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‘पहली आवाज़’ से शुरू हुआ प्रतिरोध का सिनेमा का ऑनलाइन स्क्रीनिंग अभियान

( पिछले पंद्रह वर्षों से प्रतिरोध का  सिनेमा अभियान सार्थक सिनेमा को छोटी -बड़ी सभी जगहों पर ले जाने की कोशिश में लगा हुआ है . कोरोना की वजह से अभियान का सिनेमा दिखाने का यह सिलसिला थोड़े समय के लिए रुका लेकिन पिछली 28 जून से साप्ताहिक ऑनलाइन स्क्रीनिंग और फ़ेसबुक लाइव के मंच का इस्तेमाल करते हुए प्रतिरोध का सिनेमा ने अपने दर्शकों से फिर से नाता जोड़ लिया है . इस सिलसिले की पहली फ़िल्म ‘पहली आवाज़ ‘ के बहाने हुई चर्चा को समेटती युवा सिनेमा विद्यार्थी  अतुल कुमार की रपट . सं . )

 

कोविड -19 की त्रासदी ने हमारे जीवन के सभी पहलुओं पर असर डाला है . हमारी सिनेमा बिरादरी के क्रियाकलाप पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ा है. समय की जरुरत को समझते हुए प्रतिरोध का सिनेमा अभियान ने ऑनलाइन सिनेमा स्क्रीनिंग की तरफ रुख किया है . इस सिलसिले में यह अभियान  हर सप्ताह जरुरी फ़िल्मों के लिंक अपने  दर्शकों को उपलब्ध करवा रहा है और उसके बाद हर रविवार को फ़िल्म से सम्बंधित निर्देशक और दूसरे जुड़े हुए लोगों के साथ फ़ेसबुक के लाइव प्लेटफ़ॉर्म पर अपने दर्शकों के साथ संवाद कायम करने की कोशिश की जा रही है .

साप्ताहिक फ़िल्म स्क्रीनिंग की पहली कड़ी में प्रकासि (प्रतिरोध का सिनेमा) ने दस्तावेज़ी फ़िल्म निर्माता अजय टीजी की फ़िल्म ‘पहली आवाज’ दिखाई और फिर रविवार 28 जून की शाम 5 बजे अजय टी जी और शहीद अस्पताल से शुरू से जुड़े डॉ सैबल जाना के साथ लाइव संवाद किया.

सन 2014 में अजय टीजी ने दूरदर्शन व पीएसबीटी के साथ सयुंक्त रूप से इस दस्तावेज़ी फ़िल्म का निर्माण किया था । यह फ़िल्म दल्ली-राजहरा,छत्तीसगढ़ के खनन शहर में एक उल्लेखनीय अस्पताल की कहानी है जिसे शहीद अस्पताल नाम से जाना जाता है। यह अस्पताल दैनिक खनन मज़दूरी करने वाले द्वारा श्रमिकों द्वारा बनाया गया है । यह अस्पताल आदिवासियों व गरीबों को आधुनिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करता है।  फ़िल्म में इस अस्पताल के निर्माण,  इतिहास, चुनौतियों, कार्यकर्ताओं व डॉक्टरों के अनुभवों को दिखाया गया है।

फ़िल्म देखते हुए आप जानेंगे कि यह सिर्फ एक अस्पताल नहीं है बल्कि मज़दूर एकता व उनके संगठित होने की कहानी भी है। फ़िल्म देखते हुए महसूस होता है कि इसकी हर एक दीवार मज़दूर एकता की विचारधारा के सीमेंट से जोड़कर खड़ी की गई है। जिसमे संघर्ष है, कुर्बानी है एक बेहतर स्वास्थय के लिए । आपको यह फ़िल्म इसलिए भी देखना चाहिए क्योंकि यह आज की हमारी चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवाल भी खड़ा करती है कि जब कम से कम संसाधनों में सिर्फ मज़दूरों द्वारा ऐसा अस्पताल बनाया जा सकता है तो सरकार द्वारा करोड़ों व अरबों रुपए के लागत से बने तथाकथित आधुनिक अस्पतालों की  हालात इतनी खस्ता क्यों है ?

फ़ेसबुक लाइव में अजय टीजी ने इस फ़िल्म को बनाने के लिए अपनी प्रेरणा पर बात करते हुए कहा कि यह फ़िल्म उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है। वह शुरू से ही आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन, सीपीआई व मज़दूर संगठनों से जुड़े रहे हैं। जब वह छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा द्वारा निर्मित शहीद अस्पताल से जुड़े तो इसके पीछे का संघर्ष उनको हमेशा प्रेरित करता रहा। उन्होंने देखा कि मज़दूर व महिलाएं दिन भर काम करने के बाद भी स्वंय अस्पताल के लिए काम करते है। मज़दूर स्वास्थ्य के बारे में प्रशिक्षण लेकर एक दूसरे की मदद कर रहे हैं ।  उनके अंदर एक जुनून सा पैदा होने लगा कि इस अस्पताल की कहानी लोगों तक पहुंचनी चाहिए। उन्होंने सोचा कि अगर यह कहानी लोगों तक पहुंचती है तो एक सफल मिसाल के रूप में और भी अधिक लोगों को प्रेरित करेगा।

आगे अजय टीजी कहते हैं कि जब कोई भिलाई में बीमार पड़ता है तो उन्हें अक्सर डर लगने लगता है, क्योंकि यहाँ सौ-दो सौ किलोमीटर के आसपास कोई अस्पताल नहीं है। यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है। वह हमेशा शहीद अस्पताल के डॉक्टर सैबल जाना के सम्पर्क में रहते हैं। उनसे सलाह लेते रहते हैं किसी स्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए ? क्योंकि आसपास स्वास्थ्य सेवाओं का कोई विकल्प नहीं है। इससे भी गंभीर यह है कि यहाँ आसपास जो सरकारी अस्पताल हैं वहाँ भी पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं है इसलिए जब भी डिलीवरी का कोई सीरियस केस आता है तो सरकारी अस्पताल के डॉक्टर भी मरीज़ को शहीद अस्पताल ट्रांसफर कर देते हैं।

अजय आगे कहते हैं कि यह अस्पताल सफल इसलिए भी है क्योंकि जिस मज़दूर समाज के प्रयास से यह अस्पताल बना है, वह मज़दूर इसे अपना एक हिस्सा मानते हैं। मज़दूर   ही डॉक्टर के साथ इसका संचालन करते हैं। इस अस्पताल के बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने  भी यह कहा है कि पूरे छत्तीसगढ़ में सबसे सस्ता अस्पताल शहीद अस्पताल है।

डॉक्टर सैबल जाना अस्पताल के साथ अपने सफर की शुरुआत के बारे में बताते हैं कि वह सन 1980 में छत्तीसगढ़ आए। जब उन्हें पता चला कि दल्ली -राजहरा में मज़दूरों ने मिलकर एक अस्पताल बनाया है तो उनके अंदर मज़दूरो के लिए काम करने की इच्छा हुई। वह वहां गए और संगठन के नेता शकर गुहा नियोगी से मिले। नियोगी जी से मिलकर सैबल जाना इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने मन बना लिया कि अब यहीं रहकर मज़दूरों के स्वास्थ्य के लिए काम करना है। उन्होंने अपने कुछ डॉक्टर साथियों को भी यहाँ बुला लिया और डॉक्टरों की एक टीम बनाई।

 

शुरुआत में जब अस्पताल पूरी तरह से बना नहीं था और इसके लिए बहुत पूंजी की आवश्यकता थी तो मज़दूरों ने दिन रात खदानों में काम किया और पूंजी एकत्र कर अस्पताल के लिए अपना श्रम भी दिया।

अब अस्पताल के डॉक्टरों को तनख्वाह देने के लिए पैसे नहीं थे तो सभी के लिए मज़दूरों द्वारा ही एक मेस बनाया गया और बिना तनख्वाह के डॉक्टरों ने अपना काम शुरू किया। इस तरह से अस्पताल शुरू हुआ।

आगे चलकर अस्पताल के लिए एक स्वास्थ्य कमेटी का गठन किया गया। जिसमें महिलाओं ने भागीदारी दिखाई और स्वास्थ्यकर्मी के रूप में काम करने का निर्णय लिया ।

डाक्टर सैबल बताते हैं कि हमने पुरुषों  और महिलाओं को प्रशिक्षण दिया। अस्पताल के अन्य कामों के लिए अपनी-अपनी रुचि के अनुसार लोग सामने आए और काम किया। किसी ने हिसाब-किताब का काम किया, किसी ने मैनेजमेंट देखा, कोई इंजेक्शन-पट्टी की ट्रेनिंग लेने लगा । इस तरह से हमने मज़दूरों को ट्रेनिंग भी दी और साथ मे अस्पताल के काम को आगे बढ़ाते रहे।

इनमे बहुत से लोग बिल्कुल पढ़े-लिखे नहीं है लेकिन एक बेहतर ट्रेनिंग के बाद वह भी हमारे साथ मदद कर रहे हैं।

आज यह अस्पताल सिर्फ ईलाज ही नहीं कर रहा है बल्कि एक ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट के रूप में भी कई संस्थानों के साथ मिलकर अपनी पहचान मज़बूत कर रहा है।

आगे सैबल जी कहते हैं कि अस्पताल बेहतर स्वास्थ्यकर्मी तैयार कर रहा है। लोगों को स्वास्थ्य व उसके उपचार को लेकर जो जानकारी मिल रही है उससे उनके अंदर एक आत्मविश्वास पैदा होता है जो उनको समाज के लिए काम करने को प्रोत्साहित करता है।

साथ ही साथ हम यहाँ लोगों के साथ मिलकर उनके सांस्कृतिक उपचार के तरीकों का अध्ययन भी कर रहे हैं। लोगों को अपनी सांस्कृतिक उपचार के तरीकों के साथ-साथ आधुनकि स्वास्थ्य उपचार से भी जोड़ रहे हैं। तो देखेंगे कि लोगों में ईलाज को लेकर कई तरह के अंधविश्वास भी होते हैं । जैसे शुरुआत में जब हम यहाँ आए थे तो गर्ववती महिलाओं के बच्चे का जन्म गांव की दाई करती थी। हम उनसे से सम्पर्क बना रहे हैं। उनके पारंपरिक तरीकों को बिना नष्ट किए एक बेहतर आधुनकि सेवा के लिए प्रेरित करते हैं। ताकि महिलाएं अस्पताल में बच्चों को जन्म दें।

सैबल जाना कहते हैं कि इस विषय पर शोध करने की आवश्यकता है कि कैसे लोगों के पारंपरिक तरीकों के साथ आधुनिक स्वास्थ्य उपचार किया जा सके।

अजय टीजी की इस फ़िल्म को आप इस लिंक https://www.youtube.com/watch?v=I8iI4oQbSXw&t=556s पर जाकर देख सकते हैं । इस अभियान की कड़ी में प्रतिरोध का सिनेमा  30 जून से शबनम विरमानी की दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘हद –अनहद’ दिखा रहा है जिसका समापन रविवार 5 जुलाई को फ़िल्म की निर्देशक शबनम के साथ लाइव संवाद में होगा जिसे प्रकासि से जुड़ी एक अन्य फ़िल्मकार फ़ातिमा एन बातचीत का संचालन करेंगी ।

 

(सभी तस्वीरें अजय टीजी के सौजन्य से )

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