कोमिंटर्न ने एशिया के सभी लोगों से बाकू कांग्रेस में भाग लेने की अपील की । इस कांग्रेस ने नवोदित सोवियत शासन के लिए मुस्लिम समुदाय का समर्थन जुटाने का वैचारिक लक्ष्य अपने सामने रखा । जोर यह दिखाने पर भी था कि पश्चिमी उपनिवेशों की परिधि से भी सोवियत शासन के लिए समर्थन मिल सकता है । अजरबैजान में सोवियत समाजवादी शासन की स्थापना से पहले बाकू पर तुर्क और अंग्रेजी सेना का कब्जा रहा था । तुर्की में कमाल पाशा अपना शासन मजबूत करने का प्रयास कर ही रहे थे । ऐसे हालात में इस कांग्रेस के जरिये अंग्रेजों के विरोधी और बोल्शेविकों के पक्षधर सभी लोगों को गोलबंद करने की कोशिश की गयी । दूर दराज के गांवों से भी कांग्रेस में जाने के लिए प्रतिनिधियों के लिए चुनाव का अभियान चलाया गया ।
इसमें लगभग दो हजार प्रतिनिधियों ने भाग लिया जिनमें आधे कम्युनिस्ट थे, चौथाई किसी भी राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़े थे और कुछ बुर्जुआ समुदाय से भी थे । कम्युनिस्टों में अलग अलग गुटों से संबद्ध लोग थे । इनके भीतर ऐसे लोग भी थे जो अजाबैजान के तेल उद्योग में काम करने बाहर से आये थे और यहां रहकर राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे । कांग्रेस में आपसी टकरावों पर भी चर्चा हुई । रूसी कम्युनिस्टों के भीतर की उस साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के बारे में नेतृत्व सचेत था जिसके कारण नवोदित शासन को मुस्लिम समुदाय का पर्याप्त समर्थन नहीं मिल पा रहा था । इसलिए प्रशासन और पार्टी में पूरब के सभी समुदायों को शामिल करने पर जोर अतिरिक्त रूप से दिया जा रहा था । कोशिश यह भी थी कि विक्षोभ के कारण जन समुदाय बोल्शेविक पार्टी के बाहर न चला जाये । बाकू कांग्रेस से बोल्शेविकों ने मुस्लिम समुदाय के प्रति अपनी सहानुभूति का संदेश देने में सफलता पायी ।
बाकू कांग्रेस का माहौल बहुजातीय और बहुभाषिक था । रूसी जिनोव्येव, पोलिश रादेक और हंगारियाई बेला कुन के वक्तव्य रूसी में हुए और इनका तुर्क अनुवाद हुआ । ब्रिटेन, बुल्गारिया, फ़्रांस, अमेरिका और आस्ट्रिया के मेहमान अपनी भाषाओं में बोले और उनका रूसी और तुर्क अनुवाद हुआ । साम्राज्यवाद के विरुद्ध छद्म मुकदमा चला जिसके बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और अमेरिका के राष्ट्रपति के पुतले जलाये गये । इसी तरह बाकू कम्यून के पतन के बाद ब्रिटेन द्वारा गिरफ़्तार और मारे गये छब्बीस बोल्शेविक कार्यकर्ताओं को भी सांकेतिक तौर पर दफ़न किया गया । जिनोव्येव ने साम्राज्यवाद विरोध का झंडा बुलंद करते हुए आगामी विश्व क्रांति में अफ़्रीकी और एशियाई किसानों की भूमिका पर बल दिया । उन्होंने लंदन और पेरिस को उनके औपनिवेशिक साम्राज्य के जल्दी ही अंत की चेतावनी दी । उस इलाके के राजनीतिक हालात के बारे में बोलते हुए उन्होंने अतिरिक्त सावधानी बरती । तुर्की की लोकतांत्रिक सरकार के साथ सहयोग का उन्होंने वादा किया । आगामी दिनों में वैश्विक राजनीतिक हालात तथा स्थानीय राजनीति के साथ ही कृषि, राष्ट्रीय और औपनिवेशिक सवालों पर जमकर बहस हुई । जातीय और औपनिवेशिक सवाल पर बहस की शुरुआत मिखाइल पाव्लोविच ने की । उन्होंने सोवियत रूस को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के हमलों का शिकार बताया और पूरब के शोषित समुदाय का मित्र बताते हुए उसके आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक समर्थन का भरोसा दिलाया । इस आश्वासन का प्रत्यक्ष प्रमाण सोवियत रूस द्वारा बहुतेरे मामलों में आत्म निर्णय के अधिकार का सम्मान था । पश्चिम और पूरब की क्रांतियों के बीच घनिष्ठ संबंध की व्याख्या करते हुए पाव्लोविच ने ऐसे यूरोपकेंद्री रुख की आलोचना की जो अफ़्रीका और एशिया के किसानों के शोषण की उपेक्षा करता है । उनके निशाने पर मेंशेविक और समाजवादी क्रांतिकारी थे । उनका कहना था कि अगर मेंशेविक खुद को यूरोपीय कहते हैं तो बोल्शेविकों को एशियाई होने पर गर्व है । सोवियत संघ के समर्थन हेतु उन्होंने पूरबी जनता से कोमिंटर्न के निकट आने की अपील की । इसके बाद बुखारा प्रतिनिधि मंडल के अध्यक्ष ने पूरब को इस्लामी सभ्यता का क्षेत्र बताया । उन्होंने इस विशाल क्षेत्र में कृषि के सवाल को सबसे मुख्य सामाजिक मुद्दा कहा और किसानों की मुक्ति बोल्शेविक रास्ते पर चलने में मानी । तुर्की में कमाल पाशा की क्रांति को आगामी दिनों में सामाजिक क्रांति में बदलने की उम्मीद भी उन्होंने व्यक्त की । फिर एक कजाक खानाबदोश प्रतिनिधि ने चेताया कि कोई भी राष्ट्रीय क्रांति बिना सामाजिक क्रांति के अधूरी ही रह जायेगी । केवल स्वतंत्र राज्य स्वाधीनता की गारंटी नहीं हो सकता । उनके अनुसार सोवियत संघ और पूंजीवादी साम्राज्यवाद के बीच ही चुनाव करना होगा । उनका कहना था कि इस मामले में सोवियत संघ तो मुस्लिम गणराज्यों की स्वायत्तता का सम्मान करके अपनी प्रतिबद्धता साबित कर ही चुका है । तुर्केस्तान के एक प्रतिनिधि ने इस नुक्ते को और बढ़ाते हुए कहा कि पूरब और पश्चिम की दुनिया मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक, समाजार्थिक और धार्मिक तौर पर पूरी तरह अलग हैं । इसके सबूत के बतौर उन्होंने केरेंस्की के युद्ध में विजय के पूंजीवादी नारे के बरक्स बोल्शेविकों द्वारा जातियों को आत्म निर्णय के नारे का उल्लेख भी किया । उनके मुताबिक इसी वजह से मध्य एशिया के मुसलमानों ने धार्मिक प्रतिक्रियावाद और पश्चिमी पूंजीवाद के विरोध में लड़ाई लड़ते हुए बोल्शेविकों का साथ दिया । अब नवोदित सत्ता को स्थानीय धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक माहौल का ध्यान रखकर कुछ खास नीतियों का निर्माण करना होगा । इसके लिए बोल्शेविकों को इस्लाम के साथ भेदभाव का रुख रखने वालों को पार्टी से बाहर ही करना होगा । इसके लिए उन्होंने रूसी और पूरबी मुसलमानों के लिए लेनिन की नवम्बर 1917 की खास अपील की भी याद दिलाई । इस प्रतिनिधि के वक्तव्य का कांग्रेस पर गहरा असर पड़ा और कांग्रेस के बाद की एकाधिक पहलकदमियों में इसकी अनुगूंज भी सुनायी पड़ी ।
बाकू कांग्रेस में पचास स्त्रियों ने भी भाग लिया जो उस समय को देखते हुए बड़ी बात थी । अध्यक्ष मंडल में भी तीन स्त्रियां बैठीं । दो स्त्रियों ने व्याख्यान भी दिया । इससे पूरब की एशियाई दुनिया में स्त्री मुक्ति के मोर्चे पर बोल्शेविक सक्रियता का कुछ अनुमान होता है । एक व्याख्यान में वक्ता ने पूरब के स्त्री मुक्ति आंदोलनों की उपेक्षा की आलोचना की । उन्होंने बुर्के के सवाल को महत्वहीन कहा और युद्ध में स्त्रियों की समस्याओं पर जोर दिया । उन्होंने कहा कि युद्ध में उनके कारण ही समाज का सुचारु संचालन होता रहा फिर भी उन्हें पुरस्कार के रूप में अधीनता और भेदभाव ही मिले । पूरब की स्त्रियों को वर्गीय उत्पीड़न के अतिरिक्त अपने समाज की पितृसत्ता का भी दर्द झेलना पड़ता है । इसलिए केवल सामाजिक क्रांति के सहारे ही उन्हें मुक्ति का सूरज देखना नसीब नहीं होगा । इसके बाद ही उन्होंने सम्मेलन के अनुमोदन हेतु कुछ मुद्दे पेश किये । स्त्री को पुरुष के समान अधिकार, शिक्षा संस्थानों तक समान पहुंच, विवाह में समान अधिकार और बहुपत्नी प्रथा का उन्मूलन, सार्वजनिक प्रशासन में स्त्रियों को रोजगार तथा शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में उनके अधिकारों की गारंटी के लिए विशेष कमेटियां उनकी कुछ मांगें थीं । उन्होंने कहा कि समान अधिकार की बात करके कम्युनिस्ट हमारे पास आये हैं तो बदले में हम उनकी सर्वाधिक प्रतिबद्ध सहयोगी बनेंगी । कोमिंटर्न की 1921 की तीसरी कांग्रेस में क्लारा जेटकिन ने भी इन सवालों को उठाया । बहुसंख्यक पुरुष श्रोताओं से उन्होंने सार्वभौमिक मुक्ति हेतु स्त्री मुक्ति पर विशेष ध्यान देने का आग्रह भी किया ।
बाकू कांग्रेस में नस्ल का सवाल सीधे तो नहीं उठा लेकिन लेकिन नस्ली विषमता से कम्युनिस्टों का साबका पड़ना शुरू हो गया । जान रीड ने जिस तरह पूरब के लोगों के संघर्ष और अटलांटिक के दोनों ओर के अश्वेत तथा मेक्सिको के श्रमिक संघर्ष के बीच सांकेतिक ही सही एकता की बात की उससे पता चलता है कि बाकू कांग्रेस ने इस दिशा में कम्युनिस्टों को सचेत किया । कांग्रेस से पश्चिमी दुनिया के प्रतिनिधि तमाम मनुष्यों की विविधता का अहसास लेकर वापस आये थे । इसमें उन्हें स्त्री प्रश्न का भी सामना करना पड़ा था । इस सवाल का पूरबी संदर्भ पश्चिमी नारीवादी आंदोलनों से पूरी तरह अलग था ।
इस कांग्रेस के महत्व के बारे में तत्कालीन और ऐतिहासिक मूल्यांकन बहुविध रहे हैं इसलिए इसके असरात पर एक नजर डालना भी बहुत जरूरी हो गया है । कोमिंटर्न की जिस विशेष समिति ने इसके आयोजन का प्रस्ताव किया था उसने ही मध्य एशियाई ब्यूरो के गठन का भी प्रस्ताव रखा था । मानवेंद्र नाथ राय इस ब्यूरो में न केवल सक्रिय रहे बल्कि मध्य एशिया और अफ़गानिस्तान के रास्ते भारत की मुक्ति के लिए क्रांति के अवसर के रूप में भी इसे देखा । भारत की आजादी के अपने प्रधान सरोकार के कारण ही उन्होंने बाकू में ऊर्जा के निवेश से असहमति भी जतायी क्योंकि इसमें मुस्लिम समुदाय को रूसी क्रांति के समर्थन में लाने का संकीर्ण उद्देश्य ही उन्हें नजर आया था । वे कोमिंटर्न के साधनों को भारत की आजादी के लिए ही निवेशित करना सही समझते थे । बाकू कांग्रेस को वे जिनोव्येव की निजी पहल के रूप में पेश करते हैं । इसी तरह एच जी वेल्स ने इस कांग्रेस के भागीदारों की जातीय विविधता की तो प्रशंसा की लेकिन इसके भीतर पश्चिमी और पूरबी नजरिये के आपसी तनाव का भी उल्लेख किया । टाइम्स नामक इंग्लैंड के अखबार में कांग्रेस के भागीदारों और बोल्शेविकों की खिल्ली उड़ाते हुए खबर छपी थी । उसमें जिनोव्येव और बेला कुन के यहूदी होने का खास उल्लेख था और उन्हें मुसलमानों को जेहाद के लिए उकसाने का दोषी भी बताया गया था । इसे ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की गम्भीर साजिश के बतौर भी खबरों में पेश किया गया । ब्रिटेन की सरकारी जासूसी संस्था ने कम्युनिस्टों और मुसलमानों की एकता को खतरे के रूप में समझा । यह तो सही है कि कम्युनिस्टों और मुसलमानों के बीच की एकता बहुत सहज नहीं रही लेकिन बाकू ने इस दिशा में ठोस पहल का सबूत पेश किया । इसके आधार पर बोल्शेविक खुद को दुनिया की शोषित और उपनिवेशित जनता के सामने एकमात्र पश्चिमी राजनीतिक ताकत के बतौर प्रस्तुत कर सकते थे जिसने रंग आधारित विश्व विभाजन को पार किया । पश्चिमी साम्राज्यों के समक्ष बोल्शेविक ऐसी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरे जो उपनिवेशित लोगों को गोलबंद कर सकते थे ।
बाकू के एक माह बाद जिनोव्येव जर्मनी की एक पार्टी की कांग्रेस में शरीक हुए जो कोमिंटर्न में शामिल होने के बारे में फैसला करने ही वाली थी । उसमें चार घंटे के अपने व्याख्यान में जिनोव्येव ने शिरकत के पक्ष में तर्क देते हुए एकाधिक प्रसंगों में बाकू का जिक्र किया । उन्होंने बाकू कांग्रेस के जर्मन आलोचकों का उत्तर देते हुए उत्पीड़ित जातीयताओं के आंदोलनों का समर्थन करने की जरूरत पर जोर दिया । इन आंदोलनों को मार्क्सवाद विरोधी मानने की प्रवृत्ति का खंडन करते हुए उन्होंने कहा कि दूसरे इंटरनेशनल के नेतागण गोरे लोगों तक सीमित रह गये थे । उनका कहना था कि कोमिंटर्न ने विश्व क्रांति और पूंजी की जंजीरों से सर्वहारा की मुक्ति के लिए रंगभेद की मुखालफ़त की । उनके अनुसार विश्व क्रांति यूरोप तक ही सीमित नहीं रह सकती उसे एशिया को भी अपने आगोश में लेना होगा । एशिया में यूरोप से चार गुना लोग रहते हैं । वे भी पूंजीवादी शोषण और उत्पीड़न का शिकार हैं । उन्हें भी तो समाजवाद के नजदीक लाना ही होगा ।
बाकू ने बोल्शेविकों और मुस्लिम सामाजिक आंदोलनों के आपसी संवाद का रास्ता साफ किया । इस आधार पर बनी आपसी एकता में बोल्शेविकों की रुचि का कारण साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों के साथ नये सम्पर्क बनाना था ताकि क्रांति की दिशा को पूरब की ओर मोड़ा जा सके । इसका दूसरा कारण सोवियत सत्ता की विदेश नीति थी । देश की सरहदों के आसपास मुस्लिम समुदाय की बसावट थी । नव स्थापित शासन का टकराव ब्रिटिश साम्राज्य के साथ था । ब्रिटेन ने मध्य एशिया में जो नीति अपनायी थी उसके विपरीत रुख से बोल्शेविक सत्ता को मजबूती मिलती । इसके अलावे तुर्की का मसला भी अभी हल नहीं हुआ था । कमाल अता तुर्क की सफलता अभी डावांडोल थी । तुर्की से कमाल अता तुर्क के विरोधी अनवर पाशा भी बाकू कांग्रेस में थे । वे कमाल अता तुर्क के विरोध में सोवियत संघ के समर्थन की उम्मीद से आये थे । उन्होंने कोमिंटर्न के समानांतर मुस्लिम समुदाय का अलग समूह निर्मित करने का भी प्रयास किया बहरहाल जब कमाल अता तुर्क की जीत पक्की हो गयी तो उन्हें तुर्की छोड़ना पड़ा और कुछ ही समय बाद उनका देहांत हो गया ।
लेखकों का कहना है कि मुसलमानों के प्रति सोवियत संघ के रुख में 1920 दशक में बहुत विविधता रही । इसके तहत यदा कदा दमन, समझौते से लेकर शासन में कुछ प्रतिनिधियों को शामिल करने तक तमाम उपाय अपनाये गये । 1921 में नयी आर्थिक नीति के आगमन के बाद माहौल में सुधार आया और स्थानीय समुदायों के साथ शासन का सौमनस्य बेहतर हुआ । कोमिंटर्न ने किसी भी कट्टर धार्मिकता का विरोध करते हुए साम्राज्यवाद विरोधी ताकतों के साथ सहकार का रास्ता पकड़ा । रूस के भीतर राष्ट्रीय धारा के साथ एकीकरण की नीति अपनायी गयी । इस नीति की जड़े समान भाषा और संस्कृति वाले भूभाग के रूप में जातियों की धारणा में निहित थीं । विश्व स्तर पर कोमिंटर्न की नीति जातीय आत्म निर्णय के अधिकार पर आधारित थी जिसका मकसद सांस्कृतिक बहुलता को कायम रखते हुए समाजार्थिक रूपांतरण को हासिल करना था ।
बाकू कांग्रेस की सबसे बड़ी सीख क्रांतिकारी प्रसार में अनुवाद की प्रक्रिया का महत्व बताना थी । मंच से रूसी, तुर्क, अंग्रेजी, फ़्रांसिसी, जर्मन, फ़ारसी, उजबेक, चेचेन, कुमिक और बुल्गारियाई भाषाओं में व्याख्यान हुए जिनका अनुवाद लगातार तुर्क, रूसी और फ़ारसी में होता रहा । सबके समझने के लिए इतना पर्याप्त नहीं था इसलिए छोटे छोटे समूह बनाकर विभिन्न भाषाओं में अनुवाद जारी रहता था । इस प्रक्रिया में मुश्किल भी आयी । जिनोव्येव ने जब साम्राज्यवाद के विरोध में जंग का एलान किया तो उसका अनुवाद जेहाद किया गया लेकिन उसके धार्मिक निहितार्थों से हटाकर उसे पेश किया गया । इसी तरह तुर्की के अनवर पाशा ने अल्लाह और मुहम्मद साहब के साथियों का उल्लेख किया तो उसके रूसी अनुवाद से धार्मिक तत्व को हटा दिया गया और बोल्शेविकों की परिचित शब्दावली का इस्तेमाल किया गया । इसको श्रोताओं ने लक्षित किया और इसके कारण आयोजकों के प्रति थोड़ा संदेह का भी वातावरण बना ।
इन सबके बावजूद बाकू कांग्रेस का संदेश पूरी दुनिया में गूंजा । पेरू के एक दार्शनिक ने लिखा कि पूरब में आजादी की ललक पैदा हो चुकी है और इसको सैनिक रूप से दबाने की यूरोपीय क्षमता में ह्रास हो रहा है । उपनिवेशो के विद्रोह पर काबू पाना उनके लिए अब मुश्किल होता जा रहा है । उन्होंने यह भी कहा कि मानव इतिहास के इस नाजुक दौर में पूरब की कुछ भावना पश्चिम में और उसी तरह पश्चिम की कुछ चेतना पूरब में पहुंच गयी सी लगती है । पूरब की जनता हेतु कोमिंटर्न की परियोजना की गहरी अनुगूंज समूचे लैटिन अमेरिका में सुनायी पड़ी । लेखकों ने दक्षिणी गोलार्ध में राष्ट्रवादी, नस्लभेद तथा साम्राज्यवाद विरोधी उठान के साथ कोमिंटर्न के संवाद का जायजा लेने के लिए लैटिन अमेरिका का खास तौर पर जिक्र किया है ।
शुरू में कोमिंटर्न की रणनीति के केंद्र में लैटिन अमेरिका नहीं था । इसके बावजूद कोमिंटर्न की भावना का इस इलाके में व्यापक और दीर्घकालीन प्रसार हुआ । लैटिन अमेरिका के प्रसंग में मानवेंद्र नाथ राय का जिक्र जरूरी है क्योंकि मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में उन्होंने मदद की थी । बोरोदिन 1919 में कोमिंटर्न के प्रतिनिधि के बतौर मेक्सिको पहुंचे । वहीं उनकी मुलाकात राय से हुई और वे होटल छोड़कर उनके घर आ गये । दोनों की बातचीत से दोनों ही समृद्ध हुए और राष्ट्रवाद की गहरी समझ बनने में मदद मिली । बातचीत का नतीजा निकला कि पार्टी ने कोमिंटर्न के साथ संबद्ध होने का फैसला किया और अपने नाम में समाजवादी की जगह कम्युनिस्ट जोड़ा । बोरोदिन ने उसे लैटिन अमेरिका में कोमिंटर्न का आधिकारिक प्रतिनिधि घोषित किया । कोमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस में मानवेंद्र नाथ राय मेक्सिको के साथ ही भारत का भी प्रतिनिधित्व कर रहे थे । बाद में मेक्सिको का प्रतिनिधित्व फिलिप्स नामक व्यक्ति को सौंपा गया । उनकी लेनिन के साथ एक निजी बैठक भी अलग से हुई जिसमें लेनिन ने पश्चिमी गोलार्ध में मेक्सिको के रणनीतिक महत्व पर बल दिया और पार्टी द्वारा मूलवासियों को कतारों में शरीक करने के प्रयासों की दाद दी ।
कांग्रेस के बाद मानवेंद्र नाथ राय कुछ सालों तक मास्को ही रहे लेकिन फिलिप्स तथा दो अन्य साथियों को मेक्सिको में पार्टी का काम आगे बढ़ाने के लिए भेजा गया । दुर्भाग्य से साल भर के भीतर ही इन सबको पुलिस ने एक कानून के तहत गिरफ़्तार कर लिया जिसमें मेक्सिको की राजनीति में विदेशियों की भागीदारी आपराधिक बनायी गयी थी । फिलिप्स को ग्वाटेमाला भेज दिया गया तथा अन्य साथी भाग निकले । फिलिप्स छद्म नाम से वापस मेक्सिको आये लेकिन फिर भागकर अमेरिका पहुंचे और शिकागो में कम्युनिस्ट पार्टी के कानूनी संगठन में काम करने लगे । उन्होंने वर्कर’स मंथली नामक पत्रिका का सह संपादन भी किया । शिकागो में भी वे अपने छद्म नाम का ही इस्तेमाल करते थे । वे पार्टी के साम्राज्यवाद विरोधी प्रकोष्ठ की भी अगुआई करते रहे । इसके प्रमुख सरोकार प्यूर्टो रिको की स्वाधीनता, क्यूबा में गुआंतानामो नामक समुद्री अड्डे का खात्मा, हैती और डोमिनिकन गणराज्य से अमेरिकी सेना की वापसी, लैटिन अमेरिकी और फिलिपीनी द्वीपों से अमेरिकी प्रभुत्व का अंत तथा चीन की आजादी थे । मेक्सिको के अपने सम्पर्कों के जरिए उन्होंने इस काम को व्यापक आयाम प्रदान किया ।
बहरहाल 1924 के अंत में अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी ने जैक जानस्टोन नामक यूनियन संगठक को मेक्सिको भेजा । उनकी जिम्मेदारी थी कि वे लैटिन अमेरिकी मजदूर आंदोलन को कम्युनिस्टों के प्रभाव से अलग रखने तथा उसे अमेरिकी यूनियन के नियंत्रण में लाने की कोशिशों के विरोध में गोलबंदी शुरू करें । जानस्टोन ने अमेरिका और मेक्सिको की पार्टियों के साझा प्रयास से साम्राज्यवाद विरोधी अमेरिका व्यापी मोर्चा बनाने की सम्भावना तलाशनी शुरू की जो उक्त प्रयास का विकल्प होता । 1925 में मेक्सिको में इस मोर्चे की स्थापना भी हो गयी । समूचे लैटिन अमेरिका में इसकी शाखा खोली जानी थी और अमेरिका के साथ इसके संयोजन का काम फिलिप्स को सचिव के रूप में देखना था । इसका व्यापक असर इस इलाके के साम्राज्यवाद और नस्लभेद विरोधी संगठनों पर रहा । इस मोर्चे के नाम का संक्षेप लाडला था ।
अमेरिकी महाद्वीप में इसकी बारह शाखाओं ने काम करना शुरू किया । इसका मकसद पश्चिमी गोलार्ध के लैटिन अमेरिकी मजदूरों को अमेरिकी मजदूरों के साथ बहुनस्ली गठबंधन में जोड़ना था । इसने शहरी ट्रेड यूनियनों, ग्रामीण संगठनों तथा कला संस्कृति समूहों को दोनों महाद्वीपों में अमेरिकी और यूरोपीय प्रसार तथा महामंदी युगीन उन्मादी राष्ट्रवाद के विरुद्ध एकजुट किया । इसके प्रमुख नेताओं में दोनों जगहों के मजदूरों के साथ लेखक और कलाकार भी थे । स्थापना के दो साल के भीतर ही इसके साथ इकतीस देशों, उपनिवेशों या क्षेत्रों के 174 प्रतिनिधियों ने मिलकर ब्रसेल्स में 1927 के शुरू में आयोजित एक सम्मेलन में साम्राज्यवाद विरोधी लीग का निर्माण किया । सम्मेलन का आयोजन जर्मनी में कम्युनिस्टों ने कोमिंटर्न के वित्तीय सहयोग से किया था और इसमें चीन, भारत और मेक्सिको के संघर्षों पर जोर दिया गया था । वहां दुनिया भर के उपनिवेशवाद विरोधी नेताओं की आपसी मंत्रणा से लाडला के मेक्सिको स्थित सचिवालय को इस लीग का लैटिन अमेरिका के लिए केंद्रीय निकाय बनाया गया ।
इस संगठन को भौगोलिक, राष्ट्रीय और भाषाई विभाजनों को पाटना था इसलिए इसने वैचारिक खुलेपन के साथ तमाम साम्राज्यवाद विरोधी समूहों को अपने साथ जोड़ा । इसके अपने अखबार के मुताबिक इसमें यूनियनें, खेतिहर और मूलवासी संगठन, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद से लड़ने वाले मजदूरों और किसानों की पार्टियों के अतिरिक्त विद्यार्थी, संस्कृति और बौद्धिक समूह तथा कुछ क्रांतिकारी साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाकू दस्ते शामिल थे । कोमिंटर्न की आंशिक वित्तीय सहायता के बावजूद इस संगठन में क्षेत्र विशेष की ठोस परिस्थितियों के मुताबिक वैचारिक लचीलापन बरकरार रखते हुए साम्राज्यवाद विरोध के झंडे तले व्यापक वामपंथी ताकतों को भी शरीक किया गया ताकि इसका स्वरूप जन संगठन जैसा हो सके । सदस्यता के लिए लैटिन अमेरिका में मौजूद कम्युनिस्ट सम्पर्कों पर निर्भरता के बावजूद इसने सचेत रूप से कलाकारों, बुद्धिजीवियों और ट्रेड यूनियनों तथा राष्ट्रवादी संगठनों के गैर कम्युनिस्ट सदस्यों को भी अपने साथ रखा । अंतर्राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद का संतुलन कायम रखने के लिए इसने कहा कि तमाम उपनिवेशित और अर्ध उपनिवेशित जनता की मुक्ति अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आपसी सहकार से ही हासिल की जा सकती है । उपनिवेशों के राष्ट्रवादी संघर्ष में शामिल गैर कम्युनिस्ट तत्वों को आकर्षित करने के लिए आवश्यक वैचारिक लचीलेपन हेतु बहुधा इसे मास्को के दबाव और निर्देश की उपेक्षा भी करनी पड़ती थी । उसका यह रुख कोमिंटर्न की संयुक्त मोर्चा नीति की संगति में था जिसके मुताबिक तमाम समाजवादियों, कम्युनिस्टों, ट्रेड यूनियनों, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं, शांतिवादियों और उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवादियों को एकजुट होकर पहले साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति संपन्न करनी थी । संगठन में शामिल ताकतों के बीच यह सहकार कोमिंटर्न की नीति बदलने के बाद भी चलता रहा था ।
इस संगठन ने सबसे उल्लेखनीय अभियान निकारागुआ में अहस्तक्षेप के मुद्दे पर चलाया । निकारागुआ की क्रांति को आर्थिक मदद देना इस एकजुटता अभियान का उद्देश्य था । वैसे तो 1925 से 1927 तक यह संगठन लगातार बढ़ता रहा था लेकिन 1928 के इस विशेष अभियान ने उसकी बढ़त को बहुत तेज कर दिया । इस अभियान से दक्षिणी गोलार्ध में कोमिंटर्न की पहल के कुछ खास पहलू उजागर होते हैं । इससे पता चलता है कि स्थानीय घटक हमेशा कोमिंटर्न के निर्देशों का ही पालन नहीं करते थे । इससे यह भी पता चलता है कि कोमिंटर्न ने कुछ नयी भौगोलिक कल्पनाओं को भी प्रेरित किया । इस प्रकरण में समान अर्थतंत्र पर आधारित वृहत्तर कैरीबियन की धारणा ऐसी ही थी । इस उदाहरण से अंतर्राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के बीच का तनाव भी स्पष्ट होता है । इस तनाव के कारण कई बार ये संगठन बिखर भी जाते थे । इसके बाद लेखकों ने इस अभियान का वर्णन किया है ।
इस अभियान ने बहुतेरे संघर्षों को एक साथ गूंथ दिया । इसके लिए संगठन ने जो प्रतीक चिन्ह बनाया उसमें हंसिया, हथौड़े के साथ कलम भी रखा गया । इसका तात्पर्य तरह तरह के समूहों की एकता था । अभियान की शुरुआत कोमिंटर्न की छठवीं कांग्रेस, जिसमें संयुक्त मोर्चे की रणनीति में बदलाव हुआ, से पहले हुई और कांग्रेस के बाद भी अभियान ने अपनी दिशा नहीं बदली । उसमें पहले की तरह ही खुलापन बना रहा । अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में बहुरंगी एकजुटता का प्रतीक निकारागुआ के समर्थन का यह संयुक्त अभियान बन गया । उसके जरिए हमारे सामने कोमिंटर्न से जुड़े यूरोपेतर देशों के संगठनों के इतिहास का नया ही परिप्रेक्ष्य खुलता है । केंद्र के निर्देश पर परिधि के नियंत्रण की सर्वमान्य धारणा के सहारे इसको समझना बेहद मुश्किल है । इस अभियान में साम्राज्यवाद विरोध के साथ स्थानीय सरकारों के विरोध को भी शामिल कर लिया गया था । इस सिलसिले में सैद्धांतिक स्तर पर यह समझ बनी थी कि साम्राज्यवादी देशों ने अर्ध औपनिवेशिक व्यवस्था कायम कर ली है जिसके तहत अधीनस्थ देश अपनी राजनीतिक स्वाधीनता और संप्रभुता का मुखौटा बनाए रखते हैं लेकिन आर्थिक रूप से अमीर देशों पर पूरी तरह से निर्भर हो जाते हैं । उपनिवेशित देश में जहां उपनिवेशक देश का आर्थिक हस्तक्षेप संपूर्ण होता है वहीं अर्ध उपनिवेश में विभिन्न साम्राज्यवादी देशों का समवेत आर्थिक दखल होता है । स्पेन से आजादी के बाद लैटिन अमेरिका ब्रिटिश पूंजी के मातहत आ गया जिसने खदानों और परिवहन पर दबदबा बनाने के साथ ही मुट्ठी भर परजीवी पूंजीपतियों को विकसित किया और तानाशाह शासकों को स्थायित्व भी प्रदान किया । बाद में बीसवीं सदी के शुरुआती चतुर्थांश में लैटिन अमेरिका के बाजार पर प्रभुत्व को लेकर ब्रिटिश और अमेरिकी पूंजी के बीच जोरदार संघर्ष हुआ जिसमें अमेरिका को जीत मिली । लैटिन अमेरिका में अमेरिकी प्रसार का कारण सस्ते प्राकृतिक और मानव संसाधन को चिन्हित किया गया । माना गया कि अर्ध औपनिवेशिक देशों के शासक वर्ग अपनी राजनीतिक सत्ता को बनाए रखने के लिए आर्थिक सत्ता को भी समर्पित कर देते हैं । इसी वजह से इन देशों में साम्राज्यवादी हितों की सेवा हेतु तानाशाह शासकों का उभार होता है । इसलिए तानाशाही के विरुद्ध किसी भी राष्ट्रवादी संघर्ष का समाजार्थिक आधार होना चाहिए और उसे मजदूर अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष से जुड़ा होना चाहिए ।
इस सूत्रीकरण के जरिए लैटिन अमेरिकी संघर्षों को राष्ट्रवादी और अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य प्रदान किया गया । लैटिन अमेरिका की लगभग सभी सरकारों को अमेरिका का पिट्ठू मानकर साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को साथ ही राष्ट्रीय मुक्ति का भी संघर्ष स्वीकार किया गया । इसी समझ के आधार पर लैटिन अमेरिका के सभी कार्यकर्ताओं ने निकारागुआ का समर्थन किया । हैती के लोगों ने अमेरिकी कब्जे के चलते निकारागुआ की मुक्ति को अपनी ही लड़ाई माना । वेनेजुएला के कार्यकर्ताओं को भी अमेरिकी तेल कंपनियों का मुकाबला करने के लिए निकारागुआ से प्रेरणा लेने की सलाह दी गयी । निकारागुआ को समूचे लैटिन अमेरिका की संप्रभुता का रक्षक माना गया । इस अभियान से वृहत्तर कैरीबिया की धारणा का उदय हुआ जिसमें मध्य अमेरिका के साथ ही कैरीबिया के तटवर्ती देश भी निकारागुआ के साथ खड़े हुए । मार्च 1929 में मेक्सिको में निकारागुआ से एकजुटता जाहिर करने के लिए मेक्सिको में एक सम्मेलन के आयोजन का भी फैसला हुआ जिसमें कैरीबिया में साम्राज्यवादी व्यवहार के बारे में बहस होनी थी । इसमें मध्य अमेरिका, मेक्सिको, कोलंबिया और वेनेजुएला समेत कैरीबियाई द्वीप समूह के द्वीपों से भी प्रतिनिधि आमंत्रित किये जाने थे । सम्मेलन में निकारागुआ पर बहस के बाद कैरीबियाई क्षेत्र में साम्राज्यवाद की मौजूदगी पर बातचीत के बाद लैटिन अमेरिका के शेष देशों में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की चर्चा होनी थी । इसके लिए नेताओं ने पनामा, कोस्टा रिका, होंडुरास, ग्वाटेमाला और अल सल्वाडोर की यात्रा करके प्रतिनिधि भेजने की गुजारिश की । इस तरह निकारागुआ को समूचे लैटिन अमेरिका की साम्राज्यवाद विरोधी एकता के लिए इस्तेमाल किया गया ।
इस क्षेत्र के भीतर की शासकीय परिघटना को समझने के लिए क्षेत्रीय फ़ासीवाद की धारणा विकसित की गयी । ऐसा माना गया कि फ़ासीवाद की यूरोपीय परिघटना को इस क्षेत्र के लिए औपनिवेशिक हालात के हिसाब से अनुकूलित किया गया है । क्यूबा के उस समय के राष्ट्रपति को क्षेत्रीय मुसोलिनी के बतौर चिन्हित किया गया जो आरम्भिक पूंजीवाद के तानाशाही तरीकों से स्थायित्व प्राप्त करना चाहते हैं, एक पार्टी के हाथों में समूची सत्ता केंद्रित किये हुए हैं, पुलिस दमन, हिंसा और वामपंथी समूहों पर प्रतिबंध का सहारा ले रहे हैं । यूरोपीय फ़ासीवाद की स्वतंत्र अर्थव्यवस्था के मुकाबले इस इलाके का फ़ासीवाद साम्राज्यवादी प्रभुओं की सेवा में लगा हुआ है । ये शासक संरक्षणात्मक और मजदूर समर्थक लफ़्फ़ाजी के साथ ही अमेरिकी कंपनियों के जरिए गन्ने की फसल उपजाने के लिए प्रवासी मजदूरों को लाते हैं और स्थानीय मजदूरों को बदनाम करते हैं । इस तरह साम्राज्यवादी शोषण, तानाशाही शासन और नस्ली हिंसा के आपसी जुड़ाव को स्पष्ट किया गया । इन्हीं प्रयासों की वजह से कोमिंटर्न ने कैरीबिया के लिए स्वतंत्र ब्यूरो की स्थापना की ।
इस अभियान में साम्राज्यवाद विरोधी अंतर्राष्ट्रवाद, नस्लभेद विरोध और स्थानीय फ़ासीवादी तानाशाह शासन के विरोध में संचालित राष्ट्रवादी आंदोलनों को एक साथ गूंथ दिया गया था इसलिए निकारागुआ के योद्धा को आदर्श के रूप में पेश किया गया जिनके भीतर इन सबकी संगति बैठ जाती थी । उन्हें संयुक्त मोर्चे का साकार रूप बताया गया । वे भी संयुक्त मोर्चे और अंतर्राष्ट्रवाद की भाषा बोलते थे । उनके योद्धाओं में लैटिन अमेरिका के तमाम देशों और सामाजिक समूहों के व्यक्ति शामिल थे । वे ऐसी वैचारिक नमनीयता बनाये रखते थे जिससे तमाम किस्म के लोगों को दिक्कत न हो । इसके कारण ही उनके आंदोलन और विचारों में अस्पष्टता थी । मानवेंद्र नाथ राय की राष्ट्रवादी नेताओं के बारे में जो आलोचनात्मक नजरिया था उसका कारण इसी तरह के नेतागण थे । निकारागुआ के नेता का कहना था कि उनका आंदोलन वाम या दक्षिण होने की जगह संयुक्त मोर्चा है । वाद के चक्कर में पड़े बिना वे सभी सामाजिक समूहों को एकजुट करना चाहते थे । संयुक्त मोर्चे की भाषा का इस्तेमाल करने के बावजूद सचेत रूप से वे कम्युनिस्टों से दूरी बनाकर रखते थे । असल में उन्हें अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिए ढेर सारे समझौते करने पड़ते थे । इसकी वजह से बहुधा अभियान के नेताओं के लिए मुश्किल खड़ी हो जाती थी । अभियान ने अपने मुखपत्र के जरिए निकारागुआ के संघर्ष को समर्थन तो देता रहा लेकिन सुसंगत साम्राज्यवाद विरोध की मांग भी की । चिंता की बात थी कि लैटिन अमेरिका के तानाशाहों से मेलजोल के साथ ही उन्होंने अमेरिका से भी मधुर संबंध बनाने की कोशिश की ।
अभियान ने कहा कि निकारागुआ के समझौते का यह मतलब नहीं कि साम्राज्यवाद के साथ संघर्ष समाप्त हो गया है । समझ बनी कि निकारागुआ की प्राथमिकता अंतर्राष्ट्रवाद नहीं रह गया है और उसका जोर राष्ट्रवाद पर ही है । अभियान ने घोषित किया कि लैटिन अमेरिका में साम्राज्यवाद से जंग केवल एक भूभाग तक सीमित नहीं है । एक इलाके में समर्पण से किसी अन्य इलाके में नया मोर्चा भी खोला जा सकता है । निकारागुआ के योद्धा से कोमिंटर्न के दूर हो जाने के बाद भी उसके समर्थन का अभियान खत्म नहीं हुआ फिर भी उसने अपनी ऊर्जा नयी जगह लगायी । दूसरी ओर मेक्सिको की सरकार ने अपने देश में कम्युनिस्टों के भितरघात का बहाना बनाकर सोवियत संघ से अपने रिश्ते तोड़ लिये । इसके बाद कम्युनिस्टों का दमन और उनका देशनिकाला तेज हो गये । इससे इस अभियान को गहरा धक्का लगा लेकिन अमेरिका और क्यूबा में गतिविधि जारी रही । दूर से पहले की तरह तो सक्रियता नहीं रही लेकिन लैटिन अमेरिका में अश्वेत और आप्रवासी मजदूरों को संगठित करने की कोशिश जारी रही । कैरीबियाई ब्यूरो का कामधाम 1936 तक बंद हो गया और कोमिंटर्न तथा सोवियत संघ भी यूरोप पर अधिक ध्यान देने लगे । इस दौर की गतिविधियों के ठप पड़ जाने के बावजूद उनकी याद बनी रही और बांदुंग सम्मेलन या त्रि-महाद्वीपीय पहलकदमियों में उनकी अनुगूंज सुनायी देती रही । अश्वेत, मूलवासी और आप्रवासी मजदूरों की एकता तथा मुस्लिम और किसान प्रश्न आज भी बने हुए हैं और रूढ़ मार्क्सवाद की सीमाओं को पार करने की प्रेरणा देते रहते हैं । इसकी विरासत द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिर से प्रकट हुई । बीसवीं सदी के उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष पर इसकी छाप अमिट है और आज भी राजनीतिक गोलबंदी के लिए इसका दीर्घकालीन महत्व बना हुआ है ।