पुनर्जागरण काल में कला का विषय धार्मिक व राजतांत्रिक घेरे से निकल कर आम अवाम तक पहुँचा | उसके बाद विभिन्न काल खंड में वह व्यक्ति व समाज के इर्द गिर्द घूमता रहा | इस दरम्यान रुप , रंग व विषय के स्तर पर अनगिनत प्रयोग हुए | आधुनिक काल में कला की एक धारा ने कला रचना के लिए , विषय विचार और भावनाओं को प्रमुख माना जिसमें जर्मनी के कुछ कलाकारों और मैक्किसन कला के ज्यादातर कलाकारों का बड़ा भारी योगदान रहा है | हालाकि रुपंकर कलाओं में वैचारिकी को समाहित करना जरा कठिन अवश्य है लेकिन समय के साथ कलाकारों ने इसे आत्मसात करने के लिए विभिन्न तरह के तकनीक का जबरदस्त प्रयोग किया | वर्गीय दृष्टिकोण विकसित होने के साथ आधुनिक कला का जो हिस्सा वंचित वर्ग के पक्ष में खड़ा हुआ उसके लिए विषय का चयन तथा उसका सम्प्रेषण महत्वपूर्ण रहा। जो हिस्सा श्रृंगारिक रहा उसमें रुप का लोप , आश्चर्यजनक दृश्यावली और पागलपन की हद तक उलझी हुई दृश्याकृतियों की रचना प्रमुखता से छायी रही | आधुनिक कला की ये प्रवृतियां थोड़े बदलाव के साथ विभिन्न पड़ाव से गुजरते हुए समकालीन कला तक चली आई।
हमारे यहां आधुनिक कला के अंतर्गत के लगभग सभी कला आंदोलन एक साथ या एकदम थोड़े से अंतराल में प्रयोगवान्वित हुए | इन सब के साथ कुछेक कलाकारों ने वंचित वर्ग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट तौर पर जाहिर किया | इस प्रतिबद्धता के लिए उन्हें सजा के बातौर ताउम्र गुमनामी और जलावतनी हासिल हुई। हालांकि ऐसा पूरी दुनिया में हुआ। कला भले ही दरबार और चर्च के प्रश्रय से निकल गई हो लेकिन अब भी उसका पोषण व संरक्षण कुलीन और अमीर वर्ग ही करता रहा या कर सकता था। परिणाम स्वरूप संरक्षक की रुचि अरुचि के अनुरुप ही कलाओं का मुल्यांकन लाज़िम था । फिर भी बहुत सारे ऐसे कलाकार हुए जो ख्याति और धनार्जन की फिक्र छोड़ वंचित वर्ग के पक्ष में एकनिष्ठ हो कर ताउम्र कला सृजन करते रहे।
उनमें से कुछ ऐसी बेमिसाल कला प्रतिभाएं भी निकलीं जिन्होंने दरबार और बाजार के तिलस्म को तोड़ कर कला इतिहास में अपनी जगह बनाई। हमारे देश में इस तरह के कलाकारों में जैनूल आबेदीन , चित्तो प्रसाद , सोमनाथ होर आदि प्रमुख हैं | आज के घोर स्वार्थी व व्यक्तिकेन्द्रीत दौर में भी , कई कला प्रतिभाएं ऐसी हैं जो नेम फेम की दुनिया से बाहर वंचित वर्ग के पक्ष में लगातार रचनाशील हैं। इनमें अनुपम रॉय की रचनाशीलता को देखना महत्वपूर्ण होगा ।
अनुपम का कलाकार बनना
हम सब जानते हैं कि हमारे यहां कलाकार बनना एक कठिन काम है। एक तो यहां कला महाविद्यालय की संख्या बहुत ही कम है और जहां कहीं है भी वहाँ प्रवेश पाना बहुत कठिन है। दूसरी बात यह है कि यहां कला को कैरियर के रुप में अच्छा विकल्प नहीं माना जाता है।
अनुपम रॉय का जन्म पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना में 23-09-1985 को हुआ | उनके पिता गौतम रॉय एक सरकारी विभाग में टर्नर ( एक मेकेनिक ) थे तथा माता अंजू रॉय एक मेहनती गृहणी | अनुपम बताते हैं पिताजी अपने नौकरी की व्यस्तता में जहां तहां ही रहते थे , मां बहुत समझदारी से घर भी सम्भलती थीं और हमारी पढ़ाई लिखाई भी | दो भाई एक बहन में अनुपम सबसे छोटे हैं। बचपन से ही अनुपम की गहरी रूचि चित्रकला में थी। फलतः गांव या आस पास होने वाले कला कार्यों से वे बहुत प्रभावित होते थे ।
प्रारम्भिक शिक्षा पूरी करने के बाद , कला शिक्षक किशोर घोष की प्रेरणा से उन्होंने बंगाल फाइन आर्ट कॉलेज चांदपारा में दाखिला लिया। यह महाविद्यालय बंगलादेश के बॉर्डर के पास चांदपारा नामक एक छोटे से जगह में अवस्थित था और इन्दिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से एफलिएटेड था | यहां से उन्होंने ललित कला में स्नातक की पढाई पूरी की। पढा़ई के दौरान शहर में बनने वाले पोस्टर आदि का काम भी वे रुचि लेकर करते। अनुपम के पिताजी नहीं चाहते थे कि अनुपम कलाकार बने बल्कि उनकी ख्वाहिश थी कि अनुपम टाइपराइटर सीख कर फौज में किरानी बने। मगर अपनी जिद्द और मां के असीम प्यार से वे कला महाविद्यालय तक पहुँच पाए ।
हमारे देश की यह एक अजीब विडंबना है | कला कर्म को यहां आम तौर पर हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसकी एक वजह तो यह है कि चित्रकला और मूर्तिकला के मामले में हमारा सामाज लगभग कला संस्कृति विहीन समाज है। शायद ही किसी घर की दीवार पर आपको कोई पेंटिग दिखाई दे। मूर्ति को तो मंदिर और स्मारक की वस्तु ही माना जाता है। हमारे समाज में चित्रकला और मूर्तिकला की उपयोगिता लगभग नहीं है जो थोड़ी बहुत है भी तो उतने से कम ही कलाकारों का जीवन यापन हो पाता है, वह भी कठिनाई से।
कला में स्नातक तक की पढ़ाई करने के बाद अनुपम ने दिल्ली की राह पकड़ी। यहां उन्हें एक ऐड एजेन्सी में काम मिल गया | कुछ दिन उन्होंने वहाँ काम किया | दिल्ली में काम करते हुए अनुपम को महसूस हुआ कि आगे पढा़ई करनी चाहिए इसके लिए उन्होंने कोशिश शुरु की। उन्होंने 2016 में अंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली से दृश्यकला में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करते हुए अनुपम रॉय ने अपनी कला को वंचित वर्ग के पक्ष में पूरी तरह मोड़ दिया। हालांकि उनकी पूर्व की कला रचना में भी वंचित वर्ग के दुःख दर्द का यथेष्ट समावेश देखने को मिलता है लेकिन यहां आकर अनुपम ने अपनी कला में वंचित वर्ग के प्रतिरोध को उसके मौलिक आवेग के साथ जीवंत रुप में समावेशित किया। इसके साथ ही उन्होंने अपनी कला रचना को जन राजनीति का माध्यम बनाया | कला जगत के लिए यह एक नए तरह का अनुभव था।
उनकी रचनाशीलता की यह स्पष्टता जैसे यहां मौजूद दरबारी संस्कृति पर एक जबरदस्त चोट थी | दरबार बन चुकी अकादमियां और बाजार बन चुकी दीर्घाएं अनुपम जैसी कला प्रतिभाओं की ताप कैसे बर्दाश्त कर सकती थी। सुनियोजित तरीके से उनकी रचनाशीलता को नजर अंदाज करने की कोशिश की गई जो कि बदस्तूर आज तक जारी है | इसके जबाब में अनुपम ने भी अपनी प्रदर्शनी की जगह अकादमियों व कला दीर्घाओं के बजाए आए दिन होने वाले जन आंदोलन स्थल की तरफ मोड़ दिया ।
उनके काम में मौजूद विस्फोटक कलात्मक प्रतिभा को सम्मान तब मिला जब उन्हें डी मॉनफोर्ट विश्वविद्यालय , लिचेस्टर , यूके से 2019-2020 में कला से स्नातकोत्तर करने के लिए स्कॉलरशिप मिला।
यहां से स्नातकोत्तर करने बाद अनुपम स्वदेश वापस आए। यहां वे जन राजनीत में सक्रिय भागीदारी के साथ अपने कला कर्म में व्यस्त हैं। अनुपम रॉय जैसे कलाकारों की कलारचना में मौजूद आवेग को समझना और रेखांकित किया जाना मुश्किल तो है लेकिन बहुत जरुरी है।
अनुपम रॉय की कला रचना
अनुपम की कलाकृतियों को देखते हुए जन प्रतिरोध के प्रचंड आवेग को सहज ही महसुस किया जा सकता है | मजदूर व किसान की दयनीय स्थिति का भावपूर्ण चित्रण अनेक कलाकारों के यहां है | वान गॉग के पोटैटो इटर्स में भी इसे महसुस किया जा सकता है लेकिन इसके पीछे की राजनीति और अर्थशास्त्र की वैचारिक समझ और उसका सम्प्रेषण अनुपम की कलाकृतियों में जैसा है वैसा अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है | वान गॉग जब धर्मोपदेशक बन कर गए तो उन्होंने वंचित वर्ग की सहायता के लिए अपनी तनख्वाह भी खर्च करना शुरू किया और अंततः उन्हे वापस बुला लिया गया । वान गॉग अतिशय भावुक कलाकार थे | अनुपम की खासियत यह है कि उनमें भावुकता के साथ वैज्ञानिक वैचारिकी भी है।
इसे उनके चित्रों को देख कर समझा जा सकता है | गठीली टेढ़ी मेढ़ी मजबूत आकृतियां , ऐंठनदार मजबूत रेखाएं , तपे हुए रंग , वेगवान तुलिका संचालन , आत्मविश्वास से भरे बडे़-बडे़ धब्बे , पृष्ठभूमि में मौजूद लहरें जैसे अनुपम ने अपने कैनवास में फ़िज़ा में मौजूद जनज्वार को समेटने का प्रयास किया है। आप उनकी कलाकृतियों को देखिए सत्ता के खिलाफ जनमानस में मौजूद आक्रोश आपको साफ साफ दिखाई देगा।
इसके साथ ही आपको उसकी एक स्पष्ट दिशा भी नजर आएगी। असंतोष और आक्रोश में मौजूद ऊर्जा जब सार्थक दिशा लेती है तो सुखद बदलाव होता है |
मौजूदा जन आंदोलन व संघर्ष में निहित सौन्दर्य की शिनाख्त अभी हमारे समय के कलाकारों को करना है। अनुपम की कलाकृतियां उस दिशा में मील के पत्थर की तरह है | यही वजह है कि अनुपम जन भावना और जन आकांक्षा को आत्मसात कर जब कला रचना करते हैं तो उनकी कोशिश रहती है वह स्पष्ट तौर पर सम्प्रेषित हो | इसके लिए कभी कभी वे शब्दों का भी बेजोड़ इस्तेमाल करते हैं |
अवतार सिंह पाश , गोरख पांडे , नागार्जून आदि कवियों की कविताओं की कुछ पंक्तियां , जन आंदोलन के कुछ नारे भी आपको उनके किसी किसी चित्रों में दिखाई दे जाएंगे। रेखांकन की गतिशीलता हो , आकृतियों की भाव भंगिमा हो , स्पष्ट तुलिका संचालन हो, आत्मविश्वास से लबरेज तुलिका घात हो , रंगो का चयन हो , पृष्ठभूमि हो , हर जगह अनुपम के रचनात्मक आवेग को देखा जा सकता है।
अनुपम की कला रचना को देखना अपने समय के एक जरुरी रचनात्मक आयाम को देखना है जिसके अंदर हमारे समय का जज्बात निहित है | अनुपम रॉय हमारे समय के एक महत्वपूर्ण रचनाकार हैं | उनकी कलाकृतियों को जन संस्कृति की प्रतिनिधि रचना के बातौर देखा जाना चाहिए जो संघर्ष के सौन्दर्य को महत्वकांक्षी तरीके से निरूपित करती है | समाज में बेहतरीन बदलाव के उद्देश्य से रची गई ये कलाकृतियां सौन्दर्य की नई परिभाषा गढ़ रही हैं |