नई कहानी के दौर के कहानीकारों ने मनुष्य-जीवन के विविध पहलुओं को वहीं से पकड़ा जहाँ प्रेमचन्द ने उसे छोड़ा था। शिल्पगत नवीनता और प्रामाणिक परिवेश के साथ उसे एक अलग पहचान देने की भी कोशिश रही, लेकिन मुख्य रहा अपने समय, समाज व मनुष्य जीवन के सम्बन्ध-सूत्रों को पकड़ने-पहचानने की कोशिश। व्यक्तिवादी चिन्तन से परे जो भी कहानीकार थे, वे खुद को प्रेमचन्द से जोड़ रहे थे। चाहे वह मध्यवर्गीय जीवन-प्रसंगों के साथ राजेन्द्र यादव रहे हों या फिर ग्रामीण-आंचलिक, कस्बाई जीवन-प्रसंगों के साथ रेणु, मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह, शेखर जोशी, अमरकान्त व भीष्म साहनी।
हालांकि शिव प्रसाद सिंह खुद को प्रेमचन्द की परम्परा का लेखक नहीं मानते। कुछ हद तक यह बात ठीक भी है, क्योंकि सिर्फ ग्राम-जीवन पर लिखना ही प्रेमचन्द की परम्परा नहीं है। प्रेमचन्द की परम्परा का बेहद महत्वपूर्ण तत्व है – अपने समय, समाज और सत्ता संरचना में उपस्थित सम्बन्ध-सूत्रों पर सचेत, सतर्क और साफ नजर रखना। अमानवीय स्थितियों और मानवीय चरित्रों के माध्यम से सिर्फ कोरी करुणा उपजाना ही नहीं, बल्कि समय-समाज की कारक शक्ति, उसके सम्बन्ध, विसंगतियाँ, अन्तर्विरोध के बीच रखकर मनुष्य को देखने और उसका प्रतिरूप, टाइप रचने की परम्परा प्रेमचन्द की परम्परा है। और, कहना न होगा कि नयी कहानी के दौर के सभी कहानीकार कहीं न कहीं प्रेमचन्द से जूझ रहे थे। कुछ ने उनसे राह पायी, तो कुछ उनसे पार न पा ऐसे निराश हुए कि उन्होंने उन्हें अभारतीय सन्दर्भों का कथाकार घोषित कर दिया। निर्मल वर्मा इनके अगुवा थे। निर्मल वर्मा के लिए भारतीय सन्दर्भ ज्ञान व धर्म-दर्शन की अन्धी गुफा थी जिसमें जाने के चरण-चिन्ह तो मिलते थे परन्तु वापस लौटने के नहीं।
प्रेमचन्द की परम्परा को लेकर एक और बहस रहती है, कि कौन है उनकी परम्परा का असल कहानीकार! अमरकान्त, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, भीष्म साहनी को असल सिद्ध करने की कोशिश अकादमिक हल्कों में चलती रहती है, जबकि रेणु से लेकर मार्कण्डेय, अमरकान्त, शेखर जोशी, भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, कमलेश्वर आदि प्रेमचन्द की परम्परा के अलग-अलग डाइमेंशन और एक्सटेंशन हैं। परम्परा निरंतर अपने को जांचती-परखती रहती है, तभी वह टिकती है, वरना तो वह रूढ़ि बन कर रह जायेगी। ये सभी कहानीकार प्रेमचन्द की परम्परा के लेखक हैं, न कि प्रेमचन्द के यहां उपस्थित किसी लेखकीय रूढ़ि के।
दूसरी एक धारा थी राममनोहर लोहिया द्वारा समाजवाद के तथाकथित भारतीयकरण की परिभाषा से निकले कहानीकारों की, जो ‘परिमल’ नाम से सक्रिय थे। धर्मवीर भारती इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे, सो प्रेमचन्द को लाँघ जाने की चुनौती इन्होंने ली और यथार्थ की जगह विद्रूप के दलदल में गिर पड़े। इनके भारतीय सन्दर्भ और वैष्णव सन्दर्भ के बीच एक कई दरवाजों की दीवार थी जिससे आवाजाही बड़ी आसानी से हो जाती थी।
फिर भी, नयी कहानी में जो प्रबल धारा रही वह प्रेमचन्द से राह पाने वाली ही रही। जिसमें, रेणु, मार्कण्डेय, भीष्म साहनी, अमरकान्त, शेखर जोशी, राजेन्द्र यादव आदि प्रमुख थे। कमलेश्वर और मोहन राकेश भी राह पाने वालों में ही थे।
राजेन्द्र यादव के यहां जिसे कुंठा के रूप में परिभाषित किया गया, वह दरअसल आजादी के बाद वर्णवादी निरन्तरता और जनतांत्रिक विकास के अवरोध से उत्पन्न हुआ था। यह कुंठा असल में क्रुद्ध कुण्ठा थी, जो जनतंत्र के नकार के रूप में अभिव्यक्त होती है। स्त्री-पुरुष सम्बंधों में भी राजेन्द्र यादव का पुरुष इसीलिए जनतांत्रिक सम्बन्ध पर कुढ़ता है। जो लोग वर्णवादी सीढ़ियों में ऊंचाई पर बैठे थे और वहीं से जनतंत्र का दर्शन कर रहे थे उनमें और जो नीचे बैठे थे, उनके जनतंत्र के दर्शन में फर्क तो रहेगा! वर्णवादी व्यवस्था अपने आप में ही जनतंत्र विरोधी होती है।
आजादी के बाद जो लोग जनतांत्रिक विकास की आस लगाए बैठे थे, उन्हे धक्का लगना स्वाभाविक था। इसलिए जब हम प्रेमचन्द की परम्परा की बात करते हैं तो वह प्रगतिशील आधुनिक और जनतंत्र की चाह रखने वालों से मिलकर विकसित होगी और इसमें राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश, कमलेश्वर भी आयेंगे। मोहन राकेश तो आधुनिकता के अपने क्लासिकी अर्थों में आधुनिक थे। अज्ञेय को तो खामखाह यह तमगा दिया गया, जबकि उनकी आधुनिकता में आदिम भाषा में रचे गये संवृत्तीय मूल्य और नैतिकता के पैचेज अधिक मिलेंगे। इसी का बढ़ाव निर्मल वर्मा थे। खैर…
शेखर जोशी नयी कहानी के दौर के ऐसे कहानीकार थे जो बड़ी खामोशी और सादगी से इसमें शामिल रहे। कोसी का घटवार, दाज्यू, बदबू जैसी कहानियों से चर्चित हुए। लेकिन, ऐसी कई कहानियाँ शेखर जोशी की हैं जो इन कहानियों से अलग संवेदना के साथ-साथ ट्रीटमेण्ट या रचाव के लिहाज से भी जोरदार हैं। पुराना घर, समर्पण, हलवाहा, प्रश्नवाचक आकृतियाँ, निर्णायक, गोपुली बुबु, नौरंगी बीमार है, सिनारियों, मेंटल आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं। ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ कहानी बेरोजगारी पर केन्द्रित है।
इस कहानी को मार्कण्डेय की कहानी ‘साबुन’, ‘आंखें’, अमरकान्त की कहानी ‘डिप्टी कलक्टरी’, ‘इण्टरव्यू’, निर्मल वर्मा की कहानी ‘पिक्चर-पोस्टकार्ड’, ‘सितम्बर की एक शाम’, के साथ रखकर देखा जा सकता है। इसमें डिप्टी कलक्टरी’ अपने ‘भावुक ट्रीटमेण्ट’ के चलते ज्यादा पढ़ी जाती है। कहानी पढ़ने का जो परम्परागत हिन्दी संस्कार है, ‘डिप्टी कलक्टरी’ उसके ज्यादा अनुकूल है। लेकिन हिन्दी में जो एक नया पाठक वर्ग दुनिया से एकमेक होकर बन रहा था, ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ उसकी पाठकीय संवेदना के करीब पड़ती है।
शेखर जोशी की यह कहानी इस लिहाज से भी महत्वपूर्ण है कि उसका विचार-तत्व और व्यवहार अपने ठीक समय में केन्द्रित है। इसके चलते इस कहानी का ट्रीटमेण्ट और शैली डिप्टी कलक्टरी से भिन्न हो गयी है। शैली के स्तर पर वह मार्कण्डेय की कहानी ‘साबुन’ के साथ रखी जा सकती है लेकिन ट्रीटमेण्ट में ‘साबुन’ कमजोर कहानी है हालाँकि विचार तत्व में वह ज्यादा सचेतन और आगे बढ़ी हुई कहानी है। दूसरा यह कि मार्कण्डेय की कहानियों में राजनैतिक स्वर मौजूद रहता है। सांकेतिक हो या सीधा, लेकिन मार्कण्डेय की कहानियों का वह जरूरी और उपस्थित तत्व है।
‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ कहानी ‘मूड’ के लिहाज से पिक्चर-पोस्टकार्ड’ और ‘सितम्बर की एक शाम’ के साथ रखी जा सकती है। लेकिन निर्मल वर्मा की कहानियों के चरित्रों की तरह ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ के चरित्र किसी अनायास, रहस्यमयी, अतिरिक्त गम्भीरता और दु:खवाचक मुद्रा धारण नहीं करते, खासकर नैरेटर/नायक तो बिलकुल नहीं! ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ का नैरेटर/नायक ‘डिप्टी कलक्टरी’ के नायक की तरह चुपचाप भीतर कमरे में ही नहीं रहता और न ही वह व्यक्तित्वविहीन है।
निर्मल वर्मा के नायकों के आत्मगत प्रवृत्तियों और स्वीकारोक्तियों के विपरीत ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ का नैरेटर/नायक डीसेण्ट भी है, कूल और काम भी है, बेहद आधुनिक है अपने एप्रोच, रियलाइजेशन और व्यवहार या शिष्टाचार में भी। साथ ही, जीवन को लेकर कोई अवसाद नहीं, मानसिक रूप से मजबूत।
‘‘पी.सी.एस. के इण्टरव्यू के बाद अचानक माँ और बाबूजी के स्वप्नजाल को तोड़ देने का साहस नहीं हुआ था। इसलिए वास्तविकता यह न होने पर भी, कह गया था कि इण्टरव्यू अच्छा ही हुआ है।’’ ‘‘नौकरी पाने का इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति यहाँ राजनीति पर एक ही प्रकार से अपना मत प्रकट करता होगा।’’ ‘‘माँ का मन रखने के लिए ही कपड़े पहनकर घर से निकल आया हूँ। पर ‘क्वालिटी’ की ओर नहीं, ठीक विपरीत दिशा में जा रहा हूँ।”
‘‘मन के साथ-साथ आज शरीर में भी विचित्र थकान भर गयी है। किसी एकांत कोने में बैठकर एक कप चाय लेने को मन हो रहा है।’’ (ऊपर के उद्धरण ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ कहानी से हैं और ऊपर कही गयी बातों के सन्दर्भ हेतु)
यहाँ यह भी दिलचस्प है, कि इस कहानी का नैरेटर/नायक अपने अकेलेपन और निराशा में भी वाह्यजगत को बहिष्कृत नहीं करता बल्कि एक कप चाय के रूप में ही सही बाह्यजगत की जीवंत उपस्थिति है, जबकि मार्कण्डेय की कहानी ‘साबुन’ का नैरेटर/नायक राजेश बाह्य जगत की ऐसी जीवंत स्थितियों से अपने को काट लेता है जबकि ऐसा नहीं है कि ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ का नैरेटर/नायक अपने निर्णयों में ‘साबुन’(मार्कण्डेय) के नायक राजेश से कम स्पष्ट है! और, राजनीतिक रूप से भी ‘क्या तुम कम्युनिस्ट हो?(पिक्चर पोस्टकार्ड) जैसे अनायास आए सवालों के विभ्रम में उलझा हुआ भी नहीं है।
‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ कहानी की पूरक कहानी ‘निर्णायक’ है। इस कहानी का जो युवा नायक है, वह बेरोजगार नहीं है। लेकिन, वह नौकरी के हिसाब से स्वयं को ढाल नहीं पाता। वह कोशिश भी करता है, लेकिन पुन:- पुन: वह विचलित हो जाता है। उसके इस विचलन की वजह कहानी के भीतर ही स्पष्ट रूप से उभरती है।
1970 के दशक में राजनीति के पटल पर उपस्थित राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था से खिन्न-क्रुद्ध युवा दिखने लगते हैं।सिनेमा इसे पकड़ता है।साहित्य में शेखर जोशी के यहां यह युवा है। ‘निर्णायक’ ऐसे ही युवा की कहानी है। यह खिन्न-क्रुद्ध युवा किसी शौकवश या अनायास नहीं बल्कि इसकी’ पृष्ठभूमि ‘प्रश्नवाचक आकृतियाँ’ में मौजूद है। ‘निर्णायक’ कहानी के इस युवा का परिचय यूँ है—‘‘मेरा साथी उन लोगों में से था, जिनकी व्यावसायिक जन्मपत्री में नीली स्याही की अपेक्षा लाल स्याही के अक्षरों की ही संख्या अधिक रहती है। सामान्य नौकरीपेशा लोगों के लिए आदेश, विधियाँ और आचरण-संहिता के सूत्र धर्मग्रंथों से अधिक मान्य होते हैं, उनके प्रति वह निपट तटस्थ रहता आया था।’’
आजादी की लड़ाई के दौरान हिस्दोस्तान के असंख्य युवा, किसान, और सामन्ती संरचना में उत्पीड़ित समुदाय ने एक सपने के तहत अंग्रेजों के साथ-साथ सामन्ती सम्बन्धों से भी मुक्ति की लड़ाई लड़ी थी। लेकिन, आजादी के बाद अंगीकृत की गयी जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में सामन्ती सम्बन्ध जस के तस मौजूद रहे। किसी भी देश की जनतांत्रिक व्यवस्था का मूल स्वभाव सामन्ती सम्बन्धों के प्रति अपनाए गये उसके रवैये से तय होता है।
हिन्दोस्तान में सत्ता सूत्र जिनके हाथों में आया या जनतंत्र को चलाने की जिम्मेदारी जनता ने जिसे सौंपी, उसका रवैया सामन्ती,वर्णवादी ब्रह्मैनिकल सम्बन्धों के प्रति सहयोगात्मक और नतशिर वाला ही रहा। फलत: वर्णवादी व्यवहार,संहिता सामाजिक संस्थाओं से उठकर राजनीतिक और कारोबारी-कार्यदायी संस्थाओं में चला आया। सामन्ती-वर्णवादी सामाजिक व्यवस्था में सम्बन्धों में मौजूद स्तरीकरण शासन-प्रशासन से लेकर व्यावसायिक प्रतिष्ठानों तक व्याप गया। पेशेवर प्रतिष्ठानों में भी गैर- बराबरी, विभेद पर टिकी सम्बन्ध-संरचना चलती रही। ‘निर्णायक’ कहानी का खिन्न-क्रुद्ध युवा इसी के भीतर से निर्मित हुआ है। उसके द्वारा कहानी में बोला गया एक मात्र वाक्य अन्त में आता है—‘‘जिन्दगी? यह कुत्ते की जिन्दगी है। मेरी भी, तुम्हारी भी और उस साले बॉस की भी, जिसे तुम खुदा समझते हो।’’
नई कहानी ही नहीं, बल्कि पूरी हिन्दी कहानी में अपने ट्रीटमेण्ट से लेकर विचारतत्व (सेन्ट्रल आयडिया) और शिल्प, शैली, भाषा तक में इतनी प्रभावकारी, सधी हुई, ठस्स कसी हुई कहानी विरल है।
हिन्दी कहानी में राउंड कैरेक्टर कम हैं। शेखर जोशी का ‘नौरंगी बीमार है’ एक राउंड कैरेक्टर को विचार-केन्द्र में रखकर लिखी कहानी है। नौरंगी की ईमानदारी चर्चित है लेकिन कहानी उसकी ईमानदारी के बारे में नहीं है कि कैसे वह अपने खाते में गये फाजिल पैसे को वापस कर देता है या उस पैसे को रख लेने पर अपनी ईमानदारी पर धिक्कार करे, अपने कृत्य पर पश्चाताप करे। नौरंगी इन सबके उलट, उस फाजिल पैसे के लिए एक नैतिक तर्क प्राप्त कर लेता है। यह नैतिक तर्क व्यवस्था की अनैतिकता ने उत्पन्न किया है। भ्रष्टाचार ऊपर से आता है। यह एक मानी बात नहीं है, बल्कि जानी हुई बात है। इसे जानना पड़ता है, इसके लिए पढ़ने-लिखने और बौद्धिक होने की भी जरूरत नहीं, सहज बुद्धि ही काफी है। इसके लिए नौरंगी इसी सहज बुद्धि से इसे सत्ता के भ्रष्ट तंत्र से प्राप्त करता है।
भ्रष्टाचार पर अभी देश एक बड़े आन्दोलन का गवाह बना। उस आन्दोलन में कई बातें-बहसें उभरी। उसमें एक यह थी कि पत्थर वह मारे जिसने कभी पाप न किया हो। दूसरा यह कि हम सुधर जाएं तो देश सुधर जाए। नौरंगी जिस नैतिक तर्क को प्राप्त करता है वह इन दोनों रास्तों से चलकर नहीं आता। यह तर्क नौरंगी जैसे बेहद ईमानदार कामगार व्यवस्था की अनैतिकता के सापेक्ष प्राप्त करते हैं। यह उनके द्वारा बनायी गयी वह आध्यात्मिक जगह है, जहां वे बिना किसी देवालय में गये पुर-सुकून नैतिक एहसास पा सकते हैं।
नौरंगी बीमार है जैसी कोई कहानी हिन्दी में लिखी, अभी सामने से नहीं गुजरी। व्याख्या में जरूर प्रेमचन्द की ‘कफन’ कहानी तक जा सकते है, लेकिन नौरंगी बीमार है, हिन्दी की अकेली कहानी है, जहां व्यवस्था और उसकी सबसे निचली सीढ़ी पर रहने वाले के आपसी सम्बन्धों की, बिना किसी राजनैतिक नारे या वर्गवादी दृष्टिकोण के उद्घोष के साफ-साफ पहचान कर ली गयी है।
नई कहानी के दौर की सांकेतिकता और जबदस्ती के प्रामाणिक परिवेश के बिना भी यह कहानी आजादी के बाद नये बनते भारत का नया बनता यथार्थ प्रस्तुत करती है। कहानीकार एवं कहानी समीक्षक मार्कण्डेय जिसे कहते हैं कि महीन से महीन बदलाव को भी पकड़ लेना ही नयी कहानी की उपलब्धि है, तो नौरंगी बीमार है उस महीन बदलाव को बड़ी सादगी से पकड़ती है और पेश करती है। इस लिहाज से तो खैर यह कहानी नई कहानी की बेहद उपलब्धिपूर्ण कहानी है ही, भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ से कुछ ज्यादा ही। ‘चीफ की दावत’ में भी यही महीन बदलाव है नैतिकता और मूल्य बोध के स्तर पर बल्कि उसी पर ज्यादा केन्द्रित। ऑब्जेक्ट हालांकि भिन्न है—नये बनते भारत में नया बनता मध्यवर्ग। इस नये बनते मध्यवर्ग की आन्तरिक अन्विति पर ही तो नई कहानी के दौर के अधिकत्तर कहानीकार टिके हैं, शेखर जोशी के यहाँ इसका विस्तार है, जहां नया बनता कामगार और किसान है।
कामगारों पर तो खैर उनकी कई कहानियाँ हैं लेकिन नया बनता किसान उनकी कहानी ‘हलवाहा’ में देखा जा सकता है। यह किसान इस मायने में नया नहीं है कि उसने खेती में नई तकनीक का प्रयोग किया है। यहां भी नयापन सांस्कृतिक अधिक है, नैतिकता, आदर्श-मर्यादा और मूल्य बोध के स्तर पर लेकिन इस परिवर्तन या नयेपन के पीछे उपस्थित भौतिक कारक ही कारण है, यह भी कहानी बताती है। निर्मल वर्मा की तरह नहीं जहां भौतिक कारकों की पहचान सम्भव न हो,उसे अतीन्द्रिय और गैर-भौतिक या स्प्रिचुअल स्प्रिट पर छोड़ दिया जाये। नई कहानी में ऐसा नयापन भी आया, जिसमें पढ़ने का एक सुख था। पानी के बुलबुले जैसा एक सुख जरूर था और पाठकों के भीतर मौजूद रहस्य के अनेक स्तरों को और गहरा कर देने की खासियत भी। यथार्थ को इस कदर भिन्न धरातल पर पहुंचा देना कि यथार्थ और धारातल दोनों स्प्रिट हो जाये।
ऐसा करतब (कलाबाजी के अर्थ में) शेखर जोशी ने नहीं अपनाया और अधिकांश जनवादी कथाकारों ने नहीं अपनाया। शेखर जोशी बाहर-भीतर दोनों जगह गहरी सामाजिकता से भरे हैं, उनकी कहानियाँ इसका सर्वत्र उद्घाटन करती चलती हैं। लेखन पर एक सामाजिक जिम्मेदारी का दबाव वहन करने वाला कोई भी लेखक कलाबाज नहीं हो सकता, कलाबाजी आती ही है अद्वितीय होने के भाव से और यह पूंजीवादी आधुनिकता द्वारा प्रचारित व्यक्तिगत स्वतंत्रता वाली अवधारणा से। अज्ञेय के साथ जो दिक्कत थी वह अपने क्लासिकल रूप में निर्मल वर्मा के यहां सबसे अधिक थी।
‘हलवाहा’ कहानी को मार्कण्डेय की कहानी ‘हल लिए मजूर’ (जो इस नाम से 1977 में ‘सारिका’ में छपी फिर 1996 में स्वाधीनता में ‘जीने की राह’ नाम से छपी) और प्रेमचन्द की कहानी ‘मुक्तिमार्ग’ के साथ रखकर देखा जा सकता है। ‘हलवाहा’ और ‘हल लिए मजूर’ दोनों कहानियाँ अपने ट्रीटमेण्ट में, रचाव में बहुत सरल-सहज है। लेकिन, ‘हलवाहा’ जहां सांस्कृतिक सवालों से ज्यादा रूबरू होती है, वहीं ‘हल लिए मजूर’ राजनैतिक सवालों के परिप्रेक्ष्य में। ‘‘कुलघातक जिबुआ स्वयं हल चला रहा था’’ यह वाक्य ही ‘हलवाहा’ कहानी की थीम है। जिबुआ (जीवानंद) का कुलघात उसका हल चलाना है। दोनों कहानियाँ हल चलाने की घटना से ही खुलती और बन्द होती है।
शेखर जोशी के यहां सांस्कृतिक सवाल अधिक हैं। इस मामले में वे फणीश्वरनाथ रेणु और भीष्म साहनी के साथ रखकर देखे जा सकते हैं। ‘समर्पण’ शेखर जोशी की ऐसी ही एक लाजवाब कहानी है। उत्तर भारत की दलित जातियों में ‘सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण’ धर्म आधारित ‘सामाजिक शिष्टाचार’ या आचरण के प्रति विद्रोह या तिरस्कार या वर्जना के रूप में सामने आया। यद्यपि कि वह दक्षिण भारत में हुए दलित जागरण से बहुत पीछे था। इसका कारण था कि एक जैसी स्थितियों का सामना करने के बावजूद उत्तर भारत की दलित जातियों में राजनैतिक चेतना उस स्तर तक पहुंच नहीं पायी थी, जिस स्तर तक दक्षिण भारत में थी।
इस राजनैतिक चेतना के प्रसार में अम्बेडकर के साथ-साथ दक्षिण भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा किये गये आन्दोलन थे, जो सामाजिक सांस्कृतिक सवालों को राजनीतिक आन्दोलनों का हिस्सा मानकर संचालित थे। उत्तर भारत में ऐसा नहीं हुआ और इसके लिए उत्तर भारत में तब की कम्युनिस्ट पार्टियों की कार्यशैली, अभ्यास और कार्यक्रम कम जिम्मेदार नहीं क्योंकि यह काम वे ही कर सकते थे, जिसकी तरफ अम्बेडकर इशारा भी करते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों को जो करना था, ऐतिहासिक रूप से उन्होंने नहीं किया।अर्थात सामाजिक सवालों को राजनीतिक मानने का।
अपनी सहज बुद्धि और देखे-सुने से प्रेरित होकर उत्तर भारत की दलित जातियों में जो जागरण सम्भव था वह शेखर जोशी की कहानी ‘समर्पण’ से समझा जा सकता है। शिव प्रसाद सिंह की कहानी ‘‘खैरा पीपल’’ में ऐसा ही एक प्रसंग आता है लेकिन वह पूरी कहानी में एक ‘क्लॉट’ भी नहीं बन पाता। शिवप्रसाद सिंह मानते हैं कि लेखक को राजनैतिक चश्मा लगाकर चीजों को नहीं देखना चाहिए और खुद बड़ी प्रतिबद्धता से जिस गैर राजनीति चश्में से चीजों को देखते हैं वे बेहद धुंधली और बेडौल दिखती है। उनकी कहानियाँ इसका उदाहरण है। “खैरा पीपल” भी इसी का शिकार हुई है।
दरअसल शिवप्रसाद सिंह जिस राजनीतिक चश्मे से परहेज की बात करते हैं, वह तब की कम्युनिस्ट पार्टियों से परहेज है और यह परहेज उन्हें राजनीतिक नासमझी तक पहुँचा देती है। राजनीतिक पार्टियों से परहेज एक बात हुई और राजनीतिक समझ से परहेज दूसरी बात। किसी लोकतंत्र अपनाए देश की राजनैतिक व्यवस्था उस देश के तीन चौथाई परिवेश का निर्माण करती है। नई कहानी में परिवेश की प्रामाणिकता का उद्घोष बिना राजनैतिक समझ के, वैसा ही परिवेश निर्मित करती है, जैसा “खैरा पीपल” में हुआ है।
शेखर जोशी की कहानी ‘समर्पण’ उत्तर भारत में दलित जागरण की वास्तविकता को प्रतिबिम्बित करती बेहद महत्वपूर्ण कहानी है।
तत्कालीन उपस्थित सामाजिक सम्बन्ध संरचना और उसके भीतर की कसमसाहट, कुलबुलाहट और इसका पूरा कचरा अपने कंधे पर लादे, जीवन बिताने वाले सामाजिक वर्ग (दलित) और इससे मुक्ति पाने की क्षीण सी रोशनी की तरफ लपक पड़ने की ललक और वहां से निराश, असहाय उसी संरचना में लौट आने और एक व्रिद्रूप मजाक बन जाने को विवश दलितों की कहानी को बेहद सधे ढंग से ‘समर्पण’ कहानी में शेखर जोशी ने पिरोया है।
‘‘वैद्यजी की दुकान से निराश होकर बाहर निकल, धनियां ने पूरा जोर लगा, छ: पल्ले का मोटा जनेऊ तोड़कर सड़क के एक ओर फेंक दिया। यज्ञोपवीत धारण करते समय सेवक जी ने गोपन मंत्र दिया था… लेकिन यज्ञोपवीत उतारते समय धनियां ने बचुवा को मन ही मन एक गाली दे डाली।” (समर्पण कहानी से)
वस्तुत: सामाजिक संस्थाओं के लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया,जिसे आजादी मिलते ही तेज होना था, वह मन्द पड़ गया। और, उसी अनुपात में राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया भी । आज तो हालत यह है कि उसकी पूरी गति पीछे की तरफ मुड़ गयी है तथा समाज और राष्ट्र को पीछे ले जाने वाली वर्णवादी शक्तियां आक्रामक और हिंसक हो उठी हैं। इतना ही नहीं, जिस जातीय सुधार आन्दोलनों, जातीय जागरण और अस्मितावादी विमर्श ने सामाजिक संस्थाओं के लोकतांत्रीकरण में गैर-वाम रास्ते एक उम्मीद जगायी थी, आज वह भी दिशाहीन और विभ्रम का शिकार हो चुकी है।
ले-देकर आज फिर से उसी टूटे-फूटे वाम रास्ते से ही उम्मीद है। खैर… शेखर जोशी की कहानी ‘समर्पण’ जिस सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ को सामने लाती है उससे कही अधिक निराश स्थिति में आज इस संदर्भ से जुड़ा यथार्थ है। अर्थात, ‘समर्पण’ कहानी का यथार्थ आज और बिगड़े हुए रूप में हमारे सामने है। सांस्कृतिक अपशिष्ट जो वर्णवादी समाज व्यवस्था द्वारा उत्पन्न और सामराजी पूंजी से संचालित बाजार द्वारा विकृत और विकसित कर परोसा गया, दलित जाने-अनजाने उसका वाहक बन बैठा है !
अब जब वह अपने नायक आंबेडकर की जयंती मनाता है तो वह ब्राह्मणवाद-विरोधी सांस्कृतिक उपादान, तौर-तरीके विकसित करने की बजाये उपस्थित ब्रह्मनिकल हिन्दुत्ववादी उपादान ही अपनाती है। आंबेडकर जयंती मनाती दलितों की टोलियां दुर्गापूजा,कालीपूजा मनाती लुम्पेन टोलियों से अलग नहीं दिखतीं,खासकर हिंदी-उर्दू क्षेत्र में। ‘समर्पण’ कहानी के बचुआ के लिए अगर मुक्ति का रास्ता जनेऊ धारण करने जैसे कर्मकांड में दीखता है तो आज दलित विमर्शकारों को पूंजीवादी बाजार संस्कृति और उसके कर्मकांड में वह दीखता है।
महाराष्ट्र में दलित आंदोलन ने सांस्कृतिक उपलब्धियां अधिक हासिल की और वहां उनके भीतर गणेश पूजा से उत्पन्न विकृतियां जगह नहीं पा सकी। उत्तर भारत में इतना हासिल भी दलितों के हाथ न लगा। महाराष्ट्र के दलित आंदोलन का सांस्कृतिक हासिल ही है कि आज उसकी राजनितिक धाराओं के पतन के बावजूद, वह फिर से खड़ा हो गया है और मुक्ति की राह में हमसफ़र भी तलाश रहा है। जबकि, उत्तर भारत के सबसे बड़े प्रान्त में राजनीतिक ताकत होने के बावजूद वह बार-बार ब्रह्मनिकल सांस्कृतिक मकड़जाल में फंस जा रहा है, समर्पण कर दे रहा है। शेखर जोशी की कहानी “समर्पण” को इसी सन्दर्भ से देखना चाहिए।
जातियों के भीतर वर्ग अपने ढंग से व्यवहारिकता को या सहज जन-इतिहासबोध को कैसे निर्धारित करता है, इसे लेकर शेखर जोशी के कई कहानियां हैं।’गलता लोहा’ व ‘डांगरीवाले’ इसमें उल्लेखनीय है।
उत्तर भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों (परंपरागत) को जातिगत संरचना को समझने का शऊर न आया और हिंदी-उर्दू पट्टी में कम्युनिस्टों के आधार अस्मितावादी राजनीति के हाथों गँवा देने का ठीकरा जातिगत ढांचे की जड़ता और उसकी पिछड़ी चेतना पर फोड़ा गया। जबकि,पहली चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार केरल में बनी जो अपनी जातिगत जड़ता के लिए मशहूर था।ठीक उसी दौर का एक हिंदी-लेखक जातियों के भीतर वर्ग की कार्यकारी शक्तियों को पहचान रहा था।
शेखर जोशी की कहानी ‘गलता लोहा’ और ‘डांगरीवाले’ में जाति-वर्ग के अंतःसंबंध तथा वर्ग-संचरण और वर्ग-अपसरण को बखूबी पेश किया गया है। बिना किसी विचारधारा कीरट्टू कसम खाये और सिद्धांतों के सूत्रीकरण के दिखावी उद्घोष के दोनों कहानियां सामाजिक यथार्थ के भीतर मौजूद जाति-वर्ग के सन्दर्भ को उभारती हैं। ‘गलता लोहा’ का मोहन अपनी भौतिक परिस्थितियों के बीच स्वाभाविक गति में धनराम के करीब पहुँच जाता है। मार्कण्डेय की कहानी ‘बीच के लोग’ का रग्घू उतना स्वाभाविक नहीं जितना कि ‘गलता लोहा’ का मोहन है।
शेखर जोशी की कहानी ‘डांगरीवाले’ इसी बात को दूसरे सन्दर्भों से उठाती है। एक शिल्पकार का बेटा इंजीनियर बन जाता है और अपने पिता समेत अन्य शिल्पकारों के प्रति उसका व्यवहार बदल जाता है। उत्तराखंड में शिल्पकार निचली और दलित जातियों में आते हैं। शेखर जोशी के यहाँ जातियों और सामाजिक वर्गों,श्रेणियों,समूहों की जो उपस्थिति है वह अलग से समाजशास्त्रीय तथा नृतत्वजातीय अध्ययन की मांग करता है। इससे महाभारतकालीन व्यवस्था और उसकी समाज में सांस्कृतिक उपस्थिति को पहचाना जा सकता है। और यह भी कि महाभारत कालीन स्थल की सीमा उत्तराखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से बाहर नहीं जाती है क्योंकि इसके बाहर उसके सांस्कृतिक चिन्ह कहीं नहीं मौजूद जबकि शेखर जोशी की कहानियों में वह संस्कृति,खान-पान,गीत,स्मृति सबमें झलकता है।
‘डोगरीवाले’ कहानी में शिल्पकार के बेटे के बदले हुए वर्ग-चरित्र को शेखर जोशी यूँ शब्द देते हैं-
“अपने मित्रों को विदा कर लौटते हुए नरेश की नजर भोजन-कक्ष की ओर पड़ी तो अनायास ही उसके पैर उधर की ओर बढ़ गए। बाबू और उनके दोस्तों को खड़े-खड़े प्लेट-चम्मच से खाते हुए देखकर वह दुष्टता से मुस्कराया।”
नयी कहानी का नयापन बाद में चलकर सांकेतिकता के दलदल में उलझ गया। राजेंद्र यादव,कमलेश्वर आदि तो उसमें पहले से फंसे थे,मार्कण्डेय भी 1960 तक आते-आते न बच पाए लेकिन शेखर जोशी उसमें नहीं उलझे।नरेश के बदले वर्ग-व्यवहार को ‘दुष्टता से मुस्कराया’ द्वारा बिलकुल सीधे व्यक्त कर देते हैं। यह लोक-व्यवहार की सांकेतिकता ही,बेहद सहज। जो,नरेश के चरित्र और कहानी के उद्देश्य को तीव्रता से प्रकट कर देता है।जैसा कि चर्चा हो आयी है,नैतिकता की वर्ग-सापेक्षता पर शेखर जोशी की कई कहानियां हैं।
एक कहानी है ‘मेण्टल’,जिसे पढ़कर चेखव की कहानी ‘क्लर्क की मौत’ और मुक्तिबोध की कहानी ‘अँधेरे में’ याद आती है। कम्पनी का एक अफसर कम्पनी के कारीगर के साथ अक्सर मजाक करता है। लेकिन, यह मजाक कारीगर की जाति,सामाजिक स्थिति को लक्ष्य अधिक करता है। कारीगर की काबिलियत पर वह व्यंग्य करता रहता है जिसमें उसकी सामाजिक-वर्गीय स्थिति के स्वाभाविक परिणाम की ध्वनि निकलती है। लेकिन कारीगर इसे टालता है,कोई प्रतिक्रिया नहीं देता। एक दिन अफसर अपने रोज के मजाक में कारीगर को चोर कह देता है। कारीगर पहली बार रिएक्ट करता है। कहानीकार लिखता है-“उसे मालूम होना चाहिए था कि साहब अपनी खुशी जाहिर करने के लिए यह मजाक कर रहे हैं लेकिन न मालूम छोटे अफसर की हंसी देखकर उसे गलतफहमी हुई या क्या हुआ कि हमेशा का चुप्पा,सीधा-साधा हमारा साथी जवाबदेही पर उतारू हो गया।” और फिर कारीगरअफसर की एक-एक चोरी को सामने रखता जाता है और कहता जाता है-“चोर मैं हूँ कि आप हैं ? यह थैला मेरा बन रहा है कि आपका?”
“आपने मुझे चोर कैसे कहा साहब ?” वह हकलाने लगा।
कारीगर की नैतिकता और स्वाभिमान का स्तर यहाँ उभर जाता है। ‘मेण्टल’ कहानी को ‘नौरंगी बीमार है’, के साथ रखकर पढ़ना चाहिए वर्ग-नैतिकता की सापेक्षिक स्थिति,गति और उसकी अन्तःक्रिया को दोनों कहानियां बड़ी सहजता से पेश करती हैं।शेखर जोशी हिन्दी साहित्य की पुस्तकों में या फिर मार्क्सवादी रचनाकारों में क्या और कितनी जगह पाते हैं,उसका तो नहीं पता पर वे मुक्तिकामी जनता के ज्यादा अपने कहानीकार हैं,जहां वह अपने को पहचान-परख सकता है!
( युवा आलोचक दुर्गा सिंह ‘कथा’ पत्रिका के संपादक हैं )