जन संस्कृति मंच ने प्रसिद्ध दलित साहित्यकार सूरजपाल चौहान के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। उनका आज नोएडा के एक अस्पताल में 66 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे।
अलीगढ़ में जन्मे सूरजपाल चौहान उन महत्वपूर्ण रचनाकारों में हैं, जिन्होंने भेदभाव और उत्पीड़न की वर्णवादी प्रवृत्तियों, ब्राह्मणवादी अंधआस्थाओं और अंधविश्वासों के खिलाफ अपने लेखन के जरिये लगातार संघर्ष किया। उनका निधन सामाजिक-आर्थिक समानता और वैज्ञानिक चिंतन के लिए सृजन और संघर्ष करने वाले लेखकों-संस्कृतिकर्मियों और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए अपूरणीय क्षति है।
सूरजपाल चौहान ने अपनी आत्मकथाओं, कविताओं और कहानियों में वर्णव्यवस्था के कारण होने वाले दलित जीवन के पीड़ादायक अनुभवों को तो चित्रित किया ही, दलित समाज की कमजोरियों और विडंबनाओं को भी दर्शाया। उनकी कविता ‘ये दलितों की बस्ती है’ उन्हीं विडंबनाओं का यथार्थ प्रस्तुत करती है। वे दिखाते हैं कि दलित समुदाय के लोग शराब के नशे में डूबे हुए हैं, उन पर ब्राह्मणवादी अंधआस्थाओं का गहरा असर है, दलितों के बीच भी एका का अभाव है। उन्होंने लिखा है- ‘‘बेटा बजरंग दल में है,/ बाप बना भगवाधारी/ भैया हिन्दू परिषद में हैं,/ बीजेपी में महतारी/ मंदिर-मस्जिद में गोली/ इनके कंधे से चलती है..’’।
उनके बीच नकली बौद्धों की मौजूदगी, अंबेडकर से दूरी और दलित समुदाय से आने वाले अफसरों द्वारा अपने ही समुदाय की उपेक्षा आदि की आलोचना भी वे करते हैं। वे खुद को भी आलोचना के दायरे में लाने से नहीं चूकते- ‘‘मैं भी लिखना सीख गया हूँ/ गीत कहानी और कविता/ इनके दुख दर्द की बातें/ मैं भी भला, कहाँ लिखता/ कैसे समझाऊँ अपने लोगों को/ चिंता यही खटकती है।’’ ऐसे ही भाव उनकी कविता ‘भीमराव का दलित नहीं यह गांधी जी का हरिजन है’ में भी व्यक्त हुआ है। विशेषकर दलित समाज में दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारों के प्रभाव को लेकर वे बहुत चिंतित रहते थे।
सूरजपाल चौहान भारत सरकार के एक उपक्रम में प्रबंधक (प्रशासन) के पद पर कार्यरत थे। उनका जन्म फुसावली, अलीगढ़, उ.प्र. के एक गरीब दलित परिवार में 20 अप्रैल 1955 को हुआ था। उनके पिता रेलवे स्टेशन पर मजदूरी करते थे और माँ ठाकुरों के घरों में काम करती थीं। लेकिन उनके मजदूर पिता ने उनकी शिक्षा पर ध्यान दिया। स्कूली जीवन में ही वे कविताएँ लिखने लगे थे। ‘प्रयास’, ‘क्यों विश्वास करूँ’ ‘वह दिन जरूर आएगा’ और ‘कब होगा भोर’ उनके प्रकाशित कविता संग्रह हैं।
नब्बे के दशक में हिन्दी में दलित साहित्य का जो उभार आया, सूरजपाल सिंह चौहान उसके प्रमुख रचनाकारों में गिने जाते हैं। उनकी आत्मकथा ‘तिरस्कृत’ और ‘संतप्त’ काफी चर्चित रही। इनमें उन्होंने सवर्णों द्वारा दलितों के ऊपर किये जाने वाले अत्याचारों, गाँव, नौकरी और साहित्यिक क्षेत्र में दलित होने के कारण होने वाले भेदभाव को तो दर्शाया ही, दलित आंदोलन के भीतर की स्वार्थपरता और दलित लेखकों के बीच मौजूद जातिगत भेदभाव और दुर्भावना की भी आलोचना की।
‘संतप्त’ में उन्होंने एक जगह लिखा है- ‘‘हिन्दी के कई दलित-लेखक छुआछूत और ऊँच-नीच के विरोध में लिखते और बोलते हैं, लेकिन आकंठ जातिवाद में सराबोर हैं।’ सूरजपाल चौहान ने दलित लेखन की वैचारिक रूढ़ियों की अपेक्षा दलित जीवन के बहुआयामी यथार्थ के चित्रण और दलितों की मुक्ति को अपने लेखन में ज्यादा महत्त्व दिया। हालांकि ‘संतप्त’ में स्त्रियों के यौन-संबंधों का जिस प्रकार उन्होंने वर्णन किया, उसे लेकर बहसें भी हुईं।
उनकी कहानियाँ ‘हैरी कब आएगा’ और ‘नया ब्राह्मण’ नामक कहानी-संग्रहों में संकलित हैं। ‘धोखा’ शीर्षक से उनकी लघुकथाओं का संग्रह भी प्रकाशित हुआ था। ‘साजिश’, ‘घाटे का सौदा’, ‘परिवर्तन’, ‘जलन’, ‘घमंड जाति का’ उनकी चर्चित कहानियाँ हैं। उन्होंने ‘छू नहीं सकता’ नामक एक लघु नाटिका की भी रचना की थी। बच्चों के लिए उन्होंने जो रचनाएँ लिखीं वे ‘बच्चे सच्चे किस्से’ और ‘बाल मधुर गीत’ पुस्तकों में संग्रहीत हैं। सूरजपाल चौहान ने पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेख और टिप्पणियाँ भी लिखीं। ‘समकालीन हिन्दी दलित साहित्य : एक विचार विमर्श’ उनके लेखों और टिप्पणियों का संग्रह है। उन्होंने 1857 में मंगल पांडेय को उत्प्रेरित करने वाले मातादीन की जीवनी भी लिखी। सूरजपाल चौहान की रचनाएँ देश के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। उन्हें साहित्य सृजन के लिए रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार और हिन्दी साहित्य परिषद पुरस्कार भी मिला था। वे दलित लेखक संघ के पहले अध्यक्ष थे। सूरजपाल चौहान को जन संस्कृति मंच की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि !
( जन संस्कृति मंच की ओर से रामनरेश राम द्वारा जारी)