दुर्गा सिंह
निराला के कहानी लेखन का समय 1920 ई के बाद का है। लेकिन पहली ही कहानी में आधुनिक बोध, प्रगतिशीलता व स्वाधीन चेतना प्रबल ढंग से अभिव्यक्त हुई है। कोई आदर्शवाद नहीं, कोई भावुकता नहीं लेकिन संवेदना के स्तर पर अपने समकालीनों से बहुत आगे बढ़ी हुई कहानी।
ऑब्जेक्टिविटी की डोर पर ऐसी पकड़ कि जैसे बिल्ली के मुंह में उसके बच्चे पर पकड़। ऐसा उन शुरुआती कहानियों में भी है, जिसमें युवा-छात्र जीवन की चुहलबाजियों के थीम हैं।
कोई भी समाज और राष्ट्र अपनी मुक्ति का स्वप्न शिक्षा के मार्फत ही देखता है। आजादी की लड़ाई के दौरान स्थापित राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना हो या गांधी और टैगोर आदि का शिक्षा पर दर्शन हो या उससे पहले स्त्री मुक्ति और स्वाधीनता के लिये फुले दम्पति का कार्य रहा हो या दलित मुक्ति और स्वाधीनता के लिए अम्बेडकर का कथन हो कि शिक्षित बनो!
निराला पूरी हिन्दी कहानी के इतिहास में ऐसे कहानीकार हैं जिनकी प्रत्येक कहानी में उनके पात्र एम ए करते हुए या ट्यूशन करते हुए मिलते हैं। जबकि खुद निराला एफ ए न कर पाए और एक कहानी में वे इसका मजा भी लेते हैं और हल्का अफसोस भी जाहिर करते हैं।
किसी समाज की प्रगतिशीलता जांचनी हो, आधुनिक बोध के साथ संवेदना का मीटर पकड़ना/देखना/जांचना हो तो उस समाज में स्त्री की स्थिति/अवस्थिति को देखना चाहिए। निराला जब कहानी लिख रहे थे तो स्त्री स्वतंत्रता का बड़ा मद्धम प्रकाश दिखता है लेकिन निराला की प्रत्येक कहानी में स्त्रियाँ बीए की पढ़ाई में हैं या एम ए कर रही हैं या रिसर्च कर रही हैं या ट्यूशन पढ़ाते हुए पढ़ भी रही हैं अर्थात आत्मनिर्भरता और खुदमुख्तारी जो मुक्ति और स्वाधीनता के लिए जरूरी तत्व है, निराला के स्त्री पात्रों के चरित्र में वह अनिवार्य ढंग से शामिल है। यह निराला की सहज अभिव्यक्ति है और सायास योजना भी।क्योंकि निराला के यहाँ स्वाधीन राष्ट्र और समाज का खाका बहुत ज्यादा स्पष्ट है।
पहली बात, और दूसरी बात कि निराला सिर्फ लेखक नहीं हैं, वे ऐक्टिविस्ट भी हैं और इसका पता खुद उनकी कहानियाँ ही देती हैं।
प्रगतिशील समाज की निशानी होती है कि वह अपनी परम्परा को जांचती-परखती चले और उसके प्रति विवेकवान व तार्किक होते हुए उसमें से पिछड़े मूल्य, नैतिकता तथा मनुष्तता-विरोधी तत्वों को छोड़ कर चले, फटकारते/अलगियाते चले।
निराला की कहानियाँ ऐसी ही प्रगतिशीलता को धारण करके चलती हैं। उनकी कहानियों के स्त्री पात्र इसमें सबसे मुखर हैं। नैरेटर/नायक तो खैर इन सबका अगुआ ही है।
निराला की कहानी पद्मा और लिली, ज्योतिर्मयी, कमला, श्यामा, विद्या आदि कहानियों में स्त्रियाँ नियति की नियंता बनकर सामने आती हैं।
पूर्वनिश्चित नैतिकता को किनारे कर स्वाभाविक मानव-धर्म से चलती हैं। इसमें वे ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और उसकी नैतिकता को अपनी चुनी हुई जीवन-गतिकी से फिजूल कर देती हैं। बिना किसी उद्घोष, सुधारवाद आदि के हस्तक्षेप से। जो है उनके पास वह है उनकी शिक्षा, बोध और स्वाधीन चेतना जिसे वे मनुष्यता की कसौटी के साथ रखकर निर्णायक बनती हैं।
इसी तरह अर्थ, देवी, चतुरी चमार, सुकुल की बीवी, भक्त और भगवान आदि कहानियों में वे बेहद सहज बोध के साथ धर्म, परम्परा, इतिहास आदि के भीतर के पिछड़े मूल्यों को समय के सापेक्ष रख दिखाते हैं कि वे अब आधुनिक मनुष्य के संचालन की शक्ति नहीं रखते, वर्चस्व भले ही बनाये हुए हों!
निराला ने अपनी कहानियों में साहित्य, कला आदि पर भी बेहद आधुनिक अप्रोच दिखाया है। खुद छायावाद को लेकर जो बातें कहानी में आतीं हैं उसे प्रस्थान बिन्दु बनाकर छायावाद को नये सिरे से आलोचित/विवेचित किया जा सकता है।
इसी तरह तुलसीदास को जिस समय तमाम बड़े आलोचक लोक मर्यादा का कवि और उत्तर भारत के गले का हार बता रहे थे उसी समय निराला तुलसीदास को हिन्दी पट्टी के पिछड़ेपन को बनाने का बड़ा टूल्स बता रहे थे। इस मामले में मुक्तिबोध निराला की ही अगली कड़ी साबित होते हैं।
निराला की कहानियों की एक और जो खासियत है, जो उन्हें अपने समकालीनों से बिलकुल अलग करती है, वह है- हिन्दी उर्दू पट्टी के किसान-जीवन, जाति-संरचना/व्यवस्था, संस्कृति, क्रिया-व्यापार, दिनचर्या आदि की डिटेलिंग। बाग-बगीचा, फल-फूल, फसल आदि से लेकर सामाजिकता, विभाजन, भेद-भाव, जटिलता सभी कुछ कहानी के भीतर यूं अंतर्भुक्त/नियोजित मिलते हैं कि वह कहानी संगठन/रचाव के भीतर से ही संस्मरण का सा प्रभाव उत्पन्न करता है।
ऐसा बहुत कम हिन्दी की कहानियों में मिलेगा कि उसमें फ्रेंच, रसियन शाॅर्ट स्टोरीज़ का सा शिल्प अपनी हाइट में हो और कथा-तत्व देशी/जातीय हो- संस्मरण/विवरण शैली लिए हुए भी।
निराला की कहानियों की भाषा भी उनके आधुनिकता बोध और स्वाधीन चेतना से आकार लेती है। अपने सहज प्रवाह और प्रयोग में वह आज के गद्यकारों के लिए भी एक अगुआ की भूमिका में है।
कुल मिलाकर निराला की कहानियों को अलग से रखकर देखना चाहिए तब वे और भी बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दी के रचनाकार साबित होंगे।
(लेखक दुर्गा सिंह जन संस्कृति मंच से जुड़े हुए हैं और कथा पत्रिका के संपादक हैं)
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