समकालीन जनमत
कविता

विश्वासी एक्का की कविताओं में प्रेम और संघर्ष दोनों ही परम स्वतंत्र और प्राकृतिक रूप में मिलते हैं

दीपक सिंह


व्यक्ति जिस समाज से आता है उसकी चेतना के निर्माण में उसका अहम योगदान होता है | विश्वासी एक्का की कविताओं से गुजरते हुए धरती, पहाड़, जंगल, नदी की चिंता प्राथमिक रूप में दिखाई पड़ती है |

दरअसल कवयित्री का पूरा व्यक्तित्व ही प्रकृति में लय दीख पड़ता है या कहें कि यही पूरे आदिवासी समाज की सच्चाई है |

प्रकृति यहाँ अन्य नहीं है वह परिवार का हिस्सा है, वृक्ष उसका पूर्वज है, देवता है | कथाकार रणेंद्र के शब्दों में कहें तो –‘ आदिवासी संस्कृति में प्रकृति से खास किस्म का जुडाव है |

वह जीवन में इस तरह घुली मिली है कि वह उनका गोत्र भी है ,पूर्वज भी है और देवता भी है | समस्त पर्व त्योहारों में प्रकृति परिवारी सदस्य के रूप में शामिल है |’ इस प्रकृति के प्रति कोई भी क्रूरता उसे वेदना सिक्त कराह से भर देती है |

आजाद भारत में खासकर उदारीकरण के बाद विकास की जो पटकथा लिखी गई उसमें हर चमकती चीज अपने अन्दर कैसे एक वेदनासिक्त कराह को समोये हुए है इसकी कहानी कहती है कविता सतपुड़ा –एक | इस वेदना की धार इतनी अतल में बहती है कि प्रथम दृष्टया इसे कविता में पहचानना ही मुश्किल है —
पर कहीं कुछ तो था इन वादियों में
पहाड़ों के समानांतर
लहरदार कोई वेदनासिक्त
उभर आई थी एक कराह
जैसे कोई आवाज दे रहा हो |
सरोदा के पीछे से
जब पानी की गहराई में
डूब रहा था सूरज
एक नाविक
विरह गीत गा रहा था।

विश्वासी एक्का की कविताओं में प्रेम और संघर्ष दोनों ही परम स्वतंत्र और प्राकृतिक रूप में मिलते है कदाचित यह भी आदिवासी जीवन धारा से सहज ही उपजते हों हालाँकि मेरे लिए इस पर कोई निर्णय दे पाना मुश्किल है|

बहुत लोगों को नर्मदा और सोन की लोककथा पता होगी या शायद न भी पता हो, तो कथा कुछ यूँ है कि नर्मदा का विवाह सोन से होना तय हुआ था |

नर्मदा अपने प्रेमी के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक थी | उसने कौतुहलवश अपनी सखी को सोन के पास भेजा कि वह उसे देख कर आये लेकिन जब उसकी सखी सोन के पास पहुँचती है तो सोन भूलवश उसे नर्मदा समझ बैठता है तथा वह भी सोन के प्रेम में पड़कर सत्य को छिपा लेती है |

दूसरी तरफ सखी के लौटने में विलम्ब होता देख नर्मदा उसकी खोज में निकलती है लेकिन निर्धारित स्थल पर पहुँच कर जब वह सोन को अपनी सखी से प्रेमालाप में मग्न पाती है तो मानिनी हो तुरंत वापस मुड जाती है |

वस्तुस्थिति का ज्ञान होने पर सोन नर्मदा को मनाने की बहुत कोशिश करता है लेकिन वह वापस नहीं लौटती | और तब से नर्मदा उलटी ही बहती है | वैसे तो यह एक भौगोलिक सच्चाई है लेकिन आदिवासी समाज के लिए नदी और जंगल कोई जड़ वस्तु नहीं हैं इसलिए वह इसे दोनों के प्रेम के रूप में देखता है और ऐसा प्रेम जिसमें स्वाभिमान सर्वोपरि है , लेकिन यह स्वाभिमान सतपुड़ा के जंगलो को रंचमात्र भी लेश नहीं पहुंचाता बल्कि प्रेम का वह उदात्त रूप धारण करता है कि दोनों के बीच बसे जंगल हरी चूनर ओढ़ लेते हैं –
नर्मदा उल्लास से भर उठी थी
और पूर्व की ओर
सोन छोड़ चुका था एक पतली धार
एक किनारे पर सूख रहा था
या कौन जाने
अन्तःप्रवाही हो चला था|
कगारों पर भर चुकी थी
अगाध गाद |
मेरे लिए इतना भर जान लेना काफी था
उन दोनों का प्रेम
सतपुडा की वादियों में
हरा रंग भर चुका था |

लेकिन यह कितना त्रासद है कि नदी ,पहाड़ ,जंगल जिसके आजा-बाबा हों उन्हें ही उसका सबसे बड़ा दुश्मन घोषित कर दिया जाय और तो और अपने परिवेश से बेदखल करने की बर्बर कोशिशों को तथाकथित सभ्य समाज के सामने औचित्यपूर्ण भी सिद्ध किया जाय | कवयित्री अपने पूर्वज कवि भवानी प्रसाद मिश्र को याद करते हुए बहुत ही मार्मिकता से कहती है–
अजगरों से भरे जंगल
कष्टों से सने जंगल
इन वनों के खूब भीतर
चार मुर्गे –चार तीतर
पालकर निश्चिंत बैठे
गोड़ तगड़े और काले |
सोच सकते हो कि
अब तुम्हें जंगल का दुश्मन बताया जा रहा है |

इन कविता पंक्तियों से कोई यह न समझे कि यह केवल अपनी दीन दशा का अश्रुविगलित वर्णन भर है यह समझना हिन्दुस्तान के आदिवासी संघर्ष से घोर अपरिचय ही कहलायेगा क्योंकि १८५७ के स्वंत्रता संग्राम के लगभग सौ साल पहले ही आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का बिगुल फूंक दिया था | वह धार और वह ज्वाला आज भी वैसे ही प्रज्ज्वलित और संघर्षमयी है –
अगर तुमने जंगल छीना
दहक उठेगा बसंत
बौरा जायेंगी अमराइयां
जलकर काली हो जायेगी कोयल
कवयित्री पूंजीवादी षड्यंत्र के तामाम दांव-पेंचों से बखूबी परिचित है और उसके पास निराला की तरह ही शक्ति की एक मौलिक कल्पना का मॉडल है जैसा कि एक अफ्रीकी साहित्यकार चिनुआ अचेबे ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था –“until the lions have their own historians the history of hunt will always glorify the hunter “( जब तक शेरों के अपने इतिहासकार न होंगे तब तक शिकार के इतिहास में शिकारियों का गुणगान होगा )
कुछ इसी से मिलती जुलती बात कवियित्री भी कहती है कि –
शेर समूह में शिकार करते है
नीलगायों , तुम्हें भी समूह में रहना होगा
अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए

कहने का तात्पर्य यह है कि वास्तविक संघर्ष की विरासत और चेतना अनचाहे ही आपको वैश्विक बना देती है | आज के फासीवादी पूंजीवाद के दौर में इस चेतना को समझना और इसके साथ खड़े रहना ही एक बेहतर दुनिया का विकल्प हो सकता है |

विश्वासी एक्का की बहुतेरी कविताओं में स्त्री जीवन के दुःख मुखरित होते हैं,स्त्री बहुतेरे दुःख सहती है लेकिन वह परम्परागत स्त्री विमर्श के दायरे के बाहर की स्त्री है जो सियानी (बुद्धिमान ) है ,स्वाभिमानी है तथा हर बर्बरता और दमन के सामने तनकर खडी है |

‘बिरसो’ नामक कविता के एक बहुत ही घरेलू उदाहरण से इसे समझा जा सकता है, जिसमें नातिन अपनी दादी से पूछती है कि तुम्हारे कानों में इतने छिद्र क्यों हैं ?क्या तुम बहुत सारे गहने पहनती थी? उत्तर में दादी कहती है कि नहीं मैं तो इनमें साही के काले सफ़ेद कांटे खोंसती थी —————-
एक दिन आजो को गुस्सा आ गया था
किसी बात पर
मारने दौड़े थे आजी को
यकायक ठिठक गए थे
आजो के कदम
आजी के हाथों में
साही के काँटों को देखकर |
ललकारा था आजी ने
हथियार बन गए थे साही के कांटे |
विजयी मुस्कान तैर गयी थी होंठो पर |

विश्वासी एक्का की कविता इसी तरह के विविध अनछुए ,अनगढ़ अनुभवों को समेटते हुए आगे बढ़ती है, कहने को तो अभी बहुत कुछ है लेकिन ज्यादा कहने से कविता की हानि होगी तो आइये पढ़ते हैं विश्वासी एक्का की कुछ चुनिन्दा कविताएँ –

 

विश्वासी एक्का की कविताएँ

1. // सतपुड़ा – एक//
मेरे भीतर उग आये सूने जंगल से
सतपुड़ा का जंगल अलग था
चिल्पी की वादियों में
बैगा स्त्रियों की आँखों से
झाँक रहा था मेरे भीतर का मौन……|
उस उूँचे टोंगरी पर खड़ा वाच टॉवर
किसी पुरखे की तरह प्रहरी बन गया था |
पर कहीं कुछ तो था इन वादियों में
पहाड़ों के समानान्तर
लहरदार कोई वेदनासिक्त
उभर आई थी एक कराह……
जैसे कोई आवाज दे रहा हो |
सरोदा के पीछे से
जब पानी की गहराई में
डूब रहा था सूरज
एक नाविक
विरह गीत गा रहा था |
चिल्पी के लोकगीतों में
मानो मेरा आदिम राग
प्रस्फुटित हो चला था |
एक सूखा पेड़
जाने कब से खड़ा था
मानो किसी अपने की
बाट जोह रहा था |

//सतपुड़ा – दो//
मैं सतपुड़ा के पूर्वी छोर पर खड़ी थी
सरोदा उलांचे मार रहा था
मवेशियों का रेला
थमने का नाम नहीं ले रहा था |
पश्चिमी छोर पर सुनाई दे रहा था
एक गदगद नाद |
नर्मदा उल्लास से भर उठी थी
और पूर्व की ओर
सोन छोड़ चुका था एक पतली धार
एक किनारे पर सूख रहा था
या कौन जाने
अंतःप्रवाही हो चला था |
कगारों पर भर चुकी थी
अगाध गाद |
मेरे लिए इतना भर जान लेना काफी था
उन दोनों का प्रेम
सतपुड़ा की वादियों में
हरा रंग भर चुका था |

//सतपुड़ा – तीन//
तराशे हुए चमकते पत्थर
नदी की संपत्ति हैं
रेत उसके हैं
सरकंडे उसके हैं
मछलियां उसकी हैं
कलकल निनाद उसका है|
पूरी रात चमकते तारों को पता है
अमावस उन्हीं का है
पूरनमासी उन्हीं की है |
सीपियों को पता है
समन्दर उनका है
गर्भ में पल रहे मोती उनके हैं |
तुम्हें भी तो यही पता था
कि जंगल तुम्हारा है
जंगल में सदियों से बसे पुरखों ने
तुम्हें यही तो बताया था |
हमारे पुखा कवि ने भी यही लिखा-
बाघ वाले ,शेर वाले,सात-सात पहाड़ वाले
अजगरों से भरे जंगल
कष्टों से सने जंगल
इन वनों के खूब भीतर
चार मुर्गे चार तीतर
पाल कर निश्चिंत बैठे
गोड़ तगड़े और काले |
सोच सकते हो कि
अब तुम्हें जंगल का दुश्मन बताया जा रहा है
सच लिखा कविवर आपने-
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
ऊंघते अनमने जंगल |

2. //जंगल-जंगल//
अगर तुमने जंगल छीना
दहक उठेगा बसंत
बौरा जायेंगी अमराइयाँ
जल कर काली हो जायेगी कोयल
कैरी के बदले
पेड़ों पर लद जायेंगे बारूद
तुम्हारे छूने मात्र से
हो जायेगा विस्फोट……
तुम्हारे हाथ कुछ नहीं आयेगा
न जली लकड़ियों की राख
और न ही कोयला |

3. //साजिश//
शेर समूह में शिकार करते हैं |
नीलगायों , तुम्हें भी समूह में रहना होगा
अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए |
नदी का नीला जल
आकर्षित करता है तुम्हें
अपने किनारों पर उगा कर घास
बहकाता है तुम्हें |
शामिल है वह भी शेरों की साजिश में
संभलना
पानी पीने के पहले
देख लेना चारो ओर
कहीं शेर तुम्हारी घात में तो नहीं |

4. // एक प्रश्न //
एकलव्य
हम यह नहीं कहते
कि बाँट पायेंगे तुम्हारा दुख
तुम्हारे अंतर्द्वंद को समझने का
हम दावा भी नहीं करते
इसलिए
पूछना चाहते हैं तुम्हीं से
कितनी पीड़ा हुई थी
कितना लहुलुहान हुआ था हृदय |
लोग कहते हैं
तुमने हँसते-हँसते
काट दिया था अपना अंगूठा
सच बताना
क्या तुम्हारी अंगूठाविहीन हँसी
सचमुच निर्मल थी ?

5. //कितने अलग//
ग्रामीण या तो आदिवासी ही
कितने अलग हैं तुमसे
बस अलग………अलगाव नहीं तुमसे |
तुम्हारी पसंद अलग
उनकी पसंद अलग
कटहल दोनों की पसंद
जैसे नदी,झरने,जंगल
दोनों की पसंद |
लेकिन फर्क भी है
उन्हें उन्मुक्त नदी पसंद है
और तुम्हें उसका ठहराव |
तुम्हें शिशु कटहल पसंद है
और उन्हें पसंद है
रेशेदार,बीजवाले रसीले कटहल
उनकी पसंद के पीछे
छुपा हुआ है
उनका अपना अर्थशास्त्र |

6. //वसंतोत्सव//
साल वनों में
गमक उठेंगे सरहुल
सरई बीज कल्पनाओं के पंख लगा
उड़ चलेंगे हवाओं के संग गोल-गोल |
सेमल के फूल मखमली ओठों को मात देंगे
परसा के फूलों से
दहक उठेगा जंगल |
संभव है सूरज भी फीका पड़ जाये तब
कोरेया के फूलों का उजास
कनखियों से चाँद को देख
धीमे से मुस्कुरायेगा
महुआ भी इतरा-इतरा कर
गुच्छों से टपकेगा |
गूदेदार डोरी की महक से
खिंचे चले आयेंगे सुग्गा के झुण्ड
तुम महसूस न करना चाहो कुछ भी
ये भी ठीक है……….|
कभी ऊब जीओ शहर के कोलाहल से
तो चले आना जंगल
लेकिन छोड़ आना शहर में
अपना दिखावा,अहंकार,कुटिलता
और नाक भौं सिकोड़ने की
अपनी आख्यात सोच |

7. //यह भी तो सच है//
मैंने लोगों से सुना
धर्मशास्त्र में भी पढ़ा
कि स्त्री
पुरुष की एक पसली से बनाई गई |
स्त्री नौ महीने तक
उस अजन्में को गर्भ में रखती है
अपनी सांसें बाँटती है
उसे गढ़ती है
अपनी हड्डी गला कर
खुद कैल्शियम की गोली खाती है
पर वो गोलियाँ भी
कैल्शियम की कमी
कहां पूरी कर पाती हैं
यह भी तो सच्चाई है |
और एक झूठ यह भी कि
औरतें अधूरी होती हैं |

8. //गोदना//
रोम छिद्रों के इर्द-गिर्द
चार-चार सुइयां चुभाना बारम्बार
दर्द सहना ओठों को भींच कर
क्योंकि आजी ने कहा था-
अभी रोना अशुभ है |
सैकड़ों प्रहार के बाद भी
आँखों से आँसू न बहना
क्या वह
मरने के बाद साथ जाने का
आभूषण प्रेम था
या जीवनपर्यन्त
कष्ट सहते रहने की
पूर्वपीठिका !

9. //तुम समझ पाओगे मुझे//
मन का सूना आँगन
मुरझाये पत्तों का राग
हरसिंगार की उदासी
हवाओं का रूखापन
न बरसने का मन बनाये
बादलों का हठ |
धूल भरी तेज हवाओं का हुल्लड़
चिंदी-चिंदी बिखरता स्त्री का मन
पूरी रात जागते हुए
चाँद का सफर
शोर मचाते हुए
झींगुरों की चांय-चांय
या रात का
दिन से चिरंतन वियोग
तुम समझ पाओगे
यदि मैं लिखूं
शब्दहीन कविता
या कोई अबूझ कहानी |

10. //तुम और मैं//
तुम मुझे कविता सी गाते
शब्दालंकारों और अर्थालंकारों से सजाते |
मैं भी कभी छंदबद्ध
तो कभी छंदमुक्त हो
जीवन का संगीत रचती ………|
पर देखो तो
मैं तुम्हें गद्य सा पढ़ती रही
गूढ़ कथानक और एकालापों में उलझी रही
यात्रावृतांतों की लहरीली सड़कों पर
भटकती रही
और तुम व्यंग्य बन गये
मैं स्त्री थी, स्त्री ही रही
तुम पुरुष थे
अब महापुरुष बन गये |

11. //तुम आजाद हो//
कोयल तुम कूक सकती हो
क्या गर्मी क्या बरसात
आम की डालियाँ ही नहीं
हर वो पेड़ जो
झूमने लगता है
हवा के संग
फूलों से ,फलों से लद जाता है
जी लेता है संपूर्णता का जीवन |
तुम्हारे मधुरम गीतों में
भरा है जीवन का राग
तुम आजाद हो
गाओ खूब गाओ
तुम्हें तो पता है
बसंत कभी खत्म नहीं होता |

12. //बूढ़ा बरगद//
सूखे पत्तों को बुहारते हुए
दुख जाती थी कमर
पके फलों के टपकने से
पट जाता था खलिहान |
अब न घनी छाँव है
न ठंडी हवा
आज उसके न होने से
कितना उदास है
पूरा गाँव………|

13. //महानदी के तट से//
नीलाभ मंद मंथर
दुख के भार से बोझिल
फिर भी बहने का धर्म निभा रही है |
बंधन से छूटने की छटपटाहट
ढकेल रही है किनारों की ओर |
घाटविहीन गाँव
प्यासा है वर्षों से |
किसके दुख से संतप्त
सूखती जा रही है
होती जा रही है तनवंगी |
बढ़ता रेतीला विस्तार
तटों को काटता जल का बहाव |
क्या लील जायेगा गाँव के गाँव ?
कहाँ जायेंगे मछुवारे
छोड़ कर तटवर्ती झोपड़ी
छोटी-छोटी डोंगियां
वर्षों की सुखद स्मृतियां |
क्या मछुवारे की बेटी को भूलना होगा
लहरों का संगीत
गुनगुनाने की कला ?

14. //बिरसो//

कितनी खुश थी आजी
जब मैनें पूछा था
कान के छिद्रों में , अपनी कानी उंगली घुसाते हुए
आजी आप पांच-पांच बालियाँ पहनती थीं कानों में ?
हँसते हुए कहा था आजी ने –
अरे, नहीं रे नतिया

मैं तो खोंसती थी छिद्रों में
काले-सफ़ेद साही के काँटे
वही तो थे मेरा गहना , मेरे हथियार |
एक दिन आजो को गुस्सा आ गया था
किसी बात पर
मारने दौड़े थे आजी को
यकायक ठिठक गए थे
आजो के कदम
आजी के हाथों में
साही के काँटों को देखकर |
ललकारा था आजी ने
हथियार बन गए थे साही के कांटे |
विजयी मुस्कान तैर गयी थी होंठो पर |
दमक उठा था चेहरा |
बिरसो नाम था आजी का
सुनती हूँ गोष्ठियों में
नारी सशक्त हो रही है
याद आ जाती है आजी ,
साही के काले-सफ़ेद काँटे
और ठगे-ठगे से आजो।

 

कवयित्री विश्वासी एक्का का जन्म 01 जुलाई 1973 को बटईकेला ,सरगुजा (छत्तीसगढ़ ) में | हिन्दी में एम.ए.और पी.एच.डी.। पत्र-पत्रिकाओं में और आकाशवाणी से आलेख,कविताएँ कहानियाँ प्रकाशित व् प्रसारित। नेशनलबुक ट्रस्ट , नई दिल्ली से कहानी ‘कजरी ‘(2017)प्रकाशित। सम्प्रति छत्तीसगढ़ के एक शासकीय महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक ( हिन्दी ) के पद पर कार्यरत। टिप्पणीकार दीपक सिंह हिंदी के प्राध्यापक हैं और जसम से जुड़े हुए हैं।

 

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