जयप्रकाश नारायण
स्वामी जी की जयंती के अवसर पर दस वर्ष पहले मैंने छोटी सी पुस्तिका लिखी थी ‘स्वामी सहजानंद एक जनविप्लवी’। यह पुस्तक स्वामी जी द्वारा लिखी गई आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ पर आधारित थी। जो संभवतः हजारीबाग या देवली जेल कैंप में 1942 के आसपास लिखी गई थी।
उस समय स्वामी जी जेल में थे। रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन के समानांतर ‘समझौता विरोधी सम्मेलन’ के आयोजक और स्वागताध्यक्ष के रूप में दिये गये उनके भाषण के कारण उनको सजा हुई थी। उस सम्मेलन की अध्यक्षता नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने किया था। उसी के बाद उन्हें भी उनके आवास पर नजरबंद कर दिया गया था।
स्वामी जी की विकास यात्रा- 1939 -40 तक आते-आते स्वामी जी की राजनीतिक यात्रा एक मंजिल पूरा कर चुकी थी और वे मार्क्सवादी हो गये थे। बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक स्वतंत्रता आंदोलन का चरित्र प्रगतिशील दिशा ले चुका था।
सोवियत क्रांति, भगत सिंह के साथियों द्वारा निर्मित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारी संघर्ष और स्वामी जी द्वारा बिहार में शुरू किये गये किसान सभा के संघर्षों के कारण भारत का स्वतंत्रता संघर्ष मेहनतकश जनता के मुद्दों और लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणतंत्र की दिशा लेने लगा था।
हिंदुत्ववादी ताकतें भारतीय राजनीति के हाशिए पर चली गई थी। जो इसके पहले कांग्रेस के मंच को सुशोभित कर रही थी। इसलिए उनके पास अंग्रेजों की सेवा के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा था। यही कारण है कि बड़े से बड़े हिंदुत्ववादी थुलथुल लिजलिजे संत-महात्मा स्वामी जी का नाम लेते हुए डरते हैं।
जीवन यात्रा – स्वामी जी की जीवन यात्रा एक असंतृप्त क्रांतिकारी की असमाप्त यात्रा है। जो जीवन संघर्ष में स्वयं को बदलते हुए समाज को बदलने के लिए अनवरत संघर्षरत रहे। यही कारण है कि स्वामी जी ने जीवन में सतत बदलते वैज्ञानिक विचारों के कारण किसी भी बड़ी से बड़ी शक्ति या शख्सियत से टकराते रहे और उसको पीछे छोड़ते हुए भारत के मेहनतकश जनगण के मुक्ति संघर्ष की राह पर आगे बढ़ते जाते हैं। उनकी इस यात्रा में कोई बाधा उन्हें रोक नहीं पायी । न जाति-धर्म बोध न संन्यासी का वह दंड जिसे धारण कर वह नवरंग राय से स्वामी सहजानंद सरस्वती ( दंडी स्वामी) बने थे।
गाजीपुर के उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर बसे ‘देवा’ गांव के एक सामान्य किसान परिवार में जन्म लेने वाले मेधावी नवरंग राय ने जूनियर हाई स्कूल की परीक्षा जलालाबाद मिडिल स्कूल से उत्तर प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त कर हासिल की थी।
जैसा कि आमतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसान परिवारों के किशोरों में धर्म और आध्यात्म के प्रति जिज्ञासा पायी जाती है, किशोर नवरंग राय में भी वह द्वंद मौजूद था। धार्मिक प्रवचन, साधु संतों की बातें उन्हें प्रभावित करती थी । जिस कारण वे गाजीपुर में हाई स्कूल की शिक्षा प्राप्त करते हुए आंत्ममंथन से गुजर रहे थे। उन्हें दुनिया मिथ्या लगने लगी।
ज्ञान और अध्यात्म की खोज और सच्चे संतों की तलाश की भावना उनके अंदर लगातार जोर पकड़ती जा रही थी। इसलिए वह संसारिक मोह-माया को छोड़कर मुक्ति की तलाश में निकल जाना चाहते थे। इसमें उनके एक मित्र भी सहायक बने। दोनों किशोर घर-परिवार और समाज छोड़कर अदृश्य शक्ति से साक्षात्कार और सच्चे संत ज्ञानी की तलाश में निकल गये।
काशी हमेशा से ही पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के किशोरों को आध्यात्मिक केंद्र के बतौर पर आकर्षित करती रही है। इसलिए चुपके से दोनों मित्र काशी पहुंच गए।
यथार्थ और भारतीय समाज- जीवन का यर्थाथ खुरदुरा, खुदगर्ज और कठोर होता है। काशी में कुछ समय के प्रवास के दौरान उनकी अतिरिक्त आध्यात्मिक जिज्ञासु वृत्ति को शांति नहीं मिली। इसलिए वे एक और अंतहीन यात्रा पर निकल पड़े। काशी से पैदल चलते हुए झूंसी पहुंचे।
गंगा तट पर एकमठ में कुछ समय बिताने के बाद उनके मित्र चुपके से लौट आए। लेकिन स्वामी जी तो दूसरी धातु के बने थे। इसलिए उनके लिए वापस लौटना संभव नहीं था। वह और ज्यादा खोजी और जिज्ञासु होते गए। अभी तक वह धर्म और अध्यात्म में ही मनुष्य के मुक्ति के मार्ग पर दिल से विश्वास कर रहे थे। इसलिए प्रयाग छोड़ उज्जैनी का मार्ग पकड़ा।
यह यात्रा मनुष्य के कठिन संघर्ष की यात्रा थी । (ऐसी यात्राओं की जानकारी लेटिन अमेरिकी क्रांतिकारियों के जीवन में मिलती है। महान क्रांतिकारी चे ग्वेरा और महाकवि पाब्लो नेरुदा ने अपनी लैटिन अमेरिकी देशों की संस्कृति जीवन प्रणाली समझने के लिए हजारों किलोमीटर की लंबी यात्राएं की थी। जो आल्पस पर्वत श्रृंखला और दुनिया के सबसे बड़े जंगल अमेजन घाटी की आर-पार से गुजरते हुए अंत में क्रांतिकारी अनुभव के साथ संपूर्ण हुई थी) अनुभव और परिवर्तन के खजाने से गुजरने की यात्रा थी।
वे ज्ञान और मुक्ति की उम्मीद, प्रबल इच्छा के साथ चित्रकूट पहुचे । वहां भी वही अनुभव रहा। इसलिए आगे की यात्रा पर निकल पड़े। झांसी, ललितपुर होते हुए वह मध्यप्रदेश के पहाड़ों, जंगलों, नदियों की खाक छानते हुए ज्ञान, अनुभव और तपस्या की शक्ति को समृद्ध करते रहे।
अनेक तरह के दुखों, कष्टों और मनुष्यता के उच्चतम मानवीय मूल्यों के साथ जुड़ते-छोड़ते हुए आगे बढ़ते हुए वह उज्जैन के महाकाल होते हुए नासिक के नर्मदा तट पर स्थित ओंकारेश्वर पहुंचे। इस बीच में उनके जीवन में कई ऐसे पड़ाव आये जहां वे ठहर सकते थे।
किसी बड़े राज दरबार के आध्यात्मिक गुरु बन सकते थे। आज के संतों महंतों की तरह राजघरानों के कुलगुरुओं के सुविधा संपन्न जीवन जी सकते थे। उन्होंने खुद लिखा कई जगह मेरे अंदर सुख सुविधा के कारण ठहराव के लक्षण दिखने लगे थे।
लेकिन मैंने उसे झटक कर फेंक दिया और और ऐसी जगहों से चुपके से अनजान रास्ते पर निकल पड़ा। ओंकारेश्वर तक पहुंचते-पहुंचते उनका अनुभव इस हद तक पहुंच चुका था कि वे अपनी चिंतन प्रक्रिया पर आंतरिक संघर्ष से गुजरने लगे थे।
यहां भी उनका विद्रोही मन विजयी हुआ और आंतरिक द्वन्द्व को झटक कर उत्तराखंड केदारनाथ की यात्रा पर निकल पड़े। यह सोचकर कि शायद पहाड़ों में कोई ऐसा साधु संत ज्ञानी मिल जाए जो मुक्ति का सही मार्ग दिखा सके। आमतौर पर हिंदू युवा मानस में यह बात बैठी रहती है कि पहाड़ों में साधु सन्यासी और तपस्वी रहते हैं, जो साधना तपस्या से ज्ञान हासिल कर मोक्ष प्राप्त कर भौतिक जगत के दुखों सांसारिक मोहमाया और व्यक्ति की लिप्सा लालसा से मुक्त पूर्ण मनुष्य हो चुके होते हैं।इसलिए वे केदारनाथ की महा यात्रा में निकल पड़े।
ओंकारेश्वर से मथुरा वृंदावन आए। यहां से देहरादून ऋषिकेश के रास्ते केदारनाथ पहुंचे। हजारों साधु संतों महंतों से यात्रा के मार्ग में मिलते सत्संग करते केदारनाथ पहुचे थे। वहां पहुंचने के बाद स्वामी जी की विद्रोही आत्मा को शांति नहीं मिली और उन्हें इसका अनुभव और बोध हुआ कि खोज अधूरी है। मनुष्य की संपूर्ण मुक्ति का मार्ग तो कहीं और से जाता है। इसलिए उन्होंने काशी लौटकर अध्ययन करने का फैसला किया।
काशी प्रवास- काशी की काल्पनिक आध्यात्मिक महिमा चाहे जो भी हो लेकिन काशी भारत में ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था का मजबूत दुर्ग है। इसलिए स्वामी जी को पहला दंश जातिवाद का झेलना पड़ा। उनकी प्रबल इच्छा थी कि वह सन्यासी बनें।
जब वह दीक्षा लेने गए तो वहां यह कह कर कि “तुम ब्राह्मण नहीं हो तुम्हें दीक्षा नहीं दी जा सकती” अस्वीकार कर दिया गया। उनके स्वाभिमान को चोट पहुंची। इसलिए उन्होंने ब्राह्मणों द्वारा दी गई चुनौती को स्वीकार किया और पहली लड़ाई उन्हें ब्राह्मणवाद से लड़नी पड़ी। उन्होंने ‘ब्रह्मर्षि समाज का इतिहास’ नाम की मशहूर पुस्तक इसी संदर्भ में लिखी। जो आज दुनिया में भूमिहार वंश के इतिहास विस्तार ज्ञान योग्यता मेधा का सबसे बड़ा संग्रह है । इसके लिए वह देश के कोने कोने में घूमे। कठिन परिश्रम किया और खोज की।
यह किताब उस परिश्रम का सार संकलन है । जो समय की ऐतिहासिक जरूरत थी कि ब्राह्मण श्रेष्ठतावादी सोच को चुनौती दी जाए। उनके कठिन परिश्रम ने काशी के तत्कालीन धर्म आचार्यों और मठाधीशों को गंभीर चुनौती दी।
आज कुछ मूढ़ मति ज्ञानी स्वामी जी के विराट व्यक्तित्व और विशाल कद को छोटा करने के लिए उन्हें एक जाति विशेष का नेता बनाने में लगे हुए हैं । लेकिन स्वामी जी किसी सीमा में बंधने वाले नहीं थे। उन्हें उस समय भी किसी खांचे में बांधा न जा सका और न आज भी संभव है। वे विराट ब्रह्मांड की तरह अनंत गति और ऊर्जा से भरे हुए महान व्यक्तित्व थे। इसलिए उन्होंने इस सीमा को बहुत जल्दी ही तोड़ दिया। पटना भूमिहार ब्राह्मण महासभा के राष्ट्रीय सम्मेलन में जब राष्ट्रीय अध्यक्ष की हैसियत से पहुंचे, तो वहां देखा छोटे मझोले मध्य वर्गीय बिरादरी के लोग जमीन पर बिछी टाट पर बैठे हैं।
राजे रजवाड़ों और अंग्रेजों की हुक्म उदीली करने वाले बड़े जमींदार तलवार और टोपा लगाए कुर्सियों पर बैठे हैं। उनके अंदर की ऋषि परंपरा का सात्विक क्रोध जाग उठा। उन्होंने सारी कुर्सियां हटवा दी।
घोषणा की कि सभापति के अलावा समाज के किसी कार्यक्रम और किसी के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं होगी। सभी को एक साथ टाट पर बैठना होगा। सिर्फ सभापति को छोड़कर।
जातिवादी विभाजित समाज में राजे महाराजे, दलाल, ठेकेदार, जमींदार, नौकरशाह सम्मानित किए जाते हैं। यह बराबरी का निषेध करता है और गुलाम मानसिकता को मजबूत करता है। इस तरह गैर बराबरी वाले सामाजिक विभाजन को पहली बार अपने ही समाज में स्वामी जी ने कड़ी चुनौती दी। उसी सम्मेलन के बाद सभापति की हैसियत से भूमिहार ब्राह्मण सभा को भंग कर दिया और उससे अपना नाता तोड़ लिया।
स्वतंत्रता आंदोलन के योद्धा- 1920 के आस-पास कांग्रेस गोरक्षा अभियान चला रही थी। उस समय बिहार के आरा जिले के बक्सर में कांग्रेस के स्वयंसेवक के रूप में वे काम कर रहे थे।बक्सर के पास बहुत बड़ा पशु मेला लगता था। जिसमें सिवान, छपरा, गाजीपुर, बलिया, आरा आदि इलाकों से किसान अपना पशु बेचने के लिए आते थे।
गोरक्षक के नाम पर पर काम करने वाले हिंदू महासभा और कांग्रेस के वालंटियर इनकी जांच पड़ताल करते थे। गौ रक्षक गिरोह नदी के पार करने वाले प्रति जानवर के हिसाब से पैसा वसूल कर उन्हें मेला में जाने देते।
इस बात की जानकारी स्वामी जी को मिली और उन्हें इस लूट को बंद कराने का फैसला किया। स्वामी जी ने ऐलान किया कि गौ रक्षा के नाम पर भ्रष्टाचार और दबंगई नहीं चलेगी। इसका परिणाम हुआ कि गोरक्षा अभियान चलाने वाले गौ रक्षक दल उनसे नाराज हो गए। स्वामी जी का धर्म के नाम पर किए जा रहे अपराध और भ्रष्टाचार को गोरक्षा कार्यक्रम से उनका मोहभंग हो गया। कांग्रेस के अंदर काम करने वाली हिंदू महा सभा के गौ रक्षकों की इस भूमिका को देखकर उन्हें लगा सभी लोग मूलतः भ्रष्ट और बेईमान लोग हैं । उन्होंने गोरक्षा आंदोलन से अपने को अलग कर लिया।
स्वामी जी कितने सही और दूरदर्शी थे। आज हम गो रक्षकों की धनउगाही के साथ खूंखार और बर्बर माॅब लिंचिंग के गवाह हैं।
मोह भंग का बढ़ता दायरा- इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन में जेल जाते, लड़ते और जनता को संगठित करते हुए स्वामी जी का कांग्रेस की नीतियों, विचारों और हिंदुत्ववादी दृष्टि से मोहभंग होता गया। उन्होंने देखा कि राजेंद्र बाबू जैसे अनेक कांग्रेसी ऐसे हैं, जो जमींदारों के पक्षधर हैं ।
ऐसे लोग ब्राह्मणवादी पूर्वाग्रहों से भरे हैं। ग्रामीण गरीबों, मजदूरों के प्रति इनके अंदर हमदर्दी नहीं है। इसलिए जब भी किसानों का सवाल स्वामी जी उठाते कांग्रेस के अंदर दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी विचारधारा के लोग उनके विरोध में खड़े हो जाते।
गया के किसानों के कष्ट को लेकर कई वालंटियर उनके पास आए। स्वामी जी ने कांग्रेस वर्किंग कमेटी में प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस को किसानों की दशा की जांच पड़ताल कर एक रिपोर्ट तैयार कर सरकार के समक्ष रखनी चाहिए । जिसका तीखा विरोध राजेंद्र बाबू गुट ने किया। लेकिन स्वामी जी जैसे महान नेता के सामने ये लोग टिक नहीं पाए।
अंत में काग्रेस को स्वामी जी के नेतृत्व में कमेटी का गठन करना पड़ा। कमेटी ने गया के इलाके का दौरा कर रिपोर्ट तैयार की।जिस रिपोर्ट का शीर्षक था ‘गया के किसानों की करुण कहानी’। जिसमें किसानों पर जमींदारों द्वारा छप्पन प्रकार के टैक्स लगाने का जिक्र किया गया था। इस रिपोर्ट ने बिहार के कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक गुटों में खलबली मचा दी और स्वामी जी के खिलाफ एक अपवित्र गठबंधन बनने लगा।
बिहार प्रदेश किसान सभा का गठन– अंत में स्वामी जी ने तय किया कि वह किसानों के बीच जाएंगे और उन्हें संगठित कर उनके दुख-दर्द को दूर करने के लिए संघर्ष करेंगे। उन्होंने बिहार के गांवों में किसानों के बीच में सघन अभियान चलाना शुरू किया। इसी दौर में पटना के नजदीक बिहटा में एक छोटा सा आश्रम बनाया गया। जिसमें शिक्षा के लिए एक विद्यालय का भी निर्माण हुआ।
बिहटा में मारवाड़ी उद्योगपति की चीनी मिल थी। वहां मजदूरों और किसानों का भारी शोषण होता था। स्वामी जी ने मिल के शोषण के खिलाफ मजदूरों-किसानों का एक मजबूत आंदोलन खड़ा कर दिया। जिससे घबराकर मिल मालिक कांग्रेस के बड़े नेताओं तक गया। लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई की स्वामी जी के पास जाकर मिल मालिक की सिफारिश कर सकें कि मिल के खिलाफ वे मजदूरों व किसानों का आंदोलन न चलाएं।
स्वामी जी ने लिखा था कि अंत में मिल मालिक ने उन्हें हर महीना आश्रम चलाने के लिए धन और विद्यालय तथा बच्चों रहने के लिए छात्रावास तक निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा। लेकिन स्वामी जी ने डांट कर भगा दिया। आज के देशभक्तों को जब हम अडानी के पैसों पर पलते देखते हैं तो लगता है कि राष्ट्रीय आंदोलन से गद्दारी करने वालों की संताने किस हद तक गिर सकती हैं। लेकिन उस समय स्वामी जी जैसे महान विद्रोही ने मिल मालिक के प्रस्ताव को लात मारकर ठुकरा दिया था और जनता के साथ विश्वासघात कर उपहार लेने से इंकार कर दिया।
अंत में बिहटा का आश्रम बिहार के किसान आंदोलन और बिहार के गरीबों के नव जागरण का केंद्र बन गया। स्वामी जी के जादुई नेतृत्व में बिहार से शुरू हुआ किसान सभा का आंदोलन सम्पूर्ण भारत के किसानों को क्रांतिकारी किसान आंदोलन के आगोश में खींच लाया। जिससे 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई। जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वामी जी बनाए गए। जिससे भारत का किसान आंदोलन स्वतंत्रता आंदोलन की चालक शक्ति बन गया।
यही नहीं स्वामी जी द्वारा शुरू किया गया किसान आंदोलन बिहार सहित संपूर्ण भारत में हजारों किसान नेताओं को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसमें राहुल सांकृत्यायन, जयप्रकाश नारायण, यज्ञदत्त शर्मा, भोगेंद्र झा, इंदूलाल याग्निक, कार्यानंद शर्मा, चंद्रशेखर सिंह के साथ एके गोपालन, पी सुंदरैया, राजेश्वर राव, टी नागी रेड्डी, पी राममूर्ति, अहिल्या रांगरेकर सहित अनेक सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलन के कार्यकर्ता नेता तैयार किए।
तेलंगाना, तमिलनाडु से लेकर बंगाल, उत्तर प्रदेश तक हजारों किसान नेता किसान आंदोलन और स्वतंत्रता संघर्ष की अग्रिम कतार में आ गए। जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की दिशा को पलट देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अगर ईमानदारी से भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का मूल्यांकन किया जाए तो स्वतंत्रता आंदोलन के वर्ग आधार को बदलने में किसान आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है। छोटे-मझोले, गरीब किसान, रियाया जातियों के लाखों कास्तकार सहित मजदूरों के राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी ने आजादी के आंदोलन की दिशा में बदलाव का काम किया। जो 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में दिखाई दिया, जब शहरों, कस्बों, गांवों की जनता ने स्वतंत्रता का झंडा उठा कर देश के कई इलाकों को मुक्त करा लिया था।
जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश का बलिया, गाजीपुर, महाराष्ट्र का कोल्हापुर संभाग महत्वपूर्ण है। जिसकी अगुवाई मूलतः मध्यम और गरीब किसान परिवारों से निकले कार्यकर्ता कर रहे थे।
अगर 1942 में आंदोलन का चरित्र जुझारू और क्रांतिकारी दिखाई देता है तो उसका मूल कारण स्वामी जी के नेतृत्व में खड़ा हुआ किसान आंदोलन की समझौताविहीन राजनीतिक दिशा ही थी। जिसने गांधी जी द्वारा निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन कर स्वतंत्रता संघर्ष को विजय की मंजिल तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
स्वामी जी के द्वारा चलाए गए जुझारू किसान आंदोलन से हजारों लेखक, कवि, पत्रकार प्रभावित हुए। इस सूची में रामबृझ बेनीपुरी, राहुल सांकृत्यायन, रामधारी सिंह दिनकर, मौलाना हसरत मोहनी, नजरुल इस्लाम जैसे न जाने कितने लेखक और पत्रकार शामिल हैं। बौद्धिक क्षमता और लड़ाकू गुणों के कारण स्वामी जी बिहार ही नहीं सम्पूर्ण भारत के क्रांतिकारी किसान नेता, स्वप्न दृष्टा, गरीबों मजदूरों के मसीहा बन गए।
इन्हीं अनुभवों की रोशनी में स्वामी जी ने कई बहुमूल्य पुस्तक लिखी। जिसमें ‘किसान क्या करें’, ‘किसान कैसे लड़ते हैं’, ‘क्रांति और संयुक्त मोर्चा’ आदि बहुत चर्चित पुस्तके हैं। स्वामी जी द्वारा लिखित ‘मेरा जीवन संघर्ष’ अपने तरह की एक अनोखे किसान नेता के विकास यात्रा की दास्तान है। जो आध्यात्म के द्वारा मानव मुक्ति की परिकल्पना लिए दंडी स्वामी बनता है और अंत में क्रांतिकारी मार्क्सवाद की भारतीय व्याख्या करते हुए मेहनतकश जनता के मुक्ति का नायक बन गया।
आजादी के बाद- चूकि स्वामी जी में भारतीय परंपरा, ज्ञान मीमांसा और भारतीय इतिहास के सभी दौर के दर्शन की गहरी समझ थी। भारत के ढेर सारे परिवर्तनकारी लोगों ने शुरू में उनकी महत्ता को उस स्तर पर सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। आजादी के बाद उन्हें धीरे-धीरे भुलाया जाने लगा, क्योंकि भारत का वाम आंदोलन स्वतंत्रता के बाद बदली हुई परिस्थिति का ठोस मूल्यांकन कर रणनीति नहीं विकसित कर सका। जिस कारण वह भारत के क्रांतिकारी रूपांतरण का नेतृतव नहीं कर सका। इसलिए इस काल में स्वामी जी का नेपथ्य में जाना स्वाभाविक था। इसका लाभ उठाकर कुछ निहित स्वार्थी लोगों ने उन्हें एक जाति विशेष का नेता बनाने की कोशिश की। उन्हें सन्यासी बनाकर उनकी क्रांतिकारी मार्क्सवादी दृष्टि को धुंधला करने का षड्यंत्र किया गया।
लेकिन मानव समाज की विकास की यात्रा में नित नये विकसित हो रहे आंतरिक अंतर्विरोध जो मूलतः मनुष्य के मुक्ति की दिशा में प्रेरित होते हैं, अंततोगत्वा तीव्रतम रूप में समाज की किसी खास मंजिल पर प्रकट होते हैं। जो समाज के पूरे ढांचे और चिंतन प्रक्रिया को उलट पलट देते हैं। भारत में भी ऐसा ही हुआ। आजादी के 20 वर्ष तक पहुंचते-पहुंचते भारतीय लोकतंत्र अपनी आभा और अग्रगति खो बैठा। जिससे जनता का मोहभंग चरम पर पहुंच गया।
इसलिए एक बार फिर गांव की मिट्टी से ही क्रांति की चिंगारी फूटी और नक्सलबाड़ी में जंगल की आग की तरह फैल गई। इस आग ने हमारे कई क्रांतिकारी पूर्वजों के विचारों पर पड़े कूड़े कचरे को जलाकर साफ कर दिया।
इसमें स्वामी जी और भगतसिंह दो बड़े नायक थे। जिनके व्यक्तित्व और विचारों को धुंधला करने या खास खांचे में बांधने की कोशिश की गई थी।
नक्सलबाड़ी क्रांतिकारी किसान आंदोलन की उर्जा से स्वामी जी एक बार पुनः जिंदा हो गये और उसी मध्य बिहार में क्रांतिकारी आंदोलन के झंडे पर आ बैठे। स्वामी जी के विचारों के आधार पर भारत को पुनर्गठित करने के लिए संघर्षरत क्रांतिकारी नेताओं और बुद्धिजीवियों ने स्वामी जी के महत्व को समझा। उनके विचारों की व्याख्या की और भारतीय क्रांति और किसान आंदोलन के अपरिहार्य नेता के रूप में उन्हें पुनः स्वीकार कर स्थापित किया।
स्वामी जी के साथ ही भगत सिंह जैसे लोग भी नक्सलबाड़ी की आग में तप कर फिर से अपनी पूरी आभा और उर्जा के साथ क्रांतिकारियों के लिए आदर्श नायक बन गए।
कामरेड विनोद मिश्र ने ‘बिहार के धड़कते खेत खलिहान की दास्तान’ नामक पुस्तक की भूमिका में स्वामी जी को बड़े आदर के साथ याद किया है। उन्होंने घोषणा की कि बिहार का क्रांतिकारी किसान आंदोलन स्वामी जी के द्वारा निर्देशित रास्ते पर ही आगे बढ़ रहा है। उनकी क्रांतिकारी विरासत के वारिस हम हैं। जिसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी हमारे कंधे पर आन पड़ी है। हम इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी का पूरे शान और उत्साह के साथ आगे बढ़ाएंगे।
इस घोषणा के बाद ही स्वामी जी पुनः एक बार भारतीय किसान आंदोलन के जनक और नेता बन गए। उन्हें वह स्थान पुनः हासिल हुआ जिसके लिए वह सचमुच हकदार थे। दिल्ली में चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन में स्वामी जी को बहुत ही सम्मान के साथ याद किया गया। उनकी जयंती और निर्वाण दिवस मनाए गए। उन्हें भारत के किसान आंदोलन के जन्मदाता का श्रेय सभी किसान संगठनों ने दिया।
आज के दौर में स्वामीजी भारतीय समाज के उन सभी संघर्षरत लोगों के नेता हैं जो कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के हमले द्वारा किसानों तथा सभी उत्पादक शक्तियों को बर्बाद कर देने के खिलाफ युद्ध रत हैं। वे सभी लोग जो स्वामी जी को हिंदुत्व की सेवा में लगा देना चाहते थे । स्वामी जी के कद को को छोटा करने की कोशिश में लगे थे, इस समय हतप्रभ हैं। इसलिए हमें स्वामी सहजानंद सरस्वती के इस निर्वाण दिवस पर नये संकल्प के साथ भारत के किसान आंदोलन का दूसरा अध्याय लिखने के लिए पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए!