समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

‘ किसान-संघर्ष का पहला साहित्यिक दस्तावेज़ है ‘ प्रेमाश्रम ’ – वीर भारत तलवार

‘ प्रेमचन्द ने कथानक का निर्माण किया और उसे तोड़ा भी ’- नित्यानंद तिवारी
‘हम देखेंगे: अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान’ के तहत प्रेमचंद जयंती के अवसर पर  06 अगस्त 2022 को दिल्ली के हरकिशन सिंह सुरजीत भवन में प्रेमचंद पखवाड़ा का आयोजन किया गया. विषय था ‘प्रेमाश्रम, प्रेमचंद और आज़ादियाँ’ (उपन्यास प्रेमाश्रम के सौ साल). इस कार्यक्रम में आमंत्रित वक्ता थे प्रो. नित्यानंद तिवारी और प्रो. वीरभारत तलवार.
वीरभारत तलवार ने कहा कि हिंदी में किसी कृति के 100 वर्ष पूर्ण होने पर किसी कार्यक्रम का होना मेरे लिए नई बात है. रवीन्द्रनाथ का ‘गोरा’ उपन्यास और फकीर मोहन सेनापति के उपन्यास ‘छ माण आठ गुंठ’ पर महत्त्वपूर्ण आयोजन किये गये. लेकिन हिंदी में किसी कृति पर पहली बार इस तरह का आयोजन हुआ है.
भारत में किसान आन्दोलन आज जिस मक़ाम पर है, उसे देखते हुए मुझे नहीं लगता कि प्रेमाश्रम की आज कोई प्रासंगिकता या राजनीतिक महत्ता है. इस के बावजूद यह एक महत्त्वपूर्ण कृति है. महत्त्वपूर्ण कृतियों को बार-बार पढ़ा जाना चाहिए. इससे नये पक्ष खुलने की संभावना रहती है.
प्रेमाश्रम जब लिखा गया उसके तुरंत बाद अवध का ऐतिहासिक किसान आन्दोलन हुआ. बाबा रामचंद्र और मदारी पासी के नेतृत्व में. हाल ही में दिल्ली की सीमाओं पर अभूतपूर्व किसान आन्दोलन हुआ.
प्रेमाश्रम में किसी भी तरह का किसान आन्दोलन नहीं है. किसानों का संघर्ष जरूर है. हर आन्दोलन में संघर्ष होता है. लेकिन हर संघर्ष आन्दोलन नहीं होता. प्रेमाश्रम में किसान असंगठित थे, आपस में इर्ष्या-द्वेष भी रखते थे. प्रेमाश्रम में सबसे ज्यादा संघर्ष मनोहर करता है, जिसकी परिणति उसकी आत्महत्या है. वो अकेला पड़ जाता है, क्योंकि किसान असंगठित है.
अवध के किसान आन्दोलन में बेदखली एक बहुत बड़ा मुद्दा था. और इसी के खिलाफ किसान लड़ते हैं. गोलियां चलती हैं. एक साल के लंबे संघर्ष के बाद भी किसान अपनी जमीन मुक्त नहीं करा पाते.
प्रेमाश्रम में लगान इज़ाफे से किसान तबाह हो गये. बेदखली की नोटिस आने वाली ही होती है. वे पहले ही हार मान चुके हैं. तभी एक किसान साधू बनकर पहुँचता है. उसे एक अलौकिक सिद्धि हासिल है. वो मिट्टी के ठीकरियों को रुपयों और रुपयों को ठीकरियों में बदल सकता है. वो कोर्ट जाकर सारे लगान भर देता है और किसान बेदखली से बच जाते हैं. अवध के किसान तगड़े आंदोलन के बावज़ूद बेदखली से नहीं बच पाते हैं. प्रेमाश्रम के किसान एक जादुई करामात से बच जाते हैं. क्या आप इसे किसान आंदोलन कहेंगे?
प्रेमाश्रम ने प्रकाशित होते ही धूम मचा दी. उसकी कई समीक्षाएं निकलीं. खूब हसे हुईं. इतनी शायद ही किसी अन्य कृति पर हुई हों. चार साल में मराठी में अनुवाद आ गया. तीन महीने में 1000 प्रतियाँ बिक गई. 6 महीने में दूसरा संस्करण निकला. उसकी यह लोकप्रियता राजनीतिक वर्ग के बीच थी. असहयोग आन्दोलनकारियों ने इसे हाथोहाथ लिया. यह उपन्यास असहयोग आन्दोलन का प्रवक्ता बन गया.
फ़िराक गोरखपुरी ने लिखा कि बोल्शेविज्म के लिए जो भूमिका गोर्की की ‘मां’ ने निभाई है, वही भूमिका असहयोग आन्दोलन में प्रेमाश्रम निभा रहा है. जेल में रहते हुए नेहरुजी ने 6 महीने में इसे पढ़ लिया. एक अंग्रेजीदा नेता के हिंदी उपन्यास पढ़ने की पहली ज्ञात घटना है. फिराक साहब जेल में रहते हुए इसकी समीक्षा लिखी, जो प्रभा में छपी थी. ‘कारागार प्रवासी फ़िराक गोरखपुरी’ के नाम से. अनुसुइया प्रसाद ने लिखा है कि जेल में हम सबका साथी बन गया प्रेमाश्रम.
प्रेमाश्रम उस हद तक राजनीतिक उपन्यास नहीं था, जहां तक उसकी व्याख्या की जा रही थी. प्रेमशंकर में गांधी की छवि देखी जा रही थी. हालांकि उसे नायक कहना भी कठिन है.
प्रेमाश्रम में यहाँ वहाँ कुछ जगहों पर असहयोग आन्दोलन के उसूलों और प्रवृतियों का ज़िक्र जरूर है. इतने भर से, आंदोलन की जरूरत के कारण, यह उपन्यास असहयोग का प्रवक्ता बन गया.
आज प्रेमाश्रम को कोई भी असहयोग आन्दोलन का दस्तावेज़ मानकर नहीं पढ़ता. आज प्रेमाश्रम उसी चीज के लिए पढ़ा जाता है, जिसके लिए उसे लिखा गया था. वह चीज थी, भारतीय किसान का संघर्ष .
प्रेमाश्रम की एतिहासिक महत्ता यह है कि इसके जरिए हिंदी और उर्दू साहित्य में किसान की आमद हुई. प्रेमचंद के साहित्य में भी. अपने साहित्यिक जीवन के पूर्वार्ध में प्रेमचन्द भी रोमांटिक राष्ट्रवादी लेखक ही थे.
‘उपदेश’ (१९१७) पहली कहानी है, जिसमें रोमांटिक राष्ट्रवाद से निकलकर प्रेमचंद आलोचनात्मक राष्ट्रवाद की तरफ़ आए. इसी उपन्यास में पहली बार जमींदारी प्रथा को ख़तम करने जैसी रैडिकल मांग भी उठाई गई. यह मांग अवध किसान आन्दोलन तक में नहीं थी. 1917 वह साल था, जब प्रेमचन्द किसान संघर्ष की ओर मुड़े. इसके पीछे चंपारण के किसान आन्दोलन व रूस की बोल्शेविक क्रान्ति की प्रेरणा थी. प्रेमचन्द ने महसूस किया कि राष्ट्रीय आंदोलन में किसानों के सवालों के लिए चिंता नहीं थी.
उनके लेखन में किसान-प्रश्न और राष्ट्रवाद में टकराव यहीं से देखने को मिलता है. इसके बाद राष्ट्रवाद की सीमाओं के बारे में उनकी समझ गहरी होती गई. लेकिन इस टकराव का समाधान कैसे हो, इसका उत्तर वे नहीं ढूंढ सके.
प्रेमाश्रम में कोई किसान नेता नहीं बनता. किसान का नेता एक ज़मींदार (प्रेमशंकर) बनता है, जिसने कभी किसानों के लिए संघर्ष किया ही नहीं. किसान संघर्ष का अंत गाँव में रामराज्य आने पर हुआ. लेकिन यह रामराज्य संघर्ष से नहीं आया. वो आया एक शिक्षित राष्ट्रवादी के त्याग से.
इस तरह राष्ट्रीय आंदोलन और किसान-प्रश्न के बीच के टकराव को प्रेमचन्द ने अपनी लेखकीय कल्पना से हल कर दिया. यह कोई वास्तविक हल नहीं था. लेकिन प्रेमचन्द अगर ऐसा नहीं करते तो क्या असहयोग आन्दोलनकारी इसे हाथो-हाथ लेते?
नित्यानंद तिवारी जी ने तलवार जी की बातों से सहमत होते हुए कहा कि महत्वपूर्ण रचनाओं को बार-बार पढ़ना चाहिए.
बार- बार पढ़ने से कुछ न कुछ उस किताब के कोने-अंतरे से ऐसा निकलता है, जो पाठक के लिए और मनुष्यता के लिए भी सार्थक होता है. हर रचना में एतिहासिक समय तो होता ही है, मानवीय समय भी होता है. साहित्य में मानवीय समय अनुस्यूत होता है. यह मानवीय समय कालिदास और मुक्तिबोध को एक जैसा प्रासंगिक बना देता है.
मेरा अपना ही समय कई समयों में बंटा हुआ है. मैं आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के समय से भी थोड़ा बहुत जुड़ा हुआ हूँ. लेकिन आज का समय उसके भी बाद का समय है. यह सत्ता और व्यापार का समय है. नये नार्मल और पोस्ट-ट्रुथ यानी नैरेटिव का समय है.
प्रेमचंद का समय भारतेंदु, श्रीनिवासदास, विवेकानंद, गांधी और नेहरु का समय है. यह इनके आलोचकों जैसे जैनेन्द्र, इलाचंद्र जोशी और अज्ञेय आदि का समय भी था. भारतेंदु और श्रीनिवासदास ने पहली बार आधुनिक भारतीय मनुष्यता की परिभाषा दी.भारतेंदु ने कहा है ‘राजनीतिक समझ सकल, पावहिं तत्त्व विचार’. यों आधुनिक युग का तात्विक प्रश्न भारतेंदु ने खड़ा किया.
विवेकानंद ने ‘मॉडर्न इंडिया’ नामक बुकलेट में बताया है कि इस देश में लोग कितने गरीब हैं. इतने गरीब देश में ब्रह्मचिंतन आध्यात्मिक अय्याशी है. गांधी और नेहरू राजनीति की दिशा भी भारत की गरीबी के बोध से तय हुई. यह सामाजिक-राजनीतिक चेतना हमारी आधुनिकता का मुख्य आधार है. यही प्रेमचन्द की आधुनिकता भी है.
प्रेमचन्द के आलोचकों की आधुनिकता भिन्न प्रकार की थी. जैनेन्द्र ने कहा कि समाज क्या होता है मुझे नहीं पता, मुझे तो हर जगह व्यक्ति ही दिखाई पड़ता है. जैनेन्द्र और इलाचंद्र जोशी प्रेमचन्द को दुनिया के महत्त्वपूर्ण कथाकारों में स्थान देने से इनकार करते है. लेखक का दृष्टि-पथ सीमित होगा तो वह व्यक्ति के आगे नहीं देख सकेगा. समाज को देखने के लिए दृष्टि का विस्तार जरूरी है.
जैनेन्द्र और जोशी के लेखे प्रेमचन्द की कहानी कला कथानक और घटना क्रम पर आश्रित थी. वे यह नहीं देख पाए कि हिन्दी-उर्दू में सबसे पहले प्रेमचंद ने ही कथानक का निर्माण किया, और उसे तोड़ा भी. जिसके पास कथानक है, वही उसे तोड़ सकता है. प्रेमचन्द के बाद रेणु ने भी ऐसा किया है. जैनेन्द्र और जोशी जैसे लेखक कथानक का विखंडन नहीं करते, क्योंकि उनके पास कथानक है ही नहीं. कथानक उसी के पास होगा, जिसके पास सामाजिक दृष्टि होगी.
प्रेमचंद के उपन्यासों में पूरा भारतीय समाज है. लोग हैं , अपनी अपनी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों के साथ. जातियों के ब्यौरे सबसे ज्यादा गोदान और रेणु के मैला आँचल में दिखाए देते हैं. दिखाई देता है कि भारत में जाति जैसे हर एक के खून में है. इस बड़ी सचाई की अनदेखी कर के भारतीय व्यक्ति के मानस को कैसे दिखाया जा सकता है?
हीरालाल राजस्थानी ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहा कि प्रेमचंद को पढ़कर दलित लेखकों का मनोबल बढ़ा. आजकल के दलित लेखक प्रेमचन्द की शैली में लिखते हैं, कलावादियों की तरह नहीं. प्रेमचंद की कथाओं के दलित पात्र जीवित होकर खुद अपनी कथा कहने खड़े हो जाते हैं. लेखक को उनकी कथा नहीं कहनी पड़ती. इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है. प्रेमचन्द अपने समय के सामाजिक जीवन और आंदोलनों से गहरे जुड़े थे. तभी वे यह उपलब्धि हासिल कर पाए. सामाजिक जीवन से विमुख रहने वाले लेखक ऐसा नहीं कर सकते. वे लोकतंत्र पर मंडलाते फ़ासीवाद के संकट का मुकाबला भी नहीं कर सकते.
कार्यक्रम का संचालन अंशु चौधरी ने किया. कार्यक्रम में बड़ी संख्या में लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की भागीदारी रही. दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया के अनेक अध्यापकों और छात्रों की उपस्थिति भी रही।
(रिपोर्ट: Anshu Chaudhary )

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion