‘देश हुआ आज़ाद, आदिवासियों को मिला आजीवन कारावास’
हिंदी कथा-साहित्य में आदिवासी जीवन-प्रसंग बहुत कम हैं। रेणु एक ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘मैला आंचल’ में आदिवासियों के संघर्ष को जिस लोकतांत्रिक संवेदना से देखा है, उतना हिंदी के कम साहित्यकारों ने देखा है।
उपन्यास की कथा में यह संदर्भ आता है कि चार पीढ़ी पहले आदिवासी संथाल परगना से मेरीगंज आए थे। जब आए, तो गांव वालों ने विरोध किया कि जंगली लोग हैं, सुनते हैं तीर-धनुष से मार देने पर भी सरकार बहादुर इनको कुछ नहीं कर सकता। इस पर गांव के जमींदार ने गांववालों को समझाया कि ये बड़े मेहनती होते हैं, धरमपुर इलाके में इनकी मेहनत से राजा लछमीनाथ सिंह ने हजारों बीघा बंजर जमीन आबाद करवा लिया। जमींदार गांव वालों को विश्वास दिलाता है कि इन्हें गांव से अलग ही बसाया जाएगा।
संथाल बबूूल, झरबेर और सांहुड़ के पेड़ों से भरे हुए जंगल को आबाद करते हैं। सर्वे में जो जमीन जंगल के नाम से दर्ज है, वहां गेहूं की जबरदस्त उपज होने लगती है। रेणु यह बताना नहीं भूूलते कि नीलहे साहबों के नील के हौज ज्यादातर इन्हीं मूूक इंसानों के काले शरीरों के पसीने से भरे रहते थे और उन्हें ही नीलहे साहबों के कोड़ों की मार भी झेलनी होती थी और जमींदारों की कचहरियों में दंडित होना पड़ता था। मेरीगंज का भी हाल यह है कि जमीन मालिकों, व्यवस्थापकों और धरती के न्याय ने धरती पर उन्हें किसी किस्म का हक नहीं दिया। यहां तक कि जिस जमीन पर उनके झोपड़े हैं, वह भी उनकी नहीं है। जमींदार और गांव वाले उनकी तुलना बैल से करते हैं। आज नागरिकता कानूून के इस दौर में उनकी जिंदगी से जुड़ा यह प्रसंग करोड़ों भूमिहीन-मेहनतकश लोगों के सवालों से जु़ड़ जाता है।
एक अंग्रेज कलक्टर ने संथालों के साथ हो रहे अन्याय को खत्म करने की कोशिश की, तो जमींदारों ने उस पर इल्जाम लगाया कि वह संथालों को उभारकर, जिले में अशांति पैदा करना चाहता है। ‘कांग्रेस संदेश’ के संपादकीय में संथालों के प्रति थोड़ा संवेदित होकर लिखा गया, तो कांग्रेस के जिला मंत्री संपादक पर नाराज हो गए। फिर भाड़े के लठैतों को हुलका कर संथालों के घरों और उनकी फसलों पर धावा बोलवाया गया, जिसके कारण लठैतों को संथालों के तीर उन्हें खाने पड़े। इसे आधार बनाकर संथालों के विरुद्ध कार्रवाई की गई। अंग्रेज कलक्टर की तुरंत बदली हो गई। उसके बाद बहुत सारे संथाल सरकारी गोली से घायल हुए, सैकड़ो को पूरी उम्र जेल में मेहतर का काम करना पड़ा। रेणु यह लिखते हैं कि इसके बावजूद स़थाल जीवन का उल्लास नहीं खोते, उनके मानर, डिग्गा और बांसुरी की आवाज कभी मंद नहीं होती।
मलेरिया और कालाजार के इलाके में भी वे सबल और स्वस्थ रहते हैं। इसीलिए गांव में अस्पताल खुलने की खबर से संथालों पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं होती। सोशलिस्ट पार्टी का नारा- जमीन जोतने वालों की, उन्हें आकर्षित करता है। उपन्यास में यह दर्ज है कि जब सदस्यता अभियान चलता है तो कोई भी संथाल ग़ैर-मेंबर नहीं रहता।
रेणु आदिवासियों के प्रति कहीं से भी उद्धारक भाव से ग्रस्त नहीं हैं। वे उनको बेहद सम्मान से देखते हैं। एक प्रसंग में उनका चित्रण देखने लायक है- ‘‘चारों ओर स्वस्थ, सुडौल, स्वच्छ और सरल इंसानों की भीड़। श्याम मुखड़ों पर सफेद मुस्कुराहट, मानो काले बादलों में तीज के चांद के सैकड़ों टुकड़े।’’ आदिवासियों स्त्रियों के सौंदर्य का वे बड़े मुग्ध भाव से चित्रण करते हैं। लेकिन सिर्फ उनके सौंदर्य पर ही उनकी निगाह नहीं है, बल्कि वे उनके साहस और शौर्य को भी दिखाते हैं। उपन्यास में एक जगह संथाल औरतें लकड़ी और दाब से एक चीता को मार देती हैं।
सोशलिस्ट पार्टी के नेतृत्व में मेहनतकश किसानों के जमीन पर अधिकार का आंदोलन और कांग्रेसी सरकार द्वारा जमींदारी प्रथा के अंत की घोषणा को संथाल बड़ी उम्मीद से देखते हैं। लेकिन जो हिंदू सामंती-जातिवादी ग्रामीण व्यवस्था है उसमें संथाल बाहरी समझे जाते हैं। उनके खिलाफ सब एकजुट हो जाते हैं। जबकि उपन्यास का नायक प्रशांत उन्हें भरोसा दिलाता है कि तीन साल तक जमीन को उन्होंने जोता-बोया है, इसलिए उसके असली मालिक वही हैं। लेकिन जातियों के अंतर्विरोध ही नहीं, बहुत हद तक राजनीतिक विचारों के अंतविर्रोध भी पट जाते हैं।
काली माई, महात्मा गांधी, भारत माता, सोशलिस्ट पार्टी, हिंदू राज, आदि के नारों के साथ संथालों और संथालिनों पर हमला होता है, वे भी प्रतिरोध करते हैं। रेणु एक-एक पंक्ति में यह भी दिखाना नहीं भूलते कि गैर-आदिवासी हमलावर लोग संथाल बच्चों और बूूढ़ों को भी नहीं छोड़तें। और औरतें! उपन्यास में उस उन्मादी भीड़ के संवाद देखे जा सकते हैं- ‘‘एकदम ‘फिरी’! आजादी है, जो जी में आवे करो! बूढ़ी, जवान, बच्ची जो मिले। आजादी है। पाट का खेत है। कोई परवाह नहीं है।… फांसी हो या कालापानी, छोड़ो मत!’’….‘‘…कुहराम मचा हुआ है पाट के खेतों में, कोठी के जंगल में।… कहां दो सौ आदमी और कहां दो दर्जन संथाल, डेढ़ दर्जन संथालिनें! सब ठंडा।… सब, ठंडा?’’ प्रतिरोध में भी तहसीलदार के दस गुंडे मारे जाते हैं। संथाल टोली लूट ली जाती है।
इसके बाद रेणु कानून और न्याय-व्यवस्था के आदिवासी विरोधी चरित्र को दिखाते हैं। नौ संथालों का चालान हो जाता है। उनके अतिरिक्त जो घायल संथाल अस्पताल में हैं, वे भी गिरफ्तार हैं। लेकिन गैर-संथालों में कोई गिरफ्तार नहीं होता। और यह सब मुफ्त में नहीं होता। जमीन-मालिकों की पैरवी-पहुंच काम आती है, जाति काम आती है। इधर संथाल टोले में गवाह देने के लिए कोई नहीं बचा है, सबको आरोपी बना दिया गया है। डाॅॅॅ. प्रशांत जरूर रिपोर्ट में बताता है कि संथालों की मार से जो लोग मारे गए या जख्मी हुए, उनके घावों के मुंह को देखकर लगता है कि किसी ने अपनी जान बचाने के लिए इन पर हमला किया अर्थात संथालों की हिंसा बचाव में की गई हिंसा थी। वकीलों का खर्चा तो संथाल औरतें भी गहना बेचकर चुकाती हैं, पर फैसला उनके हक में नहीं आता।
नए भारत में आदिवासी नागरिकों की दशा क्या होने वाली है, इसके तीन संकेत एक साथ आते हैं। सुराज मिलने वाला है, इसकी सूचना आती है और साथ ही मुकदमे का फैसला भी आता है। रेणु लिखते हैं-” मुकदमा में भी सुराज आ गया। सभी संथालों को दामुल हौज (आजीवन कारावास) हो गया।” इस खूनी केस में शिवशक्कर सिंघ, रामकिरपाल सिंह और रामखेलावन सिंह छूूट गए, तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद सिंह का प्रभाव काम आया।
यह तय हुआ कि मुकदमा और सुराज- दोनों का उत्सव होगा। सुराज उत्सव दिन में और मुकदमा उत्सव रात में। मुकदमा में हार के बावजूद सुराज उत्सव में नाचने को सहज-सरल स्वभाव की संथालिनें तैयार हैं, पर गैर-आदिवासियों में डर है कि कहीं नाचने के समय तीर न चला दें, सब?’ यही यह डरा हुआ हिंदू समाज था, जो आजादी के बाद के भारत की व्यवस्था पर काबिज हुआ।
तब से लेकर आज तक ‘जल जंगल जमीन’ के लिए आदिवासियों के संघर्ष और उसके प्रति गैर-आदिवासियों में मौजूद संवेदनहीनता या उनके दमन के प्रति मौन सहमति को हम बहुत सारे यथार्थ प्रसंगों में देख सकते हैं। इस तरह देखिए भारतीय लोकतंत्र में आदिवासी प्रश्न के संदर्भ से भी रेणु की भूूमिका अत्यंत महत्वपूूूर्ण है।
हालांकि उपन्यास के अंत में तहसीलदार का हृृृदय परिवर्तन होता है, वे नीलाम की हुई और जब्त की गई जमीन तमाम किसानों के साथ संथाल किसानों को भी यह कहते हुए वापस करते हैं कि यह जमीन उन्हीं किसानों की है। काश, इस देश के शासकवर्ग और वर्चस्वशाली लोगों-समुदायों का हृदय परिवर्तन होता, तो सिर्फ आदिवासी ही नहीं, बल्कि गैर-आदिवासी भी कई त्रासदियों से बच जाते।
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