(स्मृति: मंगलेश डबराल )
७ और ८ दिसंबर को हम लोगों ने एक दूसरे को तसल्ली देना जारी रखा. कोई कहता कि चाहे जितने उतार चढ़ाव देखने पड़ें , मगलेश जी स्वस्थ लौटेंगे. कोई कहता वे फाइटर हैं, ज़रूर वेंटीलेटर से भी वापस आएँगे. हम सभी अपना अपना डर छिपाए बाकियों को ढांढस दे रहे थे, व्हाट्सप्प पर, फोन पर. ९ दिसंबर को लेकिन वही हुआ जिसका डर हम छुपा रहे थे एक दूसरे से, एक भयानक सन्नाटा पसर गया. मंगलेश जी की अब छवियां फ़्लैश कर रही थीं। पहले गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल का एक दिन – रात भर लम्बी बहस – ठहाके और वीरेन दा का उन्हें चिढ़ाना – पंकज चतुर्वेदी के लम्बे हस्तक्षेप – और फिर बिना चेतावनी के मंगलेश जी का टप्पा गाना. कितने ही शहरों में , किन किन दोस्तों के बीच, कार्यक्रमों , समारोहों, शोक-सभाओं के बीच उनकी अनेक और अनूठी छवियां तैर जाती हैं.
कहाँ मिलेंगे मंगलेश जी ? एम्स में वेंटीलेटर पर अब वे नहीं हैं. यह स्लाइड अब डिलीट हो गयी है. लेकिन क्या इलाहाबाद, पटना, बरेली, भिलाई, गोरखपुर , रांची , नैनीताल और वह पब्लिक एजेंडा का दफ्तर जहां मदन जी भी मिल जाया करते थे – इन सभी जगहों से वे एकसाथ चले गए हैं, जहां जहां हम पिछले कई सालों में उनके साथ होने, उन्हें देखने, सुनने और समझने का सौभाग्य प्राप्त करते रहे ? ऐसा तो होता नहीं है –
परछाईं उतनी ही जीवित है
जितने तुम
तुम्हारे आगे-पीछे
या तुम्हारे भीतर छिपी हुई
या वहाँ जहाँ से तुम चले गये हो । ( परछाईं / पहाड़ पर लालटेन/ १९७५ )
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´पहाड़ पर लालटेन´ की पहली ही कविता है ´वसंत´, १९७० में लिखी हुई. बर्फ सरीखा ´श्वेत आतंक´ और प्रतिरोध सरीखा वसंत, एक छटपटाती, लहूलुहान उम्मीद सा – और कैसा हो सकता था १९७० में वसंत का तसव्वुर ?
१९६० के दशक के उत्तरार्ध और सत्तर के दशक के क्रांतिकारी आवेग और उसके निर्मम दमन ने इन दिनों युवा हो रहे हिंदी कवियों को बहुत गहरे प्रभावित किया. ( भले ही इनके संग्रह १९८० के ही दशक में छपकर पाठकों तक पहुंचे). क्रांतिकारी संघर्षों की एक वैश्विक पृष्ठभूमि भी थी – जिसमें चमक रहे थे क्यूबा, वियतनाम, अल्जीरिया और फ्रांस का छात्र आंदोलन. हिंदी कवियों की इस पीढ़ी ने हिंदी कविता को एक अलग ही विश्वदृष्टि प्रदान की. हिंदी कविता के सरोकार अभूतपूर्व ढंग से विस्तृत और विकसित हुए. आश्चर्य नहीं कि इन हिंदी कवियों ने प्रतिरोध की, इंसानियत और पृथ्वी को बचाने वाली समकालीन विश्व कविता का हिंदी में अनुवाद भी सर्वाधिक किया. आगे चलकर इन्हीं कवियों ने जिस तरह साम्प्रदायिकता की चुनौती, भूमंडलीकरण की विनाशलीला, पर्यावरण के विध्वंस और मानवीय प्रजाति पर मंडराते संकट को कविता के सरोकारों से जोड़ते हुए अत्यंत मार्मिक कवितायेँ लिखीं, उसने हिंदी कविता को पहले से कहीं ज़्यादा विश्व की जनवादी कविता से जोड़ दिया. इन कवियों ने स्त्रियों, आदिवासियों, दलितों और दूसरे वंचित तबकों की व्यथा -कथा अलग अलग सन्दर्भों में नहीं, बल्कि एक समेकित विश्व-दृष्टि के आलोक में लिखी. पढ़िए ´गुजरात के मृतक का बयान´ जहां हत्यारों ने सिर्फ उसका मज़हब पहचाना, लेकिन खुद उसके पास अलग सी थी अपनी पहचान जिसे हत्यारे क़ुबूल नहीं कर सकते थे-
´´और जब मुझसे पूछा गया — तुम कौन हो
क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मज़हब कोई तावीज़
मैं कुछ नहीं कह पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था
सिर्फ़ एक रँगरेज़, एक कारीगर, एक मिस्त्री, एक कलाकार, एक मजूर था´´
मंगलेश डबराल इस पीढ़ी के कवियों के बेशकीमती प्रतिनिधि हैं. आज उन्हें याद करते हुए रचना और विचार की दुनिया के उनके वे साथी, सहयात्री और मित्र भी याद आ रहे हैं, जो अब नहीं हैं, जो कभी एक ही परिवार हुआ करते थे. इन पांचेक वर्षों में अनिल सिन्हा, नीलाभ, पंकज सिंह, वीरेन डंगवाल और अब मंगलेश डबराल को हम खो चुके हैं- सभी परस्पर गहरे मित्र रहे थे. ये सभी ६७ से ७२ के उम्र के बीच के थे, जब इन्होने दुनिया को अलविदा कहा. इनसे आठ दस बरस छोटे थे रमाशंकर यादव ´विद्रोही´, लेकिन वे भी साथ छोड़ गए. इसी दौर में कवियों की इस पीढ़ी के अग्रजों में हमने कुंवर नारायण, विष्णु खरे, चंद्रकांत देवताले, केदारनाथ सिंह और विष्णुचंद्र शर्मा को भी खोया. इस दुष्काल में हिंदी कविता की दुनिया ने कितना कुछ खो दिया है. आज न चाहते हुए भी सोच रहा हूँ क्या बीत रही होगी आलोकधन्वा पर मंगलेश जी के न रहने की खबर के बाद.
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रोज़ी -रोटी की तलाश में पहाड़ छूटा था. रोज़गार पहाड़ में नहीं , शहर में था. पहाड़ था, पहाड़ों में गाँव था, गाँव में बचपन था, बचपन में नदी थी भोले चेहरों के दर्पण सी – भोलेपन का एक अपूर्व संसार, कैशोर्य की स्वप्निलता – सब एकबारगी छूट रहा था . वापस लौटना संभव न था-
´´मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया
वहाँ कोई कैसे रह सकता है
यह जानने मैं गया
और वापस न आया ।´´ (रचनाकाल :1974/ पहाड़ पर लालटेन)
मन चाहता तो भी वापस लौटने की कोई जगह न थी. गाँव वीरान होते होते ख़त्म हो रहा था, बचपन की नदी रेत हो चुकी थी. बचपन में वैसे भी कहाँ कोई लौट पाता है? छूट चुकी चीज़ें, आवाज़ें , इशारे और माहौल मंगलेश की कविता में पसरते जाते हैं – रूप बदलकर, कविता में दाखिल होते तमाम नए से नए तजुर्बात से टकराते हुए, हाथ मिलाते हुए. एक ही जगह अतीत होता वर्तमान और वर्तमान में खिंचा आता अतीत, स्मृति बनता स्वप्न और स्वप्न में बदलती स्मृतियाँ – उनकी कविता के देश-काल का यह बर्ताव अजब है।
‘और बीतते दॄश्यों की धुंध से
छनकर आते रहते हैं तुम्हारे देह-वर्ष’ ( अंतराल /१९७३/ पहाड़ पर लालटेन)
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मंगलेश जी के कवि-स्वर में एक कम्पन, एक थरथराहट, एक तनावयुक्त नाज़ुक संतुलन, एक कोमल सी दृढ़ता और एक ज़िद्दी विनम्रता है. वे ज़ोर से बोलनेवाले कवि नहीं हैं. वे ऐसे कभी बोले ही नहीं जैसे कि कोई स्थापना कर रहे हों-
´´ज़ोर से नहीं बल्कि
बार बार कहता था मैं अपनी बात
उसकी पूरी दुर्बलता के साथ
किसी उम्मीद में बतलाता था निराशाएं
विशवास व्यक्त करता था बगैर आत्मविश्वास
लिखता और काटता जाता था यह वाक्य
कि चीज़ें अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही हैं ´´
( बार बार कहता था / हम जो देखते हैं / १९९४ )
याद आती है भिलाई की एक शाम। कवि गोष्ठी ख़त्म हो चुकी थी और हम लोग होटल लौट आए थे. रास्ते में ही मंगलेश जी और रामजी भाई के बीच बहस छिड़ गयी थी. मंगलेश जी विनोद कुमार शुक्ल की उस दिन सुनाई कविताओं से अभिभूत थे. कहते जा रहे थे ´´मेरी कवितायेँ विनोद जी की कविताओं के सामने कुछ नहीं थीं. ” रामजी राय मंगलेश जी द्वारा उसी गोष्ठी में सुनाई गयी कविताओं को उद्धृत कर कह रहे थे कि ´´ ऐसा बिलकुल नहीं है। ‘´ बहस चलती जा रही थी , कोई अंत नहीं था. रामजी भाई अपनी बात मजबूती से रखते हैं, यह उनकी ट्रेनिंग का हिस्सा है. लेकिन मंगलेश जी कहाँ पीछे हटने वाले थे. वीरेन दा और मैं बहस में शामिल होने की जगह खोज रहे थे, लेकिन दोनों योद्धा कोई जगह छोड़ नहीं रहे थे. हम जो देख रहे थे वह वही कोमल दृढ़ता और ज़िद्दी विनम्रता थी जो कवि और व्यक्ति मंगलेश की विशेषता है. दुर्लभ है ऐसी हठी विनम्रता जहां खुद एक बड़ा कवि अपने अग्रज बड़े कवि से कमतर आंके जाने के लिए लड़ रहा है। क्या इस आत्म-प्रचार और आत्म-विज्ञापन के युग में ऐसा आपने कहीं देखा है ? यह थे मंगलेश डबराल। हरदम self-effacement में मुब्तिला-
´´और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।´´ ( संगतकार/ आवाज़ भी एक जगह है)
इसी मिजाज़ की एक बात और याद आती है वीरेन डंगवाल के सन्दर्भ में. ईराक- युद्ध के वक्त कई शहरों में जन संस्कृति मंच ने ´युद्ध के विरुद्ध कविता´ शीर्षक श्रृंखला आयोजित की थी. गोरखपुर में हुए कार्यक्रम में जब मंगलेश जी काव्य पाठ कर चुके, तो नंबर आया वीरेन डंगवाल का. आलोकधन्वा नहीं पहुँच सके थे. वीरेन दा ने बजाय अपनी कोई कविता पढ़ने के आलोकधन्वा की लम्बी कविता ´सफ़ेद रात´ सुनाई. बहुत कहने पर भी उन्होंने अपनी कोई कविता नहीं सुनाई. आलोकधन्वा की यह कविता वीरेन दा के मुताबिक़ इस प्रसंग में उनकी किसी भी कविता से बेहतर प्रतिनिधित्व करती थी.
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पहले संग्रह से ही मंगलेश अत्याचारियों, हत्यारों और तानाशाहों के बहुरुपियापन को उघाड़ते चलते है और यह सिलसिला उनकी आखिरी कविताओं तक चलता है. शासक तबका इतना मायावी है कि उसकी कोई भी शिनाख्त अंतिम नहीं है. हर बार उनके तिलिस्म को भेद उनकी असलियत तक पहुँचना होता है. हत्यारे, आततायी और तानाशाह सिर्फ दैत्य सरीखे नहीं दिखते जिन्हें देखते ही पहचान लिया जाए. मंगलेश जी के पहले ही संग्रह में इनके मायालोक की अनेक छवियाँ दर्ज़ हैं. अत्याचारी तो बच्चों को गोद में उठाकर उन्हें प्यार भी करता है , इससे अत्याचार की थकान मिटती है। (अत्याचारी की थकन/ पहाड़ पर लालटेन) –
´´फिर भी तुम रह सकते हो
अगर हमारे होकर रहो
हम तुम्हारे लिए ही आए हैं
कहता हुआ तानाशाह नेपथ्य से आता है´
जो हमारा नहीं उसकी खैर नहीं
कहकर मुस्कुराता है.´´ (तानाशाह कहता है/ पहाड़ पर लालटेन)
अत्याचारी की लोकप्रियता, मोहक मुस्कान, आत्मीयता में बढ़ा हुआ हाथ और उसके परिवेश का सुघड़पन उसके निर्दोष होने के प्रमाण रचता है-
´´अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं
उसके नाखून या दाँत लम्बे नहीं हैं
आँखें लाल नहीं रहतीं
बल्कि वह मुस्कराता रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढ़ाता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं
अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बन्दूकें
सिर्फ़ सजावट के लिए रखी हुई हैं
उसका तहख़ाना एक प्यारी सी जगह है
जहाँ श्रेष्ठ कलाकृतियों के आसपास तैरते
उम्दा संगीत के बीच
जो सुरक्षा महसूस होती है वह बाहर कहीं नहीं है
अत्याचारी इन दिनों ख़ूब लोकप्रिय है
कई मरे हुए लोग भी उसके घर आते जाते हैं.´´
(अत्याचारी के प्रमाण /1992/हम जो देखते हैं )
जनता की पीड़ा की करुण आवाज़ ही नहीं , मंगलेश की कविता में शुरू से अंत तक बदलते दौरों में शोषकों, अत्याचारियों और तानाशाहों के बदलते रूपों और भंगिमाओं की पहचान कराई गयी है. मंगलेश की कविता में अत्याचारी कहता है की उसका चेहरा आदमी से मिलता है ( हम जो देखते हैं) और तो और ´´ एक प्रसिद्ध अत्याचारी विश्च पुस्तक मेले में ´/हँसता हुआ घूम रहा था.´´ (दिल्ली -१/१९८८/ हम जो देखते हैं)
´ हत्यारा एक मासूम के कपड़े पहनकर चला आया है
वह जिसे अपने पर गर्व था
एक खुशामदी की आवाज में गिड़गिड़ा रहा है´ (अभिनय/ हम जो देखते है)
अत्याचारी का अत्याचारी होना ही लोगों के दुःख और शोषण का अकेला कारण नहीं है, बल्कि अत्याचारी का अपने वास्तविक रूप को छिपा ले जाना , मनमोहक रूपों में प्रकट होना, यहां तक कि जन-नायक बन जाना, लोगों के लिए अनुकरणीय हो उठना, जन जन की पीड़ा को बढ़ा देता है और प्रतिकार को पेचीदा बनाता है. लोग अपनी पीड़ा पहचानते हैं, लेकिन उनके स्रोत आँखों के सामने होकर भी नहीं दिखाई देते। बकौल मुक्तिबोध ´´हम सब कैद हैं उसके चमकते ताम -झाम में´´,
´´हमसे ज़्यादा कोई नहीं जानता हमारे कारनामों का कच्चा-चिट्ठा
इसीलिए हमें उनकी परवाह नहीं
जो जानते हैं हमारी असलियत
हम जानते हैं कि हमारा खेल इस पर टिका है
कि बहुत से लोग हैं जो हमारे बारे में बहुत कम जानते हैं
या बिलकुल नहीं जानते
और बहुत से लोग हैं जो जानते हैं
कि हम जो भी करते हैं, अच्छा करते हैं
वे ख़ुद भी यही करना चाहते हैं.´´
( हत्यारे का घोषणापत्र )
२१ वीं सदी के साथ ही भूमंडलीकरण की साम्राज्यवादी गतिकी और उसके गर्भ से निकली सूचना और संचार क्रान्ति ने अत्याचारियों और शासकों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म, लगभग अदृश्य होते जाने की कला को नयी ऊंचाई दी. ´नए युग के शत्रु ‘ कविता इस पूरे मायावीपन को उपस्थित करती है –
´हमारा शत्रु किसी एक जगह नहीं रहता
लेकिन हम जहाँ भी जाते हैं पता चलता है वह और कहीं रह रहा है
अपनी पहचान को उसने हर जगह अधिक घुला-मिला दिया है
जो लोग ऊँची जगहों में भव्य कुर्सियों पर बैठे हुए दिखते हैं
वे शत्रु नहीं सिर्फ़ उसके कारिंदे हैं
जिन्हें वह भर्ती करता रहता है
ताकि हम उसे खोजने की कोशिश न करें ´ ( नए युग के शत्रु /2013)
जिस कवि ने युवा होते हुए १९६० के दशक के ´श्वेत आतंक´और १९७० के दशक के आपातकाल के दमन और प्रतिरोध को देखते समझते अपनी विश्वदृष्टि का विकास किया हो, जीवन के आखिरी दौर में फ़ासीवादी निज़ाम का साक्षी होने तक वह आततायियों की पहचान को अपडेट करता चलता है, तानाशाहों के बदलते तौर तरीकों को गहराई से ताड़ लेता है-
´´वे अपनी आँखों में काफ़ी कोमलता और मासूमियत लाने की कोशिश करते हैं लेकिन क्रूरता एक झिल्ली को भेदती हुई बाहर आती है और इतिहास की सबसे क्रूर आँखों में तब्दील हो जाती है। तानाशाह मुस्कराते हैं भाषण देते हैं और भरोसा दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य है, लेकिन इस कोशिश में उनकी भंगिमाएँ जिन प्राणियों से मिलती-जुलती हैं वे मनुष्य नहीं होते। तानाशाह सुंदर दिखने की कोशिश करते हैं, आकर्षक कपड़े पहनते हैं, बार-बार सज-धज बदलते हैं, लेकिन यह सब अंतत: तानाशाहों का मेकअप बनकर रह जाता है।
इतिहास में कई बार तानाशाहों का अंत हो चुका है, लेकिन इससे उन पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें लगता है वे पहली बार हुए हैं।‘‘ ( ´तानाशाह´)
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मंगलेश जी की अनेक कविताओं में शमशेर जैसा अमूर्त (शब्द) संयोजनों में एक सधा हुआ लेकिन पवित्र, भोला , निष्कवच काव्य-स्वर मिलेगा. उनके यहां मुक्तिबोध का आत्माभियोगी स्वर भी मिलेगा। आतंक, ह्त्या, तानाशाही और अत्याचार जिसे लोकतंत्र के आवरण में बरता जाता रहा है , उसके शिकार हो रहे लोगों के वास्तविक जीवन के दैनंदिन यथार्थ-चित्रों को एक विकल स्वर में, अंतवर्ती पीड़ा और करुणा के साथ उपस्थित करने में वे रघुवीर सहाय के नज़दीक हैं. कविता में समर्थ गद्यात्मक विन्यास में भी रघुवीर सहाय के निकट पड़ते हैं.
वीरेन डंगवाल की कविता पर मंगलेश जी ने ´नगण्यता का गुणगान’ शीर्षक से जनमत में लेख लिखा था, लेकिन ´नगण्यता का यह गुणगान´उनकी कविताओं में भी कम नहीं है. ´´संगतकार´´ , ´´केशव अनुरागी´´ या ´´गुणानंद पथिक´´ ऐसे ही वास्तविक जीवन से लिए गए, काव्य में उपस्थित व्यक्ति-चित्र हैं जो हाशिए पर धकेले जाते हुए भी अपनी मनुष्यता की अपराजेय गूँज लिए हुए आते हैं. तीनों व्यक्तित्व संगीत से जुड़े हुए हैं। मंगलेश जी ने सौंदर्य को भी प्रतिकार की तरह बरता है, फिर वह सौंदर्य शब्दों का हो, रेखाओं का हो या सुरों का। ´´राग दुर्गा´में वे ´सभ्यता का अवशेष´सुनते हैं. ´प्रतिकार´ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
´´जो कुछ भी था जहाँ-जहाँ हर तरफ़
शोर की तरह लिखा हुआ
उसे ही लिखता मैं
संगीत की तरह ।´´
( प्रतिकार/1999/ आवाज़ भी एक जगह है )
मंगलेश और उनकी पीढ़ी के अन्य भी कवियों में हम देख सकते हैं कि विभिन्न किस्म की सत्ताओं (धर्मसत्ता , पितृसत्ता, जाति -सत्ता , राज- सत्ता, पूंजी की सत्ता) के अंतर्गुम्फित जाल में फंसे मनुष्य की गति-नियति को पकड़ने की कोशिश है. वे चाहे स्त्रियों के बारे में लिखें, बच्चों के बारे में, दलितों या हाशिए के अन्य तबको के बारे में- इनके किरदार एक नहीं अनेक पहचान रखते हैं। ताकतवर लोग उन्हें उनकी मनुष्यता की संश्लिष्ट पहचान से गिराकर सर्वाधिक वेध्य पहचान में घेरते-गिराते और फंसाते हैं। ´केशव अनुरागी ´ को लीजिए – वे निम्न वर्ग के, दलित जाति के विलक्षण लोक कलाकार हैं. एक साथ तीन तरह के सामाजिक हाशियों में उपस्थित एक जीवन।
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मंगलेश जी के साथ इत्मीनान से कई घंटों बैठने का शायद अंतिम अवसर रहा जब करीब दो साल पहले जनसत्ता अपार्टमेंट में संजय जोशी के घर हम तीन लोग देर तक बैठे. मैंने अमानत अली खान की गायी आतिश की मशहूर ग़ज़ल – ´´ ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते´´ सुनाई.. मंगलेश जी को बहुत पसंद आई. वे भी रंग में आ गए और अमीर खान साहेब की कोई बंदिश उन्होंने सुनाई. फिर सलामत अली खान के शास्त्रीय संगीत के इतिहास के बारे में दिए गए इंटरव्यू पर देर तक चर्चा होती रही. हम लोग रुखसत हुए यह कहते हुए कि इस तरह इत्मीनान से हम लोगों को और भी बैठना चाहिए.
विलक्षण कवि -लेखक, सम्पादक, अनुवादक, जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, कामरेड और सबसे बढ़कर एक दुर्लभ इंसान के रूप में हमारी स्मृतियों के आकाश में आप सदैव एक रौशन तारे के रूप में चमकते रहेंगे, मंगलेश जी. आज अर्नेस्टो कार्देनाल की इन पंक्तियों से आपको छूना चाहता हूँ, जो आपके ही अनुवाद से हमें मयस्सर हुईं-
हम सार्वभौमिक हैं
और मृत्यु के बाद हम दूसरे तारों
और दूसरी आकाशगंगाओं की रचना के काम आयेंगे.
हम तारों से आये हैं और तारों में ही चले जायेंगे वापस.
(तारों की धूल/ अर्नेस्टो कार्देनाल/ अनुवाद- मंगलेश डबराल )