‘प्रत्यंचा’ छत्रपति शिवाजी महाराज की उत्तराधिकार परंपरा में कोल्हापुर के राजा बने छत्रपति शाहूजी महाराज की जीवन गाथा है जिसको हिंदी के चर्चित कथाकार संजीव ने लिखा है। आज जबकि सामाजिक-राजनीतिक सत्ता नये सिरे से गैर-बराबरी, वैज्ञानिकता और अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे रही है और पूंजीवाद का उसके साथ गहरा गठजोड़ सबको तबाह कर रहा है, तब छोटे से जीवन और शासनकाल में किए गए साहू जी महाराज के सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक प्रयोगों की ओर यह उपन्यास हमारा ध्यान खींचता है।
यह आश्चर्यजनक है कि जिस राजा को आर्य समाज, फुले का सत्यशोधक समाज अपनी वैचारिक परंपरा से जोड़ता रहा है, जिसने लंदन से लौटे युवा अंबेडकर को अखबार निकालने के लिए सहयोग दिया, जिसने दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी को और रमाबाई पंडिता को सहयोग दिया और सर्वोपरि जिसने 1902 में कोल्हापुर में 50% आरक्षण लागू किया तथा राज्य की बजट का बड़ा हिस्सा शिक्षा के विकास के लिए लगा दिया, जिसने किसी भी सार्वजनिक स्थान- अस्पताल, दफ्तर आदि में अस्पृश्यों के साथ हो रहे भेदभाव के खिलाफ सख्त कानून बनाए, बल्कि भेदभाव करने वाले सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की नौकरी 6 माह में समाप्त कर देने और उनका पेंशन बंद करने के कानूनी दंड तय किये, अकाल और महामारी से जिसने जनता ही नहीं, जानवरों तक को बचाने के सफल प्रयास किये, जिसने सिंचाई के लिए डैम बनाया और नए-नए तकनीक के विकास के लिए प्रोत्साहन दिया, उस राजा के बारे में हिंदी में लिखित इतिहास, राजनीति, लोक प्रशासन और नवजागरण के विमर्शों में प्रायः कोई जिक्र नहीं मिलता। मराठी में जरूर कुछ सामग्री मिलती है। जाहिर है यह सब अकारण नहीं है।
शाहू जी महाराज को किसी ने क्रांतिकारी राजा कहा, किसी ने जनतंत्रवादी राजा। अंबेडकर ने उन्हें ब्राह्मणवाद को मटियामेट कर देने वाले राजा के रूप में याद किया। यह भी कहा कि ‘वे राजाओं में मनुष्य थे और मनुष्यों में राजा’। अपने शासनकाल में मायावती ने जब उत्तर प्रदेश में उनकी मूर्ति लगाई तब ज्यादातर हिंदी भाषी लोग उनके नाम से परिचित हुए। लेकिन सच्चे अर्थों में एक जनतांत्रिक शासक के तौर पर उनके कार्यों से जनता को हिंदी प्रदेश में सामाजिक न्याय की लोहियावादी और अंबेडकरवादी धारा ने भी अवगत नहीं कराया, उन्हें महज मूर्ति बनाकर रख दिया। इस लिहाज से संजीव ने यह उपन्यास लिख कर अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया है। हिंदीभाषी विशाल भूभाग के समाज और राजकाज को यह उपन्यास लोकतांत्रिक बनाए, आम पाठकों के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और शासन-प्रशासन से जुड़े लोग भी इसे पढ़ें तो इसकी बहुत सार्थकता होगी। इस तरह का उपन्यास लिखना हिंदी के किसी बड़े सम्मान या पुरस्कार पाने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। गोकि जिस तरह का वर्चस्व हिंदी साहित्य की विशिष्टता तय करने वाली इन संस्थाओं पर कायम है, उसे देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि निर्णायक इस उपन्यास को महत्व देंगे।
उपन्यास बताता है कि शाहू जी महाराज के जमाने में कोल्हापुर में 5% ब्राह्मण थे जिनका 95% संस्थाओं और पदों पर कब्जा था। ‘प्रत्यंचा’ में ब्राह्मणों और ब्राह्मणवादी शक्तियों का नेतृत्व करते बाल गंगाधर ‘तिलक’ नजर आते हैं। शाहू जी महाराज और उनके बीच के वैचारिक संघर्ष की ओर यह उपन्यास स्पष्ट संकेत करता है। शाहू जी महाराज को उनकी राष्ट्रभक्ति पर संदेह नहीं है, पर उनका सवाल स्वराज में बाकी बहुत बड़ी आबादी के हक-अधिकार को लेकर है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि शाहू जी महाराज ने स्त्री उत्तराधिकार कानून बनाया, देवदासियों तक को अधिकार दिए। उन्होंने स्त्री शिक्षा का पक्ष लिया जबकि तिलक ने उसका विरोध किया। शाहू जी महाराज ने गैर-ब्राह्मण लोगों को शिक्षित बनाने और विभिन्न क्षेत्रों के साथ-साथ कानून के अध्ययन के लिए प्रेरित किया। वकालत की शिक्षा लेने और वकील बनने के लिए प्रोत्साहित किया
उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरंभिक दशक में महाराष्ट्र किस तरह के वैचारिक आंदोलन की जमीन बना हुआ था यह उपन्यास इसे दर्शाता है। इसमें सनातनी ब्राह्मणवादी ताकतों द्वारा एक सत्यशोधक की हत्या का भी प्रसंग है तथा फुटनोट में डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर आदि की चर्चा की गई है। इस उपन्यास में कम्युनिस्ट नेता डांगे शाहू जी महाराज को सुनते हुए कहते हैं कि यह तो कम्युनिस्टों की तरह बोलता है, हालांकि ब्राह्मणवाद का जिक्र आते ही उनकी झल्लाहट की ओर भी संकेत है। जाहिर है थोड़ी देर के लिए ही सही, पर ब्राह्मणवाद के संदर्भ में कम्युनिस्टों से भी यह उपन्यास बहस छेड़ता है। यहाँ तक कि ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष करने वालों को भी उपन्यासकार ने शाहू जी महाराज के माध्यम से चेतावनी दी है कि जातीय सम्मेलनों को जाति व्यवस्था को बनाए रखने का माध्यम नहीं बनना चाहिए। शाहू जी महाराज अंतर्जातीय शादियों के पक्ष में तर्क देते हैं। उनका मानना है कि यह काम ऊँची जातियों को करना होगा।
ब्राह्मणों द्वारा शूद्र घोषित किए जाने से मुक्ति के लिए शिवाजी महाराज ने बनारस से एक पंडित को बुलाया था, उसे काफी धन भी दिया था, परंतु शाहू जी महाराज उनकी तरह क्षत्रियत्व की प्रतिष्ठा हासिल नहीं करते। उनका मानना है कि जो भी समाज और देश की रक्षा करता है वह क्षत्रिय है। अंबेडकर इसी मामले में उन्हें शिवाजी से भी बढ़कर मानते हैं।
‘प्रत्यंचा’ एक जनतंत्रवादी राजा द्वारा किए गए व्यावहारिक प्रयोगों के आधार पर जरूरी सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक विमर्श को छेड़ने वाला उपन्यास है। गैरबराबरी पर आधारित भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक धारणाओं में बदलाव, आरक्षण, लोक-प्रशासन, शिक्षा, कृषि, चिकित्सा, तकनीक तथा जनता से संबंधित विकास कार्यक्रमों, वैज्ञानिक दृष्टि, अंधविश्वास निर्मूलन आदि अनेक संदर्भों में इसकी प्रासंगिकता है।
प्रत्यंचा : संजीव
वाणी प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य- 395 रु.
(समीक्षा लेखक सुधीर सुमन लेखक और संस्कृतिकर्मी हैं। जन संस्कृति मंच में 25 वर्षों से अधिक समय से सक्रिय। संपादक, स्तंभ लेखक, आलोचक-कवि-रंगकर्मी। फिलहाल समकालीन जनमत पत्रिका के संपादक मंडल का सदस्य और जसम, बिहार का राज्य सचिव। संजीव और यशपाल की कहानियों पर शोध। विगत ढाई वर्ष से झारखंड के एक काॅलेज में अतिथि शिक्षक के बतौर अध्यापन।)