समकालीन जनमत
स्मृति

संगठन और आन्दोलन के व्यक्ति थे सुरेश पंजम

प्रथम स्मृति दिवस 25 अप्रैल
‘ वे नष्ट कर सकते हैं/तमाम फूलों को
पर बसंत को आने से/वे रोक नहीं पायेंगे ’ 
यह सुरेश पंजम (एस के पंजम) का सिद्धान्त वाक्य था। वे बसंत की अगवानी करने वाले लोगों में थे। वे जानते थे कि यह अचानक या अपने आप नहीं होगा। इसके लिए कोशिश करनी होगी, संघर्ष करना होगा। उन्होंने अपने को इसी के लिए समर्पित कर दिया था। उनका कोरोना से संक्रमित होना और इस दुनिया से चला जाना बहुत आहत करने वाला है। वे जीवन संघर्ष की आग में तप कर बने थे।
कोरोना वैश्विक महामारी है। दुनिया इसकी चपेट में आई। लेकिन भारत में पहली लहर हो या दूसरी, जिन स्थितियों से गुजरना पड़ा, यहां जो देखने में आया, वैसा तो कहीं भी नहीं दिखा। अपने देश के संदर्भ में देखें तो उत्तर प्रदेश जैसी हालत किसी राज्य में देखने को नहीं मिली। दूसरी लहर के दौरान हमने जिन लोगों को खोया है, उनमें ऐसे लोगों की संख्या बहुत है जिनकी बेहद जरूरत थी। समाज, जन आंदोलन तथा दुनिया को बेहतर बनाने का जो संघर्ष व स्वप्न है, वह उनके अन्दर था। वे इसी को समर्पित थे।
सुरेश पंजम ऐसे ही व्यक्तित्व के साथी रहे हैं। उनकी सक्रियता के विविध आयाम हैं। वे कवि, लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार, सामाजिक चिन्तक, इतिहासकार और पालिटिकल एक्टिविस्ट रहे हैं। उनके व्यक्तित्व को देखते हुए कई बार यह असंभव या अविश्वसनीय सा लगता है कि क्या किसी व्यक्ति के अन्दर इतनी खूबियां हो सकती है। और ये सुरेश पंजम में थीं। वे दलित पृष्ठभूमि से आये लेकिन उनकी दिशा दलितवादी नहीं थी, वह वाम-जनवादी थी। फुले, शहीद भगत सिंह, डॉ अम्बेडकर, कार्ल मार्क्स आदि से मिलकर विचारधारा बनी थी। इसीलिए उनका असमय जाना अपूर्णीय क्षति है।
हम सुरेश पंजम को याद करते हैं तो न सिर्फ वे बल्कि वह दौर भी याद आता है। हमें इस दौर को याद करना भी चाहिए। पिछले साल 25 अप्रैल को उनका निधन हुआ। उस वक्त उम्र महज 53 साल थी। वे कोरोना से संक्रमित हुए। उन्हें लखनऊ के हरदोई रोड स्थित सिटी हॉस्पिटल में भर्ती किया गया। उनकी हालत खराब होती चली गई। उन्हें आक्सीजन  की जरूरत थी। अस्पताल में आक्सीजन खत्म हो गया था। अस्पताल का कहना था कि या तो आप व्यवस्था करें या अपने मरीज को यहां से ले जाएं। उस समय कोई दूसरा विकल्प नहीं था। आखिरकर शाम सात बजे उन्होंने हमारा साथ छोड़ दिया।
उनके निधन के चार दिन पहले उर्दू शायर, प्रगतिशील व जनवादी आन्दोलन के वरिष्ठ साथी मो मसूद का निधन हुआ था। उनकी जान भी आक्सीजन के अभाव में गई। ये चंद उदाहरण हैं जो बताते हैं कि आक्सिजन के अभाव में जानें गई। यह स्थिति न सिर्फ लखनऊ की रही है बल्कि देश की यह आम हालत रही है। ऐसे में इससे बड़ा क्रूर मजाक क्या हो सकता है, जब देश की संसद में स्वास्थ्य मंत्री कहते हैं कि आक्सीजन की कमी की वजह से किसी की मौत नहीं हुई।
सुरेश पंजम का व्यक्तित्व बहुआयामी रहा है। अनेक जनवादी संगठनों से उनका जुड़ाव था, भाकपा (माले) और लेनिन पुस्तक केन्द्र के साथ सक्रिय रिश्ता था। माले की अनेक रैलियों और पार्टी के गोरखपुर सम्मेलन में बतौर प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इसी तरह उनका जन संस्कृति मंच से जुड़ाव था। वे मंच के भिलाई राष्ट्रीय सम्मेलन में गये और राष्ट्रीय पार्षद चुने गये। उनके उपन्यास ‘गदर’ का विमोचन भी जसम के द्वारा आयोजित किया गया। ऐसा नहीं कि उनका यहीं तक जुड़ाव था। बल्कि लखनऊ के अनेक प्रगतिशील-जनवादी संगठन और आन्दोलन से उनका जीवन्त रिश्ता था। उनके आयोजनों में वे शामिल होते। उन्हें आगे बढ़ाने के लिए एक कार्यकर्ता की तरह काम करते। नागरिक परिषद, आल इंडिया वर्कर्स कौंसिल आदि संगठनों से भी उनका सम्बन्ध था। उन्होंने अपनी पहल पर भी कई संगठन बनाये थे।
देखा जाय तो सुरेश पंजम संगठन और आन्दोलन के व्यक्ति थे। वे जमीन के आदमी थे। वे जिस घर में रहते थे, उसका नाम ‘शहीद भगत सिंह एकेडमी’ दे रखा था। राजाजीपुरम मे बीएन गौड़, लक्ष्मीनारायाण आदि के साथ मिलकर ‘लोक विचार मंच’ का गठन किया। उनके घर पर अनेक गोष्ठियां इस मंच की ओर से हुई। इस मंच के माध्यम से अपने मुहल्ले में अम्बेडकर जयन्ती का कई साल तक आयोजन किया।
डा गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव, शकील सिद्दीकी, बृज बिहारी, भगवान स्वरूप कटियार, अनिल सिन्हा, टी एन गुप्ता, गंगा प्रसाद, टी पी राही, नेत्रपाल सिंह, अवधेश कुमार सिंह आदि अनेक साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हुए। सुरेश पंजम अमीनाबाद के जिस इंटर कॉलेज में शिक्षक थे, उसे भी सांस्कृतिक-सामाजिक गतिविधियों का केन्द्र बना दिया था। इसमें शहर और बाहर के बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता शामिल होते थे। इसी कॉलेज में वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता के के शुक्ला को उनके 80 वें जन्मदिन पर सम्मानित किया गया। ये चंद उदाहरण हैं जिनसे उनके सामाजिक सक्रियतावादी व्यक्तित्व का पता चलता है। अभी उनमें बहुत  बचा था जो समाज को मिलना था। वे बहुत कुछ करना चाहते थे। उन्हें मानसिक बीमारी भी हुई पर उसे कभी भी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। इसीलिए उनका जाना हम सभी के लिए, सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष के लिए बड़ा धक्का है।
सुरेश पंजम विचार के व्यक्ति थे। वे बहस प्रिय थे। उनसे हमारी बहसें होती, असहमतियां भी रहती। उनके अपने तर्क होते। वाम आन्दोलन के कई पहलुओं की आलोचना भी करते पर उम्मीद भी उन्हीं से थी। व्यवहार में एकता का उनमें विशिष्ट गुण था। उनके लिए जितना जरूरी डा अम्बेडकर थे, उतना ही मार्क्स भी। वे दोनों की वैचारिकी को जनवादी आन्दोलन के लिए अपरिहार्य मानते थे। उनकी स्वयं की वैचारिक दिशा इसी से निर्मित हुई थी। इसका प्रतिबिम्बन उनके लेखन, चिन्तन और कर्म में दिखता है। जब भी उनके रचना-कर्म को देखता हूं तो लगता है कि उन्हें बहुत कुछ करने की हड़बड़ी थी। वे धीमे चलने वाले नहीं, बल्कि तेजी से काम करने वाले उत्साह से लबरेज साथी थे।
सुरेश पंजम ने बहुत लिखा। सामाजिक आन्दोलन और जीवन के जद्दोजहद के बीच दो दर्जन के करीब कृतियों की रचना की। दस तो उनके कविता संग्रह हैं। महाकाव्य व खण्ड काव्य से लेकर छन्द मुक्त तक, इस विधा की कई शैलियों में काव्य रचना की। अनेक उपन्यास लिखे जैसे दलित दहन, लालगढ़, संघर्ष और शहादत और गदर जारी रहेगा। यहां मैं ‘गदर जारी रहेगा’ की विशेष चर्चा करना चाहूंगा। इस उपन्यास की विषय वस्तु नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के तहत निर्मित विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) पर केन्द्रित है। यह झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में आदविासियों को उजाड़े जाने तथा जल, जंगल और जमीन को लेकर उनके आन्दोलन की कथा है।
सुरेश पंजम इस आन्दोलन को तेलंगाना और नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन की परम्परा में ‘गदर’ के रूप में देखते हैं। इसके दमन के लिए सरकार ने अनेक तरीके अजमाये। आपरेश ग्रीन हंट चलाया गया। लेकिन ‘गदर जारी रहेगा’ क्यों कि आदिवासी जनता का जीवन और भविष्य इससे जुड़ा है। वे इस विचार को मजबूती से प्रतिष्ठित करते हैं कि नक्सलवाद आौर माओवाद कोई आयातित या आरोपित विचारधारा नहीं है बल्कि वह वस्तुगत परिस्थितियों की उपज है। इसे दमन से खत्म नहीं किया जा सकता है। गौरतलब है कि इस उपन्यास का विमोचन लखनऊ के अमीनाबाद इंटर कॉलेज के सभागार में जन संस्कृति मंच ने किया। इसके विविध पहलुओं पर गंभीर चर्चा हुई। इस पर बोलने वालों में अनिल सिन्हा, डॉ गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव, शकील सिद्दीकी, टी पी राही जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार थे।
सुरेश पंजम ने अनेक कहानियां लिखीं जो ‘बेड़ियों पर वार’ और ‘थप्पड़’ में संकलित है। इनकी कहानियां यथास्थितिवाद को तोड़़ती हैं और इच्छित यथार्थ को सृजित करती है। उनकी समझ है कि साहित्य का काम यथास्थिति का चित्रण मात्र नहीं है। वे ऐसे पात्रों को कथा के केन्द्र में लाते हैं जो जुझारू हैं, हारते हैं पर हार नहीं मानते। वे फिर खड़े होते हैं और जूझते हैं। समर्पणवाद, समझौतावाद और यथास्थितिवाद केे विरुद्ध यह गतिशील व परिवर्तनशील यथार्थ है। इनके यहां व्यवस्था विरोध का उत्स क्रान्तिकारी बदलाव की जमीन है। इस व्यवस्था द्वारा डाली गई बेड़ियों पर उनका ‘वार’ है तो जुल्म ढ़ाने वाले शोषकों पर ‘थप्पड़’ की मार है। उन्होंने समाजिक दंश झेला, भोगा। यही सामाजिक बदलाव का भावनात्मक श्रोत तक पहुंचा और उन्हें एक विचारशील चिन्तक और बुद्धिजीवी में रूपान्तिरित किया। उन्होंने जिस दंश को झेला और संघर्ष किया, वह आत्मकथात्मक कृति ‘रक्तकमल’ में बयां हैं।
सुरेश पंजम के दो विशिष्ट काम है – ‘शूद्रों का प्रचीनतम इतिहास’ और ‘संत रैदास जन रैदास’। यह शोध कार्य की तरह है। मैं यहां रैदास पर किये काम की विशेष चर्चा करना चाहूंगा। इसमें रैदास का संपूर्ण वांग्मय है। इसके साथ इसमें उनके जीवन और संघर्ष-सृजन यात्रा के साथ दलित आन्दोलन और उसके जो पड़ाव हैं, उन पर विशद चर्चा की गई है। वे संत रैदास को जन रैदास के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। वे कहते हैं ‘‘रैदास का उद्देश्य है, सम्यक समाज, अर्थ, शिक्षा, विज्ञान एवं जनता की तरक्की, रैदास राजनीति को भी अपने लपेटे में लेते हैं। वे जनता को संबोधित करते हुए कहते हैं – ‘ऐसा चाहूं राज मै, जहां मिले सबन को अन्न/छोटे-बड़े सब सम रहें, रैदास रहे प्रसन्न’ –  संत रैदास घिनौनी और जातिवादी राजनीति के पक्षधर नहीं थे, क्योंकि रैदास जन रैदास थे।’’ इसमें 415 साखियां हैं, 110 सबद हैं, 203 दोहे-चौपाइयां हैं, 16 कुण्डिलियां हैं और 40 पदावलियां हैं।
सार रूप में कहा जाय तो यह कि सुरेश पंजम का इतने क्षेत्र में काम रहा है, जिन पर लम्बी चर्चा की जा सकती है। ऐसे साथी जब असमय चले जाएं तो बड़ी पीड़ा होती है। ये ऐसे साथी रहे हैं जिनसे साहित्य और समाज को बहुत मिलना था। कोरोना ने इन्हें हमसे जुदा कर दिया। कोरोना को ही अकेले क्यों दोष दिया जाय। वे और उन जैसे अनेक साथियों की मौत कुव्यवस्था की वजह से हुई। इसीलिए इसे सामान्य मौत नहीं मान सकते। यह व्यवस्था द्वारा की गई हत्या है। हमने अपने बहुमूल्य साथियों को खोया है। उनके जाने का गम है तो वहीं अन्तर में गुस्सा भी है। अपने इन प्रिय साथियों को हम भूल नहीं सकते हैं और इस दौर को भी। सब याद रखा जाएगा और याद रखा जाना चाहिए।

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