कुमार मुकुल
जब कोई प्रतिभा उद्बोधन के नये स्तरों को अपने कलात्मक संघर्ष से उद्घाटित करने की कोशिश करती है तो समय और प्रकृति अपने पारंपरिक स्वरूप में उसे भटकाना व तोड़ना चाहते हैं। ऐसे में वह संघर्ष पीढि़यों में विस्थापित होता चला जाता है। और समय की सीमाएं तोड़ता कालातीत हो जाता है।
सत्यजीत राय (2 मई 1921- 23 April 1992) को यह कलात्मक संघर्ष दादा व पिता से विरासत में मिला था जिसे उन्होंने शिखर तक पहुंचाया। राय के शब्दों में – यदि मेरी रचनाओं को कालातीत कहा जाए तो मैं संतुष्ट रहूंगा।
राय के दादा व पिता दोनों बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, पर दोनों ही औसत उम्र नहीं जी सके थे, विवेकानंद और नेहरू की तरह राय में भी एक विश्वजीननता थी। पूरब और पश्चिम को समझने की एक संतुलित दृष्टि थी।
विवेकानंद ने अगर भारतीय अध्यात्म के लिए पश्चिम में जगह बनाई, नेहरू ने अपने कवित्वपूर्ण इतिहास बोध के लिए दुनिया में आदर पाया तो राय ने भारतीय सिनेमा को एक वैश्विक उूंचाई दी। पर राय कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण इसलिए हो जाते हैं क्योंकि इस शिखर पर वे अपनी क्षेत्रीयता को बरकरार रखते हैं, या वही उनका आधार होती है। इस मामले में उनका केंद्रीकरण नेहरू व विवेकानंद से गहरा व स्पष्ट है।
राय की पूरी सिनेमाई पृष्ठभूमि बंगाली सभ्यता को अपना आधार बनाती है। अपनी जमीन की विषम परतों को उनकी चेतना की जड़ें तोड़ती हैं और उसका रस जो नयी-नयी शाखों पर प्रस्फुटित होता है और सुगंध जो फैलती है तो दुनिया भर के बादल आ-आकर उसे सींचते हैं। नेहरू की तरह वे खुद को पूरब और पश्चिम पैदाइश मानते हैं।
जीवन या कला के क्षेत्र में विकास के लिए राय आत्मबोध को जरूरी मानते हैं। पर राय का अंतरज्ञान निजता में सीमित ज्ञान नहीं था, बल्कि वह एक ग्रहणशील निजता थी, जिसमें चित्रकला, ग्राफिक्स, पूर्वी-पश्चिमी संगीत, टैगोर का कवित्व, नेहरू की जागरूकता, गांधी की मनुजता सब मिलकर एक संतुलित विश्व दृष्टि को निर्माण करते हैं। और यह सब किसी रहस्य या जादू से नहीं, काम करते-करते समय की सतत संगति से सीखते हैं राय।
राय के शब्दों में – दर्जन भर किताबों से ज्यादा मुझे कैमरे और अभिनेताओं के साथ किए दिन भर के काम ने सिखाय। मैंने मूलत: फिल्म बनाना फिल्म बनाते-बनाते ही सीख, सिनेमा की कला पर किताबें पढ़कर नहीं।
वे खुद को प्रकांड पंडित से ज्यादा कुशल कारीगर कहा जाना पसंद करते थे। इस करीगरी में भारतीय परंपरा का मुकम्मल योगदान है।
भारतीय और पश्चिमी संगीत और मूर्तिकला का राय ने गहन अध्ययन और मनन किया था। अजंत, एलोरा, कोणार्क, एलीफैंंटा की यात्राओं के बारे में वे बताते हैं कि इन्होंने मेरी परंपराओं की समझ गहरी की।
भारतीय संगीत के बारे में वे लिखते हैं कि इसमें एक उूंचाई, एक महानता है, पर नाटकीयता और द्वंद्व का यहां अभाव है, जिसे पश्चिमी संगीत पूरा करता है। वे बतलाते हैं कि तमाम अग्रणी फिल्मकारों की संगीत के प्रति गहरी रूचि थी। यूं औसत बंगालियों में भ संगीत में गहरी रूचि होती है।
स्वांत: सुखाय की अवधारणा को रे अपने ढंग से देखते हैं। विज्ञापन और व्यावसायिकता के बावजूद वे कलाकार की स्वाधीन लालसा की संतुष्टि को जरूरी मानते हैं। वे बाजार की मांग और फिल्म के जिंस होने से इंकार नहीं करते पर वे खरीरदार की मांग को तुष्ट करने की बजाय आत्म-तुष्टी पर जोर देते हैं।
वे सिनेमा को एक महान आनंदपूर्ण कलात्मक अनुभव बनाना चाहते हैं और उनके अनुसार बाजार का तुष्टीकरण इसे पूरा नहीं कर सकता। इसके लिए कलाकार को सुरक्षा के घेरे से बाहर निकलना होगा। ऐसा किये बिना ना तो नूतन कलात्मक अनुभव होगा ना विकास का मार्ग खुलेगा।
राय के अनुसार किसी भी फिल्म में बड़े सत्यों को छोटे-सरल रूपकों द्वारा उद्घाटित करने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए। इसके लिए वे टैगोर का बूंद में प्रतिबिंबित होते विश्व का रूपक पेश करते हैं। वे इसे आदर्श और भारतीय परंपरा का बीजमंत्र बताते हैं। यहां ध्यान देना होगा कि यह रूपक अज्ञेय के सागर से उछलती बूंद या मछली वाले रूपक से भिन्न है। यहां क्षण का सौंदर्य चकाचौंध करता है। पर राय की एक बूंद जो घर के आगे धान की बाली पर टिकी है एक क्षण का स्पेश है, काल है जिसमें विराट बिंबित होता है।
राय फिल्म में कथ्य से ज्यादा शिल्प पर जोर देते हैं। उनका तर्क है कि बहुत से उच्च विचारों पर घटिया फिल्में बन चुकी हैं। रूढ़ सत्य एक मृत वस्तु है। जैसे आप बच्चों को शिक्षा देते हैं कि सदा सत्य बोलो। वे परीक्षा में लिख भी देते हैं। पर जीवन में झूठ-पाखंड बढ़ता जाता है।
यह कथ्य की तोतारटंती है। अगर इसी तथ्य को एक बेहतर शिल्प में फंतासी के माध्यम से बच्चों के समाने रखा जाए तो वे सत्य को जीवित रूप में ग्रहण करेंगे। यह जीवंतता कथा की वस्तु नहीं उसके करने की शैली पर निर्भर करेगी। इसीलिए राय की फिल्में कहना है, की बजाय किस तरह कहना है, इस पर बल देते हैं।
भारतीय सिनेमा के संस्थापक दादा साहब फाल्के की तरह भारतीय सिनेमा के शिखर राय को भी अपनी पहली फिल्म पाथेर पंचाली के निर्माण के वक्त गहने गिरवी रखने पड़े थे।
कबीर के जो घर जारे आपना की तर्ज पर किया गया यह त्याग एक कलाकार के कलात्मक आनंद के लिए प्रतिबद्धता का ही नतीजा है। अपने कलात्मक आनंद को समाज में बांटने का सुख ही तो कलाकार का सच्चा सुख है।
अपनी प्रतिबद्धता की बाबत राय कहते हैं कि किसी विचार, धर्म की बजाय वे मानव मात्र की करूणा के प्रति प्रतिबद्ध हैं। मानवीय होते जाना उनका अंतिम लक्ष्य है।
भारतीय सिनेमा को उसकी हीन भावना से मुक्त करना राय का आरंभिक लक्ष्य था। वे देख रहे थे कि भारत के पास कला-संगीत-साहित्य की सर्वश्रेष्ठ परंपरा है। फिल्म टेक्नालॉजी और संसाधनों में भी यह पिछड़ा नहीं है। राय के शब्दों में – जो कुछ था उसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग करने का दिमागी कौशल हमारे पास नहीं था।
यही राय ने पश्चिम से हासिल किया। इस तरह पश्चिम को पश्चिम के मानदंड पर ही पीछे छोड़ा राय ने।