समकालीन जनमत
इतिहास

1857 फ़ौजी बग़ावत या मुक्ति संग्राम

शम्सुल इस्लाम


भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत 25 फरवरी 1857 को उस समय हुई थी, जब बंगाल के बरहमपुर में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की 19वीं देसी रेजीमेंट के सिपाहियों ने बगावत का झंड़ा बुलंद कर दिया था। इस बंग़ावत की तत्कालिक वजह चिकनाई युक्त वे नए कारतूस थे, जिनको सिपाहियों ने मुंह से काटकर बंदूक में इस्तेमाल करना था। सिपाहियों को इस बात का यकीन था, कि यह चिकनाई कुछ और नहीं बल्कि गाय और सुअर की चर्बी है। अंग्रेज़ो ने भी इस बाबत कोई सफाई नहीं दी थी। इन नए कारतूसों ने कम्पनी के हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्म के मानने वाले सैनिकों की भावनाओं को जर्बदस्त आघात पहुंचाया और उन्होंने मिलकर बग़ावत का डंका बजा दिया था। इस बग़ावत को सख्ती से दबाने के लिए अंग्रेज़ शासकों ने मंगल पांडे को ज़िम्मेदार ठहराते हुए एक फ़ौजी अदालत के सामने पेश किया और आनन-फानन में उन्हें 8 अप्रैल 1857 को फांसी दे दी गई। मंगलपांडे की फांसी ने देश के एक बड़े हिस्से में विद्रोह की ज्वाला को भड़काने का काम किया और कम्पनी सेना की अधिकतर छावनियों में बग़ावत का झंड़ा बुलंद कर दिया गया। इसके साथ ही साथ अनेक स्थानों पर देसी राजाओं और नवाबों ने भी अपनी आज़ादी की घोषणा कर दी। इस संग्राम में महŸावपूर्ण मोड़ तब आया, जब 10 मई 1857 को मेरठ में अंग्रेज़ सेना के देसी सिपाहियों ने बग़ावत करके उत्तर भारत में अंग्रेज़ी हुकुमत की सबसे बड़ी छावनी को तहस-नहस कर डाला और ये इंकलाबी सैनिक देश में एक स्वतंत्र सरकार बनाने के उद्देश्य से दिल्ली की ओर कूच कर नए और रास्ते में हज़ारों लोग भी इनके साथ हो लिए। बिल्कुल इसी तरह उत्तरी भारत के विभिन्न छावनियों से विद्रोही सैनिकों और जनता की दिल्ली की ओर आमद जारी रही।

दिल्ली में बहादुरशाह ज़फ़र के नेतृत्व में एक आज़ाद सरकार का गठन किया गया। जिसने देशवासियों के नाम एक घोषणा-पत्र जारी करके आव्हान किया कि पूरे देश से फ़िरंगी राज को नेस्तोनाबूद करने के लिए पूरी ताकत लगाने का समय आ गया है, क्योंकि ‘‘अगर फ़िरंगियों का राज हिंदुस्तान में बरकरार रहेगा तो वे किसी को भी ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे।’’

इस संग्राम के बारे में एक झूठ यह फैलाया जाता रहा है कि यह एक ‘म्यूटिनी’ या ‘बग़ावत’ थी जो अनुशासनहीनता के कारण घटी थी और यह बग़ावत कुछ दिन इसलिए चल पाई, क्योंकि पतित एवंम दमनकारी सामंती तत्व अर्थात राजा-नवाब और जमींदार इस बग़ावत में अनुशासनहीन सिपाहियों के साथ हो लिए। इस तरह की सोच रखने वाले इतिहासकारों का यह भी मानना हैं कि, इस बग़ावत को देश के आम लोगों का समर्थन प्राप्त नहीं था। इस संग्राम की डेढ़ सौ वीं वर्षगांठ पर यह ज़रूरी हो जाता है, कि इस महान संग्राम के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों को दूर करके सच्चाइयों से देशवासियों को अवगत कराया जाएँ।

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम (सबसे पहले कार्ल माक्र्स ने 1857 की घटनाओं के लिए इस नाम का प्रयोग किया था) के बारे में इस सच्चाई को जानना बहुत ज़रूरी है कि हालांकि इसे 1857 का स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, लेकिन यह लगभग दो साल से भी ज़्यादा तक लड़ा गया हो। यह कोई सैनिक बग़ावत या छुटपुट विद्रोह नहीं था, जिसका अचानक विस्फोट हुआ और जिसे कुछ ही हफ़्तों में या महींनों में दबा दिया गया। समकालीन सरकारी दस्तावेज़ (विशेषकर उस समय के सरकारी गज़ेटियर)इस बात के गवाह है, कि उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में (उस समय की) हैदराबाद रियासत तक और पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में त्रिपुरा तक, देश के चप्पे-चप्पे पर फ़िरंगी शासन से लोहा लिया गया। मेरठ और बरहमपुर में सुलगी चिंगारी एक आग बन कर सारे देश में फैली। इस संग्राम की अंतिम बड़ी लड़ाई 21 जनवरी 1859 को राजस्थान में सीकर के पास हुई। इस युद्ध में राजस्थान के कुछ गद्दार राजाओं की वजह से तात्या टोपे, राव साहब और शहज़ादा फ़िरोजशाह के नेतृत्व वाली सेना को हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद भी लगभग एक साल तक छुटपुट लड़ाइयाँ जारी रहीं।

इस संग्राम में फ़ौजी, जमींदार, राजा, नवाब, किसान, हर जाति के लोग, महिलाएँ, बुद्धजीवी और साहित्यकार मिलकर लड़े। यह सच्चाई समकालीन दस्तावेजों और वृतांतों के पन्ने-पन्ने पर अंकित है। जाॅन विलियम केई ;श्रवीद ॅपससपंउ ज्ञंलमद्ध जो 1857-59 की घटनाओं के साक्षी थे और जिन्हें अंग्रेज़ी सरकार द्वारा ‘बग़ावत’ का इतिहास लिखने का जिम्मा सौंपा गया था, उनके अनुसार 1857 का

‘‘सच यह है कि काली नस्ल के लोग सफेद नस्ल के खिलाफ उठ खड़े हुए थे।’’

1857 की ‘बग़ावत’ को दबाने में व्यस्त एक वरिष्ठ सैनिक अधिकारी हैंडसन ने 26 जुलाई 1857 को दिल्ली से भेजे गए एक पत्र में अपने मुख्य सैनिक अधिकारी को जानकारी दी थी कि अंग्रेज़ सेना को एक ऐसी स्थिति से सामना करना पड़ रहा था जिसमें

‘‘एक पूरे देश की सेना ही नहीं बल्कि समस्त राष्ट्र विद्रोह पर उतारू था।’’ इस बग़ावत के एक और प्रत्यक्षदर्शी विलियम रसल थे जो लंदन के एक अखबार ‘द टाइम्स’ की ओर से संवाददाता के रूप में भारत भेजे गए थे। उन्होंने अपने अखबार के लिए भेजी गई एक रपट में लिखा ‘‘यहाँ सिर्फ हमारे दास और किसान एक हो गए हैं बल्कि विदेशी सरकार से मुक्ति पाने के लिए भारतीय राजा उनके साथ मिल गए हैं। इस लड़ाई ने एक धार्मिक युद्ध, नस्लीय युद्ध और राष्ट्रीय सम्मान के युद्ध का रूप ले लिया है।’’ एक और समकालीन अंग्रेज़ी इतिहासकार चाल्र्स बेल ने तो यह तक लिखा कि 1857 का विद्रोह एक राष्ट्रीय विद्रोहहै।

थाॅमस लो ;स्वमद्ध जो 1857-1858 में उस अंग्रेज़ सेना में वरिष्ठ अफ़सर थे, जिसने पूरे मध्य भारत में इंक़लाबियों से अनेकों जंग लड़ी, ने हिंदुस्तानी जनता की इस संग्राम में जर्बदस्त एकता को रेखांकित करते हुए लिखा कि, ‘‘राजपूत, ब्राहमण, मुसलमान और मराठा, सब इस युद्ध में एक हो गए। अल्लाह को खुदा और मोहम्मद को उसका पैगम्बर बताने वाले और ब्रह्मा के रहस्यों को गुनगुनाने वाले सब बग़ावत पर उत्तर आए।’’ थाॅमस लो वह फ़िरंगी अधिकारी था, जिसने इंक़लाबियों के खिलाफ सबसे लम्बे चलनेवाले अभियानों में हिस्सा लिया था। उसने अपने वृत्तांत, जो 1860 में लंदन से उक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए, में लिखा कि पूरा देश बग़ावत पर आमादा था, क्योंकि चारों ओरतबाहीतबाही, गरीबी की मार थी। मानो जमीन को कोढ़ लग गया हो और यह तेज़ी से विनाश की ओर बढ़ती जा रही हो। जिसके पास भी आँखें और कान इस्तेमाल करने के लिए हों, उसे एक क्षण के लिए भी यह शक नहीं हो सकता कि, हमने इस शक्तिशाली देश के पैदावार के साधनों की पूर्ण रूप से अनदेखी की हैं। और हमने अपने देश के नगरों में निर्मित रद्दी माल को इस देश के कोनेकोने में थोप दिया है। ऐसा लगता है कि हमने (अर्थात फ़िरंगियों ने) एक ही प्रयास किया है कि यहाँ के उपयोगी पैदावार के संसाधनों को यूरोप से माल लाकर पूर्ण रूप से तबाह कर दिया जाए।’’ और यही वजह थी कि पूरा देश फ़िरंगी शासन से जूझने के लिए तैयार था।

इस महान स्वतंत्रता संग्राम के बारे में जो तथ्य और साक्ष्य मौजूद है उनकी रोशनी में इस सच्चाई को झुठलाना नामुमकिन है कि चाहे विद्रोह की शुरूआत करने वाले सैनिक ही रहे हो लेकिन इस विद्रोह को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम बनने में ज्यादा समय नहीं लगा। इसका सबसे महत्तवपूर्ण कारण यह था कि इंक़लाबी सैनिक किसान परिवारों से ही आते थे और किसानों की दुर्दशा ने उनकी सोच और कार्यों को स्वाभाविक रूप से प्रभावित किया था। आमलोग जो बदहाली का शिकार थे वह सब इस विद्रोह का हिस्सा बन गए और बड़े पैमाने पर कुर्बानियाँ दीं।

स्वतंत्रता संग्राम के शुरू होने के साथ ही फ़िरंगियों ने यह पाया कि उनके हिंदुस्तानी बंधुवा नौकर अचानक गायब हो गए हैं। हैंडसन ने 5 जून 1857 को अपनी पत्नी को भेजे गए एक खत में लिखा कि ‘‘मैंने लगातार हर जगह यह कोशिश की है कि एक नौकर मिल जाए लेकिन कोई भी देसी हमारी सेवा नहीं करना चाहता। दुगनी तनख्वाह का वायदा करने पर भी कोई भी काम पर आने के लिए तैयार नहीं हुआ।’’ अंग्रेज़ी इतिहासकार विलियम के ने अपने वृत्तांत में बार-बार इस सच्चाई को रेखांकित किया है कि ‘‘बग़ावत शुरू होने से पहले ही अंग्रेज़ो के घरेलू नौकर काम छोड़कर चले गए थे। और बहुत जगहों पर इन नौकरों ने गायब होने से पहले अपने अंग्रेज़ मालिकों के हथियारों को नाकारा कर दिया था।’’ स्यालकोट (अब पाकिस्तान में) में विद्रोह का वृत्तांत पेश करते हुए के ने लिखा कि वहां की अंग्रेज़ सेना के ब्रिगेडियर के नौकर बग़ावत से पहले वाली रात हथियारों को तोड़कर विद्रोहियों से जा मिले। ब्रिगेडियर के खान सामा और बटलर ने विद्रोहियों की सैनिक कार्यवाहियों में खुली हिस्सेदारी की। ऐसा लगता था मानो हमारे दुश्मनों के तमाम वर्ग, चाहें वह बागी सैनिक हों, गूजर हों, या आसपास के गाँवों के किसान हों और अंग्रेज़ो के घरों और कोठियों में काम करने वाले नौकर, सबमें गहरी दोस्ती थी।’’

फ्रेड राॅबर्ट जिसने 1857 की ‘म्यूटिनी’ को दबाने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई और जो आगे चलकर भारत में अंग्रेज़ी सेना का प्रमुख बना, ने अपनी माता को एक पत्र में (7 सितम्बर 1857) बताया कि ‘‘अफसरों की सेवामें रहनेवाले सबके सब नौकर गायब हो गए हैं। सारे देसी लोग हमारे लिए एक ही जैसे हैं। आप मेरा विश्वास करें कि पंजाब में भी हमसे उतनी ही गहराई से घृणा की जाती है जितनी मुल्क के दूसरे भागों में।’’ राॅबर्ट ने ही 30 सितम्बर 1857 को ज़िला बुलंदशहर से लिखे एक पत्र में बताया कि गाँवगाँव में किसानो ने इतना उत्पात मचाया है कि अंग्रेज़ी सत्ता का नामोनिशान मिट गया है।

संग्राम के एक अन्य प्रत्यक्षदर्शी अंग्रेज़ (ट्रेवेलियन) ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि ‘बग़ावत’ को फैलाने में लोक कलाकारों, जैसे कि आल्हाउदल गाने वालों, तमाशा और लावणी जैसे लोकनाट्य नृत्य करनेवालों का बड़ा योगदान था। इस काम में कठपुतली खेलने वालों ने भी महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। इस अंग्रेज़ यात्री ने यह भी लिखा है कि भिश्तियों (पानी पिलाने वाले), ने गोरों को पानी पिलाने से मना कर दिया और उनके घरों पर काम करने वाली दाइयों और सफाई कर्मचारियों ने काम छोड़ दिया।

अंग्रेज़ इतिहासकार विलियम के नेम्यूटिनीके कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा कि गाँवगाँव घूम रहे कठपुतली का तमाशा दिखानेवालों तक ने बग़ावत फैलाने में अहम रोल अदा किया। यह कठपुतली का खेल दिखानेवाले अपनी प्रस्तुतियों में कंपनी सरकार का मजाक उड़ाते और इसके शासन के खिलाफ नफ़रत फैलाने वाले कथानक को ही प्रधानरूप से पेश करते थे। इससे साफ पता चलता है कि स्वतंत्रता संग्राम में हमारे देश की जनता दिलो-दिमाग से शामिल थी। जून 1857 में अंग्रेज़ो ने दिल्ली की ज़बरदस्त घेराबंदी शुरू की थी और इस बात का दावा किया था कि वो कुछ ही दिनों में शहर को ‘मलबे में बदल देंगे’। शहर में इनके जासूस और दलाल बराबर मौजूद थे, जो अंग्रेज़ो के दिल्ली में घुसने को आसान बनाने के लिए लगातार विध्वंसकारी हरकतों में लगे थे। लेकिन अंग्रेज़ केवल सितम्बर के अंत में ही और वह भी व्यापक षडयंत्रों के बाद दिल्ली में घुस पाए। दिल्ली के आम लोगों ने किस तरह फ़िरंगी आक्रमण के खिलाफ एकजुटता बनाये रखी उसके बारे में हैंडसन ने एक उच्च अधिकारी को भेजे गए पत्र में लिखा कि ‘‘पूरे शहर में जगहजगह बाज़ारों में और सड़कों के किनारों पर छोटीछोटी सभाएँ की जा रही हैं और लोगों को लामबंद किया जा रहा है।’’

दिल्ली के आम लोग फ़िरंगियों की घेराबंदी के खिलाफ किस हद तक कुर्बानी करने को तैयार थे उसकी जानकारी, हमें दिल्ली के मोर्चें पर शहीद हुए लोगों के नाम जानकर, जो सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हैं, अच्छी तरह हो सकती है। इन नामेां को जानने से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि किस तरह इस देश के दबे कुचलों ने इस संग्राम में हिस्सेदारी की। उपलब्ध सूची के अनुसार दिल्ली में शहीद होनेवाले लोगों में अब्दुल (मोहर बनाने वाले) चोजा भिश्ती (पानी पिलाने वाले), इमान कहार (पालकी उठाने वाले), गन्नू (हलवाई), हीरा (डोम), लालू (तेली) आदि थे। लगभग यही स्थिति पूरे देश की थी।

आम लोगों की हिस्सेदारी किस हद तक थी इसका अंदाजा इस सच्चाई को जानकर भी किया जा सकता है कि गुड़गांव, दिल्ली, मुजफ़्फ़रनगर, मेरठ और बुलंदशहर ज़िलों में ही दो सौ से ज्यादा गाँवों को जलाकर खाक कर दिया क्योंकि इन गाँव के सभी लोग ‘बग़ावत’ में शामिल थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की महिलाएँ किस हद तक इस संग्राम के प्रति समर्पित थीं इसका अनुमान इस लोकगीत से लगाया जा सकता है जो मेरठ में इंक़लाबियों की जीत के बाद पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गाया जाता था…

आहा! आओ और देखो/मेरठ के बाज़ार में,
फ़िरंगी को घेरकर मारा गया है/गोरे को घेरकर पीटा गया है,
मेरठ के खुले बाज़ार में/देखो! आहा, देखो,
उसे किस तरह पीटा जा रहा है/उसकी बंदूक़ छीन ली गई है,
उसका घोड़ा मरा पड़ा है/उसका रिवॉलवर टूट-फूट गया है,
मेरठ में सरे बाजा़र/उसे घेरकर पीटा जाता है,
देखो, आहा, देखो/फ़िरंगी को घेरकर पीटा जाता है,
मेरठ में सरे बाज़ार/देखो, आहा, देखो।।

(स्थानीय बोली से हिंदी में अनुदित)। और यह आम लोग ही थे जिन्होंने दिल्ली में घुसी अंग्रेज़ी सेना को नाको चने चबवा दिए। हैंडसन जो दिल्ली में फ़िरंगी सेना का नेतृत्व कर रहा था ने 17 सितम्बर 1857 की अपनी डायरी में लिखा ‘‘शहर की फ़सीलों (चार दीवारी) पर जबर्दस्त विरोध का सामना करने के बाद हमारी फ़ौजे शहर में दाखिल हुई, तो जिस हिम्मत और दृढ़ता से जमकर विद्रोहियों और हथियार बंद लोगों ने गलियों और घरों के लिए जंग की, वो सब हमारे लिए सोच से बाहर था।’’ दिल्ली में जो हज़ारों लोग शहीद हुए उनमें 250 से ज़्यादा प्रसिद्ध कवि, बुद्धजीवी और अध्यापक शामिल थे। यह ब्यौरा आज भी सरकारी दस्तावेजो में उपलब्ध है।

फ़िरंगी शासन की जगह इंकलाबी जहाँ-जहाँ स्वतंत्र सरकारों की स्थापना कर रहे थे उन जगहों पर वे इस पहलू के प्रति सजग थे कि अंग्रेज़ो ने गरीबों पर जो अत्याचार ढाए हैं उसकी भरपाई की जाए। अवध में अंग्रेज़ो ने पासियों से उनका चैकीदारी का परम्परागत पेशा छीन लिया था। बेगम हज़रत महल और बिरजिस कदर के नेतृत्व वाली अवध की सरकार के एक सार्वजनिक घोषणा में कहा, ‘‘पासियों को यह मालूम हो जाना चाहिए की हर गाँव और भाहर की रखवाली करना उनका पुश्तैनी पेशा है, किंतु अंग्रेज़ उनकी जगह बरकंदाजों की नियुक्ति करते हैं और इसप्रकार पासियों को उनकी जीविका से वंचित किया जाता है। ऐसा नहीं होने दिया जाएगा।’’

हिंदुस्तान के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 165वीं वर्षगांठ के अवसर पर यह जरूरी हो जाता है कि हम इस महान आंदोलन से जुड़ी उन सच्चाइयों को जानें जो अभी भी अभिलेखागारों की अलमारियों में बंद पड़ी हैं। इन सच्चाइयों से साक्षात्कार हमें इस महान संग्राम के सही आंकलन में ही मदद नहीं करेगा बल्कि इसकी वास्तविक विरासत को आत्मसात करने में भी मददगार होगा।

अंग्रेज़-परस्त विद्वानों और इतिहासकारों का ये दावा रहा है कि 1857 की घटनाएँ सैनिक बग़ावत से ज्यादा कुछ भी नहीं थीं। उनके अनुसार मई 1857 में जिस ‘बग़ावत’ की चिंगारी भड़की थी उसके पीछे कुछ अराजक सैनिकां का हाथ्र था जिनकी अनुशासनहीनता के कारण मुल्क को हिंसा और विध्वंस का सामना करना पड़ा था। लेकिन अगर हम तथ्यों पर ध्यान दे तो इस तरह की मान्यता को सफेद झूठ ही कहा जा सकता है। सच तो यह है कि 1857 में आरंभ हुआ भारत का पहला महान स्वतंत्रता संग्राम इस हक़ीकत के लिए हमेशा जाना जाएगा कि इसमें देश के किसी एक भाग, समूह, जाति या धर्म के मानने वाले लोगों ने

हिस्सेदारी नहीं की, बल्कि पूरा देश और यहाँ के लोगों ने आमतौर पर बिना किसी भेदभाव के बड़े पैमाने पर इसमें भाग लिया और कुर्बानियाँ दीं।

 

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