डॉ.दीना नाथ मौर्य
पिछले दिनों जब झारखंड के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मुलाकातों में दिए जाने वाले ‘बुके’ को बुक यानि पुस्तक में बदलने का आग्रह किया तो समाचार पत्रों में यह खबर खूब आयी कि मोबाइल और कंप्यूटर के युग में पुस्तक-संस्कृति को प्रसारित करने वाली यह एक सकारात्मक पहल है.
पढ़े-लिखे समाज में हेमंत सोरेन की इस पहल की सराहना के साथ इसके जरिये होने वाले बदलाव पर भी खूब चर्चा हुई. जाहिर सी बात है पढ़ने में कागज के स्पर्श/छूने का जो आंनद है वह केवल और केवल पुस्तकों से मिल सकता है. वैसे आनंद की अनुभूति वर्चुअल रीडिंग में नहीं हो सकती है .इसके ज़रिये एक खास तरह की सामाजिकता का निर्माण भी होता है जो कि दुनियावी यथार्थ से जुड़ी हुई सामाजिकता होती है. इसी क्रम में पुस्तक-संस्कृति किसी भी जीवंत समाज की सार्थक पहचान बन जाती है.
जर्मनी में जन्मे बीसवीं सदी के तीसरे दशक के दार्शनिक हैबरमास की यह बात हमारे लिए एक सकारात्मक सूत्र का कार्य कर सकती है कि आधुनिक औद्योगिक समाजों में मनुष्य की चेतना का एक बड़ी हद तक संस्थानीकरण हो चुका है और एक वर्चस्ववादी संस्कृति का शिकंजा चारों तरफ कसा हुआ है, फिर भी जनतांत्रिक असहमति, संवाद की संभवनाओं और सार्वजनिक जीवन में सक्रियता के जरिये मनुष्य अपनी चेतना के संकुचित दायरे को विस्तारित कर सकता है. जनक्षेत्र के निर्माण में वह चाहे पढ़ने का मसला हो अथवा बातचीत का यह तो तय है कि अन्य मनुष्य के साथ संवाद करते हुए हम शब्दों को सिर्फ औजार के रूप में इस्तेमाल नहीं करते,बल्कि हम शब्दों के भीतर भी कुछ भर रहे होते हैं,इस तरह का कार्य या ‘स्पीच एक्शन’ प्रत्येक उच्चारित शब्द के साथ सच्चाई,सम्यकता और ईमानदारी के दावों को जगाता है और बोलने वाले तथा सुनने वाले को एक गठबंधन में जोड़ता है. इस तरह हैबरमास ने सामाजिक लोकवृत्त को निर्मित करने में प्रिंट मीडिया को महत्त्वपूर्ण माना है.
संकेत यह है कि तमाम सीमाओं के बाद भी मनुष्य के लिए अभी भी अपने सार्वजनिक जीवन की गतिविधियों और दायरों को अर्थपूर्ण बनाये रखने की गुंजाइश यहाँ बची हुयी है. जिसकी बात हैबरमास कर रहे हैं उस पठन का संबंध अनिवार्य रूप से साक्षरता से जुड़ता है और इसलिए शुरूआती स्कूली शिक्षा से भी. जाहिर है यही वह समय होता है जहाँ से पुस्तक-संस्कृति की डगर बनना शुरू होती है.
याद आता है अपना वह स्कूली समय जब ’सर्वशिक्षा अभियान’ के तहत बच्चों के लिए आयी हुई कविता और कहानी की चित्र कथाएं केवल किसी अधिकारी के विद्यालय निरीक्षण के वक्त हमारे हाथो में इस ताकीद के साथ दी जाती थीं कि कहीं हम उन्हें फाड़ न दें. बाकी दिनों में अक्षरों और चित्रों की वह पूरी दुनिया स्कूल की अलमारियों में रखी किसी बोरी में बंद हुआ करती थी. हम बच्चे उन किताबों में लिखी गयीं इबारतों को छूने को तरस जाते थे. इक्कसवीं सदी के इस दूसरे दशक में अभी भी कमोवेश हमारी स्कूल शिक्षा के ‘प्रिंट रिच माहौल’ का यही दुखद यथार्थ है.
दक्षिण भारतीय राज्य केरल केवल बैक वाटर और मसालों के लिए ही नहीं जाना जाता; बल्कि बुनियादी पढ़ाई-लिखाई के मामले में भी अव्वल है. केरल के ग्रामीण समाज में फैले हुए ‘पुस्तक- संस्कृति’ के दर्शन हमें पहली बार तब हुए जब हम एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में वहां के स्कूलों के साथ कार्य कर रहे थे. अर्नाकुलम से एथेरापल्ली के सड़क रास्ते पर जब हम केरल के एक गाँव में कुछ समय के लिए रुके तो वहां की प्राकृतिक सुन्दरता के साथ एक जो मानव निर्मित सुन्दरता दिखी वह थी छोटे से उस गाँव में पुस्तकालय का होना. एक छोटे से कमरे में कुछ आलमारियों में पुस्तकें लगीं थी. और बरामदे में कुछ लोग पढ़ रहे थे.उस छोटी सी लाइब्रेरी में ज्यादातर मलयालम भाषा और लिपि की पुस्तकें थीं पर प्रेमचन्द और ग्रोकी के उपन्यास क्रमशः गोदान और माँ के अंग्रेजी/हिंदी संस्करण की उपस्थिति भी उस दौरान हमारे लिए आश्चर्य का विषय थी. बातचीत के क्रम में पता चला कि यह पुस्तकालय किसी सरकारी प्रयास का परिणाम नहीं बल्कि गाँव के ही कुछ पढ़े-लिखे लोगों की पहल का नतीजा है.अखबार के लिए गाँव में चंदा वसूला जाता है और देख-रेख की जिम्मेवारी के लिए नियमित रूप से कोई वेतनभोगी नहीं है. समुदाय के लोग ही बारी-बारी से पुस्तकालय के लिए अपनी तय भूमिका का निर्वहन करते हैं. देश के अन्य हिस्सों के कालेज और विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों के समूह भी इस तरह के प्रयास करते हैं बशर्ते उन्हें इसके लिए सकारात्मक प्रोत्साहन मिल सके.पर गांव में चल रहे इस प्रयास को हमने पहली बार देखा. यह पुस्तक-संस्कृति का एक उदाहरण है जिसमें पढ़ने के सुख की खोज में लोग सुबह-शाम आते थे. वाकई किताबों को पढ़ना दरअसल अपने संदर्भ को दुरुस्त करना होता है.हमारे रिफरेन्स वहीं से आते हैं जहाँ तक हम चीजों को जानते समझते हैं. पढ़ने के साथ ही हम अपने समझ की सीमा का भी विस्तार करते चलते हैं.इधर के दिनों में उत्तराखंड में कई जगहों पर होने वाली क से कविता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के यूनिवर्सिटी थियेटर की किताबनामा की बैठकों का शुरूआती प्रयास उल्लेखनीय हैं.जिसमें किसी एक दिन लोग इक्कठा होते हैं और अपने पढ़े-लिखे पर चर्चा भी करते हैं. यह तो एक सामान्य सी बात है कि पढ़ना सिर्फ डिकोडिंग भर नहीं होता वह सन्दर्भ को ग्रहण करना भी होता है.पुस्तकें विभिन्न सन्दर्भों के जरिए हमें चीजों को उनके सही नाम से पुकारना भी सिखाती हैं. पुस्तकों के जरिये भ्रम फैलाया भी जाता है और भ्रम का अनावरण भी होता है लेकिन पढ़ने से यह विवेक तो आ ही जाता है कि दरअसल क्या पढ़ना है? इसलिए जाने-अनजाने हर भ्रम फ़ैलाने वाली संस्कृति पुस्तक-संस्कृति की विरोधी हो जाती है..
पुस्तक शब्द ही अपने आप में एक सामाजिक आयाम को लिए हुए है जिसमें लिखने,छपने और पढ़ने की समूची प्रक्रिया शामिल होती है. हम जानते हैं कि सामूहिक और व्यक्तिगत चेतना को गढ़ने में किताबों की दुनिया का बहुत महत्त्व रहा है. पुस्तकों की दुनिया का विस्तार समूचे समाज पर होने के बावजूद वह सीधे तौर पर शिक्षित समाज से ही जुड़ पाती है और इस रूप में वह अनिवार्यतः साक्षरता से जुड़ जाती है.आज भी हमारे समाज का यह सच है कि स्कूलों में कई बच्चे ऐसे हैं जिनके माता-पिता साक्षर नहीं हैं.घर पर पढ़ने की कोई सामग्री नहीं है,इन बच्चों की सामजिकता का अध्ययन इस बात की गवाही देता है कि इनमें से एक बड़ा वर्ग वंचित तथा ऐतिहासिक रूप से पिछड़े समाज का है. जिनकी पहली पीढ़ी शिक्षा की दुनिया के साथ कदमताल करने को स्कूलों की ओर बढ़ रही है. जीवन चलाने के लिए आवश्यक जरूरतें पूरी करने में संघर्षरत इस हाशिये पर खड़े वर्ग में स्वाध्याय की आदत कैसे विकसित होगी यह हमारे चिंतन का विषय होना चाहिए .बुनियादी कक्षाओं में जब हम शत प्रतिशत नामांकन के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं तो यहाँ से इन बच्चों को पढ़ने के लिए सकारात्मक माहौल देकर उनके साक्षर होते मन में स्वाध्याय के भाव का बीजारोपण कर सकते हैं.स्वाध्याय पुस्तक-संस्कृति के निर्माण की एक अनिवार्य शर्त है और इसका चस्का हमें बच्चों में स्कूल की शुरूआती कक्षाओं से लगाना होगा. आज भी पढ़ने को लेकर समाज का जो नजरिया है उसमें ‘स्वाध्याय’ शामिल नहीं है. नौकरी के लिए उपयोगी पढ़ाई के साथ –साथ नजरिये के निर्माण के लिए कुछ पढ़ा जाए यह दृष्टि अभी भी व्यापक समाज में नहीं बन पा रही है. हमें यह समझना होगा कि पुस्तक-संस्कृति का संकट केवल भाषाओं का,संप्रेषण का,लेखन का ही संकट नहीं है यह एक समाजशास्त्रीय- सांस्कृतिक समस्या भी है. महत्त्वपूर्ण यह है कि इन तमाम संकटों का सामना करते हुये भी हम जैसा भविष्य का समाज बनाना चाहते हैं वर्तमान में वैसी ही स्थितियां अपने स्कूली जीवन की शुरूआती कक्षाओं में निर्मित करते हैं.
भाषा सीखने की प्रक्रिया पर हुए अनुसंधान यह बताते हैं कि पढ़ने सीखने के शुरूआती दिनों में खाने की भूख की तरह अक्षरों और चित्रों की इस दुनिया को देखने समझने की भूख भी होती है. इस दौरान बच्चों को पूरी खुराक मिल सके इसकी जिम्मेवारी घर से लेकर स्कूल और समाज सबकी होनी चाहिए. प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने की घंटी बोझिल न हो जाए इसके लिए एक नियत समय की व्यवस्था बच्चों को अपने मन पसंद की किताबों को देखने और उनके साथ समय बिताने की होनी चाहिए. स्कूली शिक्षा में किये सर्वेक्षण से यह बात पता चलती है कि भाषा को हम किसी आइसोलेसन में नहीं सीख सकते हैं उसके लिए संदर्भगत स्थितियों से परिचित होना बुनियादी शर्त है.भाषा सीखने और बरतने के व्यवहारिक सूत्र बच्चे अपने समूह इस दौरान विकसित करते हैं. स्वाध्याय की शुरूआती पाठशाला हमारे प्राथमिक विद्यालय ही होते हैं. यही से निकले बच्चे बाद के दिनों में पुस्तक-संस्कृति के विकास करने वाले भावी नागरिक होते हैं. बचपन के शुरूआती दिनों में किताबों से बनने वाला यह रिश्ता ताउम्र साथ रहता है.बच्चों को उनके स्कूली दिनों में इस रिश्ते को प्रगाढ़ बनाने की जिम्मेवारी हम सबको लेनी होगी तभी पढ़े-लिखे समाज के साथ ही साथ पढ़ते-लिखते समाज की कल्पना को यथार्थ में बदलते हुए देखा जा सकता है.
(दीनानाथ मौर्य ने इलाहाबाद और जेएनयू से अपनी पढ़ाई पूरी की है। इलाहाबाद में लाइब्रेरी आंदोलन से जुड़े हुए हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं।)
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