समकालीन जनमत
विज्ञान

महामारी में अंध-मान्यताओं के खतरे

डॉ.दीना नाथ मौर्य


पिछले दिनों सोशल मीडिया में कानपुर उत्तर प्रदेश के एक अस्पताल का वीडियो वायरल हो रहा था जिसमें कोविड वार्ड में आक्सीजन सपोर्ट पर रखे मरीज को उसके दो तीमारदार/रिश्तेदार महिलाओं ने अपनी अंध-आस्था के वशीभूत होकर जान ले ली. दोनों महिलाएं न तो मास्क लगाये थीं और न ही कोविड जैसी संक्रामक बीमारी से बचाव के प्रति सतर्क ही थीं.उन्होंने वार्ड में अपनी आस्था के अनुसार जोर-जोर से जयकारे लगाए और आक्सीजन सपोर्ट सिस्टम के साथ भी छेड़खानी की.मरीज उनके सामने ही तड़पता रहा, अंतत उसकी दर्दनाक मौत हो गयी. इसे लेकर तमाम तरह की बहसें भी सोशल मीडिया और मुख्यधारा के मीडिया प्लेटफार्म पर खूब हुईं. कानपुर में घटी यह घटना केवल एक मरीज की मौत भर नहीं थी बल्कि यह वाकया उस समूची चेतना का गला घोंटने जैसा था जो विज्ञान और वैज्ञानिक नजरिये से पैदा होती है. जाहिर सी बात है कि जयकारा लगाने वाली दोनों महिलाओं का इरादा मरीज को मारना नहीं बल्कि उसे बचाना रहा होगा लेकिन इसके लिये उन्होंने इस तरह के तरीके का इस्तेमाल किया वह अपने परिणाम में उलट गया. इस घटना के दूरगामी कारण और प्रभाव समाज की उस बुनियादी संरचना में निहित हैं जहाँ भाग्य के भरोसे अपने को समर्पित करने की पूरी प्रणाली ही विकसित हुयी है.
जिस समाज में परलोक का भय दिखाकर वर्तमान में शोषण की बिसात बिठायी जाने की परम्परा रही हो वहां  महामारी के विकराल रूप की सच्चाई और उसकी विभीषिका के प्रति जागरूकता की चेतना फैलाने में वक्त लगेगा. ‘जो भयभीत करे वह भगवान है’ की मान्यता ही अंततः कोरोना वायरस को भोले-भाले लोक के मानस में ‘कोरोना माई’ के रूप में स्थापित कर देता है ;फिर यहीं से शुरू होता है ताबीज और गंडे बाँधने का खेल. यह बात ठीक है कि सामान्य परिस्थितियों में हम सब अपने आराध्य को मानने और उनके प्रति अपने समर्पण की श्रद्धा व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन दुनिया के किसी भी धर्म की मान्यताएं इस बात की छूट नहीं देतीं हैं कि हम मनुष्य होकर मनुष्य का विरोध करें. वह भी ऐसे समय में जब पूरी मानवता के लिए एक वायरस खतरा बना हुआ हुआ हो.
धर्मभीरु समाज में खुद की जिम्मेदारी और दायित्व को ईश्वर के ऊपर डालकर अपने को मुक्त करने की प्रवृत्ति सत्ता के चरित्र का हिस्सा हुआ करती है. इस तरह के उपाय एक तरफ जहाँ मनुष्य को ईश्वर के प्रति आस्थावान बनाये रखते हैं वहीं दूसरी ओर सत्ता भी इस दबाव से मुक्त होने का नैतिक आधार लोगों के इस विश्वास में तलाश लेती है कि जन्म-मृत्यु तो ईश्वर के हाथ में है इसमें कोई क्या कर सकता है. लोक और परलोक की कलपना के सूत्र भी इस दौरान खूब प्रचारित किये जाते हैं. दुखद है कि इस संसार के कष्ट के बरक्श परलोक को सुकूनदायी जगह बता देने के अनेक नरैटिव भी इस तरह के कठिन समय में खूब प्रचारित किये गये हैं. ‘जो चले गये वे मुक्त हो गये’ का जुमला दरअसल इसी तरह का एक नरैटिव है. इस तरह के नरैटिव के जरिये ही भौतिक संसार की सभी सुख-सुविधाओं का जमकर उपयोग करने वाले लोग भोली-भाली जनता को इसे त्यागने का उपदेश देकर अपना उल्लू सीधा करते हैं. परलोक का सुख उसे ज्यादा आकर्षित करते हैं जिन्हें इहलोक में उन सुखों की कल्पना भी नसीब न हुयी हो.यही कारण है कि समाज का वंचित वर्ग हमेशा वर्चस्व की उस प्रणाली में पिसता रहता है जहाँ से परलोक के सपने दिखाने के विचार जन्म लेते हैं.
महामारी के इस दौर में भी भाग्य और भगवान के सहारे एक नई तरह की संस्कृति को पोषित करने का कार्य भी किया जा रहा है. ऐसा करते समय लोग यह भूल जा रहे हैं कि लोकप्रियता के चक्कर में कुछ भी बयानबाजी कर देना किसी के लिए जानलेवा हो सकता है. एक ऐसे समाज में यह सब करना बहुत आसान होता है जहाँ पर लाल चुनरी और गेरुए पत्थर पर ही नहीं; टेढ़ी लकड़ी और विकलांग पशु-पक्षियों के दर्शन और संगत के साथ परलोक सुधरने की कल्पना जुड़ी हो.वैज्ञानिक चेतना वास्तविकता को स्वीकार करती है. जिस भी समय और समाज में वास्तविक सच्चाई को अनुमान या हवाई कल्पना के सूत्रों से अपदस्थ किये जाने की परम्परा होगी वहां निश्चित तौर पर हम यथार्थ से न सिर्फ पलायन कर रहे होते हैं बल्कि विज्ञान की चौतरफा उपस्थिति की बावजूद वैज्ञानिक चेतना से खुद को दूर कर रहे होते हैं. मनुष्य के साथ ही अन्य प्राणियों के जीवन की सुरक्षा के प्रति हमारी सजगता तब तार्किक हो पाएगी जब हम इस बात पर यकीन करें कि जो दिख रहा है वह सच के ज्यादा करीब है. आस्था और विश्वास बड़े ही सार्थक शब्द हैं गर इनके व्यावहारिक रूप के दर्शन हम जीवन को बचाने और इस वास्तविक दुनिया को समझने और इसे बेहतर बनाने के लिए करें.
इस दौर का यह अजीब विरोधाभास है कि एक ओर जहाँ चिकित्सा विज्ञान इस महामारी से निपटने के लिए लगातार जूझ रहा है वहीं देश के कुछ सेलेब्रिटी ,राज नेताओं,धार्मिक गुरुओं द्वारा अनर्गल प्रलाप के जरिये आम जन मानस में तमाम तरह की भ्रम की स्थिति भी पैदा की जा रही है. ग्रामीण समाज में कोरोना को झाड़ने-फूकने वाले बाबाओं की एक अलग आमद इन दिनों तैयार हुयी है. दूर-दराज के इलाकों में दो गज दूरी और डबल मास्क के इस कठिन समय में फूंक मारने की यह तांत्रिक विधि कोरोना के प्रसार का जरिया भी बन रही हों तो क्या आश्चर्य? जबकि महामारी एक्ट इस बात की वकालत करता है कि इस तरह की स्थितियों में अफवाह फैलाना और दूसरों की जान खतरे में डाल कर किसी भी तरह के टोने- टोटके की मूर्खतापूर्ण हरकत करना दंडनीय अपराध है जिसके लिए एक्ट बाकायदा सजा का प्रावधान भी करता है.
चिकित्सा विज्ञान जहाँ एक ओर डबल मास्क की बात कर रहा है वहीं दूसरी ओर झाड़-फूंक की मूर्खतापूर्ण हरकतें भी बदस्तूर जारी हैं. खासकर उस अवस्था में यह सब होना लाजमी है जब बुनियादी चिकित्सा सुविधाएँ सर्वसुलभ नहीं हैं. महामारी से लड़ाई में जब बगैर किसी बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के अगर यह कहा जायेगा कि इस बीमारी से आत्म निर्भर होकर लड़ना होगा तो जनता के पास ईश्वर की शरण में जाने के सिवा दूसरा रास्ता ही क्या बचेगा? फिर वह चाहे जिए या मरे. जीवन रक्षक दवाइयों के उत्पादन और वैक्सिनेसन का काम जब पूरे देश में हो रहा है तो अभिव्यक्ति की ऐसी आजादी की छूट न दी जाय कि वह एक बड़े समुदाय के लिए जानलेवा बन जाए. अपनी निजी मान्यताओं परे हमें सामूहिक और सामुदायिक जीवन रक्षा के हित में अवैज्ञानिक मान्यताओं का न सिर्फ विरोध करना चाहिए बल्कि बहुआयामी सामाजिकता वाले भारतीय समाज के बीच तार्किक रूप से वैज्ञानिक बातों के व्यवहारिक पक्ष के प्रति लोगों के भीतर जागरूकता लाने का प्रयास भी करना चाहिए. यह जिम्मेदारी केवल जनता की ही नहीं है बल्कि सरकार को भी अपने तमाम माध्यमों के जरिये इस कार्य को अंजाम देना चाहिए. देश का संविधान यह दायित्व सरकार को देता है कि नागरिकों के बीच वैज्ञानिक नजरिये के विकास के लिए कार्य करना चाहिए.
संकट के इस समय में रूढिगत धार्मिक मान्यताओं की तमाम चीजें हमें छोडनी होंगी और एक सामूहिक वैज्ञानिक नजरिये के साथ इस आ गये संकट से निपटने की कोशिश करनी होगी. किसी पापड़,चाकलेट या दूसरी अनुष्ठानिक विधियों का प्रयोग रोगियों पर करने मात्र से हम किसी विज्ञानसंगत निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सकते हैं. हमें ध्यान रखना होगा कि यह समय किसी भी चीज में आस्था रखने का है तो वह जीवन में आस्था रखना.हम सबको इसके लिए प्रयास करना चाहिए।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर है.)

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