समकालीन जनमत
जनमतदुनिया

महामारी, युद्ध और वैश्विक शक्ति संतुलन- तीन

जयप्रकाश नारायण 

1980 के बाद समाजवादी मुल्कों में आये आर्थिक ठहराव और संकट ने चीन जैसे देशों को अपनी नीतियों को पुनर्संयोजित और व्यवस्थित करने का मौका दिया। सचेतन प्रयास से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन में औद्योगीकरण की नई दिशा अख्तियार की। सख्त साम्यवादी नीतियों के साथ बाजार को खुला करने और पूंजी निवेश के द्वारा माल उत्पादन की नई दिशा लेते ही चीन  उपभोक्ता माल का वैश्विक हब बन गया।

’90 के पहले और उसके बाद से उदारीकरण के रथ पर सवार अमेरिकी साम्राज्यवाद पिछड़े और विकासशील  देशों पर विश्व व्यापार संगठन के द्वारा एलपीजी की नीतियां  थोपने के लिए सैन्य सहित अन्य विकल्पों का प्रयोग कर रहा था।

लेकिन चीन,  वियतनाम सहित कई देश शांतिपूर्वक दृढ़ता के साथ अपने देश के औद्योगिक विकास को उन्नत करने, तकनीकी दक्षता हासिल करने साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर को सुदृढ़ करने में लगे थे।

इन देशों ने अपने आंतरिक ढांचे को दुरुस्त किया। बाजार को विस्तारित किया। नागरिक जीवन को उन्नत करने के लिए नए नये प्रयोग किए गए। जिससे आर्थिक समृद्धि के साथ जीवन स्तर भी ऊंचा उठा। आंतरिक बाजार के विस्तार के साथ विश्व बाजार में कदम बढ़ाने का मौका किया।

आज चीन दुनिया के बाजार का 60% से ज्यादा माल सप्लाई कर रहा है। अमेरिका और भारत जैसे देशों के आंतरिक  बाजार से चीन ने सभी देशों को बाहर कर दिया है।

महामारी के समय में जहां भारत जैसे विकासशील और अमेरिका जैसे महाबली देश में आर्थिक तबाही मची हुई थी,   वहीं चीन  विध्वंस के रफ्तार को नियंत्रित रख सका और उसके उत्पादन क्षमता पर मामूली असर पड़ा।

जैसे-जैसे महामारी से दुनिया उबर रही है,  वैसे-वैसे विश्व बाजार के लिए छीना-झपटी की गति तेज होती जा रही है। स्वाभाविक है युद्ध की परिस्थितियां हर समय बनी हुई है।

इस समय यूक्रेन में जो कुछ हो रहा है उसे इसी अर्थ में देखा जाना चाहिए।
21वीं सदी के प्रारंभ में 5 देशों ने ब्रिक्स नामक अलग संगठन बनाकर अमेरिका के एक छत्र राज को चुनौती देने की कोशिश की। उस समय चीन, रूस, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका उभरती आर्थिक ताकत थे।

इन देशों ने उस समय आपस में व्यापारिक गतिविधियों में लिए अपनी मुद्रा में विनिमय पर विचार-विमर्श किया था। जो डॉलर एकाधिकार के लिए चुनौती थी।

लेकिन 2010 के बाद भारत और ब्राजील में बदली हुई नई परिस्थितियों के कारण जो नेतृत्व आया है, वह स्वाभाविक रूप से अमेरिका के रणनीतिक पार्टनर बनने में ही अपना गौरव महसूस कर रहा है।
इसलिए ब्रिक्स के प्रयोग को बहुत ज्यादा आगे नहीं बढ़ाया जा सका। इन देशों के नये शासक एलपीजी के रास्ते पर तेज गति से दौड़ रहे हैं। ये सर्वग्रासी निजीकरण के साथ एकाधिकारवादी सरकारें  चला रहे हैं।

अमेरिका का सैन्य ताकत के साथ-साथ सूचना के केंद्रों पर भी नियंत्रण है। दुनिया की अधिकांश सूचनाएं और खबरें अमेरिकी  नियंत्रण में प्रोसेसिंग करके जारी की जाती हैं। जिसे हम बिना सोचे-समझे ग्रहण कर रहे हैं।

मध्य वर्ग अमेरिकी स्रोतों की सूचनाओं का बहुत बड़ा ग्राहक है। जहां उपभोक्ता नागरिक निर्माण से लेकर पूंजी की चकाचौंध वाली समृद्धि और लोकतंत्र के पश्चिमी मॉडल को प्रचारित किया जाता है। जो मूलतः वित्तीय पूंजी के स्वार्थों के अनुरूप है।

मध्यवर्गीय सीमा बाध्यता के कारण दुनिया के अधिकांश शासक वर्ग और उनके समर्थक अमेरिकी नियंत्रित पश्चिमी विचारधारा के ग्राहक ही नहीं, वाहक भी हैं। जो, स्वतंत्रता,  समानता और बराबरी के किसी भी विचार से घृणा करते हैं । विकास के नाम पर तानाशाही का समर्थन करते हैं।

सभ्यताओं के संघर्ष की अमेरिकी थ्योरी के प्रवक्ता और इस्लामोफोबिया के शिकार हैं और जो, पहचान मूलक विचार और धार्मिक उन्मादी वायरस से संक्रमित हैं। जिस कारण से अमेरिका का विश्व पटल  पर सूचनात्मक वर्चस्व कायम है।

पिछले  75 वर्षों से अमेरिका दुनिया को सैन्य ताकत के अलावा वैचारिक और मानसिक रूप से नियंत्रित करता रहा है।
लेकिन सूचना क्रांति के कारण हुए तकनीकी विकास जहां लुटेरी पूंजी के लिए खंडित और नफरती सामाजिक चेतना निर्मित करने में भूमिका निभा रही है वहीं सोशल मीडिया के आविर्भाव के बाद अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती मिलने लगी है।

क्योंकि सोशल मीडिया में काम करने वाले लोग सूचनाओं की खोज के क्रम में यथार्थ और वास्तविक जीवन तक पहुंचते हैं। जो निर्मित किए गए धर्म जाति, राष्ट्र, पहचान केंद्रित मानव विरोधी विचारों को खंडित करने और उसका विकल्प पेश करने में एक हद तक कामयाब होने लगे हैं।

इसलिए सूचना के क्षेत्र में अमेरिका को सशक्त चुनौती मिल जाने से विचार जगत के निर्माण में अमेरिकी साम्राज्यवाद का प्रभाव कमजोर होना शुरू हो चुका है।

इस मंजिल पर पहुंच कर अमेरिकी लोकतंत्र के विचार की पूरी अवधारणा पर आज गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं।
साथ ही ब्रिक्स, यूरोपियन यूनियन और विभिन्न देशों के मध्य बन रहे क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग समूहों द्वारा अमेरिकी आर्थिक बादशाहत को चुनौतिया मिलने लगी हैं।

यह दौर जहां एकाधिकारी पूंजी के विस्तार का दौर  है, वहीं उसे गंभीर चुनौती देने का भी समय है। एकाधिकारवादी पूंजीवाद दुनिया में जैसे-जैसे निरंकुश फासिस्ट तानाशाही को विकसित कर रहा है, ठीक उसी के बरक्स दुनिया में लोकतांत्रिक आकांक्षाओं और संघर्षों की तीव्रता भी देखने को मिल रही है।

यही स्थिति राष्ट्रों के ध्रुवीकरण के स्तर पर भी है। जैसे-जैसे अमेरिका के नेतृत्व में राष्ट्रों के सैन्य गठबंधन और रणनीतिक संबंध विस्तारित हो रहे हैं,  ठीक उसी के मुकाबले अमेरिकी वर्चस्व के खिलाफ संघर्षरत राष्ट्रों की संख्या भी बढ़ रही है।

ईरान, वेनेजुएला, बोलिविया, क्यूबा, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया, अफगानिस्तान, सीरिया सहित बहुत सारे छोटे-बड़े मुल्क अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती दे रहे हैं।

इसलिए इस दौर को हम एक ध्रुवीय दुनिया के टूटने, डॉलर वर्चस्व के कमजोर होने तथा देशों के अंदर नागरिकों में अमेरिका द्वारा स्थापित लोकतंत्र की अवधारणा के खंडित होने के दौर के रूप में भी देख सकते हैं।

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion