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प्रशांत भूषण ने माफ़ी मांगने से फिर इनकार किया, कहा-ऐसा करना मेरी अन्तरात्मा की अवमानना होगी

नई दिल्ली। मशहूर वकील प्रशांत भूषण ने अपने ट्वीट्स के लिए माफ़ी मांगने से फिर इनकार किया है। आज सुप्रीम कोर्ट में दिए अपने पूरक बयान में प्रशांत भूषण ने कहा कि यदि मैं न्यायालय में दिये गये अपने बयानों से किनारा कर लूँ कि सच कुछ और है या मैं एक झूठा माफीनामा प्रस्तुत करूँ तो मेरी नज़र में यह मेरी अन्तरात्मा और उस संस्था की अवमानना होगी जिसे मैं सर्वोच्च सम्मान देता हूँ।

यहाँ पढिए प्रशांत भूषण का अनुपूरक व्यक्तव्य 

प्रशांत भूषण, प्रतिपक्षी सं0 1 का अनुपूरक वक्तव्य

मैंने माननीय न्यायालय के आदेश दिनांक 20 अगस्त का अत्यंत खेद के साथ अध्ययन किया। सुनवाई के समय न्यायालय ने मुझसे अपने बयान पर दुबारा सोचने के लिये 2-3 दिन का समय लेने को कहा था। हाँलाकि आदेश में कहा गया था किः ‘‘हमने अवमानना करनेवाले को, यदि वह चाहे तो, बिना शर्त माफीनामा प्रस्तुत करने के लिये समय दिया है।’’

यदि मुझसे कोई भूल या ग़लती हुयी हो तो उसके लिये माफी न माँगने की जिद मैंने कभी नहीं की। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे इस संस्था की सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ है और मैंने इसके समक्ष अनेक जनहित याचिकाएं प्रस्तुत की हैं। मुझे इस बात का एहसास है कि मुझे इसे जो कुछ भी देने का अवसर प्राप्त हुआ है उससे कहीं अधिक मैंने इस संस्था से पाया है। उच्चतम न्यायालय के प्रति मेरे मन में सर्वोच्च सम्मान है।

मुझे विश्वास है कि मौलिक अधिकारों की रक्षा करने, दूसरे संस्थानों और वास्तव में खुद संवैधानिक लोकतंत्र की निगरानी करने के लिये उच्चतम न्यायालय ही आशा का अन्तिम दुर्ग है। इसे ठीक ही लोकतांत्रिक विश्व का सबसे शक्तिशाली न्यायालय माना जाता है, और प्रायः पूरी दुनिया में इसे उदाहरण के रूप में देखा जाता है। आज के संकटकाल में कानून का शासन और संविधान लागू करने और निरंकुश प्रशासन से नकार के लिये भारत के लोगों की आशायें इसी न्यायालय से हैं।

जब मैं देख रहा हूँ कि इस न्यायालय के सुनहरे अतीत से कुछ विचलन हो रहा है तो मेरी ही तरह इस न्यायालय के एक अधिकारी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह भी कुछ बोले। इसलिये मैंने भलाई के लिये यह आवाज़ उठायी है, उच्चतम न्यायालय या किसी विशेष मुख्य न्यायाधीश की अवमानना के लिये नहीं, बल्कि एक रचनात्मक आलोचना प्रस्तुत करने के लिये, ताकि एक लम्बे समय से चले आ रहे संविधान के संरक्षक और जनाधिकार के पालक की भूमिका से उसके विचलन को रोका जा सके।

मेरे ट्वीट्स मेरे वास्तविक विश्वासों का प्रतिनिधित्व करते हैं। मेरे इन विश्वासों की सार्वजनिक अभिव्यक्ति, एक नागरिक और इस न्यायालय के एक निष्ठावान अधिकारी के रूप में मेरी उच्चतम जिम्मेदारी थी। इसलिये इन विश्वासों की अभिव्यक्ति के लिये सशर्त या बिना शर्त माफी माँगना एक छल होता। माफीनामा कोई तंत्र-मंत्र नहीं होता और ऐसा होना भी नहीं चाहिये क्योंकि न्यायालय ने भी कहा है इसे पूरी निष्ठा से प्रस्तुत किया जाना चाहिये। इसी वज़ह से ख़ासतौर पर मैंने सत्य बयान दिये हैं और पूरे विस्तार से सच की वकालत की है जिस पर न्यायालय ने ध्यान नहीं दिया। यदि मैं इस न्यायालय में दिये गये अपने बयानों से किनारा कर लूँ कि सच कुछ और है या मैं एक झूठा माफीनामा प्रस्तुत करूँ तो मेरी नज़र में यह मेरी अन्तरात्मा और उस संस्था की अवमानना होगी जिसे मैं सर्वोच्च सम्मान देता हूँ।

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