समकालीन जनमत
कविता

दिव्या श्री की कविताएँ अपने परिवेश को ईमानदारी से व्यक्त करने की कोशिशें हैं

देवेश पथ सारिया


युवा कवयित्री दिव्या श्री की कविताओं को लेकर सकारात्मक बातें पहले कहूँ तो दिव्या श्री द्वारा अपने परिवेश को ईमानदारी से व्यक्त कर देना प्रशंसनीय है-

“कई बहनों का भाइयों के इंतज़ार में नहीं हो सका मुंडन
कई बहनें अपने से बड़े को ‘खाकर’ ही पैदा हुईं
और कई तो पीठिया के जन्म लेते ही निगल गईं उसे।”

और

“पिता किसान हैं
मिट्टी से अधिक खुशबूदार कोई चीज नहीं लगी उन्हें
माँ रसोई की खुशबू से भरी
नहाई रहती है दिनभर”

इन कविताओं से यह परिचय भी मिलता है कि दिव्या पितृसत्ता और उसके दुष्परिणामों से उद्वेलित हैं। वहीं किसान जीवन जैसा कविता के लिए उर्वर परिवेश भी दिव्या के पास है।

  एक अन्य सकारात्मक बात यह है कि दिव्या की कविताओं का शिल्प सुंदर स्वरूप ग्रहण कर रहा है, जिसके चलते उनकी कविताएँ पाठक को आकर्षित करती हैं-

“रोज-रोज के हादसों से तंग आ गई हूँ मैं
तुम्हारे तोहफ़े देने के तरीक़े थोड़े अजीब हैं
अब मैं जीवित रह गई हूँ कविता के शब्द मात्र बनकर
दुःख है कि मैंने अपना प्रेम एक ऐसे व्यक्ति को सौंपा
जिसे छल से भी प्रेम करना न आया कभी”

वहीं दूसरी ओर दिव्या श्री की कविताओं के बारे में कुछ बिंदु हैं जिन पर सुधार की दिशा में काम किया जा सकता है। ‌ पहला बिंदु तो यही कि एकाधिक कविताओं (प्रस्तुत कविताओं की परिधि से बाहर भी) में वे अधेड़ या छलिया प्रेमी वाला विषय चुनती हैं। प्रेम के संदर्भ में अथवा पुरुषों के छल के विरोध के संदर्भ में यह ठीक है। इसे कुछ पाश्चात्य कवयित्रियों द्वारा अक्सर सुंदरता से प्रयोग किया जाता है। लेकिन दिव्या की कविता इस विषय का विस्तृत निर्वाह करने योग्य बहुस्तरीयता अभी ग्रहण नहीं कर पाई है। 

यहाँ प्रस्तुत अपनी एक कविता में तो दिव्या ऐन सेक्सटन की कविता ‘दि बैलेड ऑफ़ अ लोनली मास्टरबेटर’ से सीधी प्रभावित नज़र आती हैं-

“मैं दिन भर अपने बिस्तर से मुहब्बत करती हूँ
जबकि रात, मेरी पिछली मुहब्बत की याद दिलाती है
रोते हुए रातों से प्रार्थना करती हूँ
मेरे शब्द मुझे लौटा जा
मैं एक खत लिखूँगी कभी न मिलने वाले प्रेमी के लिए।”

 हालाँकि ऐन अपनी कविता में पुरुषों द्वारा छले जाने के विरुद्ध सेक्सुअल लिबरेशन और काम के सन्दर्भ में आत्मनिर्भरता का तर्क प्रस्तुत करती हैं।‌ 

 दिव्या श्री ने अपनी कविताओं में जिस तरह अतीत की स्मृतियों को पूर्णतः ईमानदारी से बरता है, वह अच्छा संकेत है। यदि वे इस टिप्पणी में इंगित कुछ बिंदुओं (जिनसे असहमति हो सकती है) पर काम करें तो भविष्य में एक सक्षम कवयित्री बन सकती हैं। 

 

दिव्या श्री की कविताएँ 

  

1. प्रेम की इकाई

पैदल चलते हुए
पांव से अधिक भारी होता है मन
ज्यों मस्तिष्क के सारे सवाल
जूते की नोक से रगड़ खाते हों

मौसम जब उदास होता है
तुम्हारी याद उदासी को दोगुना करती है
अकेले रहने को अभिशप्त
तुम्हें ढूंढें भी तो कहां!

बारिश के मौसम में
तुम बूँद दर बूँद रूह में उतरते हो
वसंत में तुम कली बनकर
मन की ड्योढ़ी पर खिलते हो

दुःख के मौसम में तुम उतने ही हरे रहते हो
जितने गर्मी के दिनों में कैक्टस

तुम्हारे जाने के बाद
मैंने अपने पालतू कुत्ते से प्रेम किया
यकीन मानो उसकी वफादारी के सामने
लज्जित हैं हम

तुम्हें चूमने के इल्ज़ाम में
अपने होंठों को कितना तपाया है मैंने
सच पूछो विरह के आँसू के सामने
फीका है यह गर्मी में बहता पसीना

“अब तुमसे प्रेम नहीं करती” कहती रही
इन शब्दों में भी प्रेम था
मुझे अफसोस है मेरे प्रेम का वजन शब्दों से तौला गया
प्रेम की इकाई शब्द नहीं, दुःख है।

 

2. अंकुरित होने लगे हैं हादसे

रोज-रोज के हादसों से तंग आ गई हूँ मैं
तुम्हारे तोहफ़े देने के तरीक़े थोड़े अजीब हैं
अब मैं जीवित रह गई हूँ कविता के शब्द मात्र बनकर
दुःख है कि मैंने अपना प्रेम एक ऐसे व्यक्ति को सौंपा
जिसे छल से भी प्रेम करना न आया कभी

मैं एक अड़ियल लड़की
जीवन में आए हर हादसे को पीछे छोड़ जीती रही
जिंदगी में कई बार बेमौत मारी गई
पर आँखों में मौत की परछाईं तक न मिली कभी
मेरे प्रेम! अब तुम मेरे जीवन में वो बीज बन गए हो
जिससे रोज-रोज अंकुरित होने लगे हैं हादसे

कई हादसे जीवनभर संग रहते हैं
मेरी ख्वाहिश थी तुम्हारे संग जीने की
इन हादसों के संग नहीं
कितनी बार टूटी हूँ संभल- संभलकर
अब संभलना टूटने से अधिक घातक है
प्रेम में रूठना एक प्रिय शग़ल हो सकता है, पर टूटना…. उतना ही अप्रिय

तुम कैसे हो आजकल खुद से ही पूछती हूँ
तुम्हारे बेहतर होने की प्रार्थना मन ही मन बुदबुदाती हूँ
पेड़ों, पहाड़ों, नदियों सबकी ख़ामोशी में एक आलाप है
तुम्हारे मौन का चीत्कार है
मैं कैसे माफ कर दूँ तुम्हें
इससे पहले कि मुझे खुद को माफ करना होगा
दुःख है कि मैं माफ़ीनामा नहीं, कविता लिखती हूँ

मुझे माफ करने से पहले मुक्ति चाहिए
मेरे ईश्वर! मेरी कविता को ही मेरा माफ़ीनामा समझकर
मुझे माफ कर दे
ताकि मैं मुक्त होकर
उसे माफ कर सकूँ हमेशा के लिए

प्रेम में माफ करना यात्रा की आखिरी मंज़िल है
मैं उससे थोड़ा पीछे ठिठकी कविता लिख रही हूँ।

 

3. एक दिन मैं प्रेमपत्र लिखने बैठी थी

कई दिनों बाद
आज फिर से लिखने जा रही हूँ कविता
लगता है मेरी कविताओं के शब्द कहीं खो गये हैं

मैं चिड़ियों को उड़ता देखती हूँ
और लज्जित होती हूँ अपने कटे पंख देखकर
मैं खिले फूलों को देखती हूँ
और मुरझा जाती हूँ खुद का उदास चेहरा देखकर

मैं डरती हूँ शीशे के सामने जाते हुए
जबकि जानती हूँ मुझमें दुःख का लेप लगा है
जो मुझे पारदर्शी और परावर्ती बना जाता है

एक दिन मैं प्रेमपत्र लिखने बैठी थी
ठीक शीशे के सामने
पर लिख न सकी
अब, जबकि मेरे शब्द खो गए हैं
लगता है लिखना था मुझे

मैं दिन भर अपने बिस्तर से मुहब्बत करती हूँ
जबकि रात, मेरी पिछली मुहब्बत की याद दिलाती है
रोते हुए रातों से प्रार्थना करती हूँ
मेरे शब्द मुझे लौटा जा
मैं एक खत लिखूँगी कभी न मिलने वाले प्रेमी के लिए ।

 

4. आत्मा की मौत

मैं कवि हूँ
किताबों से खूबसूरत कोई इत्र हो
याद नहीं मुझे
पिता किसान हैं
मिट्टी से अधिक खुशबूदार कोई चीज नहीं लगी उन्हें

माँ रसोई की खुशबू से भरी
नहाई रहती है दिनभर
उनके हाथों से रोटियों की महक आती है

हमारे देश में
कुर्सी पर बैठे हुए नामालूम लोग
लगाते हैं मंहगा इत्र
जिसकी खुशबू एक समय बाद
उन्हें खारिज करती है

तानाशाहों के बदन से
लाशों की बू आती है
कोई उन्हें बताए
उनकी आत्मा की मौत हो चुकी है।

 

5. कौन जानता है?

सबसे पहला खत शब्दों से नहीं
स्पर्शों से लिखा गया
उसमें अक्षर नहीं भाव थे
देह नहीं आत्मा थी
साथ नहीं प्रेम था

मैंने पहले ही खत में कर दी चूक
प्रेम की जगह दुःख लिखकर
गोया दुखद ही रहा मेरा जीवन

खत लिखने की उम्र में मैंने कविताएँ लिखीं
कविताओं में प्रेम की जगह स्त्री अस्मिता की बात कही
जब उम्र खत लिखने की नहीं रही
दूर बैठा प्रेमी वक्त-बेवक्त याद आने लगा

वर्षों पहले हम एक-दूसरे से दूर हुए थे
कविताओं ने हमारी दूरियों में भी एक नई जगह पैदा कर दी थी
दुनिया कहती है कवि जिंदा रहते हैं अपने शब्दों में

कविताएँ कवि के मरने के बाद जिंदा रहती हैं यदा-कदा
पर यकीनन कवि अपनी कविताओं में कितनी बार मरता है
यह कौन जानता है?
मेरी कविताएँ मेरी मृत्यु से शापित हैं।

 

6. कवि की जगह विद्रोही लिखना

मैं चाहती हूँ जब मेरी मौत हो
मेरे हाथ में कलम हो और हो इर्द-गिर्द किताबों की सेज
मरने से कुछ पल पहले तक मैं पढ़ना चाहूँगी
प्रिय कवि नेरुदा की प्रेम भरी वे तमाम कविताएँ
और याद करूँगी अपने बिछड़े हुए प्रेमी को

मैं मरना चाहती हूँ पर वो मौत नहीं
जहाँ सब एक-दूसरे के गले लगकर रोएं
मेरे प्रियजनों, मेरी चाहत है मेरी मौत पर एक कविता लिखी जाए
जिसमें मेरे हँसते हुए चेहरे का जिक्र करना कतई न भूलना
फिर देखना हमारा अगला कवि हमसे भी अधिक बाग़ी निकलेगा

याद रखना, मेरी तस्वीर पर पुष्पों का हार नहीं
एक खत लिखकर चस्पां कर देना
और हाँ स्मरण रहे, मेरी तस्वीर मेरे प्रिय कवियों के नीचे ही रहे
मेरे परिचय में कवि की जगह विद्रोही लिखना
और ईश्वर से मेरी जगह भावी कवियों के लिए प्रार्थना करना, ऐसी चाहत है मेरी

मेरे साथ ही जला देना वो नीले रंग की पीली हो चुकी डायरी भी
जिसमें अनगिनत प्रेम पत्र हैं
मैं तुम में से किसी को इजाज़त नहीं देती उस अपठित प्रेमपत्र को पढ़ने की
देखना उस धुएं से खुशबू निकलेगी महकते गुलाब की, पर उस खुशबू में मेरे प्रेमी का पता मत ढूँढना

मेरे अदद मुसलमान मित्रों, मेरी वफ़ात पर फ़ातिहा नहीं कविता की चंद पंक्तियां पढ़ना
और हाँ मेरी मौत का इश्तिहार बनाकर पेश मत करना अख़बार में
कि कहीं मेरे महबूब की मुहब्बत में ख़लल न पड़ जाए।

 

7. अधूरी कविता

कई चीजें एक साथ आती हैं जीवन में
जैसे खुशी के साथ पीड़ा
प्रेम के साथ वियोग
अहिंसा के साथ हिंसा
हँसी के साथ मायूसी

जानते हो तुम्हारे साथ आयी
पूरी की पूरी एक अधूरी कविता।

 

8. माँ बन चुकी प्रेमिका

नवजात शिशु को अपनी गोद में लिये
उसकी आँखों में ढूंढती इक तस्वीर अपने प्रेमी की
पति के पीठ पे फिराती है अँगुली और लिखती है नाम
जिसे होठों पर लाने की सहूलियत न थी

बेटे को दुलराते हुए करती है याद
प्रेम में ली गई पहली चुम्मी को
जरूरी नहीं पहली चुम्मी होठों पे ली गई हो
ज्यादातर प्रेमी माथे पर छोड़ते हैं प्रेम का पहला निशान

‘चंदा मामा दूर के पुए पकावे गुड़ के’ सुनाते हुए
चाँद से पूछती है अपने प्रेमी का हाल
सिसकती है लोरी में जी भर के
कि प्रेमी के साथ रोना उसका पसंदीदा शग़ल था

भारी व्यस्तता में ईश्वर के आगे करती है प्रार्थना
भरी महफिल में पढ़ती है रूमानी नज़्म
बड़े होते बेटे में ढूंढती है
बड़ी होती दाढ़ी अपने प्रेमी की

कभी-कभार यूँ मुस्कुराते हुए पूछ लिया करती है वह
उसकी प्रेमिका के बारे में
हया से नजरे चुराते हुए बेटे कुछ ऐसे देखते हैं
कि याद आती है उसे अपनी ही छवि प्रेमिका वाली

पति के साथ देह लेकर रहती कई स्त्रियाँ
मन चाँद पर छोड़ आती हैं
देखना मेरे प्रिय पुरुष!
रात के बारह बजे चाँद पे दो तस्वीर दिखती है
एक तुम्हारी, एक मेरी।

 

9. बारिश ईश्वर का दिया तोहफा नहीं

वे बहनें नहीं आती हैं नैहर सावन में
जिनके भाई नहीं होते
वे कल्पना में ही व्यतीत करती हैं माह
नहीं लगातीं आलता अपने पांव में
मेहंदी का रंग फीका लगता है उन्हें

सप्ताह भर पहले से ही
वे नहीं जातीं बाजार
सजी राखियां देखकर
भाई याद आता है उन्हें

बारिश ईश्वर का दिया तोहफा नहीं
आंसुओं की नदी है उन बहनों के लिए
जिन्हें एक धागा नसीब नहीं हुआ

सावन माह है हरियाली का
ये नहीं समझ पाईं वे बहनें
जिनकी आँखें रहीं हमेशा भरी-भरी
बिन गुनाह पश्चाताप में डूबी बहनें
हर बार सुन लेती रहीं वे बातें
जो कहे जाते हैं अब भी अबूझ शब्दों में

कई बहनों का भाइयों के इंतज़ार में नहीं हो सका मुंडन
कई बहनें अपने से बड़े को ‘खाकर’ ही पैदा हुईं
और कई तो पीठिया के जन्म लेते ही निगल गईं उसे।

 

10. पसीने की गंध

चले जाना महज शब्द भर नहीं है
उसके साथ चला जाता है बहुत कुछ
अतीत की कुछ पुरानी यादें
तो भविष्य में जुड़ने वाली कुछ नयी कहानियाँ भी
इसलिए तो जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है (कवि केदारनाथ सिंह)

तुम गये थे वहाँ से
जहाँ से स्मृतियां जुड़ी हैं तुम्हारे पुरखों की
तुम्हारे पूर्वजों ने बहुत कठिनाई से
कुछ धूर जमीन पर घर बनावाये थे
जिसे तुम बेचकर शहरों की चकाचौंध पर फिदा हो गये

अब जब तुम लौट रहे हो
तुम्हारे माथे पर कलंक की पट्टी बंधी है
तुम्हारी आँखें पश्चाताप के आंसुओं से डबाडब हैं
यहाँ तक कि तुम्हारे कदमों के निशान भी मिट गये हैं
जिस रास्ते से तुम गए थे
वे पगडण्डियां भी भूल गई हैं

लेकिन अब जब लौट रहे हो
तो कभी भी बहिष्कार मत करना
अपनी पुरखों की यादों का
अपने पूर्वजों के पसीने की गंध
तलाशना वहाँ की सोंधी मिट्टी में।


 

बेगूसराय से सम्बन्ध रखने वाली युवा कवयित्री दिव्या श्री की कलम नई है। ये कला संकाय में स्नातक कर रही हैं। दिव्या अंग्रेजी साहित्य की छात्रा हैं। इनकी कविताएँ कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। 

सम्पर्क: divyasri.sri12@gmail.com है।

टिप्पणीकार देवेश पथ सारिया ताइवान में खगोल विज्ञान में शोधरत युवा कवि हैं। साहित्य अकादेमी, दिल्ली से उनका प्रथम कविता संग्रह ‘नूह की नाव’ और सेतु प्रकाशन से उनकी ताइवान डायरी ‘छोटी आँखों की पुतलियों में’ इसी साल 2022 में प्रकाशित हुए हैं।

संपर्क : deveshpath@gmail.com

 

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion