समकालीन जनमत
शिक्षा

सीखने की प्रक्रिया में फेल-पास के मायने

डॉ.दीना नाथ मौर्य


अमेरिकी शिक्षाविद जान हाल्ट ने अपनी पुस्तक ‘हाउ चिल्ड्रेन फेल’ में स्कूली शिक्षा के दौरान बच्चों में सीखने की स्वभाविकता के बीच परीक्षा के अपने अनुभव को दर्ज करते हुए लिखा है कि ‘चाहे हमारे परीक्षा परिणाम कुछ भी क्यों न दिखाते हों, स्कूलों में जो कुछ भी पढ़ाया जाता है उसका एक छोटा सा अंश ही सीखा या याद रखा जाता है.’ पिछले दिनों यू.पी.बोर्ड द्वारा जारी किये गये हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के परीक्षा परिणामों में जब 7.97 लाख विद्यार्थियों के असफल होने की खबर आयी तो एक बार फिर शिक्षा और परीक्षा के मुद्दे बातचीत के केंद्र में आये. मीडिया में इतनी बड़ी तादात में बच्चों के असफ़ल होने को लेकर खूब बहसें की गयीं और चिंता भी जाहिर की गयी. शिक्षा और परीक्षा के इस पूरे विमर्श के बीच सीखने की पूरी प्रक्रिया की सहजता को समझने के लिए जान हाल्ट के बेहतरीन शैक्षिक अनुभव हमारे लिए उपयोगी और सार्थक जान पड़ते हैं.

दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में भी परीक्षा एक आयोजन के रूप में ही दिखती है, जिसकी व्यवस्था बड़े और व्यस्क करते हैं और बच्चे इस आयोजन में वयस्कों की शर्तों के अनुसार शामिल होते हैं. स्कूलों में शिक्षक प्रश्नपत्र आदि की व्यवस्था करते हैं और अभिभावक घरों में बच्चों को उन अज्ञात परीक्षाओं के लिए बच्चों की तैयारी करवाते हैं. परीक्षा के दिन एक सील बंद लिफाफे में प्रश्नपत्र आता है और एक तिलस्मी अंदाज में उसे खोलकर बच्चों को बांट दिया जाता है. इस दौरान बच्चों को लगातार यह जिज्ञासा बनी रहती है कि जो तैयारी उन्होंने पिछले दिनों में की है उसमें से कुछ पूछा जाएगा या नहीं. फिर शुरू होता है आरोपों का सिलसिला-बच्चों के आरोप लगते हैं कि पेपर कठिन था, ये पढ़ाया नहीं गया, वो आउट ऑफ़ कोर्स था. शिक्षक-अभिभावक आरोप लगाते हैं कि बच्चों ने तैयारी नहीं की थी, आजकल के बच्चे पढ़ते नहीं हैं वगैरह. इस दौरान पूरे सामाजिक माहौल में साफ़ तौर पर दो समूह बनते नजर आते हैं, एक वयस्कों का दूसरा बच्चों का. दोनों एक-दूसरे से प्रतिवाद करते हुए. एक ऐसा प्रतिवाद जहाँ कोई भी एक दूसरे को सुनना नहीं चाहता. एक दिन इस आयोजन का परिणाम घोषित होता है. परिणाम के सार्वजनिक होते ही यह सारा आयोजन हर्ष और शोक में तब्दील हो जाता है. जिनके लिए ये हर्ष का विषय बनता है उन्हें तो ज्यादा दिक्कत नहीं होती लेकिन जिनके लिए इस आयोजन के परिणाम शोक लेकर आते हैं उनके लिए ये क्षण बेहद दुविधा के होते हैं और कई बार आत्महानि के भी. इस पूरे आयोजन में यह बात भुला दी जाती है कि ‘गलतियाँ सीखने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग हुआ करती हैं.’
‘असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गयी देखो और सुधार करो’ हिंदी कविता की ये पंक्तियाँ परीक्षा के परिणाम के बाद असफल विद्यार्थियों को उत्साहित करने के लिए इस कदर कही जाती हैं कि मानो इस असफलता के जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ विद्यार्थी ही होते हैं .असफलता को केवल विद्यार्थी तक सीमित करना दरअसल सामूहिक और व्यवस्थागत सुधार के दायरे को सीमित करना होता है जबकि हम सब जानते हैं कि शिक्षा और सीखना सामूहिक सामाजिक कर्म है. इसलिए असफलता की जिम्मेदारी भी सामूहिक होनी चाहिए. परीक्षा और मूल्यांकन स्कूली शिक्षा के अनिवार्य हिस्से हैं. लेकिन उनका संबंध केवल विद्यार्थियों से ही नहीं होता. बल्कि उसके दायरे में शिक्षक, संस्थान और समूची व्यवस्था भी होती है. मूल्यांकन के बारे में हमारी कोई भी समझ दरअसल शिक्षा के उद्देश्यों से सीधे जुड़ती है. शिक्षा का उद्देश्य समाज के लिए उपयुक्त नागरिक तैयार करना है जो समाज में निहित मूल्यों को समझें और उनके अनुसार स्वयं अपने जीवन व समाज को बेहतर बनाने में योगदान दे सके. परंपरागत मूल्यांकन एक समय विशेष पर किये गये आकलन को ही अंतिम मानकर चलता है. हमें इस बात को समझना होगा कि किसी एक परीक्षा में पास होना न तो इस बात की गारंटी है कि बच्चा सबकुछ जानता है. और न ही फेल होने के मायने यह हैं कि वह अपने जीवन में फेल हो गया. उस पद्धति में तो और भी इस विचार को महत्त्व नहीं मिलना चाहिए जब सारे ज्ञान की परख पूछे गये पांच प्रश्नों से तय करने की मानसिकता हर जगह कायम हो. लोक में अभी भी वे दो चार सवाल जिन्दा हैं जो इस पूरी प्रणाली पर अपने ही अंदाज में सही पर सवाल जरूर खड़ा करते हैं. आज भी गाँवों, कस्बों या बस्तियों में दो- चार बड़े बुजुर्ग अपने व्यावहारिक सवालों के साथ मिल जायेंगे जिनके सामने तथाकथित ‘पढ़े-लिखों’ के पसीने छूटते हैं. पांच प्रश्नों की परीक्षा प्रणाली वहां दमतोड़ नजर आती है.

समाज में इस पांच प्रश्नों की परीक्षा में सफल न होने पाने बच्चों को जीवन में फेल जाने वाली निगाह से देखा जाने लगता है. फिर हमारे शैक्षिक दस्तावेजों में निहित वह पूरा सिद्धांत ही सिर के बल खड़ा नजर आता है जिनकी संकल्पना है कि ‘मूल्यांकन का उद्देश्य सीखी गयी विषयवस्तु या अवधारणा में रह गयी कमी को समझना और उसे दूर करना होता है’. फेल पास को लेकर तथाकथित रूप में निर्मित सामाजिक श्रेष्ठता और निम्नता की कोटियाँ केवल बच्चों को ही नहीं, अभिभावकों को भी हतोत्साहित करती हैं. सामान्य तौर पर हर वंचित समुदाय और विशेष तौर पर उसे जिसकी पहली पीढ़ी अभी स्कूल की दहलीज पर कदम रख रही होती है. उनके लिए इस परीक्षा के सामाजिक ट्रायल से निकल पाना मुश्किल होता है. फेल पास के प्रति निर्मित होने वाला यह नजरिया शिक्षा में जेंडर के आधार पर होने वाले भेदभाव को भी बढ़ावा देता है. उदाहरण के लिए जिस समाज में अभी भी लकड़ियों के बारे में आम धारणा यह हो कि वे गणित में अपेक्षाकृत कमजोर होती हैं. गणित में एकदफा फेल हो जाने वाली लड़कियों को शिक्षा के दायरे से ही बाहर करने के लिए काफी होता है. अनुमान और संभावना की बात नहीं है बल्कि शैक्षिक शोध के आंकड़े इस बात को पुष्ट करते हैं कि फेल होने से कई बच्चों विशेषकर वंचित समुदाय और लड़कियों के ड्राप आउट रेट में बढ़ोत्तरी होती है.

नक़ल रोकने को लेकर विद्यार्थियों और शिक्षकों तक के लिए जेल के दरवाजे खोल देने का विचार दरअसल व्यवस्थागत चीजों को दुरुस्त करने के बजाय दोषारोपण की उलटबांसी ही है. जिसके गंभीर नकारात्मक परिणाम हमें अपने सामाजिक जीवन में देखने को मिलते हैं. आप कैमरे की नजर में हैं’. परीक्षा भवन में यह सब बातें इस बात की ओर भी इशारा करती हैं कि अभी विद्यार्थी और शिक्षा की व्यवस्था के बीच विश्वास की कहीं कुछ कमी रह गयी है. शिक्षा को जितना आइसोलेसन में हम ले जायेंगे उतनी ही दिक्कते हमारे साथ आयेंगी. ज्ञान के निर्मित होते स्वरुप में खुद की भूमिका को तय करना एक बात है और सीखने की प्रक्रिया के पिरामिड के शीर्ष पर खुद को बैठा लेना दूसरी बात. याद रखना होगा कि फेल और पास होने का संकट व्यक्तिगत मामला नहीं है. दरअसल यह एक व्यवस्थाजन्य संकट है जो अपने साथ तमाम और तरह के संकटों को साथ लेकर आता है. हमें अपने बच्चों के सीखने पर विश्वास करना होगा साथ ही उनके मन में यह आत्मविश्वास भी पैदा करना होगा कि सारी शिक्षण की सारी व्यवस्था कि धुरी वे ही हैं और उनके विश्वास के साथ ही सीखने-सिखाने की प्रविधियों, जिसमें मूल्यांकन भी शामिल है को तय किया जायेगा. यह बार-बार कहने सुनने की बात ही नहीं बल्कि इसे व्यवहार में लाने की जरूरत है कि हर बच्चा उसी तरह विशिष्ट होता है जैसी कि हर परिस्थिति. शिक्षा और परीक्षा की प्रक्रिया को समावेशी और आनंददायी बनाने के लिए हमें ऐसी कल्पना को साकार करने की दिशा में काम करना होगा जिसमें सीखने की प्रक्रिया न सिर्फ सहज हो बल्कि मूल्यांकन के तरीके भी शिक्षा के व्यापक उद्देश्यों के साथ जुड़े रहें. जिसके तहत विद्यार्थी वर्ग ही नहीं बल्कि संपूर्ण समाज भी परीक्षा में तनाव जैसी दुश्चिंता से मुक्त हो.
(लेखक एन.सी.ई. आर. टी. नई दिल्ली में प्रोजेक्ट फेलो रहे हैं और वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं)

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