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दिव्य कुंभीकरण की भेंट चढ़ी निराला की प्रतिमा

वंसत पंचमी और महाप्राण निराला हम लोगों के लिए इलाहाबाद पहुँचने पर एक हो गए. आज वंसत पंचमी है. संगम और दोनों नदियों के तट लाखों श्रद्धालु स्नान कर रहे हैं. उन्हीं में से एक प्रमुख मार्ग जो दारागंज से संगम को जाता है वहां महाकवि की प्रतिमा स्थापित है. जहाँ “वधिर विश्व के कानों में/ भरते हो अपना राग” गुंजायमान करते रहते हैं.

पर यह तो दिव्य समय है. इलाहाबाद में योगी-मोदी के नेतृत्व में अर्धकुम्भ को दिव्य कुम्भ बनाकर उग्र हिंदुत्व की राजनैतिक चालें चली जा रही हैं. ऐसे में पूरे शहर को जब एक ही रंग में रंगा जाना है.सबकुछ सुन्दर-भव्य-दिव्य दिखना है तो भला “वह तोड़ती पत्थर” वाली छवि कैसे भाएगी.

जिस समय शहर में हिन्दू मिथकों, देवी-देवताओं, साधुओं के भव्य चित्र बन रहे थे और बड़ी बड़ी मूर्तियाँ लगाईं जा रहीं थीं, सौन्दर्यीकरण के नाम पर निराला जी की मूर्ति भी हटाकार दूसरी जगह पर लगा दी गयी. आज वसंत पंचमी है. निराला के मूर्ति के पीछे और पूरा शहर हजारों करोड़ों बहाकर सजा हुआ है. लेकिन हिंदी के इस महान कवि की मूर्ति के साथ जो हुआ है देखना नाकाबिले बर्दाश्त है. प्रतिमा के पैडस्टल पर प्लास्टर तक नहीं हैं. प्रतिमा के नीचे लगा शिलापट्ट भी न जाने कहाँ रख दिया गया है. रेलिंग लगना तो दूर की बात है. कल जब अमर उजाला के वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिद्धार्थ ने बाकायदा लिखकर विरोध जताया उसके बाद भी शासन-प्रशासन किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी (अमर उजाला 9 फरवरी 2019, इलाहाबाद संस्करण).


आज जब उनकी मूर्ति पर सुबह माल्यार्पण वगैरह हो गया उसके बाद मैं वहां पहुँच सका. सामने था बदहाल अवस्था में महाप्राण का  मूर्तिस्थल और जीवन की राह दिखाती उनकी बंद आँखें, इसकी तस्वीर उतारते दिल और आँखें भर-भर आ रहीं थीं और महाप्राण की ही पंक्ति बार बार आकर टकरा रही थी- “दुःख ही जीवन की कथा रही/ क्या कहूँ आज, जो नहीं कही/ हो इसी कर्म पर वज्रपात..”

मैं हाथ जोड़े खड़ा था अपराधबोध से भरा तभी देखता हूँ मूर्ति के पास बैठा, मैले कुचैले वस्त्रों में, दाढ़ी-बाल बेतरतीब, उठकर महाप्राण के गले और पैडस्टल पर पड़े पीले कपड़े और मालाएं व्यवस्थित करने लगा. मैंने फिर कैमरा चालू कर दिया. अब वह पूरी मूर्ति की घूमकर परिक्रमा सा कर रहा था और सभी तरफ मालाओं को व्यवस्थित कर रहा था. इसी बीच नीचे लटक रही एक माला उसने निकाल कर खुद भी पहन ली थी. यह सब खींचने के बाद मैंने उस व्यक्ति से पूछा- आप जानते हैं यह कौन है? उसने उत्तर देने के बदले महाप्राण के आगे शीश नवा दिया. मैंने फिर पूछा उसने फिर वही किया. अब मैंने उनसे उनका नाम पूछा- फिर कोई जवाब नहीं था बस इशारा था कि वह बच्चा है. मैंने फिर सवाल दोहराया उत्तर फिर वही था.
तभी एक व्यक्ति पास आये और बोले ये तो “निराला जी” हैं न. मुझे उत्तर मिल गया था. अब महाप्राण निराला की अगली पंक्ति गूँज रही थी- “है अमानिशा, उगलता गगन घन अंधकार” और उससे टकराती दूसरी पंक्ति चली आई- “शक्ति की करो मौलिक कल्पना” और महाप्राण को नमन कर मैं चल पड़ा.

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