समकालीन जनमत
‘साहित्य का दलित सौन्दर्यशास्त्र’ पर विचारगोष्ठी
पुस्तक

चंचल चौहान की आलोचना पुस्तक ‘ साहित्य का दलित सौन्दर्यशास्त्र ’ पर हुई विचारगोष्ठी

जनवादी लेखक संघ और दलित लेखक संघ के संयुक्त तत्वावधान में 8 जून को कनॉट प्लेस दिल्ली स्थित आंबेडकर सभागार में चंचल चौहान लिखित आलोचना ग्रंथ ‘ साहित्य का दलित सौन्दर्यशास्त्र ’ पर विचारगोष्ठी का आयोजन किया गया।

प्रमुख वक्ता के रूप में बोलते हुए जयप्रकाश कर्दम ने कहा कि यह किताब कई मायनों में अनूठी है। यह दलित सौंदर्यशास्त्र पर अब तक हुए विचार को आगे बढ़ाती है। इस किताब में साहित्य मात्र को जाँचने के लिए दलित दृष्टि को कसौटी की तरह इस्तेमाल किया गया है। चंचल जी ने घृणा को एक मूल्य माना है। यह उनकी मौलिक उद्भावना है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्रोफ़ेसर राजकुमार ने किताब की तारीफ़ करते हुए कहा कि लेखक ने दलित सौंदर्यशास्त्र को दुनिया भर के साहित्य की परख और प्रशंसा हेतु साहित्यिक प्रतिमान की तरह प्रयुक्त किया है। किताब में इस प्रतिमान का इस्तेमाल यूरोपीय और भारतीय साहित्यकारों को समझने में किया गया है। ये साहित्यकार हैं- सोफ़ोक्लीज़, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, टीएस इलियट, कबीर, तुलसीदास, प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि। दलित लेखकों में चंचल जी ने मुख्यतः ओमप्रकाश वाल्मीकि और तुलसीराम की आत्मकथाओं का विवेचन किया है। लेखक का परिप्रेक्ष्य विस्तृत है। इसमें फुले-आंबेडकर और मार्क्स-लेनिन के दृष्टिकोणों का सन्निवेश है। ऐसे लेखक से अपेक्षा रहती है कि वह जाति-जमात (कास्ट-क्लास) के सवालों, आधुनिकता, उत्तरऔपनिवेशिकता और भूमंडलीकरण आदि से जुड़े जटिल मुद्दों पर अपनी आलोचना को और भी धारदार बनाएगा। जो हो, यह ग्रंथ दलित सौंदर्यशास्त्र के महत्त्व को बखूबी रेखांकित करता है और रचनात्मक साहित्य के मूल्यांकन में इसे ‘अदबी डिवाइस’ के तौर पर प्रयुक्त करता है।

वरिष्ठ नवगीतकार एवं चिंतक जगदीश पंकज का कहना था कि ‘साहित्य का दलित सौन्दर्यशास्त्र’ पुस्तक में चंचल चौहान अपने मंतव्य को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं। उनका मानना है की दलित साहित्य जिस आंबेडकर-फुले वैचारिकी को आधार बनाकर लिखा जा रहा है वह इतनी व्यापक है जिसे सीमित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि सम्पूर्ण साहित्य की परख और सौंदर्य दृष्टि के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। प्रस्तुत पुस्तक की कुछ अवधारणाओं से असहमति हो सकती है किन्तु पुस्तक के लेखक का प्रयास और श्रम सराहना योग्य है जिसने ऐसे गम्भीर और दार्शनिक विषय को सरलता से समझाने का प्रयत्न किया है। चंचल जी बधाई के पात्र हैं।

स्त्री मुद्दों को प्रमुखता से उठाने वाली हाशिये की वैचारिकी को विकसित करने में संलग्न रश्मि रावत ने कहा कि पुस्तक में ज्योतिबा फुले, डॉ. आंबेडकर और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैचारिकी से साझा सौंदर्यशास्त्रीय चिंतन के सार्वभौमिक तत्वों की पहचान की कोशिश की गई है। घृणा के कलात्मक मूल्य की पहचान का श्रेय चंचल जी दलित साहित्य को देते हैं। रश्मि रावत ने घृणा के मूल्य के महत्व और प्रासंगिकता को मार्क्स के हवाले से रेखांकित किया। मार्क्स आवेगपूर्ण प्रतिबद्धता और प्रतिक्रिया के प्रति घृणाभाव और बुरे से नफरत महान साहित्य के लिए जरूरी बताते हैं l उनके अनुसार कला की ठोस अंतर्वस्तु होती है कृत्रिम दर्प से मुक्त समझौताविहीन ईमानदारी l ये शर्तें गैरदलित साहित्य पूरी कर पाता तो दलित लेखकों के लिए पृथक दलित सौंदर्यशास्त्र की आवश्यकता ही न होती l

डॉक्टर रावत ने गोष्ठी में खुले विमर्श के लिए कुछ शंकाएँ भी रखीं जैसे किताब में कहीं-कही समाज की भौतिक अवस्था के साथ साहित्य का समानांतर संबंध यांत्रिक ढंग से किया गया है। देश-काल की परिवर्तशील प्रक्रिया को उसकी पूरी जटिलता से न देखे जाने से कुछ सरलीकृत एवं अतिरेकी निष्कर्ष निकाले गए हैं। क्लासिकल रचनाओं को द्वन्द्वात्मक दृष्टि से देखे जाने की जरूरत है l उनमें प्रतिगामी और अग्रगामी दोनों तत्व होते हैं। मानवता के विकास के विभिन्न चरणों और उनसे मिले दाय के प्रति सामाजिक बदलाव के प्रतिनिधि उदासीन नहीं रह सकते।

अपनी काव्यात्मक शैली में बोलते हुए विवेकानंद महाविद्यालय की शिक्षिका और काव्यालोचक डॉ. सरोज कुमारी ने कहा कि सृजन गतिमय होना चाहिए। सृजन की गति और उसके भीतर की सामग्री कृति की प्रासंगिकता को निर्धारित करती है । चंचल चौहान द्वारा लिखित उनकी हालिया कृति साहित्य का दलित सौंदर्य शास्त्र पूर्व में लिखे गए दलित सौंदर्यशास्त्र की पुस्तकों से सर्वथा अलहदा कृति है, जो दलित साहित्य को समग्रता में जानने ,समझने और उसकी पड़ताल करने पर बल देती है। लेखक ने पुस्तक के आरंभ में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि साहित्य का दलित सौंदर्य शास्त्र क्यों रचा जाए और इसका क्या आधार हो? पुस्तक वर्तमान संदर्भ में दलित साहित्य को आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी दोनों दृष्टिकोणों से देखने का नया रास्ता खोलती हैं। किंतु प्रमुखता मार्क्सवादी नजरिए से दलित साहित्य को पढ़ने और समझने की है। पुस्तक में भारतीय वैचारिकी के अतिरिक्त पाश्चात्य वैचारिकी की विस्तार से चर्चा की गई हैl दलित सौंदर्य शास्त्र की यह पुस्तक क्लासिकल विचारधारा के बहाने मध्ययुगीन साहित्य की ब्राह्मणवादी रचनाधर्मिता की पोल खोलने वाली दृष्टि विकसित करने का साहसिक कदम है।

अपना पक्ष रखते हुए पुस्तक के लेखक डॉ. चंचल चौहान ने कहा कि प्रकाशित होने के बाद कोई भी कृति समाज की, पूरे पाठक वर्ग की हो जाती है l परिचर्चा में उठाए गए प्रश्नों का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा कि ये सवाल महत्त्वपूर्ण हैं l लेखक ने किताब लिखकर अपनी भूमिका का निर्वाह कर दिया है l उसे स्पष्टीकरण देने में नहीं उलझना चाहिए l

अध्यक्ष मंडल की तरफ से बोलते हुए दलित लेखक संघ के अध्यक्ष हीरालाल राजस्थानी ने कहा कि यदि आलोचना नहीं होगी तो साहित्यिकता का, वैचारिकता का विकास कैसे होगा l उन्होंने कहा कि रियायत देने के बजाए आलोचकों को चाहिए कि वे किसी भी नुक्ते पर रचनाकार की खुलकर आलोचना करें ताकि सैद्धांतिक प्रक्रिया समृद्ध हो सके। जैसे न्यायपूर्ण फ़ैसले तक पहुँचने के लिए पीड़ित के बयान के साथ प्रत्यक्षदर्शी का साक्ष्य आवश्यक होता है वैसे ही दलित साहित्य में उत्पीड़न की गवाही (भोगे हुए यथार्थ के साथ देखा हुआ यथार्थ भी शामिल हो) देने वाले ग़ैरदलितों का लेखन भी ज़रूरी है l आगे उन्होंने दलित सोंदर्यशास्त्र पर कहा कि सत्य और न्याय जिसमें बुद्ध के सूत्र- समता, बंधुता, स्वतंत्रता समाहित हो, से ज़्यादा सुंदर और क्या हो सकता है। यही कसौटी दलित साहित्य के सौन्दर्य की है। अध्यक्ष मंडल के दूसरे सदस्य कथाकार-संपादक हरियश राय ने सभी वक्ताओं के विचारों का निचोड़ पेश किया l उन्होंने इस किताब को कई कारणों से सार्थक माना l

कार्यक्रम के आरंभ में दलेस के महासचिव बलविन्द्र बलि ने सबका अभिनंदन किया तथा ‘ साहित्य का दलित सौंदर्यशास्त्र ’ किताब को पाठकों के समक्ष भलीभांति प्रस्तावित किया l कार्यक्रम का संचालन जलेस के पदाधिकारी बजरंग बिहारी ने किया l धन्यवाद ज्ञापन करते हुए जनवादी लेखक संघ के महासचिव कथालोचक संजीव कुमार ने कहा कि यह देखा जाना ज़रूरी है कि कोई कैसे पढ़ता है ? कहाँ से खड़े होकर देखती या देखता है l उन्होंने पढ़ने और देखने पर कार्यशाला करने की ज़रूरत बताई l इस परिचर्चा कार्यक्रम में दिल्ली के लेखक, आलोचक, संस्कृतिकर्मी, अध्यापक, शोधार्थी, विद्यार्थी और अन्य प्रबुद्ध श्रोता उपस्थित रहे l

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