साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता रहा है. मतलब समाज जैसा है उसे वैसा ही दिखाने वाला लेखन साहित्य है. बचपन से हम यही सुनते आ रहे हैं. क्या वाकई साहित्य समाज का दर्पण है या उससे कुछ कम ज्यादा है? क्या साहित्यकार एक तटस्थ रिपोर्टर की तरह समाज से चरित्र-घटनाएं-परिस्थितियां उठाता है और उसे अपनी लेखन कला से रोचक अंदाज़ में पाठकों के सामने पेश करके अपना ज़िम्मा पूरा कर लेता है?
हम जैसे जैसे समझदार होते हैं इस परिभाषा की सीमाएं हमें दिखने लगती हैं. हम जब साहित्य पढ़ रहे होते हैं तो हम उसमें अखबारी लेखन नहीं ढूंढ रहे होते हैं. हम कुछ और तलाश रहे होते हैं. यह कुछ और क्या है? एक ज़माने में यह मनोरंजन था. काव्य-शास्त्र में काव्य-रस की बात कही गई है. काव्य-सौन्दर्य और काव्य-सौष्ठव की बात कही गई है. बहुत दिनों तक हम काव्य में रस-छंद-अलंकार का सौन्दर्य खोजते हुए उसके महत्त्व का मूल्यांकन करते थे. बाद में पाठकों के साथ रचनाकारों को भी लगने लगा कि सिर्फ़ मनोरंजन से साहित्य अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाता. राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा था कि ‘केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए/उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए.’
यह वह दौर था जब कवि-साहित्यकार आम जनता के हितों की बौद्धिक नुमाइंदगी करता था. पाठक साहित्यकार पर पूरी तरह भरोसा करता था और उसके बताए हुए मार्ग पर चलने को तैयार रहता था. यह आज़ादी की लड़ाई का दौर था जब राष्ट्रप्रेमी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ साहित्य के मोर्चे पर अंग्रेज़ सरकार से लोहा लेने के लिए सामाजिक सुधार और सांस्कृतिक चेतना के पुनर्निर्माण का दौर चल रहा था जिसमें सामाजिक कुरीतियों और सार्वजानिक-निजी जीवन में नैतिक प्रतिमानों पर चर्चाएँ चला करती थीं. साहित्यकार भी संत महात्माओं की तरह समाज को बेहतर बनाने के लिए अच्छी-अच्छी बातें किया करता था. उसके लेखन में सदाचार, आपसी सौहार्द्र, स्त्रियों का सम्मान, सामाजिक कुरीतियों पर चोट और मानवीय और देश-समाज प्रेम की चर्चा रहती थी, मुझे लगता है कि यह भक्ति साहित्य के मर्म का बाह्य जीवन में विस्तार था.
भक्ति साहित्य जहाँ परमात्म के सम्मुख आत्म का समर्पण करने के साथ ही मन की शुचिता और उच्चता को ईश प्राप्ति के लिए आवश्यक मानता था वहीँ आधुनिक युग के शुरूआती दौर में साहित्यकारों ने समाज को बेहतर बनाने के लिए मानवीय-नैतिक सूत्र बताने समझाने शुरू किये. लेकिन पाठक और लेखक दोनों को जल्दी ही यह समझ में आ गया कि साहित्यकार की भूमिका मनोरंजक, सुधारक और उपदेशक से कहीं अलग है. यह भूमिका क्या है? पहली बार उस भूमिका को स्पष्ट करते हुए महान हिंदी कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने कहा कि ‘साहित्य समाज के आगे आगे चलने वाली मशाल है. इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि साहित्य में रोशनी होती है जो हमें अंधेरों से बाहर निकलने में मदद करती है. उसमें ऊष्मा भी होती है जो ठंडेपन की विरोधी है. मतलब साहित्य साहित्य में पाठक को सहज करने आत्मीय बनाने की खूबी होती है.
दूसरी बात यह कि साहित्यकार कोई महात्मा या सुधारक नहीं होता, वह समाज के बीच रहकर आम जन के साथ अंधेरों से लड़ने के लिए साहित्य की मशाल लेकर चलता है. साहित्य पाठक के सुख-दुःख के साथ एक संवेदनशील रिश्ता बनाता है जिससे पाठक का मन साहित्यकार के मन से जुड़ जाता है और साहित्यकार का सत्य पाठक को अपना सत्य जान पड़ने लगता है.
अब अगर इस मशाल रुपी बिम्ब को ले तो हमें ध्यान रखना होगा कि मशाल में रोशनी अपने आप नहीं आती. उसके लिए काफ़ी संघर्ष,साहस और धैर्य की ज़रूरत होती है. हिंदी के मशहूर शायर दुष्यंत का एक शेर है कि ‘एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तों/इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है’. मतलब मशाल के लिए तेल और बाती भी ज़रुरी है लेकिन सबसे ज़्यादा ज़रूरी है चिंगारी और उसे ढूँढने वाले जुझारू लोग. यह चिंगारी क्या है?
यह ज्ञान और संवेदना की चिंगारी है. यह समाज और उसके यथार्थ को समझने की इच्छा और समझ सकने की दृष्टि है. यह इच्छा या जज़्बा आसानी से नहीं मिलता. और न ही यह दृष्टि आसानी से मिलती है. सत्य को समझना एक बात है और उसकी सामाजिकता का मूल्याकन दूसरी बात और समाज की बेहतरी के लिए किसी वैकल्पिक सत्य का निर्माण तीसरी बात. साहित्य यह तीनों कार्य करने की कोशिश करता है. कबीर दास लिखते हैं कि ‘जिन ढूँढा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ/ मैं बपुरा बूड़न डरा रहा किनारे बैठ.’ मतलब सत्य की पड़ताल गहराई तक उतरकर ही मुमकिन है और इसमें डूबने का, कुछ हासिल न होने का ख़तरा भी शामिल है. इसमें कहीं और बह-भटक जाने की आशंका भी बनी ही रहती है और बिना गहरे पहुंचे जल्दबाज़ी और हड़बड़ी में ऊपर निकल आने की सम्भावना भी रहती है.
साहित्यकरों में भी यह सभी बातें दिखती हैं. कथ्य के मर्म तक पहुँचने को लेकर एक जल्दबाज़ी या हड़बड़ी अक्सर लेखक में मिलती है लेकिन तमाम लेखक ऐसे हैं जो इन खतरों को पहले ही भांप लेते हैं और किनारे बैठकर ही सत्य के अन्वेषण का दावा करते रहते हैं. शायद यही वजह है कि समाज को मशाल लेकर दिशा दिखाने जैसा काम विरले साहित्यकार ही अपने लेखन से कर पाते हैं और वो लेखक आधुनिक भावबोध के उदय के बाद से हिंदी साहित्य में उँगलियों पर गिने जा सकने वाले हैं. कबीर दास का एक और दोहा मुझे इस सन्दर्भ में याद आ रहा है-‘साधो ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाव. सार-सार को गहि रहे थोथा देहि उड़ाय.’ साहित्यकार भी कबीर का यही साधो है जो सार तत्व की खोज में रहता है और सृजन और कथ्य-विमर्श के बीच आने वाले थोथे की बारीक पहचान रखता है और उसे छोड़ने में देर नहीं करता.
साहित्य लेखन बौद्धिक विमर्श के बाकी अनुशासनों से इस मामले में भिन्न है कि इसमें मानवीय संवेदना एक ज़रूरी तत्व है. हालाँकि सिर्फ़ संवेदनशील होने से उपयोगी साहित्य की रचना संभव नहीं है. संवेदन के साथ देश-काल और परिस्थिति का ज्ञान होना भी ज़रूरी है. देश-काल सिर्फ़ वर्तमान की खिड़की से समझ में नहीं आता, इसके लिए विधा-विशेष की रचना परंपरा का ज्ञान होना आवश्यक है. इतिहास में सबकुछ होता है लेकिन साहित्यकार अपनी संवेदना और समझ के अनुसार उस रचना परंपरा का चयन करता है जो उसके हिसाब से उसके लेखन की अभीष्ट दिशा को तय करे. यही वजह है कि साहित्य में इतने खेमे हैं. कोई रस-छंद-अलंकार-राग-रंग-भाषा के पीछे पड़ा है तो कोई कथ्य और शिल्प के. कुछ लोग अभिजन, सामंती, पुरुष और पूँजी सत्ता समर्थक मूल्यों के पक्ष में सृजन कर रहे हैं तो कई दूसरे दबे-कुचले, शोषित, वंचित तबके के हक़ में.
अब एक पाठक की हैसियत से हमें यह देखना होगा कि हम किस तरह का साहित्य चाहते हैं. क्यूंकि यह सिर्फ साहित्य का सवाल नहीं है. यह समाज का मानवीय सभ्यता का भी सवाल है. अगर हम चाहते हैं कि समाज में अन्याय-अत्याचार, सामाजिक आर्थिक गैरबराबरी और लैंगिक असमानता का पोषण करने वाले विचार और वैसी संवेदना बनी रहे तो निश्चित ही हमें इससे मुक्ति की चेतना रखने वाला साहित्य पसंद नहीं आएगा और हमें उसे खारिज करने के लिए किसी भी किस्म का बौद्धिक उपक्रम करेंगे. इसलिए जो कुछ भी लिखा गया है उसे सामाजिक कसौटी पर खरा भी उतरना होगा.
अब सवाल यह है कि यह कसौटी क्या होगी ? समाज का कौन सा तबका इसे अपने मानदंडों पर कसेगा ? क्या आलोचक जो कहे वही सही साहित्य है या पाठक जिसे बताए ? लोकोपयोगी साहित्य और लोकप्रिय साहित्य अलग-अलग हो सकता है और दोनों कई मामलों में एक भी हो सकते हैं. जैसे प्रेमचंद का साहित्य लोकोपयोगी भी है और लोकप्रिय भी. जैसे हमारे भक्त कवियों का साहित्य समाज को दिशा भी देता है और समाज में लोकप्रिय भी है. लेकिन कई बार ऐसा नहीं भी हो सकता. हमारे दौर के तमाम ऐसे कथित लेखक-कवि जो बड़े मशहूर हैं उनके पास बताने सुनाने को एक भी रचना नहीं या उनका लिखा कुछ भी ऐसा नहीं जो सामाजिक उपयोगिता और कालजीविता की कसौटी पर खरा उतरेगा. तो वह कसौटी फिर क्या होगी ?
अच्छा साहित्य सबसे पहले तो मनुष्यता के पैमाने पर खरा उतरता है. मानवीय मूल्य पहली कसौटी है जो साहित्य को खरा बनाती है. बल्ली सिंह चीमा का एक शेर है कि ‘तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो. आदमी की ओर हो तुम या कि आदमखोर हो.’ टैगोर कहते थे कि ‘शबार ऊपरे मानुष सत्यम. तहार ऊपरे कछु नाहीं.’ दूसरी बात है कि सामाजिक यथार्थ की जो समझ लेखक के पास है वह अन्याय अत्याचार शोषण ग़ैरबराबरी से लड़ने में उसकी कितनी मददगार है. क्या उसके पास किसी ऐसे वैकल्पिक समाज के निर्माण का सपना है जहाँ इस सब की जगह न हो. जहाँ मानवीय प्रेम सबसे ऊपर हो. क्या कारण है कि ज़ोरदार साहित्य की रचना पिछड़े और गरीब समाजों में ज़्यादा मुमकिन हो पाती है क्यूंकि उसकी विषयवस्तु का केंद संघर्ष और प्रतिरोध होता है. चाहे प्रेमचंद का गोदान हो या रेणु का मैला आंचल. कविताओं में मुक्तिबोध की अँधेरे में को रख सकते हैं. नागार्जुन, रघुवीर सहाय, शमशेर बहादुर सिंह से होते हुए वीरेन डंगवाल तक कविताओं में हमें क्या मिलता है ? जब हम गोरख पाण्डेय के गीत पढ़ते हैं तो हम क्या यह बहस करते हैं कि यह नवगीत हैं या नई कविता. इन सभी रचनाकारों के सन्दर्भ में हम यह देखते हैं कि ये रचनाएं पूरी दमदारी से मनुष्यता के पक्ष में खड़ी हैं और अन्यायी-अत्याचारी-शोषक वर्ग और उसकी मानसिकता का बेलाग-लपेट प्रतिरोध करती हैं. इन रचनाओं में दुनिया समाज की बारीक समझ तो है ही साथ में समाज के आख़िरी पायदान पर खड़े हुए इंसान का दर्द समझने-महसूस करने वाली संवेदना भी है.
दुनिया के किसी भी देश का महान साहित्य उठाकर देखा जाय तो यह देखने को मिलेगा कि वहां शक्ति केन्द्रों के प्रतिरोध का स्वर सर्वाधिक मुखर है. बड़े साहित्य का काम पाठक का दिल बहलाना नहीं है न ही एक उपदेशक की तरह उसकी समस्यायों और मुसीबतों का सहज समाधान सुझाना है. वह तो बस पाठक के मन में कुछ सवाल, थोड़ी बेचैनी और सामाजिक मानवीय सत्य तक पहुँचने की प्रबल इच्छाशक्ति पैदा करता है. यही वह रौशनी है जिसके सहारे मनुष्य अपनी समस्यायों का हल ख़ुद ढूंढता है.
गंभीर और लोकोपयोगी साहित्य पाठक या समाज के हिस्से भी कुछ काम छोड़ता है. यह पाठक की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह गंभीर साहित्य के अनुशीलन के लिए अपनी बौद्धिक संवेदना को समृद्ध करे. अगर सत्य इतनी आसानी से समझ में आ जाता या संप्रभु वर्ग के वर्चस्व को पुष्ट करने वाली चेतना का जाल हरेक शोषित-पीड़ित व्यक्ति के पल्ले पड़ जाता तो अब तक यह विश्व शोषण अन्याय से मुक्त हो चुका होता. इसलिए हमें साहित्य के नाम पर प्रवचनों और हर समस्या के समाधान हेतु बौद्धिक जड़ी-बूटी सुझाने वाले लेखकों से सावधान रहने की ज़रूरत है. वह साहित्य श्रेष्ठ है जो हमें अपने साथ अँधेरी ताक़तों के जाल से बाहर ले जाने में सक्षम है. जो दूर से हमें हमारी मुक्ति के उपाय बता रहा हो वह साहित्य नहीं है. बौद्धिक छलावा है.
इसलिए अच्छा साहित्य अपने पाठक से एक आत्मीय रिश्ता भी बनाता है. पाठक रचनाओं के ज़रिए लेखक पर भरोसा करने लगता है. पाठक का यह भरोसा लेखक को आसानी से हासिल नहीं होता. उसे सृजन के कठिन निकष पर खरा उतरना होता है. कई बार समझ में न आने पर भी साहित्य हमें अपनी तरफ़ खेंचता है और जैसे जैसे उसका अर्थ हमपर खुलता जाता है हमारी ज्ञानात्मक संवेदना और समृद्ध होती जाती है. भक्तिकाल के कबीर और आधुनिक काल के मुक्तिबोध का साहित्य कुछ ऐसा ही है.
अपने अनुभव से एक और बात मैं कहना चाहता हूँ और वह यह है कि अगर किसी रचना को पढ़ने के बाद हम संतुष्ट या तृप्त होते हैं या हमें हमारे सारे सवालों का जवाब मिल जाता है तो हमें समझना चाहिए कि वह रचना अपने उद्देश्य में सफल नहीं रही या उस लेखक के पास कहने बताने को कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है. उलटे अगर रचना अंत में हमें बेचैन छोड़ देती है, हमारे ज़हन में कुछ सवाल छोड़ जाती है. अगर हम काफ़ी दिनों तक उस रचना को भूल नहीं पाते हैं या कहिये कि संगत सन्दर्भों में वह रचना हमें याद आती है तो समझिये कि लेखक का काम हो गया.
गंभीर साहित्यकार के पास बेहतर दुनिया का एक सपना होता है अगर वह अपने परिवेश और समाज से संतुष्ट है तो फिर उसे साहित्य सृजन की क्या आवश्यकता है? साहित्य दरअसल लेखक के इसी सपने को साकार करने की दिशा में किया गया सतत रचनात्मक उपक्रम है. साहित्य कोई एकान्तिक साधना नहीं है यह समाज के बीच रहते हुए सामाजिक यथार्थ से जूझने और उसके बरक्स एक वैकल्पिक यथार्थ रचने की रचनात्मक कोशिश है. साहित्य संवेदना और ज्ञान के स्तर पर लगातार चलने वाले संघर्ष का नाम है जिसका मकसद सबसे पहले और आखिर में तिरस्कृत, वंचित, मूढ़, शोषित जन की आखों में खुशहाल भविष्य की उम्मीद जगाना है. मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए विभिन्न मोर्चों पर चलने वाले संघर्षों में मुक्तिकामी जनसमुदाय को शामिल करना है. साहित्य सिर्फ़ किस्सा-कहानी, काव्य, गीत, उपन्यास, व्यंग्य, नाटक आदि नहीं है. उससे कहीं आगे बहुत कुछ है इसलिए साहित्य सृजन को रूप विधानों, शिल्पों और कथन शैलियों में बांटकर हम कुछ खास हासिल नहीं करते. यह बाँटना साहित्य सृजन के व्यवस्थित अध्ययन के लिए ज़रूरी हो सकता है लेकिन इससे अगर हम गद्य-पद्य, कविता-गीत, कहानी-उपन्यास का द्वंद्व पैदा करने की कोशिश करेंगे तो यह किसी भी रचनाकार के साहित्यिक अवदान के मूल्यांकन का सही तरीका नहीं होगा.
प्रतिरोध के जिस स्वर की मैं बात कर रहा वह भक्ति काल से ही हिंदी साहित्य में मुखर हुआ. यह बंधनों और कुरीतियों में जकड़े हुए मन की आज़ादी का एक रचनात्मक कालखंड था जिसकी भावभूमि अध्यात्मिक थी लेकिन विमर्श यहाँ भी मनुष्य और उसकी दुनियावी तकलीफ़ों के इर्द-गिर्द ही बना रहा. भक्ति साहित्य आन्दोलन की अपनी सामाजिक-आर्थिक-राजनितिक परिस्थितियां थीं जिस और जाने का अवसर यहाँ नहीं लेकिन अगर हम कवीर,तुलसी, मीरा और जायसी आदि के लेखकीय सरोकार देखें तो हमें समझ में आयेगा कि वे कौन सी दुनिया का सृजन करना चाह रहे थे. यह स्वर रीतिकालीन कवियों में एकदम फीका पड़ गया था. सत्ता दरबारों ने उनकी रचनाशीलता को बाँध दिया था. उनका सृजन आत्मकेंद्रित और सत्ता-शौर्य की प्रशंसा और उसके मनरंजन के लिए रह गया था इसलिए काव्य-कला मानदंडों पर उच्च कोटि का साहित्य होने के बावजूद यह लोकोपयोगी नहीं हो सका.
हर दौर के साहित्य में यह प्रतिरोध का स्वर ही किसी खास रचनाकार को बड़ा बनाता है. छायावाद में यह स्वर महादेवी, प्रसाद से निराला तक आते आते काफी मुखर हो उठता है. बाद के साहित्य-गद्य और पद्य दोनों—में अगर हम देखें कि कौसा सा लेखक हमें अपनी ओर खींचता है तो हम देखेंगे कि मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए सत्ता-प्रतिष्ठानों के विरोध में खड़े लेखक का साहित्य हमें पसंद आता है और साहित्य का इतिहास भी ऐसे ही लेखन को महत्वपूर्ण मानता है. साहित्य में प्रतिरोध का स्वर किसी नारे की तरह नहीं आता. यह कलात्मक अंदाज़ में पाठक के मन में उतरता है. यह प्रतिरोधी चेतना पाठक की समझदारी को मांजती-विकसित करती चलती है. अच्छा साहित्य हमेशा सपाटबयानी या उद्घोषणा-मूलक होने से बचता है. यह किसी विचारधारा के प्रचार के लिए नहीं लिखा जाता. यह निजी या सीमित मानवीय सत्य और संवेदना को सार्वजनिक और व्यापक भावभूमि तक पहुँचाने का कलात्मक कौशल है.
इस तरह हम देखते हैं कि स्त्रीवादी आन्दोलन हो या दलित चेतना के रचनात्मक उभार से निकला हुआ साहित्य—सब के सब किसी न किसी स्तर पर अन्याय-अत्याचार-प्रभुता के विरोध के चलते सामने आये और अभी भी सक्रिय हैं. साहित्य सिर्फ हमें समाज का अक्स नहीं दिखाता, एक ऐसे समाज के निर्माण का स्वप्न लेकर भी चलता है जहाँ मानवीय संवेदना और लोकोपयोगी ज्ञान से संपृक्त मनुष्य रहते हों और इस तरह के साहित्य से जुड़कर हम साहित्यकार के उस सपने से भी जुड़ जाते हैं.
(‘धूप का परचम’, ‘ख़्वाबों की हँसी’,‘अमरीका मेरी जान’, ‘कपास के अगले मौसम में’ के लेेेखक, गजल गायक डॉ. हरिओम के अब तक चार एलबम ‘रंग-पैराहन’, ‘इंतिसाब’, ‘रोशनी के पंख’, ‘रंग का दरिया’ नाम से आ चुुके हैैं। अपने साहित्यिक और सांस्कृतिक अवदान के लिए फ़िराक़ सम्मान, राजभाषा अवार्ड और अवध के प्रतिष्ठित तुलसी सम्मान,कविता के लिए 2017 के अंतरराष्ट्रीय वातायन पुरस्कार (लन्दन) से सम्मानित. मो-9838568852)
(फीचर्ड इमेज गूगल से साभार)