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रामनिहाल गुंजन : कभी खत्म नहीं होती हैं शब्द यात्राएँ

रामनिहाल गुंजन हिन्दी की प्रगतिशील-जनवादी आलोचना के सुपरिचित नाम थे। उनका जन्म 9 नवंबर 1936 को हुआ था। वे हिन्दी के ऐसे आलोचक थे, जो बिना किसी शोर के अनवरत लिखते रहे। हिन्दी की शायद ही ऐसी कोई पत्रिका होगी, जिसमें उनके आलोचनात्मक लेख, कविताएँ या पत्रिका में प्रकाशित सामग्री पर उनके खत न छपे होंगे।

एसएमएस, ईमेल, ह्वाट्स ऐप और फेसबुक जैसे माध्यमों के आ जाने के बावजूद वे अब भी चिट्ठियाँ लिखते थे। हिन्दी के बड़े प्रकाशकों ने उन्हें कोई अहमियत नहीं दी। उनकी ज्यादातर पुस्तकें इलाहाबाद के कुछ प्रकाशकों ने प्रकाशित कीं और कुछ पुस्तकों को स्वयं उन्होंने विचार प्रकाशन के नाम से छापा। दरअसल 1970 के आसपास उन्होंने ‘विचार’ नामक पत्रिका का प्रकाशन किया था, उसी के नाम पर उन्होंने विचार प्रकाशन नाम रखा था।

विगत 13 अप्रैल को उन्होंने एक मुलाकात में मुझे बताया था कि घर की छत पर उन्होंने टीन की चादरों से एक हॉलनुमा स्पेस बनाया है, जिसमें गोष्ठियाँ वगैरह होंगी। उसका नाम उन्होंने विचार प्रकाशन रखा है, जो साहित्य-संस्कृति विमर्श और प्रकाशन का केंद्र होगा। 16 अप्रैल को वहाँ पहला कार्यक्रम होने वाला था, जिसे भीषण गर्मी के कारण स्थगित करना पड़ा। उन्होंने मुझसे भारतीय किसानों पर केंद्रित एक अंक लिया। मैंने पूछा कि आप नये कवियों पर जो लिख रहे थे, कहीं छपा? उन्होंने बताया कि वह लेख नहीं है, बल्कि किताब है, जिसके प्रकाशन के लिए बात चल रही है। इस बीच कथा-आलोचना से संबंधित लेखों के संग्रह और नामवर सिंह की आलोचना पर केंद्रित पुस्तक की तैयारी में वे लगे हुए थे। इसके अतिरिक्त भी उनकी कई योजनाएँ थीं। उस अंतिम मुलाकात में वे कुछ थके हुए से लग रहे थे। मुझे लगा कि गर्मी के कारण भी ऐसा है। 17-18 अप्रैल को मैं सफर में रहा। 19 अप्रैल की सुबह अचानक सूचना मिली कि गुंजन जी नहीं रहे। अंतिम साँस तक वे साहित्य-सृजन में लगे रहे।

गुंजन जी की वैचारिक दृष्टि का पता उनकी पुस्तकों के शीर्षकों से ही लग जाता है।  ‘विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत’ (1987), ‘हिंदी आलोचना और इतिहास दृष्टि’ (1988), ‘रचना और परंपरा’ (1989), ‘राहुल सांकृत्यायन: व्यक्ति और विचार’ (1995), ‘निराला आत्मसंघर्ष और दृष्टि’ (1998), ‘शमशेर नागार्जुन मुक्तिबोध’ (1999), ‘प्रखर आलोचक रामविलास शर्मा’ (2000), ‘हिंदी कविता का जनतंत्र’ (2012) और ‘कविता और संस्कृति’ (2013) और ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी नवजागरण’ नामक आलोचना की दस पुस्तकें प्रकाशित हैं। अभी उनके सैकड़ों आलोचनात्मक लेख असंकलित हैं, जिनमें कई अप्रकाशित भी हैं। इनके अतिरिक्त जार्ज थॉमसन की पुस्तक ‘मर्क्सिज्म एंड पोएट्री’ और अंटोनियो ग्राम्शी के चुने हुए निबंधों का उन्होंने ‘मार्क्सवाद और कविता’ (1985) तथा ‘साहित्य, संस्कृति और विचारधारा’ (1992) नाम से हिंदी अनुवाद और संपादन किया था।

उनकी पुस्तकों के महत्त्व को गार्गी प्रकाशन के दिगंबर ने समझा और उनके जीवित रहते- ‘मार्क्सवाद और कविता’, ‘साहित्य, संस्कृति और विचारधारा’, ‘राहुल सांकृत्यायन: व्यक्ति और विचार’ और ‘विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत’ को नये कलेवर के साथ दुबारा छापा। उन्होंने बताया कि इन पुस्तकों की अच्छी मांग है। खासकर छात्र-नौजवानों को ये पुस्तकें पसंद आ रही हैं।

गुंजन जी के लेखन की शुरुआत कविता से हुई थी।  ‘बच्चे जो कविता के बाहर हैं’ (1988), ‘इस संकट काल में’ (1999) और ‘समयांतर तथा अन्य कविताएँ’ (2015) और ‘समय के शब्द’ (2018) उनके प्रकाशित संग्रह है। ‘दिल्ली तथा अन्य कविताएं’ नाम से उनका एक और कविता-संग्रह शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला था। उन्होंने रामचंद्र शुक्ल शोध संस्थान, वराणसी से प्रकाशित होने वाली शोध पत्रिका ‘नया मानदंड’ के सात महत्वपूर्ण अंक रामवृक्ष बेनीपुरी, आचार्य नलिन विलोचन शर्मा, यशपाल, रांगेय राघव, भीष्म साहनी, डॉ. सुरेंद्र चौधरी और डॉ. चंद्रभूषण तिवारी पर संपादित किए। वेदनंदन सहाय, भगवती राकेश, रामेश्वर नाथ तिवारी और विजेंद्र अनिल के व्यक्तित्व और रचनाकर्म से संबंधित पुस्तकों का भी उन्होंने संपादन किया। उन्होंने नागार्जुन पर भी एक पुस्तक का संपादन किया था, जो नीलाभ प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। रेणु की जन्मशताब्दी के अवसर पर हाल में उन्होंने एक किताब का संपादन किया था।

1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह और कृषि क्रांति के उसके लक्ष्य को हिंदी साहित्य के लिए एक निर्णायक मोड़ की वजह मानने वाले रामनिहाल गुंजन वैचारिक तौर पर उसी के प्रभाव से विकसित साहित्य की नवजनवादी धारा से अपने आप को जोड़ते रहे। इस धारा को उन्होंने कभी भी प्रगतिशील-जनवादी धारा से सर्वथा विछिन्न नहीं माना, बल्कि उसी का विकास मानते रहे। हिन्दी की प्रगतिशील-जनवादी-नवजनवादी परंपरा के प्रति उनमें आजीवन गहरी आस्था रही। अपनी कविताओं में भी इस परंपरा को विकसित करने वाले लेखकों, कथाकारों और कवियों को याद करते रहे। उनकी कविताओं की पंक्तियों को वे बदले हुए समय में भी किसी उम्मीद की तरह अपनी कविताओं में लाते रहे। हिन्दी में जो वैकल्पिक लघु पत्रिका आंदोलन चला, शायद ही इतना जबरदस्त रचनात्मक योगदान किसी दूसरे लेखक का रहा होगा।

सत्ता का लगभग प्रवक्ता बन चुके कुछ भूतपूर्व-अभूतपूर्व क्रांतिकारी साहित्यकारों के विपरीत रामनिहाल गुंजन पूरे जीवन मजबूती के साथ अपनी वैचारिक पोजीशन पर कायम रहे। कभी बढ़-चढ़कर उन्होंने उस धारा पर न अपनी दावेदारी जताई और न ही कभी विचार और व्यवहार में उससे अलग कोई रास्ता अपनाया। उन्होंने जन संस्कृति मंच, बिहार के राज्य अध्यक्ष की जिम्मेवारी भी निभायी। वे एक सक्रिय अध्यक्ष थे। उनके लिए हर जगह जा पाना संभव नहीं था, पर फोन के जरिये वे जसम की इकाइयों के जिम्मेवार लोगों और पार्षदों को साहित्य-सृजन और संस्कृतिकर्म के लिए प्रेरित करते रहते थे। छोटी-छोटी गोष्ठियों के नियमित आयोजन पर उनका जोर रहता था।

गुंजन जी के स्वभाव में कोई उतावलापन या आक्रामकता नहीं थी। उनका लेखन भी उनके स्वभाव के अनुरूप ही था। बहुत ही धैर्य और दृढ़ता के साथ कई-कई संदर्भों के जरिए वे किसी रचना या आलोचना का मूल्यांकन करते थे। रामंचद्र शुक्ल, राहुल सांकृत्यायन, रामविलास शर्मा, निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल और मुक्तिबोध की रचना-आलोचना उन्हें अधिक प्रिय थी। नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि से निरंतर उनकी बहसें थीं। मुक्तिबोध से प्रायः वे सहमत दिखते थे। हालांकि जो उनके प्रिय लेखक थे, उनकी भी किसी अवधारणा से असहमति रहती थी, तो उसे भी स्पष्ट तौर पर जाहिर करते थे। उपेक्षित और विस्मृत कर दिये गये महत्त्वपूर्ण रचनाकारों पर उन्होंने बड़ी शिद्दत के साथ लिखा।
गुंजन जी उन दुर्लभ साहित्यकारों में थे, जो सत्ता के सांस्कृतिक सम्मोहन से बचे हुए थे। घनघोर आत्मप्रचार और पूंजी व सत्ता की गोद में बैठकर थोड़ा नाम-दाम पा लेने की आतुरता वाले मौजूदा दौर में वे एक ऐसे साहित्यकार थे, जो उस तरह की महत्वाकांक्षाओं और बेचैनियों से मुक्त रहकर बिना किसी शोर के लगातार लेखन कार्य करते रहे।

अपनी जिंदगी या अपने लेखन के बारे में वे बहुत कम बात करते थे। वैसे भी वे बहुत जल्दी खुलते नहीं थे। बोलते भी थे तो धीमी आवाज में। कुछ लोगों को यह भ्रम भी होता था कि वे बहुत अंतर्मुखी हैं, गैर-सामाजिक हैं। लेकिन व्यक्तिवाद से वे हमेशा अपनी असहमति जताते रहे तथा बारंबार रचनाकार और रचनाओं की सामाजिकता का पक्ष लेते रहे। अगर उन्हें लगता था कि आप उनके ईमानदार वैचारिक सहयोगी हैं, तो वे देर तक बिना रुके आप से बातचीत कर सकते थे। अनेक घटनाएं और साहित्यिक संदर्भ उनकी जुबान पर रहते थे। छिद्रान्वेषण, चरित्रहनन, परनिंदा, आत्मश्लाघा और आत्मप्रचार- जिसमें आजकल कस्बों से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक के साहित्यकार डूबे हुए नजर आते हैं, उसका कोई असर उन पर नहीं दिखता था। कभी किसी के बारे में कोई सवाल भी होता था उनके मन में, तो बेहद संकोच से पूछते थे और जो भी जवाब मिलता था, उसे सुनकर फिर बातचीत के मूल विषय पर केंद्रित हो जाते थे। शायद ही हल्के और भदेस किस्म की कोई बातचीत करते हुए कभी किसी ने उन्हें सुना होगा।

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