जयप्रकाश नारायण
बरपेटा के जुडिशल मजिस्ट्रेट ए चक्रवर्ती ने जिग्नेश मेवानी के मामले में कहा कि हमने बहुत कठिन संघर्ष के बाद लोकतंत्र हासिल किया है इसे पुलिस राज्य में बदलने की इजाजत नहीं दिया जा सकता।
2014 में मोदी के सत्तारूढ़ होने पर हम लोगों ने कहा था, कि भारतीय लोकतंत्र का इंजन पटरी से उतर जाने के कारण दुर्घटनाग्रस्त हो गया है। जिस कारण हमारे लोकतंत्र पर फासीवाद का खतरा मंडरा रहा है।
उस समय कई उदारवादी मित्र और संगठनों ने कहा था कि यह जल्दीबाजी में किया गया मूल्यांकन है। हमें भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं के अंदर मजबूत लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता को समझना चाहिए और उस पर यकीन रखना चाहिए।
वस्तुत: हमारा मूल्यांकन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसकी विचारधारा, कार्यशैली, हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य और नरेंद्र मोदी के 13 वर्ष तक गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उनके द्वारा ली गई नीतियों के परिणामों पर आधारित था।
गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला में विकसित करते हुए मूलतः पुलिस राज्य में तब्दील कर दिया गया था । जहां एनकाउंटर, विरोधियों की हत्या और अल्पसंख्यकों का दमन राज्य प्रणाली का अभिन्न हिस्सा बन चुका था।
आज लोकतंत्र पर बहस विधायक जिग्नेश मेवानी की गिरफ्तारी और विज्ञान भवन में भारत के प्रधानमंत्री के साथ सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश , कानून मंत्री, सहित 25 राज्यों के हाई कोर्टो के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों की संयुक्त कान्फ्रेंस में उठे सवालों से तीखी हो चुकी है।
कुछ लोग इसे पश्य चिंतन कह सकते हैं। लेकिन 2014 के बाद से ही भारत के प्रगतिशील बुद्धिजीवी, मार्क्सवादी कार्यकर्ता, लोकतांत्रिक विचारों में यकीन करने वाले करोड़ों लोगों ने कहना शुरु कर दिया था कि भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है।
हालांकि उस समय कुछ मध्यवर्गीय उदारवादी समूहों द्वारा मोदी सरकार को कुछ समय देने की बात भी उठ रही थी( वेट एंड सी की पॉलिसी)। लेकिन एक के बाद एक घटित हुए घटनाक्रमों ने हमारे मूल्यांकन को सही प्रमाणित किया।
अगर आप 8 वर्षों के नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल की मुख्य नीतिगत फैसलों और विमर्श को ध्यान में रखें तो जो आवाज न्यायालयों और सड़कों से आज आ रही है उसे अचानक विकसित हुई परिस्थिति के बतौर व्याख्या नहीं की जा सकती।
मैं कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के दौर में भारत को पुलिस राज्य में बदल देने के संदर्भ में घटनाक्रमों को देखने की चिंता को विचारों में हुए सकारात्मक विकास के रूप में देख रहा हूं। क्योंकि जो कुछ भी घटित हो रहा है वह भारत को तानाशाही राज्य बनाने की दिशा में प्रेरित है।
नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद ली गई नीतियों को इस प्रकार रेखांकित किया जा सकता है।
एक, राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारतीय नवजागरण के चलते जो वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक सुधार, परिवर्तनऔर उद्वेलन हुए थे, उसकी उपलब्धियों को धीरे-धीरे समाप्त करना।
दूसरा, भारतीय समाज में आधुनिक वैज्ञानिक चेतना और लोकतांत्रिक विमर्श के चलते वर्ण और जाति के अंदर हुए सुधारों को उलटी दिशा में ले जाना।
तीसरा, स्वतंत्रता आंदोलन की उपलब्धियों से निकली स्वाभाविक व्यवस्था जिसे भारत के लोगों नें संघात्मक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्रिक भारत के रूप में सूत्रबद्ध किया था और स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व पर आधारित संविधान को अंगीकृत किया था उसे निष्प्रभावी कर समाप्त कर देना।
चौथा, संविधान और लोकतंत्र को व्यवहारिक धरातल पर उतारने के लिए जिन संस्थाओं का निर्माण किया गया था (जो भारत की ऐतिहासिक जरूरतें थी) उन्हें एक-एक करके समाप्त करना या निष्क्रिय कर देना। जैसे विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका आदि।
इन संस्थाओं के लोकतांत्रिक सामाजिक प्रतिबद्धता को नष्ट कर उन्हें कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के स्वार्थों के अधीन लाना।
पांचवा, विगत 75 वर्षों में विभाजन के त्रासद दौर की स्मृतियों से मुक्त होते हुए भारतीय समाज नए तरह के आपसी भाईचारे वाले संबंधों, व्यवहारों और लोकतांत्रिक रिश्ते में बंधने की तरफ बढ़ चुका था उसे लौटा कर उन्हीं विभाजनकारी स्थितियों में वापस ला देना।
छठवां , अंततोगत्वा लोकतांत्रिक भारत को चुनावी तानाशाही के द्वारा ऐसे राज्य में बदल देना जिसमें धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक रूप से कमजोर वर्गों की दासता को सुनिश्चित किया जा सके।
इस परियोजना के तहत भारत के लोकतांत्रिक संस्थाओं को समाप्त करने हुए हिंदुत्व विचारधारा आधारित राष्ट्र राज्य के रूप में भारत का पुनर्गठन कर राम राज्य के मिथकीय आदर्श के साथ संयुक्त कर देना।
सातवां, इस प्रकार भारत में ब्राह्मणवादी हिंदुत्व विचारधारा के तहत एकात्म मानववादी फासिस्ट विचार पर आधारित राष्ट्र और समाज का निर्माण करना। जहां असहमत, भिन्न धर्म संस्कृतियों, सामाजिक जीवन प्रणालियों वाले नागरिकों को नागरिकता सहित लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित कर दूसरे दर्जे का नागरिक बना देना।
आठवां , विविध संस्कृतियों, जीवन प्रणालियों, भाषाओं, धर्म, जाति, नस्ल वाले भारतीय समाज की आंतरिक एकता को नष्ट करते हुए उसे हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी व्याख्या के तहत एक संस्कृति, धर्म और उपासना पद्धति के एक निश्चित विचारधारा के साथ नियोजित करना।
नवां, सर्वोपरि स्वतंत्रता आंदोलन से निकली हुई राष्ट्रवादी अवधारणा को नकारते हुए आंतरिक शत्रु और पड़ोसी राष्ट्रों के संदर्भ में भारतीय राष्ट्रवाद की परियोजना को लागू करते हुए इसे हिंदू राष्ट्रवाद के के दायरे में खींच लाना।
अंतिम सवाल था कि भारत के सारे औद्योगिक, व्यापारिक, वित्तीय और प्राकृतिक संसाधनों को कारपोरेट के हवाले कर भारत में क्रूर पूंजीवादी राज्य को हिंदुत्व के साथ संबद्ध करते हुए लोकतांत्रिक तानाशाही (इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी) कायम करना।
संघ-भाजपा की बुनियादी प्रस्थापना है देश के अंदर आंतरिक शत्रु की रचना करना। काल्पनिक राष्ट्रीय शत्रु केंद्रित विमर्श के द्वारा विभाजनकारी एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए कारपोरेट मीडिया और सरकारों का नग्न प्रयोग करना।
आपको याद होगा 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वह एक हिंदू राष्ट्रवादी हैं। राष्ट्रवाद की उनकी इस उद्घोषणा से स्पष्ट था कि सत्ता में आने के बाद भारत के पुनर्गठन का वह कौन सा रास्ता अपनायेंगे।
यह दिन के उजाले की तरह स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि लोकतांत्रिक भारत के प्रति मोदी सरकार में कोई प्रतिबद्धता नहीं है।
1990 के बाद वैश्विक परिदृश्य के दक्षिण दिशा में मुड़ जाने के कारण साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी ने विकासशील राष्ट्रों के ऊपर उदारवादी नीतियों को थोपने और ऐसे शासक वर्गों को आगे लाने का अभियान चलाया गया जो उनकी नीतियों और स्वार्थों के अनुकूल हो ।
भारत में भी ऐसा ही देखा गया।
मनमोहन सिंह का भारत में संपूर्ण कार्य काल नव उदारवाद के लिए सबसे बेहतरीन समय कहा जा सकता है।
लेकिन एक ऐसा दौर आया जब कारपोरेट पूंजी के लिए और ज्यादा अनुदारवादी क्रूर नेतृत्व की जरूरत आन पड़ी।
इसके लिए घोषित हिंदुत्ववादी नीतियों वाले राष्ट्रीय सेवक संघ और उसकी राजनीतिक पार्टी भाजपा पर कारपोरेट ने दांव लगाया।
गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए गोधरा नरसंहार के बाद ट्रेड यूनियन नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार संगठनों और विपक्ष तथा अपनी पार्टी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को येन-केन प्रकारेण ठिकाने लगाते हुए नरेंद्र मोदी नव उदारवादी नीतियों के प्रबल समर्थक होने के कारण कारपोरेट के आंख के तारे बन चुके थे।
2014 के चुनाव को जिन्होंने देखा है वह समझ सकते हैं कि कारपोरेट पूंजी और उसके नियंत्रण वाले मीडिया ने नरेंद्र मोदी के लिए अनुकूल वातावरण किस तरह से तैयार किया।
उस समय जो लोग नरेंद्र मोदी के सत्तारूढ़ होने के विध्वंसक परिणाम को समझ रहे थे, वह इसका प्रति आख्यान लिखने की कोशिश में तभी से थे । लेकिन कांग्रेस के गिरी साख और विपक्ष की कमजोरी के कारण मोदी की सरकार बन गई।
2014 से कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ द्वारा शुरू हुआ भारत विजय अभियान अपने अंतिम चरण में प्रवेश कर गया है। जहां संघ के भगवाधारी गिरोह, सांप्रदायिक और विध्वंसक अभियान चलाते हुए सत्ता संरक्षण में निर्द्वन्द्व विचरण कर रहे हैं।
नवरात्र, रामनवमी और हनुमान जन्मोत्सव के अवसर पर लंपट भगवा गिरोहों के प्रति संविधान कानून को ताक पर रखते हुए पुलिस प्रशासन की पक्षपाती भूमिका देखी है।
प्रशासन और पुलिस द्वारा दंगाई अपराधियों को सुरक्षा कवच दिया गया और पीड़ितों को ही मुजरिम बना कर जेलों में भर दिया। पीड़ित मुस्लिमों को जेल में ठूंसते हुए उनके घरों को बुलडोज किया जाने लगा।
आज के समय में बुलडोजर कानून व्यवस्था का प्रतीक बन चुका है।
संघ के परम गुरु मोहन भागवत ने तो घोषणा ही कर दी है कि भारत का विकास अब साधुओं के द्वारा ही संभव हो सकता है।
गांधी नेहरू अंबेडकर की जगह पर जटा जूट धारी जनता के धार्मिक आस्था का दोहन कर अय्याशी भरा जीवन जीने वाले साधु-संत भारत के विकास की अगुवाई करेंगे।
जो निश्चय ही लोकतांत्रिक वैज्ञानिक आधुनिक चेतना के ध्वंस पर बना धर्म पर आधारित ब्राह्मणवादी भारत होगा।
यह कोरी परिकल्पना नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का दूसरा कार्यकाल इस बात की गवाही दे रहा है कि अब आधुनिक भारत का नेतृत्व विशुद्धत: हिंदू धर्म ध्वजा धारियों के हाथ में ही हो सकता है।
हम देख रहे हैं कि उत्तर प्रदेश पुलिस राज्य में तब्दील कर दिया गया है। ठोक दो के आवाहन के साथ शुरू हुआ फर्जी एनकाउंटर थानों में महिलाओं के साथ बलात्कार हत्या और कानून व्यवस्था अपराध नियंत्रण के नाम पर “लंगड़ा करो ” अभियान कानून और न्यायपालिका की जरूरत को ठेंगा दिखा रहा है।
सऊदी अरब, दुबई, ईरान, तुर्की आदि के नक्शे कदम पर चलते हुए लोकतांत्रिक भारत स्वतंत्रता के अमृत काल तक आते-आते अपना आवेग खोकर धर्म आधारित राज्य बनने के रास्ते पर बढ़ गया है।
यह खतरनाक कोशिश आज अपने आखिरी चरण में है।
सीजेआई रमना कार्यपालिका न्यायपालिका और विधायिका के प्रमुख लोगों के बीच कह रहे थे कि भारत की संस्थाओं को अपनी लक्ष्मण रेखा को पार नहीं करना चाहिए । उन्हें जनता की भावनाओं विचारों को नजर में रखना चाहिए।
वह यहीं नहीं रुके । उन्होंने कहा कि पिछले 8 वर्षों में विधायिका द्वारा जो कानून बनाए जा रहे हैं वह सीधे किसी राजनीतिक उद्देश्यों और विचारों से प्रेरित है।
ये कानून जनता की जरूरत को नजरअंदाज करते हुए जिस तरह से बनाये जा रहे हैं उससे संवैधानिक ढांचा कमजोर हो रहा है और न्यायिक जटिलता खड़ी हो रही है।
इससे न्यायपालिका से लेकर हमारे देश के नागरिकों और सामाजिक जीवन में तनाव बढ़ रहे हैं। जो लोकतांत्रिक भारत के सेहत के लिए खतरनाक है।
उन्होंने सीधे आरोप लगाया कि संविधान में सत्ता का विकेंद्रीकरण किया गया है। जिससे संवैधानिक गणतंत्र का संतुलन बना रहे।
लेकिन आज संस्थाएं अपनी लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण कर रही है। इस संदर्भ में उन्होंने भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के हालिया क्रियाकलापों की तरफ संकेत करते हुए कहा कि निर्दोष लोगों को सचेतन ढंग से प्रताड़ित और दंडित किया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि असहमति को दबाया जा रहा है। वैचारिक प्रतिबद्धता का दमन किया जा रहा है। कानून का दुरुपयोग करते हुए नागरिकों को अनिश्चितकाल तक नागरिक अधिकारों से वंचित रखते हुए कैदखानों में सड़ाया जा रहा है।
पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर आधारहीन मुकदमे लादे गए हैं। उन्हें हिरासत में रखने के लिए पुलिस की जांच में देरी और निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए उन्होंने पुलिस के गैर पेशेवराना रवैया की तरफ भी संकेत किया।
बरपेटा के मजिस्ट्रेट ने तो सीधे हाईकोर्ट को लिखा की पुलिस के लिए ठोस मैनुअल और प्रशिक्षण की जरूरत है। जिससे वह गैर कानूनी काम न कर सके।
अभियुक्तों के साथ सही ढंग से पेश आए तथा अभियोग के जांच की निष्पक्षता और समय सीमा सुनिश्चित की जा सके।
अगर ठोस उपाय नहीं किए गए तो हम अपने देश को पुलिस स्टेट में बदलने से रोक नहीं पाएंगे । न्यायिक मजिस्ट्रेट ने जो सुझाव दिए हैं वे बहुत ही गंभीर है।
साथ ही सीआरपीसी से लेकर यूएपीए तक की धाराओं में जिस तरह से बदलाव किए गए हैं वह सब व्यक्ति के अधिकारों को संकुचित और सीमित कर नागरिक जीवन की स्वतंत्रता के दायर को सीमित करने का प्रयास हैं।
प्रधानमंत्री पर किए गए चार लाइन की ट्वीट पर पुलिस इतना सक्रिय हो जाती है कि ढाई हजार किलोमीटर से किसी विधायक को गिरफ्तार कर आसाम ले कर चली जाती है।
लेकिन धर्म संसद से लेकर चट्टी चौराहों पर संघी लंपट गिरोह लोकतंत्र को खत्म कर राम राज्य बनाने की घोषणा के साथ अल्पसंख्यकों के नरसंहार का आवाहन कर रहे हैं। इस पर सरकार और उसकी मशीनरी मौन साध लेती है।
दमनकारी जन विरोधी संघी राजनीतिक विचार के खिलाफ जन संघर्षों की कतारें लंबी होते जाने के कारण भाजपा राज में दमन के क्षेत्र का विस्तार अबाध रूप से जारी है ।
अब यह चिंता और असहमति राज्य प्रणाली के उच्चस्तरीय केंद्रों तक पहुंच गयी है। जो निश्चय ही लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है।
इसलिए लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्ध नागरिकों को अपने संघर्ष की आवाज को तेज करते हुए उसे विस्तार देने का हर संभव प्रयास करना चाहिए।
अभी ही फासीवादी प्रोजेक्ट के खिलाफ प्रतिरोध करते हुए भाईचारा और लोकतंत्र की चाह रखने सभी संगठनों और व्यक्तियों को एक मंच पर लाना समय की जरूरत है।
निश्चय ही इस ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा करते हुए फासीवाद को शिकस्त दी जा सकती है। जिसकी संभावनाएं प्रबल होती जा रही हैं।
(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)
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