समकालीन जनमत
कविता

यूनुस ख़ान की कविताएँ जीवन और समय की जटिलताओं को दर्ज करती हैं

निरंजन श्रोत्रिय


सरलता का शिल्प सबसे जटिल होता है। जीवन और समय की जटिलताओं को कविता के जटिल शिल्प में ढाल देना एक रूपान्तरण हो सकता है, एक पठनीय कविता कैसे होगी कहना मुश्किल है। जीवन की इस जटिलता पर छाए कुहासे की पर्त को एक तेजस्वी प्रकाश से इस तरह बेध कर उघाड़ देना कि वह साफ-साफ दिखाई दे, एक दुष्कर कवि-कर्म है।

युवा कवि यूनुस खान कविता में एक बेपहचाना नाम है। ज़रूर अपनी प्रतिभा पर ओढ़ ली गई संकोच की चादर इसका कारण रहा होगा। यूनुस आकाशवाणी से जुड़ी युवा प्रतिभा है। फिल्म और संगीत की परम्परा और उनके आधुनिक स्वरूप पर उनकी गहरी समझ है।

मुझे इस युवा कवि के संवेदन चाक्षुष और सांगीतिक लगते हैं। हो सकता है उनका व्यवसाय इसके मूल में हो। परिणामतः उनकी कविताओं की भाषा तमाम विसंगतियों, गतिरोध और विद्रूपताओं को भी एक प्रवाह की तरह अभिव्यक्त करती है। यह एक ऐसा सरित-प्रवाह है जो गहन संवेदनों, सधे शिल्प और सहज भाषा की कल-कल संगीतमयी ध्वनियों के साथ पाठक के भीतर गहरे तक उतर जाता है।

कविता में संप्रेणीयता क्या होती है, ये कविताएँ मानो उसका उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। यहाँ दी गई पहली कविता ‘साइकिल सीखती लड़की’ में युवा कवि एक दृश्य-बंध रचते हैं। कविता-पाठ और एक लड़की के साइकिल सीखने का समांतर दृश्य! दोनों दृश्य बेमेल हैं। लेकिन कविता-पाठ के दृश्य के जरिये वे वर्तमान साहित्य-जगत का पूरा सच ही सामने नहीं लाते बल्कि उसे साइकिल सीखती लड़की वाले दृश्य के समानांतर खड़ा कर देते हैं। इस पैरेललिज़्म के जरिये वे कविता का एक मार्मिक और प्रश्नाकुल क्लाईमेक्स रचते हैं–‘कविताओं और लड़की ने शुरू किया है चलना एक साथ/ देखना यह है कि कविताएँ आगे निकलती हैं लड़की से/ या लड़की पछाड़ देती है कविताओं को’।

‘घुसपैठ’ कविता में महानगरीय असमंजस है। नगरीय सभ्यता की भव्य इमारत क्या पर्यावरण की कब्र पर ही बनेगी? यह प्रश्न कवि को पूरी कविता में बेचैन करता है। जब हम प्रकृति से उसका प्राकृतिक आवास छीन लेंगे तो वह इसी तरह हमारी जगहों पर आएगी।

‘बारिश’ आधुनिक संचार क्रांति के हमारे जीवन में बेशर्म अतिक्रमण की कविता है। शतुरमुर्ग में तब्दील मनुष्य अब सोशल मीडिया और कम्प्यूटर में इस कदर आग्रीवा घुसा हुआ है कि उसे पहली बारिश की सौंधी गंध भी पूरी तरह आल्हादित नहीं कर पाती। उसकी रूचि बारिश की आहट सुनने और भीगने के बजाए उसे डाटा में ‘अपडेट’ करने में अधिक है। संचार माध्यमों ने हमारे छोटे-छोटे मगर जीवंत सुखों में किस कदर हस्तक्षेप किया है, यह कविता उसकी मौजूं बानगी है।

‘जब बूढ़े हो जाएँगे’ कविता में नॉस्टेल्जिया एक मखमली अहसास के साथ आया है- फिल्म ‘मौसम’ के संजीव-शर्मिला या ‘आँधी’ के संजीव-सुचित्रा की तरह–‘स्मृतियाँ मेरे लिए केवल छवियाँ होंगी/ और तुम्हारे लिए एक तारीखवार ब्यौरा’। और तो और, इसमें किसी सार्थक के गुम जाने/ विलुप्तप्राय हो जाने की आशंकाभरी टीस भी है। ‘दोष तुम्हारा’ कविता में एक ‘विट’ है। एक सलोनी-सी दुनिया के उजड़ जाने का ठीकरा आखिर किस के सिर फोड़ा जा सकता है! उसी के सिर न जिसके कारण वह दुनिया सलोनी थी! दोषारोपण की इस प्रवृत्ति को कवि कविता की पंचलाइन में एक कटाक्ष के साथ चित्रित करता है। यों इस तरह ‘डिकोड’ करने पर यह आधुनिक संदर्भों में स्त्री-विमर्श की कविता है-बगैर शोर-शराबा किये।

‘छोटे शहर के लड़के’ शृृंखला की दोनों कविताएँ गाँव-कस्बों से शहर में विस्थापन की व्यथा-कथा है। विषय भले नया न हो लेकिन कुछ नए बिम्बों की वजह से ये कविताएँ अपना अलग प्रभाव छोड़ती हैं। कस्बाई मानसिकता के चलते प्रेम का क्या हश्र होता है उसका जीवंत और दिलचस्प अभिव्यक्ति यूनुस अपनी कविताओं में करते हैं। विसंगतियों और विफलताओं के कारण किस तरह व्यक्तित्वांतरण होता है, उसको यह कविता (2) अद्भुत तरीके से रखती है।

‘इस बार’ नॉस्टेल्जिया और विस्थापन का विलोम रचती कविता है। यह कविता का उदास कर देने वाला सच है। एक बदला हुआ जीवन हमें किस तरह अकेला कर अपनी जड़ों से काट देता है, उसका मर्मस्पर्शी ब्यौरा है यह कविता–‘गया तो था पंद्रह दिनों के लिए अपने शहर/ पर लौट आया दूसरे ही दिन अचकचाकर।’ ‘मंसूरी साहब के बारे में’ चार कविताओं की शृृंखला है जिसमें युवा कवि ने शुष्क सैद्धांतिकी, दुनियादारी, कथित व्यावहारिकता, असुरक्षा, अकेलेपन, उपयोगितावाद और नियति को एक चरित्र ‘मंसूरी साहब’ के माध्यम से गढ़ा है। इस रॅटारिक में वे जीवन के बहुरंगी आयामों और कठोर सच्चाईयों को इतने सहज लेकिन मार्मिक बिम्बों/ काव्य स्थितियों में विन्यस्त करते हैं कि अचंभा होता है। कविता में मौजूद मंसूरी साहब एक द्रष्टा हैं जो तेजी से बदलते हुए समय को देख रहे हैं-तटस्थ भाव से। हालांकि बदली हुई स्थितियां और समय उनको अपने ही समय-समाज में अकेला कर देती हैं और हम देखते हैं कि पाठक भी उनके साथ खड़ा उनके कंधे पर हाथ रखे है-उनके अकेलेपन को एक हद तक दूर करता हुआ।

यूनुस खान एक बेहद प्रज्ञावान युवा कवि हैं जिन्होंने न जाने क्यूँ अपने लिखे को (भले वह थोड़ा हो) अपनी शर्म, संकोच और अविश्वास की धुंध में दबा दिया है। छपास, आत्ममुग्धता और आत्मप्रचार के इस ‘इंस्टेंट’ युग में अपनी प्रतिभा को यूँ छिपाए रखना भी दुर्लभ है। शायद मंसूरी साहब का कुछ ज़्यादा ही असर है युवा कवि यूनुस खान पर। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि ऐसी अनूठी कविताएँ भी उसी प्रभाव के कारण हो।

 

यूनुस खान की कविताएँ

1. साइकिल सीखती लड़की

तपती दोपहर में कॉलोनी के हॉल में
कवि सुना रहा है अपने ताज़ा संग्रह की कविताएँ
मित्रों को।
बाहर एक लड़की सीख रही है साइकिल चलाना
एक तरफ रचना की स्मृतियों में लौटते हुए
कवि पढ़ रहा है अपनी कविताएँ
दूसरी ओर गिर पड़ी है साइकिल सीखती लड़की

ताज़ा कविताओं से कुछ दूरी पर
ताज़ा बने घावों से रिस रहा है ताज़ा खून

कविता की नई दुनिया रची जा रही है हॉल में
स्मृतियों, विचारों और सपनों के सहारे

कॉलोनी के मैदान में लड़की
फिर उठ खड़ी हुई है
चल पड़ी है साइकिल पर अपनी दुनिया के सपनों की तरफ

कवि के श्रोताओं में भी हैं कुछ कवि
जो सोच रहे हैं अपने-अपने भावी संग्रहों के बारे में
हॉल की हवा में तैर रही हैं ताज़ा कविताएँ

कविताओं और लड़की ने शुरू किया है चलना एक साथ
देखना ये है कि कविताएँ आगे निकलती हैं लड़की से
या लड़की पछाड़ देती है कविताओं को।

 

2. घुसपैठ

बंद करो खिड़कियाँ दोपहर को
आजकल मधुमक्खियों ने कहर ढाया हुआ है

शाम को भी बंद रखो खिड़कियाँ
तिलचट्टे, चूहे, मक्खियाँ, पंखियाँ, झींगुर
भरभराकर घुस आएंगे मौका पाते ही

नजर रखो बालकनी पर
कबूतर कहीं अंडे न दे दें
चिड़ियाँ सजा न दे अपना बसेरा

ज्यादा दिन घर को बंद भी नहीं रखना है
दीवारों पर पसर जाएँगी मकड़ियाँ, दीमकें
फफूँद, तिलचट्टे, चीटियाँ और छिपकली

सुरक्षित रखो अपनी खिड़कियाँ, बालकनी, दीवारें
जबसे तुमने गड़ाए हैं नाखून जंगलों पर
सुना है, शहर जंगल बन रहा है।

 

3. बारिश

फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर और यू-ट्यूब पर गर्दनें झुकाए शतुरमुर्ग
अकबका जाते हैं अचानक
जब मई की किसी तारीख को बरसता है आसमान
कुछ पल अच्छी लगती है बारिश
मिट्टी की सोंधी खुश्बू पुरानी सदियों के पार से आई लगती है
गुनगुनाने ही वाले होते हैं बारिश का गीत
पर फिर अचानक छिप जाती है गर्दन
बिजी हो जाते हैं शतुरमुर्ग बारिश के अपडेट में

अब बारिश पर भीगती नहीं देह न मन!

4. जब बूढ़े हो जाएँगे

कोहरे वाले उस शहर में जाएँगे
जब बूढ़े हो जाएँगे हम
हम जाएँगे बहुत सारी फुर्सत वाले उस शहर में
जिंदगी भर की थकान मिटाने
बांसुरी की टेर जैसी सुबहों में
ओढ़ लेना तुम शॉल सितारों वाला

और मैं पहन के मोटा-सा चश्मा
चलूँगा टहलने तुम्हारे साथ
फीके रंगों वाली तस्वीरें देखकर गहरी होती जाएँगी स्मृतियाँ
याद करोगी तुम बहुत बरस पहले कैसा हड़बड़ा था मैं
और मुझे याद आएगा पहाड़ी झरने जैसा तुम्हारा गीत

स्मृतियाँ मेरे लिए केवल छबियाँ होंगी
और तुम्हारे लिए एक तारीख़वार ब्यौरा
बाल भले सफेद हो जाएँ पर मन हमारे तब भी होंगे गुलाबी

सोचता हूँ कि ज़रूर जाएँगे हम कोहरे वाले उस शहर में
जब हो जाएँगे बूढ़े
शर्त ये है कि बचा रहे वो शहर तब तक।

 

5. दोष तुम्हारा

अच्छी खासी सलोनी-सी दुनिया का टूट गया हौसला
जब लौटे मुसाफिर तो पहचान ना सके पुरानी डगर

अचानक ही तो छा गए बादल सूरज पर
जाने क्यों तिरछी-सी लगी मंदिर की पताका
छलक कर बिखर गया बावड़ी का जल
ऊँघ कर औंधी गिरी खम्भे से टिकी साईकिल
रस्सियों पे सूखते कपड़ों ने खेली फिसलपट्टी
उठंग-सी हो गई गनेस-जी की तस्वीर
साष्टांग ही करने लगा आंगन का नल
अचकचाई-सी लगी चौरे की तुलसी मैया
रसोई के डिब्बों में हो गई कबड्डी

सलोनी-सी दुनिया का सचमुच टूट ही गया हौसला
सबने तुमको दोष दिया
तुम पर ही इल्जाम धरा
तिरछी थी जब तुम्हारी बिंदिया
सीधा क्यों उसको ना किया!

6. छोटे शहर के लड़के-1

हम छोटे शहर के लड़के अब बड़े शहर के मुंशी हैं
और जा रहे हैं ‘और बड़े शहर’ के मजदूर बनने की तरफ

हमने जवानी में लिखी कविताएँ और
कलम चलाते रहने का वादा किया था खुद से
जवानी की डायरी में अभी भी मौजूद हैं गुलाबी कविताएँ
पर कलम अब मेज पर पड़ी जंग खा रही है
और हम की-बोर्ड के गुलाम बन गए हैं।

मित्र, हम दुनिया को बदलने के लिए निकले थे
और शायद ने हमें ही बदल दिया भीतर बाहर से
अब हम नाप-तौल कर मुस्कुराते हैं
अपनी पॉलीटिक्स को ठीक रखने की जद्दोजहद करते हैं
झूठी तारीफें करते हैं, वादे करते हैं कोरे और झूठे
और हर शाम सिर झटककर दिन भर बोले झूठों को भुला देते हैं।

हम छोटे शहर के बड़े दोस्त थे, आजीवन मित्र
लेकिन बड़ी दुनिया के चालाक बाज़ार ने खरीद लिया हमें

हम छोटे शहर के संकोची बच्चे
आज कितनी बेशर्मी से बेच रहे हैं खुद को

 

7. छोटे शहर के बच्चे-2

हम छोटे शहर के लड़के जहाँ मुश्किल से होता है प्यार
हमने मांगी प्यार हो जाने की मन्नतें बड़ी शिद्दत से
पर हमें तो क्या किसी भी साथी को हो नहीं रहा था प्यार
प्यार उपन्यासों और फिल्मों में आसानी से हो रहा था
प्यार हो रहा था झूठी कविताओं में

हमारे सपनों में भले आईं- पर जीवन में सिरे से गायब थीं
वो लड़कियाँ जिनसे हो सकता था प्यार

हमारे शहर की लड़कियाँ छेड़ी जाती रहीं प्यार के नाम पर
वे लहसुन और प्याज का तड़का लगाती रहीं
रटती रहीं बी.ए. की कुन्जियाँ

रूमालों पर कशीदे काढ़ती और दुपट्टों में सितारे टांकती लड़कियाँ
नींद में देखती रहीं सपनों का राजकुमार
हमारे कायर शहर की लड़कियाँ कर नहीं पाईं
साहस के साथ प्यार
और गाय की तरह बांध दी गईं कमाऊँ दूल्हों के खूँटों से

प्यार की मन्नतें मांगते हम छोटे शहर के लड़के
भरते रहे नौकरी की अर्जियाँ
और ठेल दिए गए कमाऊ दूल्हों की कतार में
मजबूरी में हमने किया अपनी पत्नी से प्यार

पहले हम छोटे शहर के लड़के थे जहाँ मुश्किल से होता था प्यार
आज हम छोटे शहर के गृहस्थ हैं
और करते हैं प्यार करने वालों का विरोध।

 

8. इस बार

आधे घण्टे में खत्म हो गईं पिता की बातें

माँ ने खुद कुछ नहीं कहा-
कहती रहीं उनकी आँखें
आतंकित करती रही संबंधों के बीच पसरी शुष्कता
बुजुर्गों के चेहरों पर बने उम्र के निशान
कुशल गृहिणी की औपचारिकता ओढ़े बहन तो
पहचानी ही नहीं गई
और भाई का चेहरा लगा दफ्तर के दुश्मन सहकर्मी की तरह
दोस्त कायर, डरपोक और कमीने लगे इस बार

गया तो था पंद्रह दिनों के लिए अपने शहर
पर लौट आया दूसरे ही दिन अचकचाकर।

 

9. मंसूरी साहब के बारे में चार कविताएँ

।।एक।।

मंसूरी साहब पढ़ाते हैं अर्थशास्त्र
मध्यप्रदेश के एक कस्बेनुमा शहर में

वे पढ़ाते हैं मांग और पूर्ति का नियम
कि यदि सभी परिस्थितियाँ समान रहें
और बढ़ जाए किसी वस्तु की मांग
तो घट जाते हैं मूल्य
यदि घट जाएँ मूल्य तो बढ़ना चाहिए
उस वस्तु की मांग
फिर वे गिनाने लगते हैं इस नियम के अपवाद
और भूल जाते हैं खुद को गिनना
कि जोड़ घटाव के इस युग में
किसी भी क्षण समान नहीं होती परिस्थितियाँ
कि किसी भी कस्बेनुमा शहर में एक कवि भी
अर्थशास्त्र का शिक्षक हो सकता है

कि कुछ चीजों की सिर्फ पूर्ति होती है मांग के बिना।

 

।। दो ।।

कविताएँ नहीं लिखीं मंसूरी साहब की तरह
उनके एक भी छात्र ने
वे बहुत कुछ हुए कवि होने के सिवा

व्यापारी बने, चिरकुट रहे, घिस्सू क्लर्क बन गए
कुछ ना कर पाए जो वे हो गए शिक्षक
पढ़ाया उन्होंने भी अर्थशास्त्र ही
लेकिन मंसूरी साहब की तरह नहीं
उन्होंने गढ़ा शिक्षा का नया व्यवसाय प्रबंध
मोटी-मोटी पुस्तकंे संयोजित की उन्होंने
पाठ्यक्रम में लगवाया बड़ी मेहनत से
सब कुछ किया उन्होंने पढ़ाने के सिवा
और
मंसूरी साहब पढ़ाते रहे अर्थशास्त्र।

 

।। तीन ।।

पिछली रात मंसूरी साहब ने देखा
रिटायर हो जाने का सपना
और वो सुबह कुछ और बूढ़े पाए गए

फिर बहुत देर तक ब्रश करते रहे मंसूरी साहब
मानो ऐसा करने से शायद देर से आए सेवानिवृत्ति
उस दिन उन्होंने अर्थशास्त्र नहीं पढ़ाया
उन्होंने सुनाईं कुछ चमकीली कविताएँ
समझाया कि एक बिंदु पर आकर
कितनी व्यर्थ हो जाती हैं किताबें
कि जीवन किताबों में टंके शब्द नहीं हैं
माथे पर चुहचुहाया पसीना है
आँगन में खिली धूप है, रसोई से उठता धुआँ है

उस रात सोए नहीं मंसूरी साहब
कि फिर न आ सके
रिटायर होने का सपना।

 

।। चार ।।

एक बार जो गए तो फिर लौटकर नहीं आए
मंसूरी साहब के छात्र उनके पास
आए तो केवल उनकी उपलब्धियों के चर्चे
जिन्हें तमगे की तरह सजाया मंसूरी साहब ने
अपने सीने पर

सबसे चमकीले तमगे वो बने
जो चले गए सात समंदर पार
जिन्होंने कभी नहीं किया उन्हें याद
जिनके लिए पुरानी चीजों की सबसे सही जगह है
कचरे का डिब्बा

मंसूरी साहब अभी भी पढ़ाते हैं अर्थशास्त्र
कॅरियर के आखिरी दिनों में
मध्यप्रदेश के एक कस्बेनुमा शहर में।


कवि यूनुस खान, जन्मः 20 दिसम्बर 1972, दमोह मध्यप्रदेश। शिक्षाः हिन्दी और पत्रकारिता में स्नातकोत्तर। सृजनः कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशन। फिल्मों एवं संगीत पर प्रचुर लेखन।

सम्प्रतिः विविध भारती सेवा में उद्घोषक

सम्पर्कः 801 कासा बेलिसीमो, प्लॉट नंबर 9, गोराई 3, बोरीवली पश्चिम, मुम्बई-92। मोबाइलः 09892186767 ईमेल: yunus.radiojockey@gmail.com

 

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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