समकालीन जनमत
स्मृति

रामनिहाल गुंजन : मेरा जीवन और मेरा परिवेश

( रामनिहाल गुंजन जी ने अपने जीवन की यह दास्तान समकालीन जनमत के संपादक मंडल के सदस्य सुधीर सुमन के बहुत अनुरोध पर लिखी थी। सुधीर सुमन ने 2015 में उनसे अपने बारे में लिखने को कहा था, तो वे टाल गए थे। कहने लगे कि अपने बारे में क्या बताना है, कुछ खास नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि वे कहानीकार नहीं हैं, कहानीकार में यह क्षमता होती है कि वह अपने जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों को महत्वपूर्ण और रोचक ढंग से पेश कर सकता है, जो पाठकों को भी दिलचस्प लगता है। बहुत जोर देने पर उन्होंने अपने जीवन और परिवेश के बारे में लिखा। पेश है गुंजन जी की दास्तान उन्हीं की कलम से। प्रस्तुति-सुधीर सुमन )

मेरे जन्म से पहले मेरे पूर्वज यानि मेरे पितामह पटना जिले के बिहटा थाने के भरतपुरा गाँव से आकर आरा में बस गए थे। वे गाँव में कृषि कार्य से जुड़े हुए थे। वहाँ उनका अपना मकान और खेती बारी के लिए थोड़ी जमीन भी थी, लेकिन पैदावार पर्याप्त नहीं होने और आर्थिक कारणों से उनका गाँव में रहना संभव नहीं हो रहा था। इसलिए उन्होंने अन्यत्र जाने का निश्चय किया। चूंकि मेरे पितामह की शादी आरा के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुई थी, इसलिए आरा में आकर  बस जाना उनके लिए स्वाभाविक था।

मेरे पिता और उनके छोटे भाई का जन्म भरतपुरा में ही हुआ था और उनकी शादी भी मगह यानि मगध के ही किसी गाँव में होना एक प्रकार से तय था। तद्नुसार मेरे पिता की शादी गया जिले के मखदुमपुर स्टेशन के पास स्थित एक गाँव इनकीन के एक प्रतिष्ठित, किंतु एक छोटे मध्यमवर्गीय किसान परिवार में हुई। गाँव में मेरे नाना रामकिसुन महतो का परिवार उस समय के शिक्षित परिवारों में गिना जाता था जबकि गाँव में शिक्षित लोगों की संख्या उन दिनों कम ही हुआ करती थी। नाना के लड़के यानि मेरे मामा राम बालक महतो और उनके लड़के श्रीराम महतो भी मैट्रिकुलेशन तक शिक्षित थे। उन्हें भी शिक्षित परिवार का संस्कार इस रूप में बखूबी प्राप्त था।

मेरे पिता की शिक्षा मिडिल तक हुई थी। वे हिन्दी अच्छी तरह लिख-पढ़ लेते थे। उनकी हिन्दी की लिखावट भी अच्छी थी। वे थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी जानते थे, क्योंकि जब मैं अंग्रेजी की पहली किताब यानी प्यारे चरण सरकार की ‘द फर्स्ट इंग्लिश बुक ऑफ रीडिंग’ पढ़ रहा था तब जहाँ-तहाँ उनसे अंग्रेजी शब्दों के अर्थ जानने में मुझे मदद मिलती थी। उन्होंने एक बार बतलाया था कि ट्रेन में एक अंग्रेज से उनकी भेंट हुई थी, जो बैठने के लिए जगह तलाश कर रहा था, तो उन्होंने उसे ‘सीट बाई मी’ कहकर अपने पास बैठने का संकेत किया था। मेरे पिता कम पढ़े-लिखे होने के बावजूद एक सामाजिक और व्यावहारिक व्यक्ति थे।

उल्लेखनीय है कि मेरे पितामह रामकृष्ण चौधरी अपने परिवार के साथ, जिसमें उनकी पत्नी, दो लड़के तथा उनकी पत्नियाँ शामिल थीं, आरा मे आकर रहने लगे थे। उनके दोनों लड़के यानि वसंत प्रसाद और नन्हक प्रसाद पढ़े-लिखे होने पर भी कृषि कार्यों में अपने पिता की मदद किया करते थे। दस-पंदह कट्ठे की जमीन मालगुजारी पर लेकर वे खेतीबारी करने लगे थे और उसी से परिवार का भरण-पोषण होने लगा था। पितामह आरा आने के कुछ दिनों यानि दो चार साल तक अपनी ससुराल के मकान में ही सपरिवार रहा करते थे और वहीं रहकर खेतीबारी का काम किया करते थे। इसी सिलसिले में उन्होंने अपना एक छोटा सा मकान शिवगंज मुहल्ले में बनवा लिया था जहाँ वे खुद सपत्नीक रहने लगे थे और उनके लड़के अपने परिवार के साथ उनकी ससुराल वाले मकान में ही रहते रहे, जो तब साधुशरण जी के मकान के नाम से जाना जाता था।

साधुशरण जी पिता जी के मामा लगते थे। मैं उन्हें बाबा कहता था। उनका मकान इतना बड़ा था कि उसमें कई परिवार किराये पर रहते थे। वे सब किरायेदार के रूप में जरूर थे, लेकिन उनके साथ साधुशरण जी बिरादराना संबंध रखते थे। किरायेदार भी कई जातियों के थे, लेकिन सब में इस कदर का भाईचारा था कि वे एक दूसरे का सुख-दुख में साथ देते थे। साधुशरण जी खुद शिक्षक की नौकरी करते थे। नगरपालिका के एक प्राथमिक विद्यालय में वे पढ़ाते थे। उनके विद्यालय में पढ़ने वाले मुसलमान और हरिजन परिवार के लड़के भी थे। उनका विद्यालय शिवगंज मुहल्ले में एक ऊँचे स्थान पर चलता था। उस स्थान पर बैठकर पढ़ाते हुए वे निराला के ‘कुल्लीभाट’ के चरित नायक की तरह लगते थे, जिसे मैंने बचपन में अपनी आँखों से देखा था और बाद में जब मैं उस उपन्यास से गुजर रहा था तब मेरी आँखों के सामने वह दृश्य प्रत्यक्ष हो गया था और मेरे जेहन में निराला की ‘जल्द जल्द पैर बढ़ाओ’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ कौंध रही थीं-

आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार-तेली
खोलेंगे अंधेरे का ताला।

यों बाबा साधुशरण जी संगीत में भी गहरी रुचि रखते थे। मैंने देखा था, किसी सधे हुए संगीतज्ञ की तरह उनकी उंगलियाँ सितार और वीणा पर थिरका करती थीं। मैंने उनको किसी मंच पर सितार या वीणा बजाते हुए नहीं देखा था, लेकिन वे जो संगीत की साधना किया करते थे वह स्वतः प्रेरित ही थी। मैंने महसूस किया था कि जब वे अभ्यास करते होते थे तो अपना सुध-बुध खोकर संगीत की दुनिया में रम जाया करते थे। वे डील-डौल में निराला की तरह लंबे-चौड़े थे। बंगला कुरता और धोती में सजे-संवरे वे बड़े भव्य लगते थे। अपने छोटे बालों और ऊँचे ललाट के कारण मुझे तो वे किसी महापुरुष से कम नहीं लगते थे। संगीत और शिक्षा से जुड़े होने के अलावा वे एक अच्छे वैद्य भी थे और अपने व्यवहार में इतने उदार थे कि दूसरों की निःशुल्क चिकित्सा करने में उनको ज्यादा आनंद आता था। वे एक अर्थ में समाज कल्याण की चिंता से प्रेरित व्यक्ति थे। वे सामाजिक कार्यों में ज्यादा रुचि लेते थे।

1923 में आरा में जब भीषण बाढ़ आई थी तब उन्होंने कुछ लोगों की मदद से नीम के एक विशाल पेड़ पर चौकी बांध कर उस पर पचासों लोगों को शरण दिलाने और बाढ़ में फँसे उन सभी लोगों के लिए भोजन और राहत पहुँचाने का काम किया था। वही बाबा जब अपनी एकमात्र बेटी जगदीपा की शादी को लेकर चिंतित थे, तब उस पुश्तैनी मकान को बेचने के अलावा उन्हें कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखलाई पड़ा और वह मकान लागत मूल्य से कम में ही बिक गया। उस मकान के बिकते ही उसमें रहनेवाले मकान मालिक और उनके परिवार के लोगों के साथ-साथ किरायेदारों को भी अपने लिए दूसरे मकान खोजने पड़े। मेरी दो बड़ी बहनों, मेरे बड़े भाई और मेरा जन्म उसी मकान में हुआ था। इसके बाद ही हमलोग अनिकेत हो गए। मेरा परिवार किराए के मकान में रहने लगा। मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति तब और खराब हो गई। किसी तरह अभाव की स्थिति में बाबा साधुशरण जी ने ही मेरी दोनों बड़ी बहनों की शादी क्रमशः छपरा और बलुआ के नरगदा गाँव के खाते-पीते परिवारों में करवाई।

उस समय तक मेरे पितामह और पितामही का भी निधन हो गया था और उनका मकान भी बिक चुका था। बाबा साधुशरण जी अपने आखिरी दिनों में विद्यालय के साथ-साथ आरा गोरक्षिणी सभा की देखरेख का भी काम करने लगे थे। उन्हीं दिनों वे अपनी बेटी से मिलने पिरौंटा गांव गए थे, लेकिन वहाँ से लौटने के बाद ही डायरिया का शिकार हो गए और असमय उनका निधन हो गया। अपनी पुस्तक ‘ राहुल सांकृत्यायन: व्यक्ति और विचार’ को मैंने उन्हीं को समर्पित किया है।

जैसा मैंने बताया कि मेरी दोनों बड़ी बहनों की शादी बाबा के समय में ही हो चुकी थी, इसलिए मेरे पिता जी को अब हमलोगों, यानि माँ और हम दो भाइयों की चिंता थी। पिताजी के छोटे भाई भी अपने पैर पर खड़े होकर अलग रहने लगे थे और अपना मकान बनाकर शिवगंज मुहल्ले में स्थायी रूप से बस चुके थे। उनके बड़े लड़के रामदयाल मुझसे दो वर्ष बड़े थे और स्कूल में साथ-साथ पढ़ते थे। पहले तो मैं पढ़ने से भागता था और अपने बचपन के दोस्त सादिक के साथ घूमा फिरा करता था, लेकिन जब उसका भी स्कूल में नाम लिखवा दिया गया तब मुझे भी मजबूरन पढ़ने जाना पड़ा। उस समय शिवगंज मुहल्ले में ‘दुखित गुरु की पाठशाला’ नाम से एक स्कूल चलता था, जिममें मैं और सादिक साथ-साथ पढ़ने लगे। चूँकि मैं सात-आठ साल का होने पर स्कूल में पढ़ने गया था, इसलिए मुझे पाठ को याद करने में आसानी हुई और उसी के चलते मुझे आरंभ में ही तीसरे क्लास के लड़कों के साथ पढ़ने के लिए बैठाया गया। फलतः मैं दो-तीन साल के बाद ही छठे क्लास में पढ़ने के काबिल हो गया।

1950 में मेरा नामांकन टाऊन स्कूल में कराया गया, जो जिले का पहला स्कूल भी था। इसी स्कूल में कभी आचार्य शिवपूजन सहाय पढ़ाया करते थे और जगजीवन राम भी कभी इस स्कूल के छात्र रह चुके थे। इसी स्कूल में मुझे हिंदी पढ़ाने वाले वृंदावन बिहारी जैसे योग्य शिक्षक के सान्निध्य में आने का अवसर मिला जो एक अच्छे लेखक भी थे। उनके द्वारा लिखे दो उपन्यासों- ‘आकांक्षा’ और ‘लालचंद’ तथा कहानी संग्रह ‘मधुवन’ से गुजरने का मुझे बाद में अवसर भी मिला।

जिस साल देश भारतीय स्वाधीनता की पहली लड़ाई यानि 1857 का शताब्दी वर्ष मना रहा था, उसी साल मैंने प्रवेशिका परीक्षा में उतीर्ण होकर जैन कॉलेज में आई.ए. के प्रथम वर्ष में प्रवेश पाया था। उसी वर्ष कॉलेज की पत्रिका का नया नामकरण ‘अभियान’ हुआ था, जिसमें रामधारी सिंह दिनकर, रामदयाल पांडेय आदि कवियों की कविताओं के साथ मेरी भी कविता ‘वेदना’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। यह मेरी दूसरी कविता थी। पहली कविता ‘कवि’ शीर्षक से लिखी गई थी, जिसका प्रकाशन 1955 में आरा के पुकार प्रेस से निकलने वाली मासिक पत्रिका ‘नागरिक’ के एक अंक में हुआ था। तब मैं नौवें वर्ग का विद्यार्थी था और उन दिनों मैं बाल हिंदी पुस्तकालय में नियमित पढ़ने जाया करता था। वहीं मुझे ‘आजकल’ जैसी पत्रिका में छपी निराला, पंत, महादेवी वर्मा या अन्य लेखकों की रचनाएँ पढ़ने का सुयोग प्राप्त हुआ।

जिन कवियों ने मुझे ज्यादा प्रभावित किया, उनमें निराला, प्रसाद और महादेवी मुख्य थे। मेरी प्रारंभिक कविताओं पर इनका प्रभाव पड़ा। मैं जब स्कूल में था तभी स्कूल लाइब्रेरी की पुस्तकों का अध्ययन मेरी प्रवृत्ति हो गई थी। उन दिनों मैं नेहरू की पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ और हिंदी की एक पुस्तक ‘युगारंभ’ से रू-ब-रू हुआ था। नेहरू की पुस्तक पढ़ने के दौरान मुझे अपने अंग्रेजी के शिक्षक श्री बद्री प्रसाद श्रीवास्तव से कभी-कभी कुछ पूछना पड़ता था और वे मुझे विस्तार से उसके बारे में बतलाते थे। ‘युगारंभ’ में निराला, पंत, महादेवी, प्रसाद, अंचल, दिनकर, बच्चन आदि की कविताएँ संकलित थीं, जिन्हें पढ़ना मेरे लिए सुखद अनुभव से गुजरने जैसा था।

उसी क्रम में दिनकर जी की एक पुस्तक ‘इतिहास के आँसू’ से भी गुजरने का मौका मिला था, जिसमें संग्रहित कविताएँ मुझे प्रेरक लगी थीं। कहने का मतलब यह कि आरंभ में मुझे लिखने की प्रेरणा इन्हीं पुस्तकों से मिली। बाद में मैं लगातार कविताएँ लिखता रहा, जो ‘अभियान’ के कई अंकों में प्रकाशित हुईं। उन्हीं में एक कविता ‘अस्तु वह सार’ भी थी, जो छंदहीन, किंतु लयात्मक थी। मुझे जैन कॉलेज में एक काव्य-प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार भी मिला था, जिसमें पुरस्कार स्वरूप अंचल जी का एक काव्य-संग्रह और चतुरसेन शास्त्री का ‘सहयाद्रि की चट्टानें’ नामक उपन्यास प्राप्त हुए थे। तब मैं हिंदी ऑनर्स का विद्यार्थी था। उस समय हिंदी के प्राध्यापकों में मुख्य थे- प्रो. रामेश्वरनाथ तिवारी, डॉ. कुमार विमल, डॉ. पूर्णमासी राय, डॉ. मुरली मनोहर प्रसाद, डॉ. कपिलदेव पांडेय और डॉ. लक्ष्मीकांत सिनहा।

उन्हीं दिनों दिनकर जी का आगमन महाराजा कॉलेज के एक कार्यक्रम में हुआ था, जिसमें उन्होंने अपनी कविता पुस्तक ‘नील कुसुम’ से कई कविताओं का पाठ कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। उस गोष्ठी की अध्यक्षता रामदयाल पांडेय कर रहे थे। इसी प्रकार जैन कॉलेज में भी समय-समय पर कई नामचीन साहित्यकार पधारे थे जिनमें मुख्य थे- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनेंद्र कुमार, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’ और नागार्जुन। इन लेखकों को सुनकर और पढ़कर हिंदी में लिखने और पढ़ने की रुचि का बढ़ना स्वाभाविक था। इस बीच मैं आरा के प्रमुख लेखकों- भगवती राकेश, वेदनंदन जी, विजयमोहन सिंह, चंद्रभूषण तिवारी, मधुकर सिंह, श्रीराम तिवारी, मनमोहिनीकांत आदि के संपर्क में आ चुका था।

वर्ष 1961 में मैं कॉलेज से निकल चुका था। उन्हीं दिनों मैंने वैदिक कविताओं पर एक लेख लिखा था जिसकी प्रेरणा मुझे प्रो. हरिमोहन झा द्वारा अनूदित कविताओं को पढ़कर मिली थी। वैदिक ऋचाओं में उषा, पर्जन्य आदि सूक्तों से पता चलता है कि प्रकृति के सान्निध्य में रहने के कारण हमारे ऋषि उस पर विविध भावों और विचारों की कविताएँ भी लिखते थे। वैदिक कविताओं पर लिखे अपने लेख का पाठ मैंने एक गोष्ठी में किया था, जिसकी अध्यक्षता डॉ. कपिलदेव पांडेय कर रहे थे, जिसमें कई लेखक मौजूद थे। मेरे लिए  इस तरह का यह पहला अवसर था। मैंने अपना गद्य-लेखन इसी निबंध से शुरू किया था। उसके कुछ ही दिनों के बाद शाहाबाद हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से अखबार में ‘जैनेंद्र किशोर जैन: व्यक्तित्व और कृतित्व’ पर लेख लिखने के लिए आमंत्रित किया गया था, जिस पर पुरस्कार घोषित था।

मेरी रुचि इस विषय में यानि पुराने लेखकों पर शोध-कार्य में थी, अंतः इस संबंध में पुस्तकों की खोज मैंने शुरू कर दी। मुझे सकल नारायण शर्मा की जैनेंद्र किशोर पर लिखी पुस्तक के अलावा उनकी कई पुस्तकें ‘सोनासती’ और ‘गुलेनार’ जैसे उपन्यास, ‘दीवाने-जौहर’ नामक गजलों का संग्रह भी प्राप्त हो गए। बाल हिंदी पुस्तकालय और नागरी प्रचारिणी सभा में नागरी हितैषिणी पत्रिका के कई अंक देखने को मिले। उसी के एक अंक मेें जैनेंद्र किशोर द्वारा किया गया शेली की ‘दि क्लाउड’ कविता का हिंदी अनुवाद प्रकाशित था। इस प्रकार मैंने जैनेंद्र किशोर पर लंबा प्रबंध लिखा, जो बाद में आरा नागरी प्रचारिणी की पत्रिका ‘शोघ’ के एक अंक में प्रकाशित हुआ, जिसके संपादक बनारसी प्रसाद भोजपुरी थे। इसी निबंध पर शाहाबाद हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से मुझे 1961 में इक्यावन रु. का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था। पुरस्कार देने के लिए पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष आचार्य भुवनेश्वरनाथ मिश्र ‘माधव’ आए थे। उक्त सभा में आरा के सभी साहित्यकार और हिंदी के प्राध्यापक उपस्थित थे। दरअसल यह एक घटना थी, जिसने मुझे सतत लेखन की ओर प्रवृत्त किया। इस बीच 1961 में ही मेरी शादी भी हो चुकी थी।

बहरहाल वर्ष 1961 से मैंने आरा के दो स्कूलों में शिक्षण कार्य करना आरंभ किया, लेकिन दो वर्षों के बाद ही मैं रेलवे की नौकरी में धनबाद आ गया। रेलवे की नौकरी मुझे रास नहीं आई। इसलिए कुछ ही महीनों के बाद वहाँ से इस्तीफा देकर मैं आरा समाहरणालय में क्लर्क की नौकरी करने आ गया। हालाँकि मेरी नियुक्ति महालेखाकार रांची के कार्यालय में भी होने वाली थी, लेकिन उसमें मेरी रुचि नहीं थी। आरा समाहरणालय की नौकरी ही मुझे पसंद आई और 1964 से 1976 तक इस सेवा में रहा। 1976 से सचिवालय की नौकरी में आ गया, जहाँ कई कवि, गीतकार, कथाकार पहले से मौजूद थे, उनमें वेदनंदन सहाय, सत्यनारायण, रामनरेश पाठक, गोपीवल्लभ, राजमोहन झा, कुलानंद मिश्र, हरिहर प्रसाद आदि प्रमुख थे। ऐसे ही माहौल में पटना के कई लेखक संपर्क में आए। वहीं रेणु जी से पहली बार भेंट हुई कॉफी हाउस में। मैं पटना कॉफी हाउस अक्सर जाता था, जहाँ बाबा नागार्जुन, कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, जितेंद्र राठौर, हरिहर प्रसाद, महेश्वर, सत्यनारायण आदि से भेंट हो जाया करती थी। कभी आरसी प्रसाद सिंह, डॉ. खगेंद्र ठाकुर, हरिनारायण मिश्र, सतीश आनंद, परवेज अख्तर आदि आ जाते तो उनसे भी साहित्य चर्चा और जरूरी बातें होतीं।

मैं 1976-1998 तक सचिवालय में सेवारत रहा और उस दौरान मुझे कलकत्ता, बेगूसराय, दिल्ली, रतलाम, बंबई, इलाहाबाद और भोपाल की गोष्ठियों में सम्मिलित होने का संयोग प्राप्त होता रहा। इस बीच पत्र-पत्रिकाओं के लिए लेख और कविताएं लिखता रहा। कार्य-व्यस्तता के साथ-साथ लिखना भी मुझे जरूरी लगता था, इसलिए मैं योजनाबद्ध ढंग से लेखन-कार्य करता रहा। मेरी जो किताबें प्रकाशित हुईं ज्यादातर इलाहाबाद के प्रकाशनों से प्रकाशित हुईं, लेकिन मुझे अपने प्रकाशन यानि विचार प्रकाशन की ओर से भी किताबें प्रकाशित करनी पड़ीं। अभी भी विचार प्रकाशन से पुस्तकें समय-समय पर प्रकाशित होती रहती हैं। मेरी पत्रिका विचार 1970 में छपी थी और चंद्रभूषण तिवारी की ‘वाम’ 1971 में निकली थी। 1964 में भी मैंने एक पत्रिका ‘साहित्य संसद’ का संपादन-प्रकाशन किया था।

मेरा सरोकार पहले नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा से था, लेकिन कुछ समय बाद कुछ कारणों से उससे अलग हो गया। उन दिनों मेरे पास कई पत्र-पत्रिकाएं ‘लोकदस्ता’, ‘आमुख’ आदि आती रहती थीं, जो नवजनवादी लेखकों की ओर से निकाली जाती थीं और जो एक प्रकार से भूमिगत थीं। उनमें जरूरी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती थीं, जो हमारे बीच होने वाली वैचारिक बहसों के लिए आधार देती थीं तथा वैचारिक समृद्धि में भी सहायक थीं। मेरी जो आलोचना पुस्तक ‘विश्व कविता की क्रांतिकारी विरासत’ है, उन्हीं विचार-विंदुओं को सामने रखकर लिखी गई थी। उसके अलावा जो मेरे द्वारा अनूदित पुस्तकें- ‘मार्क्सवाद और कविता’ तथा ‘साहित्य, संस्कृति और विचारधारा’ है, उनके पीछे भी वही वैचारिक कारण रहा है। मेरी अन्य पुस्तकें- ‘रचना और परंपरा’, ‘हिंदी आलोचना और इतिहास दृष्टि’, ‘राहुल सांकृत्यायन: व्यक्ति और विचार, शमशेर नागार्जुन मुक्तिबोध, निरालारू आत्मसंघर्ष और दृष्टि’, प्रखर आलोचक रामविलास शर्मा, हिंदी कविता का जनतंत्र, कविता और संस्कृति- भी उसी दृष्टि से लिखी गई है।

दरअसल यह प्रसंग जन संस्कृति मच से जुड़ने के पहले का है। हालाँकि इससे जुड़ने के बाद अंतिम दो पुस्तकें और अनेक लेख समकालीन चुनौती, समकालीन जनमत, अभिधा, अभिनव कदम, कथांतर, अक्सर, कथन और संबोधन अदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इस जुड़ाव के बाद मेरी सक्रियता भी बढ़ी है। इस बीच साहित्यिक-सांस्कृतिक संगोष्ठियों और सम्मेलनों में शामिल होने के लिए वाराणसी, इलाहाबाद, दुर्ग और गोरखपुर आदि जगहों की यात्राएं भी मैंने की है। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा, ऐसा यकीन है। अभी भी मैं लगातार लिख रहा हूं। पत्रिकाएं मेरे लेख प्रकाशित करती हैं, मुझे अच्छा लगता है। ‘समकालीन कविता का सौंदर्यशास्त्र’ नाम की एक पुस्तक प्रकाशित होने वाली है। (यह पुस्तक नहीं आ पायी। ज्यादा संभावना है कि इसकी पांडुलिपि उन्होंने तैयार कर रखी होगी।- सु. सुमन) कहानियों और उपन्यासों से संबंधित लेखों के दो संकलनों के अतिरिक्त प्रेमचंद साहित्य और हिंदी की कथालोचना पर दो पुस्तकों के प्रकाशन की योजना है।

नोट :  अपनी पत्नी और बाल-बच्चों के बारे में गुंजन जी ने इस आलेख में कुछ नहीं लिखा था। आलेख के अंत में उन्होंने सिर्फ यह सूचना दी थी-मेरे पिता जी का देहांत 1976 में और माँ का 1977 में हो गया था। मेरे तीसरे पुत्र विनय कुमार का आकस्मिक निधन 9 सितंबर 1999 को हो गया था। मेरी पत्नी शकुंतला वर्मा का निधन 30 जुलाई 2014 को हो गया।
जाहिर है मां, बाप, बेटा, पत्नी- ये सर्वाधिक करीबी रिश्ते हैं। इनमें से किसी का भी निधन व्यक्ति को बहुत आहत करता है। लेकिन रामनिहाल गुंजन अपने इन व्यथाओं को कभी भी सार्वजनिक नहीं करते थे। हाँ, उनकी कविताओं में जरूर यह वेदना आकार पाती रही। अपने पच्चीस वर्षीय पुत्र विनय कुमार की असामयिक मृत्यु और अपने पिता की स्मृति में उन्होंने कविताएँ लिखी हैं। अपने तीसरे कविता संग्रह ‘समयांतर तथा अन्य कविताएं’ को उन्होंने अपनी पत्नी शकुंतला जी को समर्पित किया था। (इस लेख के लिखने के बाद के सात वर्षों में उनके दो और पुत्र किडनी की बीमारी से असमय काल कवलित हो गये। उनकी पत्नियों और बच्चों के भरे-पूरे परिवार के अभिभावक गुंजन जी ही थे।)

विस्मृति गुंजन जी के स्वभाव में शामिल नहीं थी। सब उनकी स्मृतियों के हिस्से थे, सबके प्रति एक कृतज्ञता का भाव उनके लेखन और व्यवहार में दिखता है, जो जीवन में संग साथ रहे उनके भी और जिनकी वैचारिक विरासत से वे प्रेरित रहे और जो उनके वैचारिक हमसफर रहे उन सबके भी। गुंजन जी आरा और बिहार के उन गिने-चुने साहित्यकारों में थे, जिनके पास पिछले पचास-साठ साल की साहित्यिक पत्रकारिता, आन्दोलन और आयोजनों से जुडी अनगिनत यादें थीं। खासकर शाहाबाद का साहित्यिक इतिहास लिखने की उनकी पुरानी तमन्ना थी। काश! वे अपने संस्मरणों को सिलसिलेवार लिख पाते तो हम अपने साहित्य-इतिहास के कई अनजाने पहलुओं से रूबरू हो सकते थे।

 एक छोटी सी कहानी उन्होंने मुझे एक बार सुनाई थी, जिसमें एक राजा इतिहासकारों को कहता है कि सारे पुराने इतिहास जला दो और लिखो कि इतिहास आज से यानी मेरे शासनकाल से शुरू होता है। एक बूढ़े इतिहासकार को छोड़कर सारे बड़े-नामी इतिहासकारों ने उस राजा का कहा माना। लेकिन सत्ता की चकाचौंध से दूर अपनी कोठरी में बैठे उस बूढ़े इतिहासकार ने इस प्रसंग को भी इतिहास के लिए दर्ज कर दिया। अक्सर रामनिहाल गुंजन मुझे उस बूढ़े इतिहासकार की तरह ही लगते थे।

आज जब वे नहीं हैं, तो उन्हीं की एक कविता  ‘इतिहास बनते लोग’ की याद आ रही है-

इतिहास बनते जा रहे हैं लोग
शब्दों के घेरे से बाहर निकल कर
अपनी यादें सुुरक्षित कर
किताब के उन पन्नों में
जो रचे गए थे
उन्हीं के हाथों
दिनों, महीनों और वर्षों में

कभी खत्म नहीं होती हैं शब्द यात्राएँ
वे जारी हैं आज भी-
निरंतर
अक्षरों की खेती करने वाले और
हजार-हजार हाथों से
बीजाक्षर उपजाने वााले
उन शब्द-शिल्पियों के द्वारा
जो सलीके की जिंदगी जीने की बजाय
सिखाते हैं
सलीके का आदमी बनाना।

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