जयप्रकाश नारायण
दूसरे विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी खेमे का नेतृत्व ब्रिटेन के हाथ से निकल कर अमेरिका के हाथ में चला गया।
विश्व युद्ध में सीधे उलझने के कारण यूके सहित उपनिवेशवादी देशों की दुनिया पर पकड़ कमजोर पड़ गई थी। इस कारण समाजवादी क्रांति के लिए बेहतरीन वातावरण मिला।
चीनी क्रांति के संभावित सफलता ने दुनिया में समाजवादी ब्लाॅक के ताकतवर होने से साम्राज्यवादी खेमें के साथ तीखी प्रतिद्वंदिता शुरू हुई।
फासीवाद विरोधी युद्ध में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और सोवियत संघ के गठजोड़ के कारण ऐसा दिखा था कि आने वाले समय में संभवत विश्व में शांति का वातावरण रहेगा।
लेकिन जापान पर अमेरिकी बमबारी के बाद अमेरिका की वैश्विक नियंत्रण की महत्वाकांक्षा बहुत बढ़ गयी। ब्रिटेन ने बहुत ही धीरे से अमेरिकी नेतृत्व को स्वीकार कर लिया। जिससे अमेरिकी नेतृत्व में नयी वैश्विक खेमेबंदी शुरू हुई।
भौगोलिक कारणों से द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका को बहुत ही कम क्षति हुई थी। इसलिए वह पुनर्निर्माण के कठिन दौर से न गुजर कर दुनिया में अपना नेतृत्व स्थापित करने के लिए विश्व के पुनर्निर्माण के द्वारा बर्बाद हुए देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
जिस कारण अमेरिकी कंपनियों को बड़े-बड़े ठेके मिले और उनकी बहुत तेजी से समृद्धि हुई।
यूरोपीय उपनिवेशवाद की पकड़ कमजोर होने के कारण गुलाम मुल्को में आजादी के लिए संघर्ष तेज होने के कारण उपनिवेश आजाद होने लगे।
नव स्वाधीन देशों के अधिकतर शासक निम्न पूंजीवादी राष्ट्रवादी थे। इसलिए वे समाजवादी क्रांतियों से भयभीत थे। इस परिस्थिति का फायदा उठाकर अमेरिका ने नव स्वतंत्र देशों में अपना नव साम्राज्यवादी जाल फैलाया।
साम्यवाद के आतंक का मुकाबला करने के लिए अमेरिका ने दक्षिण कोरिया, जापान, ताइवान, थाईलैंड, इंडोनेशिया, फिलीपींस, मलेशिया और पश्चिमी एशिया के देशों में सैनिक संधियों का जाल बिछाना शुरू किया।
राष्ट्रों की सुरक्षा के नाम पर पेंटागन ने जगह-जगह उन्हीं के संसाधन पर अपने सैन्य अड्डे और हथियारों के जखीरे इन देशों में इकट्ठा कर दिए।
आर्थिक और सैनिक शक्ति के द्वारा अमेरिका ने दुनिया पर अपना प्रभुत्व कायम कर विश्व साम्राज्यवाद की नेतृत्वकारी भूमिका हथिया ली।
लेकिन कुछ नव स्वतंत्र देशों ने सोवियत संघ की मदद से गुटनिरपेक्षता की नीति पर चलते हुए अमेरिका द्वारा थोपे गये शीत युद्ध से अपने को अलग कर लिया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका के पास तीन बड़े अस्त्र थे। जिससे अमेरिकी साम्राज्यवाद विश्व में नेतृत्व कारी शक्ति बना।
एक- पेंटागन यानी अमेरिकी सैन्य शक्ति।
दो – अमेरिकी डॉलर यानी आर्थिक शक्ति।
तीन- दुनिया के सूचना प्रवाह केंद्रों पर कब्जा।सीएनएन और उसके अन्य उपांग। विचार-निर्माण की शक्ति।
इसके अतिरिक्त अमेरिका के हाथ में संयुक्त राष्ट्र संघ का नियंत्रण भी था ।
राष्ट्र संघ के निर्देशन में विश्व बैंक द्वारा विकासशील देशों के लिए आर्थिक नीतियों का मुकम्मल पैकेज तैयार कराया गया। जिसे आगे बढ़ाने के लिए विश्व बैंक, आईएमएफ, विश्व व्यापार संगठन आदि संस्थानों पर दबाव बनाया गया।
जिसके द्वारा अमेरिकी वित्तीय संस्थानों, औद्योगिक घरानों और सैन्य कंपनियों के लिए दुनिया भर के बाजार पर नियंत्रण कायम करना आसान हो गया।
विश्व के आर्थिक संसाधनों के दोहन से अमेरिका में सैन्य औद्योगिक काम्प्लेक्स फला-फूला।
डालर के अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन की वैश्विक मुद्रा बनने के बाद अमेरिका को अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक चुनौती लगभग खत्म हो गयी।
विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व व्यापार संगठन अमेरिकी औजार में बदल दिए गए। इन्हीं तीन औजारों के बल पर अमेरिका ने विश्व पर वर्चस्व कायम कर लिया।
1970 के दशक के शुरुआत में पेट्रोलियम पदार्थों के महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत बन जाने के कारण तेल उत्पादक देशों की भूमिका विश्व पटल पर बढ़ गई। अरब जगत में अपने महत्वपूर्ण आर्थिक भौगोलिक सांस्कृतिक कारणों से सऊदी अरब महत्वपूर्ण देश है।
अमेरिका ने सऊदी अरब को पेट्रोलियम पदार्थों के विश्व व्यापार को डालर में विनिमय के लिए तैयार कर लिया। जिससे विश्व अर्थव्यवस्था में डालर प्रभुत्व का दौर शुरू हुआ।
अंतरराष्ट्रीय बाजार के विनिमय पर डॉलर हेजीमॅनी स्थापित हो जाने से अमेरिकी कंपनियों को भारी मुनाफा मिलने लगा और अमेरिका वैश्विक वित्तीय पूंजी का बेताज बादशाह हो गया।
अब अमेरिकी इकॉनमी की मुख्य ताकत माल उत्पादन और विक्रय की जगह पूंजी निर्यात और हथियारों के कारोबार पर आ टिकी।
वित्तीय पूंजी के प्रवाह द्वारा दुनिया को कर्ज जाल में फंसाते हुए नव स्वाधीन देशों के शासक वर्गों को अमेरिकी साम्राज्यवादी खेमें में खींच लाया गया ।
जो साथ आने के लिए तैयार नहीं थे उनके यहां सैनिक तख्तापलट से लेकर चुनावी फंडिंग और प्रो-अमेरिकी गुटों के निर्माण से उन देशों और सरकारों को अस्थिर किया गया।
अमेरिकी सैन्य औद्योगिक कांपलेक्स के लिए आजाद देशों को नियंत्रण में लाना जरूरी था। यह लक्ष्य पाने के लिए नाटो, सीटो, सेंट्रो जैसी सैन्य संगठनों का जाल बिछाया गया।
इन सैन्य संगठनों से साम्यवाद के प्रसार को रोकने और अमेरिका को सूदूर देशों की धरती पर युद्ध विस्तार और तनाव को फैलाने में मदद मिली।
कोरियाई, वियतनामी, फिलिस्तीनी युद्धों, चिली, पाकिस्तान और अफ्रीकी देशों में सैन्य तख्ता पलट से अमेरिकी रक्षा उद्योग ने भारी मुनाफा लूटा। जिन देशों में अमेरिकी सैन्य अड्डे बने वहां भ्रष्टाचार और प्राकृतिक संसाधनों के भारी दोहन के चलते यह देश पूरी तरह से अमेरिकी दया पर आश्रित हो गये।
लेकिन इसी विकास क्रम में अमेरिकी जनतंत्र और सैन्य आर्थिक महाशक्ति की कमजोरी भी छुपी थी। आज अमेरिका का राजनीतिक तंत्र सैन्य औद्योगिक कांपलेक्स के गुलाम के रूप में काम करता है। यह गठजोड़ जिसको चाहे उसे सत्ता में ला देता है और जब चाहे तब उसे सत्ता से बेदखल भी करता रहा है।
अमेरिका से सैन्य संतुलन बनाए रखने के क्रम में स्टालिन की मौत के बाद सोवियत रूस को भी वार इकोनॉमी पर जोर देना पड़ा। यही नहीं उसे पड़ोसी समाजवादी ब्लॉक के देशों को सैन्य हस्तक्षेप के द्वारा नियंत्रित करना पड़ा। जो सोवियत संघ के लिए आत्मघाती कदम हुआ।
अमेरिकी कूटनीतिक और सैन्य प्रतिस्पर्धा के दबाव और सोवियत सैन्य केंद्रित विकास की एक ऐसी मंजिल आई जहां खुद सोवियत संघ और पूर्वी समाजवादी ब्लॉक को नहीं बचाया जा सका।
यह यह एक लंबी कहानी है।
सोवियत ब्लॉक के विघटन के बाद अमेरिकी महाशक्ति दुनिया की एकमात्र ताकत बची थी। उसके नेतृत्व में चल रही दुनिया को एक ध्रुवीय कहा जाने लगा ।
यहां तक कि परिवर्तन, विकास और मानव सभ्यता के आगे जाने के सारे सपनों को खत्म हो जाने की घोषणा कर दी गयी। ऐसा लगा कि अमेरिकी नेतृत्व में खगोलीय उदारवादी अर्थव्यवस्था का जो नया खाका तैयार किया गया वहीं पहुंच कर मानव सभ्यता ठहर जायेगी।
उदारीकरण के बाजारवादी प्रोजेक्ट के साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था का पुनर्संयोजन शुरू हुआ। जिसे सुधार कहा गया। यानी सब कुछ बाजार की दया पर छोड़ दिया गया । राज्य धीरे-धीरे पीछे हटने लगे।
लेकिन मानव समाज के गर्भ में छिपी हुई नयी उत्पादक शक्तियां जब अपनी भूमिका में आती हैं तो बड़े-बड़े साम्राज्य ताश के महल की तरह बिखर जाते हैं ।
यही 2008 में शुरू हुई मंदी के दौर में देखा गया । अमेरिका अभी इस मंदी की मार से मुक्त नहीं हो पाया है । आर्थिक मंदी दुनिया में महंगाई और मुद्रा प्रसार के साथ तनाव और युद्धों को जन्म देती है।
एक ध्रुवीय दुनिया का नेतृत्व करते हुए अमेरिका ने इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, लीबिया, जॉर्डन, लेबनान, मिस्र के साथ ईरान, वेनेजुएला, बोलविया आदि देशों तक तनाव का विस्तार करता रहा। जिससे वह आर्थिक अस्थिरता की ओर बढ़ा और मंदी का शिकार हुआ।
अफगानिस्तान और इराक के युद्ध ने पेंटागन की सैन्य ताकत की सीमा को प्रकट कर दिया है।
उसे अफगानिस्तान से उसी तरह पीछे हटना पड़ा है जैसा उसे ’70 के दशक के मध्य में पूर्वी एशियाई देशों से भागना पड़ा था।
समय की गति के साथ यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिकी महाशक्ति के सैन्य और आर्थिक ताकत को दुनिया के विभिन्न भागों सेचुनौती मिलने लगी है ।
साथ ही विश्व के शक्ति संतुलन बदलने की भौतिक परिस्थितियां अंदर से तैयार हो रही हैं।
अब यहां से हम आज की दुनिया के बदलते संतुलन पर चर्चा करेंगे।
(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)