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महामारी, युद्ध और वैश्विक शक्ति संतुलन- चार

जयप्रकाश नारायण 

संयुक्त राज्य अमेरिका पिछले 70 वर्षों से दुनिया का रखवाला और संरक्षक बना हुआ है। लेकिन आज उसके इस स्थान को कई क्षेत्रों से चुनौती मिल रही है ।
2008 की मंदी से दुनिया में सबसे ज्यादा नुकसान अमेरिकी अर्थव्यवस्था को हुआ। उसके कई स्थापित बैंक डूब गए। जिस कारण अमेरिका को  आर्थिक महाशक्ति वाली वैश्विक स्थिति को बचाए रखने के लिए विकासशील देशों पर अपना दबाव बढ़ाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

9/11 के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक जैसे मुल्क को युद्ध द्वारा ध्वस्त करने के साथ ही  डालर प्रभुत्व के चलते अमेरिकी बैंकों में इन देशों की रखी सुरक्षित पूंजी को जब्त कर लिया।

अफगानिस्तान जैसे  गरीब मुल्क के 300 बिलियन डॉलर अमेरिका ने सीज कर 9/11  के प्रभावितों में बांट दिया। इसके पहले  ईरान और वेनेजुएला के साथ भी ऐसा किया जा चुका था।

महामंदी ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को गंभीर चोट पहुंचाई थी । इसलिए डब्ल्यूटीओ, आईएमएफ, विश्व बैंक के द्वारा  विकासशील और पिछड़े देशों पर दबाव बढ़ाना शुरू किया कि वे अपने बाजार प्राकृतिक संसाधन और सरकारी प्रतिष्ठानों  को विश्व बाजार के लिए खोल दें।

जिससे वैश्विक पूंजी इन बाजारों में प्रवेश कर सके और लौट कर  डालर के रूप में अमेरिकी बैंकों में जमा हो सके और अमेरिका आर्थिक मंदी से बाहर आ सके।
लेकिन कोविड-19 का दौर आते ही अमेरिका अपने दक्षिणपंथी नेतृत्व के चलते महामारी से बचाव का कारगर विकल्प नहीं ढूंढ पाया।नागरिकों के जीवन की रक्षा करने में अमेरिकी व्यवस्था की असफलता ने अमेरिकी आर्थिक महाशक्ति की पोल खोल दी।
चौतरफा संकट से घिरा अमेरिका नाटो के विस्तार के द्वारा दुनिया के कई देशों की बाजारों पर कब्जा जमाने की कोशिश करने लगा।

इसके साथ ही उन देशों में जहां वह पहले से युद्ध  में फंसा हुआ था वहां से अपने पांव पीछे खींचना शुरू किया। जो बाइडेन के आते ही अमेरिका अफगानिस्तान से वापस लौट गया।

कई टिप्पणीकार जो बाइडेन को कमजोर और अक्षम राष्ट्रपति मान रहे हैं। ट्रंप कालीन आक्रामकता बाइडेन में नहीं दिखाई देती। यह अमेरिकी महाशक्ति के चारित्रिक विशेषता के खिलाफ जाता है।

अमेरिका अभी भी युद्धोन्मादी आक्रामक महाशक्ति है। लेकिन डालर प्रभुत्व के घटने और मंदी में  डूबी अर्थव्यवस्था से अमेरिकी प्रभुत्व कमजोर हो रहा है।
यह अर्थव्यवस्था ही है जो किसी देश की  आंतरिक और बाह्य राजनीति की दिशा को अंततोगत्वा निर्धारित करती है।

दुनिया में 70% से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक लेन-देन डालर  के रूप में ही होता था।  अमेरिका के रवैये के कारण दुनिया के बहुत सारे देशों ने डालर के विकल्प पर सोचना शुरू किया। कई मुल्कों में एक दूसरे के साथ आपसी मुद्राओं में व्यापारिक लेन-देन शुरू किया है।

सोवियत कालीन रूस विकासशील और नव स्वतंत्र देशों के साथ रूबल में कारोबार करता था। लेकिन रूबल कभी भी डॉलर को अंतरराष्ट्रीय बाजार में चुनौती नहीं दे सका।

2008 की महामंदी से जब दुनिया गुजर रही थी, तब चीन अपने विशाल औद्योगिक ढांचे के बल पर विश्व बाजार में तेजी से फैलने लगा। यहां तक कि उसने अमेरिकी बाजार में अपनी दखल बढ़ा ली। आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार अमेरिका के घरेलू बाजार का 60% से ऊपर का व्यापार चीनी कंपनियों  के हाथ में है।

यही नहीं उन्होंने दक्षिण पूर्व एशियाई देशों से लेकर अरब जगत,  लैटिन अमेरिका,  अफ्रीका और भारत जैसे देशों के घरेलू बाजार में व्यापारिक कारोबार का विस्तार कर लिया है।  आज दुनिया का कोई ऐसा उपभोक्ता बाजार नहीं है जो चीनी कंपनियों और उसके माल से पटे न हों। इसीलिए इन देशों का व्यापारी कारोबार बिना चीनी माल के सुचारू रूप से नहीं चल सकता।

गलवान घाटी की घटना के बाद हिंदुत्व राष्ट्रवादियों की चीनी माल के बहिष्कार की चिल पों, दिखावे की राजनीति से इतर अभी आयी ताजा रिपोर्ट में चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बन गया है।
इसलिए चीन के सामने यह सवाल निश्चित रहा होगा कि अमेरिकी बैंकों में भारी मात्रा में चीनी पूंजी रिजर्व के रूप में पड़ी है । उसे किसी खास दौर में अमेरिका द्वारा सीज किया जा सकता है।

यही अनुभव रूस के सामने भी है। जब क्रीमिया युद्ध के समय अमेरिका ने रूसी कारोबार पर रोक लगा दिया था और उसकी पूंजी जो अमेरिकी बैंकों में थी उन्हें सीज कर दिया था।

स्वाभाविक है,  कि अपने जरूरतों के अनुसार दुनिया में कई देशों को व्यापारिक लेन-देन के लिए नये रास्ते की तलाश करने और डाॅलर के समानांतर मुद्रा के चलन पर भी सोचना पड़ा रहा होगा।

2019-20 तक विश्व बाजार में 70%लेन देन डालर से  होता था। लेकिन आज वह घटकर 60% के नीचे आ गया है। साफ बात है अमेरिकी डॉलर का आधिपत्य  (विश्व बाजार पर एकाधिकार )अब धीरे-धीरे कमजोर हो रही है।

चीन ने अनेक देशों के साथ सीधे अपनी मुद्रा युआन में लेन-देन करना शुरू कर दिया है।   युआन के द्वारा लेन-देन करने से अमेरिकी डालर का प्रभुत्व घटा है । जानकारी मिल रही है कि सऊदी अरब भी चीन के साथ तेल के कारोबार में यूआन के साथ लेन-देन करने वाला है। जिससे अमेरिका का चिंतित होना स्वाभाविक है।

हालांकि अभी भी अमेरिका वैश्विक महा शक्ति बना हुआ है । 60% दुनिया का व्यापार डालर  में ही होने के नाते चीन या रूस जैसे देश अमेरिका  के मुकाबले में अभी बहुत पीछे हैं।
पिछले दिनों रूस और भारत के बीच में व्यापारिक लेन-देन की करार सीधे एक दूसरे की मुद्रा में करने का फैसला हुआ था । जिस पर अमेरिका ने भारत को चेतावनी भी दी थी।

रूस भी जहां संभव हो रहा है उन देशों से व्यापारिक लेन-देन के लिए रूबल  का ही प्रयोग करने की कोशिश कर रहा है। यूरोपीय यूनियन के कुछ देशों के साथ भी उसने ऐसे करार किए हैं।

लेकिन अगर हम गहराई से जाकर बदल रही परिस्थितियों की छानबीन करे तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था की कमजोरी और खोखलापन  दिखायी देगा ।
अमेरिकी व्यापार हथियारों के निर्यात तकनीकी ज्ञान और डॉलर के बल पर टिका हुआ है। अरब जगत का पेट्रोकेमिकल्स  कारोबार डालर पर ही आधारित है इसलिए अमेरिकी कंपनियों को भारी मुनाफा लूटने का मौका मिलता है।

दूसरा अमेरिकी अर्थव्यवस्था सैन्य औद्योगिक कांप्लेक्स की धुरी पर घूम रही है। इसलिए अमेरिका दुनिया में कहीं न कहीं  युद्ध जैसा माहौल बनाये रखना चाहता है। जिससे वह अपने सैन्य साजो-सामान का निर्यात कर सके और विश्व बाजार पर प्रभुत्व कायम रख सके।

यह मूलतः उत्पादक अर्थव्यवस्था नहीं है। जिस कारण अमेरिकी बाजार में चीन को कदम बढ़ाने का अवसर मिला। एक अर्थों में आप कह सकते हैं अमेरिकी अर्थव्यवस्था वास्तविक  नहीं है।
चीनी कंपनियों ने विश्व के उपभोक्ता बाजार के क्षेत्र में प्रगति इसलिए की कि चीनी अर्थव्यवस्था माल उत्पादन की अर्थव्यवस्था है। विश्व में  विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई, नस्लीय समूहों के जीवन में उपयोग में आने वाली वस्तुओं   के गहन अध्ययन पर आधारित चीनी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे तीसरी दुनिया और विकासशील देशों में अपना विस्तार करते हुए संभवतः दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था हो गयी है।

इसके साथ ही साम्राज्यवादी देशों खासकर अमेरिकी इकानामी वर्चुअल होने के साथ सैनिक लड़ाकू विमान  एबीएशन  मिसाइल  कंप्यूटर या उच्च तकनीक वाले मशीनों के निर्यात पर टिकी है। जिससे चीन को इन देशों के उपभोक्ता बाजार में घुसपैठ करने का मौका मिल गया।

आज अविकसित से लेकर विकसित देशों के बाजार में उपभोक्ता सामानों की जरूरतें चीनी कंपनियां पूरा करने लगी ।

चीन के श्रम सुलभता और तकनीकी दक्षता का लाभ उठाने के लिए विदेशी कंपनियां भी चीनी बाजार की तरफ दौड़ पड़ी। विदेशी कंपनियों ने ही  चीन सरकार द्वारा दिए गए कानूनी और भौतिक सुविधाओं का फायदा उठाकर चीन को उपभोक्ता माल  उत्पादन के हब में बदल दिया।

इसलिए चीनी इकानामी  सही मायने में वास्तविक अर्थव्यवस्था है जिसे आप रियली इकोनामी कह सकते हैं।

दक्षिण पूर्व से लेकर पश्चिम दक्षिण एशियाई देशों में जहां अमेरिकी सैन्य अड्डा और राजनीतिक प्रभुत्व  कायम है वहां भी बाजार पर चीन का कब्जा लगभग पूरा हो चुका है।

मेरे  एक इंजीनियर मित्र जो दुबई और सऊदी अरब में  रीयल स्टेट के क्षेत्र में काम कर चुके हैं। उनका कहना है कि अगर दुबई से चीनी कंपनियां अपना हाथ खींच ले तो वह निर्जन देश बन कर रह जाएगा।
इस तरह हम देखते हैं कि जिन कारणों से अमेरिका महाबली बना हुआ था । उन तीनों क्षेत्रों में अमेरिकी साख और प्रभुत्व घटने लगा है।

इससे नये शक्ति संतुलन के लिए रास्ता खुलने लगा है।
दूसरा चीनी कंपनियों के विश्व बाजार पर छा जाने से अब अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं रह गया है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था जहां 87 ट्रिलियन डॉलर के आसपास है वही चीनी  इकानामी तेजीसे छलांग लगाते 120 ट्रिलियन  झालर को पार कर चुकी है।

’90 के बाद विश्व अर्थव्यवस्थ एलपीजी के लागू होने पर जिस दिशा में बढ़ी थी उसने  क्षेत्रीय औद्योगिक सामरिक क्षेत्र के संतुलन में गुणात्मक परिवर्तन आ गया है।

बाजारवादी अर्थव्यवस्था के अंदर निहित मनुष्य विरोधी प्रवृत्तियां महामारी के दौर में  दुनिया के सामने नग्न होकर दिखने लगी है।

आर्थिक संकट महामारी पर नियंत्रण करने में विकसित राष्ट्रों की असफलता और नाटो की विस्तारवादी नीति ने यूक्रेन युद्ध तक आते-आते विश्व में नये शक्ति संतुलन  की  परिस्थितियां तैयार कर दी है। निश्चय ही इस दौर के समाप्त होते-होते विश्व मानवता का इतिहास नये रास्ते पर बढ़  चुका होगा।

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)

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