समकालीन जनमत
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‘ शूद्र राजनीति ‘ से अति पिछड़े और बहुजनों के बीच सत्ता का रास्ता बनाने की कोशिश में सपा

 

समाजवादी पार्टी ने रोली मिश्रा और ऋचा सिंह को पार्टी ने निकाल दिया। रामचरित मानस के मसअले पर दोनों पार्टी लाइन से अलग जाकर सपा के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्या के खिलाफ़ मोर्चा खोले हुये थी। इससे पहले 29 जनवरी 2023 को सपा कार्यकारिणी की घोषणा से ठीक पहले प्रेस कान्फ्रेंस में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने खुद को शूद्र और भाजपा को दलित व पिछड़ों को शूद्र मानने वाली पार्टी कहा। उन्होंने मीडिया में कहा कि वह शूद्र हैं और वह मुख्यमंत्री से सदन में पूछेंगे कि वह शूद्र हैं कि नहीं हैं। इसके बाद 29 जनवरी रविवार को ही समाजवादी पार्टी ने 64 सदस्यों वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी का एलान किया। जिसमें 10 यादव, 9 मुस्लिम, 5 कुर्मी, 4 ब्राह्मण, 7 दलित, 16 अतिपिछड़े वर्ग के नेताओं को रखा गया। एक सप्ताह बाद कल एक संशोधित सूची ज़ारी करके इसमें पांच नये राष्ट्रीय सचिवों को शामिल किया गया है इससे राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अब 68 सदस्य हो गये हैं। जिसमें 10 सवर्ण है। पिछली सूची में राष्ट्रीय सचिव बनाये गये रामबक्श वर्मा का नाम हटा दिया गया है। ओम प्रकाश सिंह,अरविंद सिंह गोप,अभिषेक मिश्र,अनु टंडन,तारकेश्वर मिश्र को जगह दी गई है। स्वामी प्रसाद मौर्या व शिवपाल यादव को महासचिव बनाया गया है। सुंदीप रंजन को राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष, किरनमय नन्दा को राष्ट्रीय उपाध्ययक्ष।

कुल 15 नेताओं को पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है। इसमें एक भी ब्राह्मण, ठाकुर नहीं है। दो दर्जन लोगों को राष्ट्रीय सचिव बनाया गया है। जबकि दो दिन पहले तीन प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्षों की घोषणा की है। रीबू श्रीवास्तव को महिला सभा, डॉ राज्यपाल कश्यप को पिछड़ा वर्ग और व्यास गौड़ को अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ का अध्यक्ष बनाया है। जबकि अल्पसंख्यक सभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना इकबाल कादरी को बनाया है।

उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के संगठन और वैचारिकी में हुआ ये बदलाव समाज में होने वाले परिवर्तन की राजनीतिक अभिव्यक्ति है या कुछ और। सपा ने कभी भी खुद को शूद्र वैचारिकी से नहीं जोड़ा था। रामचरित मानस को प्रतिबिंधित करने की अपील करने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या को सपा ने महासचिव बना दिया। स्वामी प्रसाद मौर्या की अगुवाई में जातीय जनगणना वाले सवाल पर भी सपा बहुत मुखर नज़र आ रही है। सपा अध्यक्ष ने रैदास जयन्ती पर रैदास का दोहा ट्वीट किया। विधानसभा चुनाव से पहले अक्टूबर 2021 में सपा ने बाबा साहेब वाहिनी का भी गठन किया था। सपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में खुद को बहुजनों के प्रतिनिधि के रूप में पेश भी कर रही है इसी दिशा में उसके सांगठनिक, वैचारिक,राजनैतिक मूव दिखाई देते हैं। तो सपा जो ये पोजिशनिंग ले रही है रामचरित मानस पर, जाति जनगणना, गौमांस पर, इसे दलित बहुजन बुद्धिजीवी कैसे देखते हैं। इस पर उनकी प्रतिक्रियायें-

शूद्र राजनीति पर कब तक टिके रहेंगे अखिलेश 

लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी विषय के एसोसिएट प्रोफ़ेसर व उत्तर प्रदेश की राजनीति पर गहरी समझ रखने वाले रविकांत चंदन जी शूद्रीकरण वाले मुद्दे पर कहते हैं कि अखिलेश यादव ने जो बोला है वो त्वरित प्रतिक्रिया में बोला है क्योंकि वो मदिंर में गये तो उन्हें काले झंडे दिखाये गये और उनका विरोध किया गया। तो वो उनकी तात्कालिक और गुस्से वाली प्रतिक्रिया थी। प्रोफेसर रविकांत कहते हैं कि अखिलेश यादव के बारे में आप ये दावा नहीं कर सकते कि वो चुनाव तक इस पर डिगे रहेंगे। वो बहुत धर्मभीरू आदमी हैं। इतना कर्माकांडी आदमी हैं कि वो अचानक बदल जाएंगे ये कैसे हो सकता है। कभी वो शंकर की उपासना कभी मुंडन कराते हुये वो अपनी फोटो डालते हैं। 2021 विधानसभा चुनाव का जिक्र करते हुये वो आगे कहते हैं कि शुरु में जब ये स्वामी प्रसाद मौर्या को लेकर आये तब 15- 85 की बात हुई बाद में इन्होने परशुराम का फरसा उठा लिया। अभी वो ब्राह्मणों के चंगुल और दबाव में हैं और कुछ दिनों के बाद वो फिर हावी हो जाएगा। क्योकि इनकी अपनी कोई आईडियोलॉजी नहीं है,समस्या यहाँ हैं।

वो आगे कहते हैं कि अकेले स्वामी प्रसाद मौर्या के बोलने से ही समाजवादी पार्टी में घमासान मचा हुआ है। शिवपाल सिंह कुछ और बोल रहे हैं। रोली तिवारी हैं वो कुछ बोल रही हैं। मनोज पांडेय कुछ और बोल रहे हैं। रविकांत जी आगे कहते हैं कि महत्वपूर्ण बदलाव ज़मीन से होता है। ज़मीन पर नहीं जाएंगे तो मुद्दे हवा और मीडिया में चार छः दिन से ज़्यादा नहीं टिकेंगे। कैडर कैम्प करिये, प्रशिक्षण करिये, तब तक आपका मिशन और उद्देश्य नहीं सफल हो सकता है। रामचरित मानस वाला मसला इनका हवा में है। भाजपा शिलापट्ट ढो रही है, शिलान्यास हो रहा है। और अगर इसका फायदा भाजपा को नहीं होता तो तब से लेकर अब तक यही मुद्दा क्यों रहता। रामचरित मानस मुद्दे के नकरात्मक प्रभाव को रेखांकित करते हुये रविकांत कहते हैं कि इसके दो नकरात्मक प्रभाव हुये हैं। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा में ज़मीनी मुद्दे -महंगाई , बेरोज़गारी, नफ़रत की राजनीति का, उठ रहे थे। इसे मुद्दे ने उसे खत्म कर दिया। इससे बुनियादी मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गये। भारत जोड़ों यात्रा भी पृष्ठभूमि में चली गई। इसका ओवरऑल फायदा भाजपा को मिलता हुआ दिख रहा है। थोड़ा बड़े कैनवास पर देखेंगे तो शूद्र बनाम ब्राह्मण वाली बात कर रहे हैं वो भी नफ़रत आधारित राजनीति ही है। सपा थोड़ा सुर्खियों में आ गई है बस।

 काउंटरप्रोडक्टिव होने का खतरा 

पूर्व आईपीएस व मानवाधिकारकर्ता  एस.आर. दारापुरी जी कहते हैं जिन जनमुद्दों पर उनको राजनीति करनी चाहिये,उन पर वो नहीं कर रहे हैं। यह अभौतिक और भावनात्मक मुद्दे हैं, जिस पर वे राजनीति करने की कोशिश कर रहे हैं। पहले समाजिक न्याय के मसअले पर दलितों मुस्लमानों को पिछड़ों को इकट्ठा कर लो, ये इनकी कोशिश थी।  अब उसमें बहुत ज़्यादा बिखराव हो गया है। बेशक रामचरित मानस और वर्ण व्यवस्था पर बात होनी चाहिए परंतु ये मुद्दा राजनीतिक आधार नहीं हो सकता। दारापुरी कहते हैं कि उन्हें नहीं लगता कि इसके आधार पर वो कोई बहुत बड़ा मोबिलाइजेशन कर लेंगे। वो तर्क देते हैं कि दलित और पिछड़ो का बहुत बड़ा हिस्सा बेसिकली हिंदू हैं। वो किसी मुद्दे पर थोड़ा बहुत तो विरोध कर सकते हैं पर कहिये कि वो हिंदुत्व से बाहर निकल आएंगे ये मुझे नहीं लगता। क्योकि इस समय जो हिंदुत्व के फुट-सोल्जर्स हैं वो ये पिछड़ा वर्ग है। इनके कंधे पर ही भाजपा का कारवां चला रहा है। वो आगे कहते हैं कि इसको वो राजनीति का शूद्रीकरण कह रहे हैं लेकिन यह बहुत दूर तक चलने वाला नहीं है। क्योंकि भाजपा इतनी चालाक है कि उसने कहना शुरु कर दिया कि ये रामविरोधी हैं हिंदू धर्म विरोधी हैं। जबकि मौर्या ने केवल आपत्तिजनक चौपाइयों के बारे में कहा। उन्होंने न राम का विरोध किया न हिंदू धर्म का विरोध किया। परंतु आम लोगों में भाजपा आरएसएस भावना भड़का रहा है कि ये हिंदू विरोधी, राम विरोधी हैं। अब इनकी बात को आम आदमी क्या समझेगा। और इनका प्रचार प्रसार माध्यम कितना विस्तृत है आरएसएस के मुक़ाबले में। तो एक तरह से ये काउंटरप्रोडक्टिव हो जाएगा। दूसरे खुद इनके लोग मौर्या के खिलाफ़ खड़े हो रहे हैं।

श्री दारापुरी कहते हैं कि बजट,अडानी पर बहस करनी चाहिये लेकिन ये लोग रामचरित मानस पर अटक गये। आप कह रहे हो मुख्यमंत्री से पूछेंगे वो कह देगे आपको अपने बारे में शंका है क्या। अखिलेश यादव के दफ्तर का उद्घाटन ब्राह्मण करते हैं। यज्ञ होता है। ये खुद कितना ब्राहमणवाद के बाहर निकले हैं।

सपा की ईमानदारी पर सवाल 

इतिहासकार व लेखक सुभाषचंद्र कुशवाह कहते हैं कि किसी भी स्टैंड का लाभ तभी मिलेगा जब स्टैंड लेते समय स्टैंड लेनेवाला दृढ़निश्चयी हो। वो ये तय करे कि हमारी लड़ाई इसी पर आर-पार होगी तो निश्चय ही लाभ होगा। वो आगे कहते हैं कि क्योकि इस देश की सत्ता ब्राह्मणवादी लोगों के हाथ में है (ब्राह्मण के नहीं) और वो हर क़ीमत पर ब्राह्णणवादी लोग सत्ता को कुलीनतावादी लोगों के हाथ में रखना चाहते हैं। वो आगे कहते हैं कि देश की 82 प्रतिशत जनता जो शूद्र है उसके विरुद्ध सारी नीतियां तैयार कर रहे हैं, ये स्पष्ट हो गया है। चाहे वो नौकरियां हों चाहे वो संस्थाओं में स्थान देने की बात हो चाहे सत्ता में स्थान देने की बात हो चाहे समाजिक सम्मान देने की बात हो। तो हर जगह शूद्रों को 82 प्रतिशशत जनता को उपेक्षित कर रहे हैं। ऐसे में यदि सपा शूद्रों के स्वाभिमान की लड़ाई लड़ने के लिये कमर कसती है तो उसे फायदा क्यों नहीं होगा, क्योंकि भाजपा की सत्ता शूद्रों के बल पर चल रही है। ऐसा थोड़े ही है भाजपा को 20 प्रतिशत लोग वोट दे रहे हैं और वो जीत रही है। ऐसा नहीं है।

सुभाष कुशवाह कहते हैं कि सपा को यह स्टैंड बहुत पहले ले लेना चाहिए था क्योकि उत्तर प्रदेश और हिंदी बेल्ट की राजनीति जिसमें बिहार भी शामिल है बदलाव तभी आया था जब इस तरह की वैचारिकी को आगे किया गया था। लेकिन उस वैचारिकी में भी झोल था क्योंकि वो वैचारिकी शुद्ध रूप से केवल जातिवादी थी। यहां वर्गीय यानि शूद्र वर्ग को लेकर आपको चलना पड़ेंगा। उस वंचित में मुसलमान भी आएगा, आदिवासी भी आएगा। जो भी सताया गया वर्ग है, जिन्हें धार्मिक,समाजिक राजनीतिक रूप से दोयम दर्जे का रखा गया है उसकी लड़ाई लड़े बिना आप ब्राह्मणवादी सत्ता को हटा नहीं सकते। वो लड़ना पड़ेगा। लेकिन फिर समाजवादी पार्टी की ईमानदारी पर संदेह व्यक्त करते हुये वो कहते हैं कि –“मैं बात की गारंटी नहीं दे सकता कि सपा जिस रास्ते पर जा रही है वहां राजनीतिक परिवर्तन होगा क्योंकि वो जिस रास्ते पर जा रही है वो कितनी ईमानदारी से जा रही है इस पर मुझे संदेह है।”

शूद्र जातियों को गैरशूद्र जातियों के खिलाफ़ खड़ा करते हैं तो आपके खिलाफ़ भी प्रतिक्रिया होती है

राजनीतिक चिन्तक,सीएसडीएस के एसोसिएट प्रोफ़ेसर व प्रतिमान पत्रिका के प्रधान संपादक अभय कुमार दूबे सपा की आक्रामकता का स्वागत करते हुये कहते हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव के बाद बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बाद समाजवादी पार्टी को मोदी सरकार के ख़िलाफ़ जितने आक्रामक तरीके से पेश आना चाहिये था वो नहीं आई और बहुत सुस्त रही। अगर अब वो कुछ आक्रामक तरीके से लेकर आ रहे हैं ऐसे वक्तव्य दे रहे हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। सपा प्रमुख द्वारा खुद को शूद्र कहने के मसअले पर वो आगे कहते हैं कि  जो लोग शूद्र शूद्र कहते हैं वो भूल जाते हैं कि शूद्रों के पास भी एक वर्ण है। ऐसा नहीं है कि वो अवर्ण है। चार वर्ण है, चार वर्णों में एक वर्ण शूद्र का है। बहस इस बात की है कि अंबेडकरावदी या लोहियावादी जब ये कहते हैं कि भाई ये वाला जो वर्ण है वो कमतर माना गया है और इसका काम केवल सेवा करना है बाकी लोगों का काम मौज करना है तो भाजपा का कहना है कि शूद्रों के वर्ण को कमतर नहीं मानना चाहिए। शूद्रों के बहुत बड़े राजवंश रहे हैं और उन्होंने बहुत दिनों तक शासन किया है। इस थीसिस के साथ भाजपा शूद्रों की राजनीति करती हैं उनकी गोलबदी में कामयाब भी रही है। पिछड़ी जातियों के बहुत वोट मिलते हैं बीजेपी को। अभय कुमार दूबे सपा प्रमुख के शूद्र प्रकरण पर आगे कहते हैं कि  ये वाला पूरा जो फिकरा है अखिलेश यादव ने अपनाया है ये उस ज़माने में तो बहुत ज़्यादा कामयाब था जब भाजपा इस तरह की राजनीतिक प्रतियोगिता में मजबूत नहीं थी और जब समाजिक न्याय की राजनीति अपने उठान पर थी। लेकिन अब तो पिछड़ी जातियों के वोट काफी बंट गये हैं आपस में और पिछड़ी जातियों की वफादारियां और राजनीतिक निष्ठायें भाजपा के साथ हैं। तो वहां पर अब ये चीज ज़्यादा चलेगी नहीं या उस तरह से नहीं चलेगी।

अभय कुमार दूबे कहते हैं कि जब शूद्र जातियों को गैरशूद्र जातियों के खिलाफ़ खड़ा करते हैं तो आपके खिलाफ़ भी प्रतिक्रिया होती है जबरदस्त। जैसे पिछली बार विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने पिछली जातियों के एकता बनाने में कामयाब भी रहे, मुसलमानों ने भी वोट किया लेकिन उसकी प्रतिक्रिया में बाकी समाज के लोगों ने उन्हें वोट नहीं दिया। योगी सरकार के ख़िलाफ़ इतनी एंटीइनकमबैंसी थी उसके बावजूद सत्ता में नहीं आ सके। शूद्र राजनीति में उन्हें कुछ लाभ नहीं होगी, लेकिन आक्रामकता जो उन्होंने अपनाई है उससे वो विपक्ष की भूमिका में आ सकते हैं।

बहुजन समाज के नये नायक के रूप में अपना उभार चाहते हैं अखिलेश 

वरिष्ठ साहित्यकार, आलोचक वीरेंद्र यादव कहते हैं – ये तो वैचारिक शिफ्टिंग है ही पर क्या अखिलेश यादव को आज समझ में आया कि वो शूद्र हैं। जब वो सरकार में थे तो उन्हें नहीं समझ आया कि हम शूद्र हैं। हम पिछड़े हैं हम दलित हैं। उस समय इनके लिये कौन था उस समय तो इनके लिये वही ब्राह्मण कम्युनिटी थी। वीरेद्र यादव कहते हैं कि अखिलेश यादव चूँकि सत्ता से बाहर चले गये तो उनको पिछड़ों की याद आ रही है, दलितों की याद आ रही है। अतिपिछड़ों की याद आ रही है। सपा में नये समाजिक डायमेंशन को रेखांकित करते हुये वीरेंद्र जी आगे कहते हैं कि अभी जो नया डायमेंशन नई चीजें आई हैं स्वामी प्रसाद मौर्या, इंद्रजीत सरोज, लालजी वर्मा जी जैसे नये लोग बहुजन समाज पार्टी से आये ये बहुजन आंन्दोलन से जुड़े लोग हैं मान्यवर कांशीराम के साथ काम किये लोग हैं। तो इनको अब समझ में आया कि सत्ता प्राप्त करनी है तो अतिपिछड़ों को जोड़ना होगा। क्योंकि भाजपा ने उसे पूरी तरह से धार्मिक मसाले लगाकर पिछड़ों को हिन्दू बनाकर पिछड़ों की गोलबंदी को खत्म कर दिया। अखिलेश प्रयास कर रहे हैं कि पिछड़ों की एकता कैसे समाजवादी पार्टी के पक्ष में हो। बसपा और मायावती के कमज़ोर होने का जिक्र करते हुये वीरेंद्र यादव कहते हैं कि मायावती कमज़ोर हो रही हैं उनके कमज़ोर होने से अखिलेश को यह लग रहा है कि बहुजन समाज का वारिश वो ही हैं। तो वो खुद को बहुजन समाज के नये वारिश और नायक के रूप में अपना उभार करना चाहते हैं। वो इसमें कितना चल पायेंगे कितना नहीं चल पायेंगे पता नहीं।

वीरेंद्र यादव कहते हैं कि जब राम लोटन निषाद ने वही बात कही तो उन्हें पद व पार्टी से निकाल दिया और स्वामी प्रसाद मौर्या ने कहा तो उन्हें महासचिव बना दिया। या तो अखिलेश कन्फ्यूज हैं या फिर वो अपना दिमाग लगा रहे हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश के अंदर निश्चित रूप से सपा को लाभ मिलेगा।

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