इस तरह आग का खेल मत खेलो!
यह पहाड़ की तबाही के असली गुनाहगारों को बचाने की राजनीति है। इससे बचो!
उत्तराखण्ड के पहाड़ में आज 3000 गांव जन विहीन हैं। अगर इनकी औसत आबादी 200 भी होगी तो 60,000 लोग तो इन जन विहीन गावों में से ही पलायन कर गए है। खुद मेरे गांव की कुल आबादी करीब 350 है। गांव में इस समय कुल 50 के करीब लोग बचे हैं। अगर उत्तराखण्ड के अन्य शहरों बाजारों में बस गए मेरे गाँव के लोगों को भी जोड़ दें तो भी यह संख्या 75 से ऊपर नहीं जाती है। यानी मेरे गांव से ही पौने तीन सौ लोग, जो गांव की कुल आबादी का लगभग 75 प्रतिशत है, राज्य से बाहर पलायन कर चुके हैं।
यही हाल पहाड़ के ज्यादातर गांवों का हो चुका है। ये सब पलायन किये लोग दिल्ली, लखनऊ, कोलकाता, बड़ोदरा, मुंबई, गाजियाबाद, मुरादाबाद, इलाहाबाद, चंडीगढ़, अमृतसर, लुधियाना, गुवाहाटी जैसे जगहों में देश भर में बसे हैं । कुल मिलाकर उत्तराखण्ड के पहाड़ से लगभग 50 लाख लोग देश के विभिन्न हिस्सों में बस गए हैं।
राज्य से बाहर बसे ये पहाड़ी वहां आवासीय, व्यवसायिक व खेती की जमीनें खरीदे हैं, घर व व्यवसाय के लिए भवन बनाए हैं। वहां की सरकारों की स्थायी निवास नीति के तहत अपना स्थायी निवास प्रमाणपत्र बनवा कर वहां की नौकरियों व अन्य सुविधाओं का लाभ ले रहे हैं।
ऐसे में अगर उत्तराखण्ड में भी बाहर से आकर बसे 50 हजार लोगों ने, जो हमारी बाहर बसी आबादी का मुश्किल से एक प्रतिशत है, यहां बनी स्थायी निवास नीति के तहत अपना स्थायी निवास प्रमाणपत्र बनावा लिए हैं तो इस पर इतनी हाय तौबा व इसका इतना विरोध क्यों?
क्या उत्तराखण्ड के पहाड़ से 50 लाख लोगों के पलायन के लिए दोषी ये 50 हजार लोग हैं? क्या पहाड़ के बंजर होते खेतों और भूतहा होते गांवों के लिए भी यही बाहरी 50 हजार लोग जिम्मेदार हैं। क्या वनों पर से हमारे परम्परागत अधिकारों को छीनकर, गौरक्षा कानून लाकर हमारे पशुपालन के व्यवसाय को तबाह करने के जिम्मेदार यही हैं? क्या केदारनाथ, जोशीमठ जैसी तबाहियों के लिए भी यही लोग जिम्मेदार हैं।
पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय की बेशकीमती जमीनें, राज्य के राजकीय उद्यानों, सारी नदी घाटियों और ऊंचे पहाड़ों की नीलामी के लिए यही लोग दोषी हैं ? क्या हमारे सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कालेजों, तकनीकी शिक्षण संस्थाओं के निजीकरण के लिए भी यही बाहरी लोग जिम्मेदार हैं? क्या राज्य में भू माफिया, खनन माफिया, शराब माफिया, शिक्षा व स्वास्थ्य माफिया को पनपाने के जिम्मेदार यही लोग हैं ? क्या पूरे उत्तराखण्ड की जमीनों को बेचने के लिए राज्य के भू कानूनों में तब्दीली करने के दोषी भी यही हैं?
स्थायी निवास प्रमाणपत्र की जरूरत गरीबों, मध्यवर्ग को होती है। लुटेरों को नहीं। चार दशक पूर्व से मजखाली में बिड़ला का स्कूल और लालकुआं में सेंचुरी मिल है, रामदेव का इतना बड़ा साम्राज्य है, पूरी नदी घाटियों में बड़े कारपोरेट की जल विद्युत परियोजनाएं हैं। तीन सिडकुल में सैकड़ों उद्योग व कई परियोजनाएं हैं। कोका, पेप्सी से लेकर तमाम कारोबारों में हमारी जमीनें खपाई जा रही हैं। इनके अलावा भी पूरे उत्तराखण्ड में देश के की बड़े घरानों की संपत्तियां व व्यवसाय हैं। ये सब भी बाहरी हैं। क्या उनमें से किसी ने कभी उत्तराखण्ड का स्थायी निवास प्रमाणपत्र मांगा?
और क्या ये आंदोलन या अभियान इन सब के ख़िलाफ़ भी है? निसंदेह नहीं! तो फिर सिर्फ अपना पेट भरने के लिए यहां आए गरीब व मध्यवर्ग के लोगों के खिलाफ ही यह अभियान क्यों है? इसके पीछे कौन है? असली मुद्दों को छुपाने और असली गुनाहगारों को बचाने के लिए बाहरी भीतरी का कृतिम मुद्दा उछलने का अभियान लोकसभा चुनाव से पहले ही क्यों?
मूल निवास और स्थायी निवास दोनों एक नहीं है। भावनाओं में बहने के बजाए दिमाग पर जोर डालकर जरा सोचिए!
(लेखक अखिल भारतीय किसान महासभा के राष्ट्रीय सचिव हैं और अल्मोड़ा के मूल निवासी हैं। मो. 9410305930)
(इमेज़ गूगल से साभार)