समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

अल्पना मिश्र की कहानी के बहाने कुछ बातें

निकिता


यदि हम अल्पना मिश्रा की कहानी ‘सुनयना! तेरे नैन बड़े बेचैन’ को पढ़ते हैं, तो हमें उस कहानी में कई चीजें सामने आती दिखती हैं। पहली चीज़ तो गाँव की स्थिति; जो कि इस कहानी में हमें अपने बाह्य आडंम्बर से एकदम भिन्न दिखती है। यदि हम आज के गाँव से इसकी तुलना करें तो यह सही भी है; हम गाँव के बारे में जैसी कल्पना करते हैं‌, वास्तव में अब उसकी स्थिति बिल्कुल उस कल्पना के विपरीत है जिसका संकेत हमें इस कहानी में मिल जाती है। और दूसरी चीज़‌ यह कि वास्तव में स्त्री के लिए हमने हमारे शहरों में जिन कामकाजी महिलाओं की संख्या से स्त्रियों की स्थिति को प्रगतिशील रूप में आँकना शुरू किया है,वह गाँव की स्त्रियों से एकदम भिन्न है। शहर में पुरुषों के समान हर क्षेत्र में भाग लेने वाली महिलाओं से विपरीत स्थिति हम हमारे गाँवों में आज भी आज की महिलाओं के लिए देख सकते हैं। कितनी औरतें प्रतिभा के होते हुए भी वह सबकुछ नहीं कर पाईं जिसके योग्य वे थीं, या कितनों ने बहुत कुछ पाकर भी उसे इसलिए गृहस्थी को समर्पित कर दिया क्योंकि वह एक महिला थीं और उनके घर के पुरुष एक महिला को बाहर कार्य करने की अनुमति नहीं दे सकते, और कितनी ही गाँव की स्त्रियाँ व युवा स्त्री आज पढ़ते हुए य नौकरी करते हुए, उन सब का सामना करती हैं, जो वह नहीं हैं पर समाज उन्हें वैसा ही सोचता है‌ (गाँव में ज्यादा पढ़ी लिखी होने वाली स्त्रयों को चरित्रहीन व ‘तेज़’ स्त्री के रूप में विशेष रूप से संम्बोधित किया जाता रहा है) स्त्रियों के भीतर द्वन्द के कई परत होती हैं, जिसे वह स्वयं भी अपने जीवन में खोलना आवश्यक नहीं समझतीं। और यह समस्या गाँव की स्त्रियों के साथ अधिक है, वह चाहे महिला हो या युवा स्त्री, उनको हमारे गाँव के संस्कार यह बताते आ रहे हैं कि तुम्हारा जन्म ही तुम्हारे लिए न होकर उन लोगों के हुआ है; जो पहले तुम्हें पिता-भाई के रूप में मिलेंगे अन्तत: पति व पुत्र रुप में। अल्पना मिश्रा की कहानी में हम बखूबी देख सकते हैं कि एक स्त्री दूसरी स्त्री के बीत चुके दर्द को पूछ रही है, जो कहने को तो बीत चुके हैं; पर आज भी ये प्रश्न उसकी दीदी को मौन कर जाता है जिसे हमारे गाँव की स्त्रियों ने न जाने कितने वर्षों से धारण कर रखा है।
‘गाँव’ एक ऐसा शब्द; जो स्वयं में एक सकारात्मकता लिए हुए है। जिसको याद कर हमें जीवन के एक स्थायी व सुगम स्थान का अनुभव होता है और गाँव ही वह स्थान है,जिसमें हमारी संस्कृति बसती है। हमारा बचपन,प्रारम्भिक शिक्षा,और अनेक स्मृतियाँ गाँव से जुड़ी हुई हैं, जिसके कारण ही आज हम बड़े-बड़े शहरों,महानगरों य देश विदेशों में होते हुए भी गाँव में बिताए उन अमूल्य क्षणों को चाहें तो क्षण भर में याद कर अनन्त आनन्द का अनुभव कर सकते हैं या कर ही लेते हैं। दुनियादारी के इस भागदौड़ के दौर में मन के एक कोने में यह बात रहती है कि सब कुछ छोड़ छाड़ के अपने गाँव के स्वच्छ-निर्मल, जटिलतारहित, प्रेम से परिपूर्ण उस वातावरण में चला या चली जाऊँ, जहाँ न कोई झंझट है और न ही कोई छल कपट। जो कि हमें बाहर की दुनिया में परवान चढ़ा मिलता है.. जिसके लिए हमें सदैव सजग रहना पड़ता है कि फला आदमी यदि यह अच्छी और मधुर बात कह रहा तो क्यों..क्या इसके पीछे कोई थथरई हो सकती है. आदि आदि नकारात्मक बातें..जो हमें गाँव में नहीं मिलती,पर क्या हमारे कल्पना के ऐसे ग्रामीण वातावरण आज भी हमें मिलते हैं?
हमारे गाँव ही हमारे प्रारम्भिक शिक्षा के आधार थे, जिसमें कागजी शिक्षा के साथ ही सामाजिक व वर्ग भेद की भी शिक्षा आती है । इस शिक्षा में लड़के -लड़कियों में ही नहीं, बल्कि भाई-बहन, माता-पिता, दादा -दादी आदि (पुरुष स्त्री) सदस्यों को भी विभाजित कर हमें उनके क्षमताओं और अधिकारों की शिक्षा दी जाती है,जो कि हमारे ग्रामीण समाज की पृष्ठभूमि होती है और वही लड़के-लड़कियों का भविष्य भी बना दिया जाता है। जिसमें उन दोनों के क्षमताओं, अधिकारों व योग्यताओं का बकायदा विभाजन किया जाता रहा है। आज हम बाहर-बाहर हैं, अतः इन पक्षों पर ध्यान दे, उसका आकलन नहीं कर पा रहें, हमें लगता है कि अब सब समान ही हैं। लडकियाँ भी पढ़ रहीं हैं, नौकरी कर रहीं हैं और हर सम्भव क्षेत्रों में भाग ले रहीं हैं जिसमें उनके अधिकारों को पूर्णत: उन्हें दिया जा रहा है अतः अब उनकी स्थिति पहले से बढ़िया है। इन्हीं धारणाओं के आधार पर ही हम स्त्री के समस्याओं और अधिकारों के प्रश्न पर फुलस्टाप लगा देते हैं। हमारा स्त्रियों के अधिकार के विषय में यह सोचना य मान लेना कहाँ तक की स्त्रियों के लिए न्यायसंगत है; इसका जवाब हमें हमारे गाँव से बेहतर कहीं नहीं मिल सकता।
यदि हम गाँव को अपने आधुनिक समय के लिए स्वच्छ व जटिलतारहित स्थान मानते हैं, तो यह हमारे लिए बहुत बड़ा भ्रम है; क्योंकि हमारे देश का हर वो स्थान जो उसका अपना है उसमें उसके वर्षों से दबा दिए गए सदस्यों की क्या स्थिति है य उसपर इस दौर में क्या घटित हो रहा है,यह अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे नजर अंदाज़ कर हम अपने देश य देश के किसी भाग को स्वच्छ- निर्मल नहीं मान सकते,और जैसा कि हमारे पूर्वजों ने कहा गाँव में हमारी संस्कृति बसती है तो हम क्यों गाँव में ‘सृष्टि’के महत्त्वपूर्ण सदस्य ‘स्त्रियों’ के स्थिति को नजरंदाज कर गाँव के वातावरण को एक सुरम्य वातावरण मानें?
हमारे गाँव के इस सन्धिकाल; जिसमें कि वह शहरों के पाश्चात्य विचारों से तो भलीभाँति प्रभावित है ही,साथ ही अपने प्राचीन मान्यताओं को भी छोड़ना नहीं चाहता। इसप्रकार,गाँव में हमें बहुत से सकारात्मक व नकारात्मक पक्ष दिखाई देते हैं अतः गाँव की जो संस्कृति हम पहले विशुद्ध रूप में पाते थे,उसमें अब कई तरह की मिलावटें हो गयीं हैं।इसलिए हमारा यह तय करना कि वास्तव में हमारा गाँव चल किस सिद्धांत पर रहा है थोड़ा समस्या जनक हो जाता है,जो कि स्वाभाविक है। गाँव के इस समस्या का सबसे अधिक सामना हमारे गाँव की स्त्रियों को करना पड़ता है। क्योंकि,वह जितना सीमित देखती हैं,उतना ही सीमित अपने कार्यक्षेत्र को भी मान लेती हैं और उससे भी ज्यादा,अपने विस्तृत अधिकार को भी वे वही सीमित स्थान दे देती रहीं हैं;जो कि हमारी संस्कृति बन चुकी है।
‘शिक्षा’ जो सबके लिए समान होता है और सभी इसके अधिकारी हैं, पर इसमें भी हम विभाजन को देख सकते हैं जो गाँव के माता-पिता के द्वारा अक्सर किया जाता है।बेटियों को हिन्दी माध्यम की शिक्षा तथा बेटों को अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा, बेटियों को ‘कला वर्ग’ की शिक्षा, तथा बेटों को ‘विज्ञान वर्ग’ की शिक्षा आदि विभाजन को और समय की माँग को देखते हुए हम समझ सकते हैं कि बेटियों को शिक्षा, एक सीमित क्षेत्र के लिए दिया जाता रहा है जबकि बेटों को दुनिया के माँग के अनुसार शिक्षा दे,उन्हें आगे के लिए अग्रसर कर उनके लिए तमाम दरवाजे खोल दिए जाते हैं। वहीं उन्हें (माता-पिता) अगर लड़की बहुत होनहार समझ आई तो उन्हें ‘बी एड’ कराकर सुगम नौकरी के लिए तैयार कर दिया जाता है। वो क्या है न; लड़की जात को हमारे समाज ने यहीं तक सीमित कर उसके लिए यही लीक बना दिया है, जिसके कारण ही,और भी बहुत कुछ कर सकने वाली लड़कियाँ खुशी-खुशी इसी सीमितता को स्वीकार कर लेती हैं।
आज हम बाहर-बाहर से यही मान लेते हैं कि शहरों की ही तरह गाँव में भी शिक्षा को लेकर अब कोई भी भेदभाव नहीं है; पर अगर हम ऐसा सोचते हैं तो वास्तव में हमें गाँव के शैक्षिक स्थिति का ज्ञान ही नहीं है।वहाँ के लोगों को शिक्षा का अर्थ ही नहीं पता। वे शिक्षा को कागजी ज्ञान मात्र ही मानते आ रहें हैं, जबकि शिक्षा को हम कागजी ज्ञान मात्र ही नहीं मान सकते, शिक्षा ज्ञान के साथ हमें तर्क, अपने अधिकारों के प्रति सजगता,व किसी भी कार्य के कारण को जानने के लिए हमें प्रेरित व तैयार करता है जिसे कि हम गाँव में 20 प्रतिशत मात्र भी नहीं पाते हैं। इसमें भी अगर हम बात करें स्त्रियों की तो उन्हें शिक्षा के इस परिभाषा से कभी अवगत ही नहीं कराया गया। हम साधारणतः कहते हैं “डिग्री ही ले लो आगे कुछ काम ही आ जाएगा” पर उनके लिए शिक्षा डिग्री प्राप्त करना भी नहीं है। जिस प्रकार, हम बचपन में पिता के अनुशासन में रहते हुए खेलने का एक सीमित समय पाते थे; हमारे पूरे समय को हमारे अभिभावकों द्वारा हमारे लिए निर्धारित कर दिया जाता था,जिसमें सीमित समय में हम डरे हुए खेलने जाते और सहमें हुए निश्चित समय पर वापस घर आ जाते थे। ठीक वही स्थिति गाँव में पढ़ रहीं लड़कियों की भी है‌ वो पढ़ तो रहीं हैं पर उसका न ही कोई उद्देश्य है और न ही कोई प्रभाव। रोज़ सुबह खाना बनाने से जो समय मिल‌ जाता है वह उनके शिक्षा के प्राप्ति का समय होता है। स्कूल से आते ही वह पुनः अपने रसोई में लग जाती हैं न ही उन्हें घर से इतर समय मिलता है कि वह पढ़ सकें और न ही वह स्वयं इस झंझट में पुनः पढ़ना चाहती हैं। क्योंकि, शायद उन्हें पता है कि उनके लिए शिक्षा से अधिक लाभकारी उनकी पाक-कला ही होगी जो वास्तव में आगे उन्हें काम आने वाली है शिक्षा का क्या? वह तो सीमित समय के लिए मनोरंजनार्थ था जिसका आगे कोई काम नहीं ।और तो और,हमारे शिक्षित अभिभावक उनसे कभी यह सवाल तक नहीं करते कि क्या तुम आगे पढ़ना चाहती हो य तुम्हें किस लाइन में नौकरी करनी ? उनका भी उद्देश्य नाममात्र तक बच्ची को पढ़ाना होता है जो कि विवाह के समय बीच में भी रोका जा सकता है, क्योंकि उनके लिए बच्ची का विवाह मायने रखता है न कि उसकी शिक्षा। इस तरह के प्रश्न गाँव के अधिकांश लड़कियों के सामने उनके पूरे जीवन तक आते ही नहीं और जहाँ प्रश्न नहीं वहाँ संरचना होना कतई सम्भव नहीं।
हम हमारे गाँव की स्त्रियों को शिक्षित कहते हैं पर यह भी जानते हैं कि उनका शिक्षित होना उनके रसोई प्रवेश तक के लिए ही रह जाता है। क्या हमारे लिए यह प्रश्न नहीं होना चाहिए कि उनके लिए शिक्षा के मायने वर्षोंं से अपना वही उद्देश्य क्यों लिये हुए है? इस स्थिति के आधार पर मैं अगर ये कहूँ कि पुरुषों ने शिक्षा में भी सदैव अपना अधिपत्य चाहा है और यह सब जानते, और देखते हुए भी अगर वो ऐसे अवैज्ञानिक मूल्यों को परिवर्तित नहीं करते तो निसंदेह मेरा यह कहना ग़लत नहीं कि हमारी शिक्षा पद्धति भी पुरुष प्रधान शिक्षा पद्धति है। जिसके उदाहरण को हम गाँव में आसानी से देख अपने शिक्षा पद्धति को बेहतर तौर से समझ सकते हैं। यहाँ पर शिक्षा के समान अधिकार को भी हमारे पुरुष प्रधान समाज ने नहीं छोड़ा.. जो लडकियाँ बाहर जाकर पढ़ भी रहीं उनके लिए कोई नयी मान्यता य प्रोत्साहन हो, ऐसा तो नहीं कह सकते पर हाँ उस लड़की के साथ कई ऐसी पुरुष सामाजिक शक्ति सदैव होती है जो उसे कलंकित करने के लिए काफी होती है। हमारे पुरुष शिक्षा पद्धति का एक नियम यह भी है कि उनके द्वारा निर्मित नियमों के आधार से बाहर पढ़ रही लड़की अगर एक कदम भी इधर उधर होती है; तो उसके इस क्रिया से प्रतिक्रिया स्वरूप उसे कलंकित होना ही पड़ेगा यह हमारे शिक्षा पद्धति का एक अहम बिंदु है, जिसे हर लड़की को ज्ञात होना चाहिए। उसे यह अवगत होना चाहिए कि उसे पढ़ने की स्वतंत्रता नहीं वरन् दोहरी बेड़ियों में बाँधा गया है जहाँ पर वह चरित्रवान भी हो सकती है और परम्परा से हटने पर चरित्रहीन भी।
अगर हम बात करें हमारे गाँव की अशिक्षित (कम)उनके घर के पुरूषों द्वारा संचालित (अधिक) स्त्रियों की,तो वो ऐसे दोवाब में हैं जो उनके जीवन को पाश्चात्य संस्कारों, शिक्षित व आत्मनिर्भर स्त्रियों से तो प्रभावित करती है पर वो उसे मुँह ढाँक दूर खड़ी किसी कोने से ही देखती हैं।उनको पुरुष प्रधान समाज ने ऐसा जकड़ा है कि वह चाहकर भी उनके द्वारा बनाए स्वार्थमयी मान्यताओं से नहीं निकाल पातीं।वह देखते और समझते हुए भी कि हमारी स्वतंत्रता य आत्मनिर्भरता ही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए जिससे हम हमारे सभी समस्याओं से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं,हमें अपने जीविका चलाने के लिए जो कुछ भी सहना पड़ता है य न चाहते हुए भी हमें निर्लज्जों की तरह बार-बार उस पुरुष के सामने हाँथ फैलाना पड़ता है, जिसके पास मेरे लिए इज्ज़त तक नहीं आदि आदि चीजों को समझते हुए भी वह स्वयं को इसी लिए नहीं खड़ी कर पाती क्योंकि हमारे पुरुषों ने उनमें कहीं ये हौसला ही नहीं आने दिया और यदि किसी स्त्री ने हौसला कर बाहर कदम रखा भी तो उन्हीं पुरुषों ने उसे ऐसा कलंकित किया कि और औरतें सब कुछ जानते हुए भी इस हौसले को ही घृणित मान घर की चहारदीवारी में ही रहना अपनी नियति समझती रहीं। शिक्षा से सामना मात्र हो जाने के बाद वे सुदूर शहरों के शैक्षिक वातावरण से प्रभावित होते हुए भी स्वयं को गाँव के नकारात्मकता से दूर नहीं कर पातीं।घर के पितृसत्ता वातावरण को वे अपने शिक्षित मस्तिष्क के केन्द्र में रख कर अपना अस्तित्व वहीं तक समझ पातीं हैं, जितना उनके बचपन से पृथक कर दिए गए उनके हिस्से की योग्यता व क्षमता के क्षेत्र में आता है।वो अपने सामने ही अपने अधिकारों का हनन होते देख ये नहीं समझ पातीं कि यह मेरे जीवन के लिए बहुत बड़ा बदलाव होगा जिसे कोई दूसरा व्यक्ति कर रहा है जो कि मुझसे कई वर्ष का छोटा है। वह किसी भी प्रकार का प्रश्न भी नहीं करतीं क्योंकि बचपन में ही उससे यह अधिकार छीन लिया गया था। अगर कोई पुरुष उसके जीवन का निर्णय कर भी रहा तो किसी विशेष योग्यता पर नहीं बल्कि सिर्फ इसलिए कि वह एक पुरुष है और बचपन से पृथक कर दी गई हमारे क्षमताओं व अधिकारों में से यह अधिकार उसके हिस्से का हो चुका है। अतः उसे मानना भी नहीं पड़ता, यह चीज स्वत: उसके भीतर आ जाती है कि मेरे लिए यह जो बदलाव होगा वो भले ही मेरे एकमात्र जीवन के लिए हानिकारक है पर इसका निर्धारण करना मेरे हाँथ में नही, अगर कुछ है तो वह सिर्फ इस बदलाव का निर्वहन करना है जिसे तमाम वर्षों से हमारे घर गाँव की महिलाएँ कर रही हैं।
यदि हम बात करें हमारे गाँव की युवा स्त्रियों की तो उनके लिए एक बहुत ही गंभीर समस्या यह है कि पाश्चात्य प्रभाव उन्हें ‘रमणी’ (बााह्य सौन्दर्य)बनने पर अधिक बल दे रहा और गाँव में रहते हुए भी हमारी गाँव की संस्कृति जो कि उनके लिए सकारात्मक पक्ष है ‘स्त्रित्व’ का प्रभाव उनमें कहीं नहीं मिलता। प्रारंभ से ही स्त्रियों को पिछली श्रेणी में इसी लिए रखा गया क्योंकि उनके पास कोई पद प्रतिष्ठा नहीं थी। हालांकि, वो समझदारी में पुरूषों से कभी भी कम नहीं थीं,पर उन्हें वो अवसर ही नहीं मिला कि वो अपने व्यक्तित्व को निखारकर वास्तव में अपने अस्तित्व को समझें कि वो भी समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान रखतीं हैं और आज जब उन्हें थोड़ा सा स्थान मिला है तो वो अन्धकार से निकली हुई चकाचौंध में हैं और जो भी चीज़ वो देख रहीं हैं वह उनके लिए सर्वथा नवीन है जिसे उसने कभी देखा नहीं था.. अतः इस दौरान हमारे गाँव की युवा स्त्रियों को ‘रमणी’ और ‘स्त्रित्व’ का भेद समझ नहीं आ रहा है। मैं ये नहीं कह रही कि ‘रमणी’ होना कोई बुराई है,पर जहाँ उनकेे जीवन में उनका अस्तित्व ही इसी आधार पर निर्धारित किया जा रहा‌ है कि उनके लिए पद का होना उनके अस्तित्व के लिए अत्यावश्यक है तो उसके इस धारणा का, कि रमणी होना अधिक महत्वपूर्ण है उसका अपने साथ बहुत बड़ा अन्याय है, जिसे हमारी गाँव की युवा स्त्रियाँ समझ नहीं पा रहीं हैं और सौन्दर्य को अपने व्यक्तित्व विकास य स्वयं को निखारने से अधिक महत्व देकर स्वयं के एकमात्र अवसर को भी इस बाहरी दिखावे में व्यर्थ कर दे रहीं, उनके इस चकाचौंध की कीमत को उनके घर के पुरूष उनके विवाह के रूप में चुकाते हैं। बहुत सी ऐसी लड़कियाँ भी हैं,जो अपने रूप व सौन्दर्य के कारण प्रतिभावान होते हुए भी अपने घर के पुरूषों व अन्य सदस्यों के शंका के केन्द्र में रहीं हैं और इसके कारण ही वो बहुत से अवसरों से वंचित कर दी जाती हैं क्योंकि, हमेशा से ही उनके देह को प्रधान रूप से देखा गया है,न कि उनके प्रतिभा को।जबकि वहीं उनके भाई चाहे सौन्दर्यवान हो या नहीं किसी भी प्रकार का अनैतिक कार्य करने के लिए स्वतंत्र हैं उनके लापरवाही य अनैतिकता को देखते हुए भी उन पर किसी भी प्रकार की शंकादि की समस्या कभी नहीं आती है।इनमें से ही यदि कोई लड़की बाहर पढ़ने के लिए भेजी गई है तो उसे पढ़ने य आत्मनिर्भर होने की कम बल्कि आचरण सम्हाले रहने की नसीहत अधिक मिलती है,वह भी दंग रहती है;उन सदस्यों को देखकर जो उसके भाई, बहन व आत्मीयजन हैं उसपर कलंक लगाने में पीछे नहीं हटते और कलंक भी कैसा कि लड़की होना ही उसके लिए सबसे बड़ा कलंक बना दिया जाता है।अगर वह लड़की है और बाहर पढ़ रही है तो वह पढ़ें य न पढ़ें नौकरी पाए य न पाए,पर बाहर जाने के साथ ही उसपर कलंक का एक टीका लगना तो आवश्यक सा हो गया है खासकर गाँव में ऐसी समस्या का सामना प्रत्येक लड़की को करना पड़ता है और यह हमारे गाँव के सदस्यों के द्वारा ही वर्षोंं से हमारे समाज की बेटियों को दिया जाने वाला मुफ्त का उपहार है, जिसे वह ( लड़की) चाहे य न चाहे पर उसे लेना ही पड़ेगा।
गाँव की जो भी औरतें शिक्षित व आत्मनिर्भर हो अपनी जीविका चला रहीं हैं,उसमें से कुछ अपवाद स्त्रियाँ ही होंगी जो कि गाँव के सदस्यों के आक्षेपों से बचीं हो।उनकी आँखो में गर्व के साथ ही एक अपराध भी आसानी से देखने को मिल जाता है; जिसे मानो उसने नौकरी करके के कर दिया हो।हम लाख का मान लें कि हमें एक नौकरी करने वाली बहू य पत्नी चाहिए पर उसके साथ ही हम तमाम अप्रत्यक्ष मूल्यों को भी उसके लिए निर्धारित कर देते हैं।जिसके भीतर ही हमारे समाज की आत्मनिर्भर औरतों को रहना है और अगर वो पुरुष समाज के इस बनाए गए मूल्यों से थोड़ा भी इधर-उधर हुईं तो उनके लिए आक्षेपों व आरोपों का पूरा का पूरा झुण्ड तैयार बैठा हुआ होता है।
हम क्यों नहीं समझना चाहते कि हमने स्त्रियों की समस्या को कभी देखने का प्रयास ही नहीं किया और अनेक मान्यताओं को बनाकर अगर आप उसे तमाम छूट दे भी रहें तो वह भी तो उसके लिए एक बन्धन ही है,जिसे आपने अप्रत्यक्ष रूप से उसके गले बाँध दिया। अगर वह बाहर की दुनिया से कुछ सही ग़लत समझकर अपने जीवन को अपने अनुसार जीना चाहती है, तब अगर आप उसे सहज रूप से अपना रहें उस पर कोई आक्षेप नहीं लगा रहें तब तो कोई बदलाव माना जा सकता है पर यहाँ तो अब भी एक चीज हमारे सामने बार-बार आती ही रहती है कि “इसको बाहर भेजना ही नहीं था”,य “ज्यादा पढ़कर इसका दिमाक खराब हो गया है” कभी-कभी तो यहाँ तक सुनने में आता है कि “भाई! हमें ज्यादा पढ़ी-लिखी बहू नहीं चाहिए।रोज़ रोज़ कलह थोड़े मचाना है घर में, हमें गाँव की सीधी-सादी लड़की चाहिए।”अरे ये मान्यताएँ जबतक हैं तब तक कहाँ सोचा गया है,स्त्रियों के समस्या के विषय में और ये मान्यताएँ बनाता कौन है हमारे कुछ पुरूष वर्ग ही..
कुछ पुरूषों को तो समझ ही नहीं आता कि अब समय बदल रहा और उसके साथ ही मान्यताएँ भी बदल रही हैं। इसप्रकार, स्वाधीनता व आत्मनिर्भरता पर प्रत्येक व्यक्ति का समान अधिकार है। वो वर्षों के लीक की बात को मानकर, उसपर चलते हुए, अपने पत्नी य बेटी को केवल इसलिए नौकरी छोड़ने के लिए कहते हैं य उसपर दबाव बनाते हैं क्योंकि,वह एक महिला है और घर में मेरे रहते वो कैसे कमा सकती है ।भले ही वह नकारा और बेरोजगार बैठा हो पर समाज से प्राप्त अपने अधिकार को वह अपने से समर्थ व योग्य स्त्री पर थोपता रहा है,जिसके कई‌ उदाहरण हमें हमारे गाँव में ही मिल जाते हैं। जहाँ पर एकात स्त्री को ही,यह सौभाग्य मिलता है और बड़ी ही सहजता से उसे नौकरी को छोड़ने की बात कही जाती है,जिसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेती हैं क्या यह हमारे लिए सवाल नहीं खड़ा करता? आखिर कहाँ बदला है समाज स्त्रियों के लिए?
हम गाँव के परिवेश में शिक्षा को पराजित क्यों पाते हैं? गाँव में ही जिस कार्य के लिए पुरूष पूरे जीवन तक स्वतंत्र हैं, उसे स्त्रियाँ कुछ वर्ष भी क्यों नहीं कर सकती?और अगर करतीं भी हैं,तो उस पर भी इतने सारे सवाल, बहुत सारी जिम्मेदारी और तो और सारी अपेक्षाएं उसी से क्यों किया जाता रहा है? ये प्रश्न देखने य पढ़ने में तो बहुत आसान से लगते हैं पर जो-जो स्त्रियाँ इसको वर्षों से झेल रही हैं,उनके लिए शायद,यह प्रश्न पूरे जीवन तक भी न सुलझ पाए और इसीलिए शायद वो हमेशा से ही मौन हैं, जिसे समझने के लिए मात्र सिद्धांत की ही आवश्यकता नहीं है बल्कि व्यवहार रुप में उन सिद्धांतों का आना हमारी स्त्रियों के लिए ही नहीं अपितु, हमारे समाज के लिए भी बहुत जरूरी है।
हमें प्रारंभ से ही गाँव में पढ़ें लिखे लोग मिलते रहे हैं; पर अभी तक उनकी धारणा स्त्रियों के लिए अपने उसी लीक पर क्यों है? क्या हमारे देश में शिक्षा भी पुरूष प्रधान है?यह सवाल उन सभी से करना चाहिए जो कहते हैं स्त्रियों को भी अब पूर्ण समानता मिल रही है। अगर, शिक्षा सभी के लिए समान है,उसका उद्देश्य एक है तो फिर गाँव के शिक्षित सदस्य कभी स्त्रियों को उनके उपलब्धि के साथ क्यों नहीं अपना पाते? जो भी स्त्रियाँ रोजगार हैं, सच में देखा जाए तो उनको भी हमारे समाज ने गहरी चोट दी है। उनके लिए हमारे समाज ने कभी भी कोई सहज वातावरण बनने ही नहीं दिया। वह गाँव हो य शहर स्त्रियों को अपने नौकरी के साथ-साथ अपने निर्दोषता के लिए स्वयं ही गवाह के रूप में सदैव तत्पर रहना पड़ता है और यदि वह नौकरी के बीच में य अपनी जिम्मेदारी के व्यस्तता में इस गवाही के सबूत को इकट्ठा करना भूल जाती हैं, तो उनके लिए नैतिक पतन का आरोप तैयार बैठा रहता है।जिसे और कोई नहीं बल्कि हमारे शिक्षित कहे जाने वाले पुरूष प्रधान समाज ही उन्हें उनके उपहार स्वरूप देते हैं जिसे वो स्त्री स्वीकार करे य न करें पर उसपर हो चुके सामाजिक कार्यवाही से वह अनैतिक य चरित्रहीन साबित कर दी जाती हैं।तो प्रश्न यह उठता है कि हमारे देश की शिक्षा कहाँ तक समानता लिए हुए है उसी शिक्षा से शिक्षित हमारा यह समाज स्त्रियों के लिए अलग और पुरुषों के लिए अलग मान्यताएँ क्यों गढ़ता है।गाँव में कितने ही घर ऐसे हैं जहाँ पति पत्नी के झगड़े के कारण ही यही है कि वह (पत्नी) बाहर क्यों जा रही है और अगर जा रही है तो कहाँ-कहाँ से क्या-क्या करके आ रही है।हर जगह उसको आज भी अपने पवित्र होने के लिए चीखना क्यों पड़ता है क्या उसके नियति में प्रारंभ से लेकर आज तक,गाँव से लेकर शहर तक यही स्पष्ट करना लिखा है कि शारीरिकता से निकल कर भी कुछ चीजें हैं पर इस पक्ष को कभी भी स्त्रियों के लिए देखा ही नहीं गया, क्योंकि कुछ पुरुषों ने अपने गन्दे दृष्टिकोण को हमेशा से ही उसपर थोपना चाहा है और कुछ ने उसे वैसे ही स्वीकार करना।
क्यों स्त्री के जीवन को यौन सम्बन्ध तक ही समझा जाता है? वह घर के भीतर में रहे तब तो उसे उसके पती के इच्छानुसार वह सब कुछ करना है,जिसे वह नहीं चाहती पर उसका पती चाहता है और वहीं;बाहर नौकरी करने में भी उसे हमारे समाज के प्राचीन मान्यता के अनुसार यौन सम्बन्धी आरोप से जकड़ दिया जाता है।क्या वह जन्म से मृत्यु तक सिर्फ यौन से सम्बन्धित आरोपों को झेलने के लिए ही बनी हैं क्या शिक्षित होना भी उसे उसके यौन सम्बन्धी आरोप का कारण बनाएगा ? गाँव में शिक्षित औरतों को प्रोत्साहन व उत्साह मिले य न मिले पर हमारे समाज से कलंक का एक टीका मिलना उसके लिए तय रहता है और होता भी आ रहा है।
हमारा देश कृषि प्रधान है और उसमें भी देश का अधिकांश भाग गाँव ही हैं, तो हम क्यों यह मानकर “कि अभी वहाँ शिक्षा पहुँचने में समय लगेगा” अपने पराजित मान्यताओं पर ध्यान न दें उसमें किसी प्रकार की सुधार की आशा न करें? कोई सवाल न करें.. स्त्रियों की स्थिति अभी भी हमारे देश के लिए; वह चाहे गाँव हो या शहर, द्वितीयक ही है य गांँव में तो यह कोई सवाल ही नहीं है। हमेशा की तरह पुरूषों द्वारा निर्धारित मान्यताओं,भाषाओं व आरोपों का प्रयोग गाँव की स्त्रियों के द्वारा गाँव की शिक्षिक‌ स्त्रियों के लिए होता रहा है, वह उनसे किसी प्रकार की प्रेरणा लेना तो दूर उनके सामने खड़ा होना भी अपने घर के संस्कृति व संस्कार के प्रतिकूल मानती हैं, कुछ रूढ़िवादी पुरूषों के द्वारा भर दिए गए नकारात्मक सोच से वो अपने ही सफल वर्ग को कलंकित करने में पीछे नहीं हटती वो उनके अच्छाइयों को भी किसी न किसी तरह तोड़-मरोड़ कर बुराई में पेश कर देती हैं और हम कहते हैं हमारा गाँव स्वच्छ और जटिलतारहित है!!

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion