समकालीन जनमत
जनमत

सर्व सेवा संघ का खाली कराया जाना

 वाराणसी में लोकतंत्र का आखिरी स्तम्भ ढहा दिया गया। विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, डॉ राजेंद्र प्रसाद और शास्त्री जी के द्वारा विभिन्न समय पर सहयोग और समर्थन से खड़ा हुआ गांधी शांति प्रतिष्ठान और उससे संबद्ध सर्व सेवा संघ, बाल बाड़ी  विद्यालय, पुस्तकालय, संग्रहालय सभी खाली करा लिए गए हैं। जिस तेजी से जिला प्रशासन ने कार्रवाई की उससे स्पष्ट है की सर्व सेवा संघ और उससे जुड़े गांधीवादियों की वैचारिक मजबूती संघ और भाजपा के आंख में किरकिरी बनी हुई थी।

यह संयोग नहीं है की यह सब उस समय हो रहा था जब मोहन भागवत  काशी में अंतर्राष्ट्रीय टेंपल समारोह और एक्सप्रेसो का आयोजन करने के लिए आए थे।

साफ बात है कि मोदी के आने के बाद  विश्वनाथ मंदिर की आध्यात्मिकता  उसकी प्राचीन गरिमा और सांस्कृतिक विरासत को वापस लाने के नाम पर जिस तरह का विध्वंसक विकास और निर्माण चल रहा है, उसका उद्देश्य है कि वाराणसी के जनजीवन में मानवीय मूल्यों को संरक्षित रखने वाली और लोकतंत्रिक विमर्श की जो छोटी-मोटी जगहे अभी भी बची हुई थी।( जिनका मानवीय सरोकार व प्रतिबद्धता असंदिग्ध थी) जो सांस्थानिक तौर पर हर दौर में मानवीय मूल्यों और नागरिक अधिकारों के लिए खड़ा होने का साहस रखते थे, काशी पर कब्जा कर लेने के बाद वे संघ और भाजपा के लिए असहनीय होते जा रहे थे। ऐसे संस्थान हिन्दुत्व  के लिए नाकाबिले बर्दाश्त थे। इसलिए उनकी गुस्ताखी की सजा उन्हें मिलनी ही चाहिए थी।

भारत विजय की योजना से 2014 में अडानी के रथ पर सवार होकर जब मोदी गांधीनगर से उड़े थे और वाराणसी को अपने संसदीय चुनाव क्षेत्र के रूप में चुना था। तो पहले दिन ही उनकी पाखंडी उदगार  सामने आ गई थी। मोदी ने गुजरात के ‌गांधीनगर को छोड़कर विश्वनाथ की नगरी आने के पीछे के मकसद पर निहायत ही पाखंडी तर्क देते हुए कहा था कि-
“न मैं आया हूं। ना मुझे कोई लाया है। मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है”।

तभी समझ लेना चाहिए था कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस पिछड़े इलाके में मोदी का आना और वह भी आध्यात्मिक नगरी कहे जाने वाले काशी को अपना कार्यक्षेत्र बनाना निश्चय ही भारतीय लोकतंत्र और भारत के गंगा जमुनी संस्कृति के लिए एक खतरनाक संकेत था। यह संकेत उसी समय दे भी दिया गया था।

कारपोरेट मीडिया और लुटेरी पूंजी के तूफानी प्रचार और हिंदुत्व की सामाजिक चेतना और परंपरागत हिंदू वर्णवादी मूल्यों से चिपका हमारा नागरिक समाज इस तरह के धूर्तताओं को भी महिमामंडित करने लगता है। उस समय हुआ भी वही।

काशी जहां शंकर की आध्यात्मिक नगरी मानी समझी जाती है। वही यह भक्तिकाल के प्रणेता कबीर से लेकर रैदास की भी कर्मभूमि और तपोस्थली है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में काशी अपने हृदय की गहराइयों में आधुनिक लोकतांत्रिक  मूल्यों को अंदर तक समेटे हुए, खुले दिमाग और विचारों वाला शहर था। जहां उस दौर में साहित्य, संगीत, कला, विचार और लोकतंत्र के रक्षक ही नहीं उसके सृजनकर्ता, प्रणेता जन्म लेते रहे थे।

काशी से जुड़े हुए स्वतंत्रता संघर्ष के दौर के नायकों आचार्य नरेंद्र देव, संपूर्णानंद, मालवीय जी, कमलापति त्रिपाठी, लाल बहादुर शास्त्री के साथ स्वामी सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन के संघर्षों को याद करते हैं। तो हमें याद आता है कि 1942 में जब हिंदुत्व की ताकतें अंग्रेजों की गुलामी करते हुए काशी में मुखबिरी का काम कर रही थी। तो लोकबंधु राजनारायण के नेतृत्व में बीएचयू में स्टूडेंट फेडरेशन से जुड़े छात्र  झारखंडे राय, चंद्रशेखर सिंह, प्रभु नारायण सिंह, रुस्तम सैटिन जैसे जांबाज नौजवान भी थे, जिन्होंन पूर्वी उत्तर प्रदेश में विद्रोह की अगुवाई की थी।

आधुनिक भारत के निर्माण काल और हिंदी जातीयता के नवजागरण में जहां हिंदी साहित्य के प्रणेता के रूप में देवकीनंदन खत्री, भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद की त्रयी थी। वही आधुनिक प्रगतिशील साहित्य के‌ दौर में त्रिलोचन शास्त्री, चंद्रबली सिंह, राहुल जी, शिवप्रसाद सिंह, नामवर सिंह, विष्णु  चंद शर्मा,  कंचन कुमार, करुणानिधान, काशीनाथ सिंह, गोरख पांडे, महेश्वर जैसे अनगिनत आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों से जुड़े संघर्ष के नेताओं को भी हम इसी काशी में पलते-बढ़ते देखते हैं।

कराची से आये हुए एक पारसी युवा रुस्तम सैटिन को जिस तरह से बनारस के विराट हृदय की गंगा जमुनी संस्कृति ने अंगीकार किया वह काशी की महान मानवीय परंपरा ही थी।जिसका मोदी के नेतृत्व में विध्वंस चल रहा है।

इसी काशी से राहुल सांकृत्यायन और राज नारायण ने भारत में एक महत्वपूर्ण वैचारिक राजनीतिक अभियान को नेतृत्व दिया था। हम जानते हैं किस तरह से राजनारायण और राहुल सांकृत्यायन ने काशी विश्वनाथ मंदिर में अछूतों को प्रवेश के लिए आंदोलन चलाया और लाठियां खाई।

काशी के रूढ़िवादी हिन्दुत्व की परंपरा के सबसे बड़े प्रवक्ता स्वामी करपात्री जी ने जब आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों को चुनौती दी तो राहुल जी ने करपात्री जी की पुस्तक ” मार्क्सवाद और रामराज्य” का जवाब देते हुए “रामराज्य और मार्क्सवाद” नामक कालजई पुस्तक की रचना की। उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारा और काशी में आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के विजय का झंडा गाड़ दिया था।

आज वही काशी अपनी इस महान परंपरा के विध्वंस पर आंसू बहाने के लिए अभिशप्त है ।यही नहीं मालवीय जी द्वारा स्थापित काशी हिंदू विश्वविद्यालय में  जब हिंदुत्व के पिछड़े मूल्यों को गौरवान्वित किया जाने लगा था तो राज नारायण ने मालवीय प्रतिमा के सामने  धरना देकर ललकार और कहा था कि वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय  ज्ञान और शोध का केंद्र रहा है। इसे किसी एक विचार और परंपरा का गढ़ नहीं बनने दिया जा सकता।

लेकिन उदारीकरण के बाद धुंधली होती लोकतांत्रिक सामाजिक चेतना और धर्म जाति के विकसित होती हुई वैचारिकी के दौर में काशी भी अपने को बचा नहीं सकी। जहां कभी विश्वनाथ मंदिर के कपाट बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की धुन पर खुलते थे। जहां नजीर बनारसी की आवाज काशी वासियों की अपनी आवाज हुआ करती थी।

आज उसी काशी को सांप्रदायिक उन्माद और भारत के हिंदूकरण की खतरनाक कोशिशों और कारपोरेट के लोभ-लालच और लूट  के केंद्र में बदला जा रहा है। अयोध्या के बाद ज्ञानवापी मस्जिद को केंद्र  करते हुए जिस तरह का सत्ता प्रायोजित अभियान चल रहा है। उससे काशी की आत्मा में रचे-बसे लोकतांत्रिक संस्थान व्यक्ति और विचार सुरक्षित नहीं है। गांधी शांति प्रतिष्ठान और सर्व सेवा संघ पर हुए हमला को इसी कड़ी कड़ी में देखा जाना चाहिए।

विकास के नाम पर काशी विश्वनाथ धाम   कारीडोर के निर्माण द्वारा धर्म के धंधे का कारपोरेटीकरण करने के इस दौर में हमारी  उदारवादी परंपरा विरासत सहेजने वाले कोई भी संस्थान, कोई भी लोकतांत्रिक विचार केन्द्र अब सुरक्षित नहीं रह गए हैं।

जब काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर का निर्माण हो रहा था तो उस समय काशी की विरासत के सैकड़ों संस्थान उजाड़ दिए गए थे । अगर उस समय हमारे समाज ने अपने पहले उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री के सृजन स्थली और सैकड़ों पुरातत्विक महत्व के ऐतिहासिक मंदिरों भवनों के ध्वंस पर आवाज नहीं उठा सका तो याद रखिए उसके अंजाम यही होने थे। जो आज हम गांधी, विनोवा, जेपी  की विरासत के उजाड़े जाने पर देख रहे हैं।

हमें सर्व सेवा संघ पर हुए इस हमले को किसी अलग-थलग घटना या जमीन के विवाद के संदर्भ में देखने के संकुचित दृष्टिकोण से बाहर आना होगा। यह भारत में धर्म आधारित फासीवाद के निर्माण की सबसे आक्रामक परियोजना का  अंग है। जिसे मोदी के नेतृत्व में भारत में लागू किया जा रहा है।

आज मणिपुर के विध्वंस और सर्व सेवा संघ के 60 वर्ष के इतिहास को तबाह करने के बीच गहरे रिश्ते को हमें तलाशना होगा। तभी शायद हम आज के दौर के यथार्थ की क्रूरता भरी जटिलता को समझ पाएंगे।
बिनोवा और जेपी की परंपरा अंतर्वस्तु में भारत में गांधी जी की समन्वयवादी हिंदू विचार परंपरा का विकास था।

विनोबा भावे ने 1960 में जब सर्व सेवा संघ के निर्माण का अभियान शुरू हुआ तो उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसको पूर्ण रूप से समर्थन दिया था और विनोवा के आगमन पर भव्य  स्वागत समारोह किया था। आपको याद होगा  जब आपातकाल में संघ पर प्रतिबंध लगा था और सरसंघचालक देवरस को गिरफ्तार कर लिया गया था तो इंदिरा गांधी को देवरस ने कई पत्र लिखे। जिसका इंदिरा गांधी द्वारा कोई जवाब नहीं दिया गया।

उस समय देवरस ने बिनोवा भावे को पत्र लिखकर राष्ट्र सेवा के लिए संघ को समर्पित करने का आश्वासन दिया था। और गुजारिश की थी कि आप अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इंदिरा गांधी सरकार द्वारा संघ पर से प्रतिबंध हटाने और संघ के स्वयंसेवकों को कारागार से मुक्त कराने में मदद करें।

1974 के आंदोलन के समय जेपी संघ के बहुत करीब थे। एक बातचीत के दौरान जब उनके लोगों ने जेपी के समक्ष संघ की सांप्रदायिक फासीवादी विचारधारा को लेकर सवाल उठाया था तो जेपी ने कहा था कि अगर संघ फासिस्ट संस्था है। तो मुझे भी फासिस्ट समझा जाए।

लेकिन इतिहास कि यही विडंबना है कि वह किसी को क्षमा नहीं करता। आज समय उसी दौर की हमारी राजनीतिक जरूरतों के अंदर छिपी हुई वैचारिक राजनीतिक कमजोरी का हम से बदला ले रहा है।

चूंकि अब उदार हिंदू विचारों वाली समन्वयवादी हिंदुस्तानी आत्मा को खत्म कर राजनीतिक हिंदुत्व का अनुदार वादी मॉडल भारत पर थोपा जा रहा है। तो इसके विरोध में गांधीवादियों की पूरी जमात अवरोध बनकर खड़ी हो गई है। हम हिमांशु कुमार जैसे गांधीवादियों के साहस और वैचारिक प्रतिबद्धता के कायल रहे हैं। जिन्होंने हर तरह के जुल्म सहते हुए गरीबों आदिवासियों पर चल रहे कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के बुलडोजर का विरोध किया था और संघ भाजपा के वैचारिकी की धज्जियां उड़ा दी थी।

यही नहीं इतिहास के कई मोड़ों पर चाहे वह 90 का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन रहा हो या बाद के दिनों में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद उठे सांप्रदायिक उन्माद के खिलाफ खड़ा होने का सवाल रहा हो बनारस में सर्व सेवा संघ से जुड़े हुए लोग एक मजबूत लोकतांत्रिक स्तंभ रहे हैं। सर्व सेवा संघ से जुड़े लोगों ने उन सभी आंदोलनों में भागीदारी की जो उन्मादी संप्रदायिक राजनीति के खिलाफ चल रहे हैं। जिन आंदोलनों की लोकतांत्रिक आकांक्षा और  जनपक्षधरता  असंदिग्ध रही है।

कल तक जो लोग सर्व सेवा संघ, बिनोवा भावे और जेपी की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। आज उनकी विरासत सर्व सेवा संघ उनकी आंख की किरकिरी क्यों  हो गया है। क्योंकि प्रचार पाखंड से सर्वथा दूर सरलता सहजता दरिद्र नारायण के प्रति गहरा अनुराग मोहब्बत और सामाजिक सेवा का जो मॉडल गांधी के अनुयायियों ने भारत में खड़ा किया है और सेवाभाव के साथ सामाजिक सौहार्द समन्वय का जो पैमाना गांधी वादियों  निर्मित किया है। वह आज आरएसएस के सामाजिक सेवा के नाम पर घृणा, नफरत, सांप्रदायिक विद्वेष की योजना से संचालित पाखंड के प्रतिरोध की मानवीय ताकत बन गया है।

इसलिए मोदी और आरएसएस के नियंत्रण वाले काशी धाम में सर्व सेवा संघ और गांधी की विरासत के लिए कोई जगह नहीं है। यह अकारण नहीं है कि जो मोहन भागवत विनोवा भावे, जेपी की प्रशंसा करते नहीं थकते। वही सर्व सेवा संघ के उजाड़े जाने के समय काशी प्रवास के दौरान एक शब्द भी बोल पाने की हिम्मत नहीं जुटा सके। सच है कि पाखंड पाखंड ही होता है। उसकी आत्मा में मनुष्यता, सामाजिक सद्भाव और मानवीय गुणों का समावेश कभी नहीं होता।

मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने भारत के सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को प्राणहीन कर दिया है।संसद, संविधान अब दिखावे और पूजने की वस्तु रह गए हैं। न्यायपालिका भारी दबाव में काम कर रही है। स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्तता खत्म हुए कई वर्ष बीत गए हैं। मोदी शाह की जोड़ी ने भारतीय लोकतंत्र की सारी संस्थाओं की आत्मा को निचोड़ लिया है। वह मृतपाय सिर्फ एक ढांचे के रूप में मौजूद है।

इसलिए काशी में अगर कोई ऐसा संस्थान अभी मौजूद है जो लोकतंत्र का झंडा उठाकर खड़ा होने के साहस कर रहा है। तो उसे खत्म कर देना उनके लिए प्राथमिक जरूरत थीऔर उन्होंने नौकरशाही के प्रयोग और जमीन के मालिकाने के तकनीकी पहलुओं का इस्तेमाल करते हुए  इसे ही अंजाम दिया है।

65 दिन से चल रहे सर्व सेवा संघ और गांधी विनोबा भावे की विरासत बचाने के प्रयास पर जो बर्बरता और क्रूरता की गई वह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का एक और काला अध्याय है। करोड़ों की दुर्लभ पुस्तकें और सामान उठा कर फेंक दिए गए। सर्व सेवा संघ के रहवासियों को  अपना सामान भी समेटने  नहीं दिया। बुलडोजर और  हथियारबंद सुरक्षा दस्तों के द्वारा जिस तरह का आतंक पैदा कर गांधी वादियों को उस कैंपस से खदेड़ा गया वह काशी के इतिहास में नई मिसाल है। इसे हमें इसे बजरंग दल और गो रक्षकों के माबलिंचिंग के समकक्ष रखकर देखना चाहिए।

यह सब उस दौर में हो रहा है जब हम कावड़ यात्रा में शामिल समाज के तलछटों के ऊपर नौकरशाही द्वारा पुष्प वर्षा हो रही हैं। जो वस्तुतः हमारे समाज के तलछट और अनुत्पादक समूह हैं। इन्हें आने वाले समय में मणिपुर जैसी घटना को अंजाम देने के लिए मानसिक रूप से तैयार करने के अभियान में  सावन मास को बदल दिया गया है और इसकी आड़ में काशी धाम कारीडोर की भव्यता और  कांवरियों के शिवभक्त होने का गुणगान हो रहा है। उसी दौर में निहत्थे और गांधी जी का प्रिय भजन ” वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जानो  है ” या “अल्ला ईश्वर तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान” रामधुन गाते हुए सत्याग्रहियों को बंदूकों और पुलिस के बूटों के आतंक  द्वारा खदेड़ कर कैंपस से बाहर कर दिया गया है।

वहां पढ़ने वाले गरीब निराश्रित बच्चों के भविष्य का क्या होगा। करोड़ों के दुर्लभ पांडुलिपियों और पुस्तकों को कैसे सहेजा जाएगा यह अभी अनुत्तरित है। सबसे बढ़कर सर्व सेवा संघ ने मनुष्य के प्रति, दरिद्र नारायण के प्रति जो प्रेम करुणा और सेवाभाव की परंपरा का निर्माण किया है ।

गांधीजी की जो आध्यात्मिक ताकत और सत्याग्रह का जो हथियार गांधीजी ने ब्रिटिश हुक्मरानों के खिलाफ प्रयोग कर भारतीय समाज को भयमुक्त कर जागृत किया था। जिससे आजादी के महान लक्ष्य के लिए सोए हुए भारतीयों को तैयार किया था। उस परंपरा को पुनः कैसे स्थापित किया जाएगा। आज भारत के हर लोकतांत्रिक नागरिक के सामने यही यक्ष प्रश्न है और काशीवासियों के सामने भी!

फ़ीचर्ड इमेज अशोक पांडे के फेसबुक पेज से साभार 

Fearlessly expressing peoples opinion