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स्मृति

राजकुमार : जब तक जिया रंग भरते जिया

पहले राकेश दिवाकर गए और अब राजकुमार सिंह। ये दो दो आघात बहुत भारी हैं। लगभग एक साल कैंसर से जूझते हुए राजकुमार सिंह का 9 जनवरी 2023 को देहांत हो गया। 1 जनवरी 1978 को जन्मे राजकुमार सिंह का महज पैंतालीस की उम्र में जाना बहुत तकलीफदेह है और कला संस्कृति की दुनिया के लिए सचमुच अपूरणीय क्षति है।

राजकुमार गंगा किनारे बसे गाजीपुर जिला के बवांड़े (युवराजपुर) गांव के निवासी थे। बवांड़े और गाजीपुर के बीच गंगा नदी है। यह स्वतंत्रता सेनानी शहीद शिवपूजन राय, अमर शहीद अब्दुल हमीद, गोपालराम गहमरी, राही मासूम रजा, डाॅ. पी. एन. सिंह, प्रो. शुकदेव सिंह, प्रो. शिवप्रसाद सिंह, डाॅ.विवेकी राय, भोलानाथ गहमरी सरीखे क्रांतिकारियों, शूरवीरों, लेखकों, कवियों और चिंतकों का गृह जनपद है। कला के क्षेत्र में राजकुमार सिंह ने जिस तरीके का काम किया है, वह अविस्मरणीय है। एक बेहतरीन चित्रकार होना सचमुच एक बड़ी बात है। उसमें भी लोकधर्मी चित्रकार होना उनकी अपनी खासियत थी। उनकी कलाकृतियों से उनको अवश्य समझा जा सकता है।

बेशक, किसी भी कलाकार को उसकी कलाकृतियों से ही समझा जा सकता है। पर, राजकुमार के संदर्भ में बात जरा दूसरे ढंग की भी है। उम्दा कलाकार होने के साथ साथ वे एक कला समूह के भी शिल्पकार थे। उनका एक बहुत बड़ा और सशक्त ग्रुप है। उसमें अनेक युवा चित्रकार हैं। उनमें से कइयों की अपनी पहचान भी बन गई है, कई उस दिशा में हैं। अनेक लड़के और अनेक लड़कियां हैं। सबों को राजकुमार ने ब्रश थमाया, रेखाएं खींचना और उनमें रंग भरना सिखाया है। उनमें अधिकतर कई गांवों के निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों के हैं। उनमें गाजीपुर जनपद के मुहम्मदाबाद तहसील के अधिक हैं। यह काम उन्होंने बड़े साहस, धैर्य और समझ के साथ किया।

उस अंचल में चित्रकला जैसी विधा को स्कूली स्तर से विश्विद्यालय स्तर तक पढ़ाई के मुख्य विषय के रूप में प्रतिष्ठित करने में भी राजकुमार और उनके ग्रुप के कलाकारों की अहम भूमिका है। चित्रकला की पढ़ाई भी उच्च स्तर तक संभव है और नौकरी और रोजगार के भी अवसर अन्य विषयों से यहां भी कम नहीं हैं, राजकुमार इस बात को युवाओं और उनके परिजनों को कायदे से समझा पाए। आज की तारीख में उस ग्रुप के कई कलाकार कला अध्यापक हैं। फिल्म इंडस्ट्री में हैं। अपने स्टूडियो चला रहे हैं। उस कला ग्रुप का नाम ही है ‘संभावना कला मंच, गाजीपुर’। राजकुमार उसी मंच के रचयिता और निर्देशक थे। बेशक, यह राजकुमार घराना है। चित्रकला घराना। उसको राजकुमार स्कूल भी कोई चाहे तो कह ले। अब गाजीपुर के साथ राजकुमार का नाम भी जुड़ गया है। किसी साथी ने एक व्हाट्सएप ग्रुप में पूछा भी था कि कौन राजकुमार ? उसी ग्रुप में दूसरे साथी ने तुरत साझा किया था ‘गाजीपुर वाले’। इस मंच का संबंध जन संस्कृति मंच से है। राजकुमार जसम की राष्ट्रीय परिषद के भी सदस्य थे।

राजकुमार के पिता का नाम था फौजदार सिंह। राजकुमार डाॅ. एम.ए. अंसारी इंटर काॅलेज, यूसुफपुर, मुहम्मदाबाद में सन 2003 से स्थाई रूप से कला के शिक्षक थे। उनकी नौकरी के कुछ ही वर्षों बाद उनकी नौकरी और कला प्रेम से खुश रहने वाले पिता का देहांत हो गया था। उनकी बयासी वर्षीया माता का नाम पार्वती देवी है। सीमा सिंह राजकुमार की पत्नी हैं और पुत्र का नाम उत्कर्ष है जो आठवीं कक्षा का विद्यार्थी है। सुशिक्षित सीमा सिंह और उत्कर्ष भी संभावना कला मंच से बहुत सक्रिय रूप में जुड़े हुए हैं। इसी उम्र में उत्कर्ष अनेक प्रदर्शनियों और प्रतिवर्ष जोगिया जनूबी पट्टी में आयोजित लोकरंग में बतौर बाल चित्रकार शामिल हो चुका है। नौकरी पाने के बाद राजकुमार ने शांत और संतुष्ट जीवन नहीं चुना। भाग दौड़ का जीवन चुना। छठी-सातवीं कक्षा से ही बच्चों को कूची और रंगों से जोड़ा और उनका महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी, बी. एच. यू., जामिया मिलिया इस्लामिया तक का मार्ग प्रशस्त किया। वे उनके गुरु और साथी बने रहे। राजकुमार को इस पूरे ग्रुप के साथ ही समग्रता में समझा जा सकता है। अलग से तो शायद आधा अधूरा ही समझा जा सकेगा।

महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी के ललित कला विभाग से उनकी बी. एफ. ए, एम. एफ. ए. और पीएच. डी. की पढ़ाई हुई। एम. एफ. ए. में उनके लघु शोधप्रबंध का विषय था ‘लोककला के सामाजिक यथार्थ’। ‘चित्रकला में अमूर्तन’ विषय पर डाॅ. मंजुला चतुर्वेदी के निर्देशन में उनका शोधकार्य है। उनके निधन से यह पूरा कला जगत दुखी है।

राजकुमार जब बनारस में पढ़ाई कर रहे थे, उस समय वाराणसी का कला कम्यून विशेष रूप से सक्रिय था। कला कम्यून के कलाकारों की तब शहर में बड़ी धूम थी। साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भरमार थी। वह कम्यून जन संस्कृति मंच से आत्मीय रूप से जुड़ा था। वाम प्रगतिशील जनवादी धारा के कवि, लेखक, कलाकार कम्यून के आयोजनों में बड़ी दिलचस्पी रखते थे। वह बहुत बड़ा आकर्षण का केंद्र हो चुका था। बिहार और उत्तर प्रदेश के कई युवा कलाकार, साहित्यकार, गायक, संस्कृतिकर्मी इस कम्यून से जुड़े हुए थे। राजकुमार का भी उससे जुड़ाव था। आरा के राकेश दिवाकर भी उससे जुड़े हुए थे और उसी के प्रभाव में आरा के कुछ कलाकारों को लेकर आरा में भी कला कम्यून का गठन किया था। राकेश उसी के माध्यम से आरा में सक्रिय थे। राजकुमार भी पढ़ाई करते हुए दोनों ही जगहों के कम्यूनों से जुड़कर अपना विकास कर रहे थे। बाद में जब स्थाई नौकरी हुई, थोड़ी आर्थिक निश्चिंतता बनी तब राजकुमार ने संभावना कला मंच का गठन किया।

वह 2007 का वर्ष था जब इसके गठन के लिए पहली बैठक हुई थी। उसमें राजकुमार के छात्र रहे राजीव कुमार गुप्ता, सुधीर सिंह, श्वेता राय, पंकज शर्मा थे। उसमें मैं भी था। नाम तय हुआ और 2008 में संभावना कला मंच के बैनर तले पहली बार मुहम्मदाबाद के शहीद पार्क में कला प्रदर्शनी का आयोजन हुआ। तबसे लगातार कई वर्षों तक यह आयोजन होता रहा और आगे चलकर तो इसने जन भागीदारी वाले कला मेला का रूप ले लिया। गाजीपुर और उसके आसपास के कला साहित्य प्रेमी सहित अनेक लोग उस मेले में शामिल होने लगे। स्कूलों में छुट्टियां होने लगी।

संभावना कला मंच के कलाकारों ने राजकुमार के दिशा निर्देशन में अनेक प्रदर्शनियों के आयोजन किए। राजकुमार खुद एक अच्छे कलाकार थे। उन्होंने अपनी कला के जरिए अपने आस पास के ग्रामीण परिवेश को, खासकर श्रमशील समाज को अभिव्यक्त किया है। गांव के लोग, उनके घर, उनके कृषिकर्म, मेहनत मशक्कत, उनकी गरीबी और उनके संघर्षों की अनेक मुद्राएं उनकी कलाकृतियों में सहज सुंदर रूपों में अभिव्यक्त हैं। मिट्टी के घर, मड़ई, भूसा के खोंप, गोहरी की गोठ, बोझ ढोते किसान, हंसिया लिए मजूर बार बार आते हैं। जितने पुरुष उतनी ही महिलाएं। राजकुमार 1990 के बाद की परिस्थितियों, उसमें भी खासकर सांप्रदायिक विद्वेष और हिंसा से काफी आहत थे। उस खूनी मस्तिष्क की अपनी कला में बार बार टोह लेते हैं, जो इन हालातों की जड़ में है।

 

राजकुमार की टीम ने हिंदी और भोजपुरी के अनेक कवियों की कविताओं के सैकड़ों सुंदर और अर्थपूर्ण पोस्टर बनाए हैं। मुक्तिबोध, अज्ञेय, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, आलोकधन्वा, मदन कश्यप, विनोद कुमार शुक्ल, रमता जी, विजेंद्र अनिल, दुर्गेंद्र अकारी, बावला जी, जितेंद्र कुमार, मंजुला चतुर्वेदी, संतोष चतुर्वेदी, प्रकाश उदय, आसिफ रोहतासवी, भगवती प्रसाद द्विवेदी, शिवकुमार पराग, बलभद्र, सुमन कुमार सिंह आदि की कविताओं के पोस्टर विभिन्न कार्यक्रमों में लगते रहे हैं। बड़ी बात है की इस टीम ने कई भोजपुरी लोकगीतों की थीम पर भी पोस्टर बनाए हैं।

जोगिया जनूबी पट्टी में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले लोकरंग की कल्पना राजकुमार और संभावना कला मंच के बिना कर पाना शायद उचित नहीं होगा। वे और वह टीम इस आयोजन के मुख्य अंग होते हैं। सुभाषचंद्र कुशवाहा ने इसे खुले मन स्वीकार भी किया है। अप्रैल की गर्मी में राजकुमार खुद ब्रश और रंग लेकर जोगिया जनूबी पट्टी में उतर जाते थे। साथ में उनका छोटा बेटा उत्कर्ष, पत्नी सीमा और दर्जनों उनके युवा साथी।

वे सचमुच श्रमजीवी समाज के श्रमशील कलाकार थे। कला के प्रति यह दिलचस्पी उनमें बचपन से थी। बहुत कम उम्र से। मैंने राजकुमार के बाल कलाकार रूप को भी देखा है। वह बेशक बड़ा हुआ और बच्चों के बचपन को अनदेखा नहीं किया। उसे जीने को महज पैंतालीस साल मिले। कम अवसर मिले। पर यह भी है कि जितना जिया, रंगों के साथ जिया, रंग भरते जिया। महज कैनवास पर नहीं, जीवन में भी। अनेक जिंदगियों में भी। जब तक जिया, खुद बिखरा हुआ जिया। इस बिखराव ने न जाने कितनों को खड़ा होने को प्रेरित किया। उसे याद करते हुए महसूस किया जा सकता है। खुद मंच लेने की जगह उसने मंच बनना स्वीकार किया।

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