निरंजन श्रोत्रिय
मुझे संवेदनों की महीनता और दृष्टि की व्यापकता में व्युत्क्रमानुपाती संबंध लगता है। संवेदन जितने महीन होंगे दृष्टि या विज़न उतनी ही व्यापक होगी। इसी से विकसित होती है संवेदन प्रणाली जो संवेदनों को एक व्यापक विस्तार देती है। इसी प्रणाली के जरिये हम कविता के वृहत्तर आयामों को पा सकते हैं।
विजया सिंह ऐसी ही युवा कवयित्री हैं जिनके पास कविता की एक व्यापक दृष्टि है। पाठकों को यह कभी विषय वैविध्य तो कभी कविता के ट्रीटमेंट के स्तर पर अनुभूत होती है। पहली कविता ‘पार्क में हाथी’ में कवयित्री मानो कार्बनिक विकासवाद का नया आख्यान रचती दिखाई पड़ती है। हाथी जैसा पुरातन जीव यहाँ एक निमित्त है जिसकी आँखों से मानव का कथित विकास, हिंसा, घृणा, प्रेम और करूणा को पढ़ा जा सकता है।
कवयित्री विजया सिंह ने मामूली-सी जान पड़ती, दृश्यों से ओझल वस्तुओं को अपनी कविताओं का विषय बनाया है। रजाई, आलूू, छिपकलियाँ, मच्छर, तकिया, एल्बम जैसे विषय उनकी कविता में आकर जीवंत हो उठते हैं फिर नए अर्थों और आशय में कविता में खुलते हैं। रजाई उनके लिए जहाँ एक ओर बुढ़ापे की निशानी है तो दूसरी ओर सिनेमा के पर्दे के आविष्कार का सबब भी। उनके सरोकार वैश्विक हैं।
सूक्ष्म प्रेक्षणों और गहन संवेदनों के सहारे वे यातनागृहों तक पहुंचती हैं जहाँ किसी मनुष्य को नींद से वंचित रख सताया जा सकता है-‘रजाई अनकही की साम्राज्ञी है/ जो जीवन की कठिन से कठिन घड़ी को नींद को सौंप देना चाहती है।’
अब देखिए ‘छिपकलियाँ’ कविता को। हमारे समकालीन साहित्य की आलोचना पर एक कटाक्ष। छिपकलियों की गतिविधियाँ यहाँ एक अलग ही नैरेटिव रचती हैं। छिपकली यदि यहाँ एक भूकम्प है तो ‘समझदार आलोचक’ उसकी एपीसेंटर। ‘कीट पतंगों को छोटी चमकदार आँखों से तकना’ क्या अद्भुत इमेजरी है! ‘मच्छर’ कविता में मलेरिया का ही नहीं सुन्दर संगीत का भी वाहक है। यहाँ केवल ‘विट’ नहीं उससे अधिक कुछ है। आपके रूग्ण मेटाबॉलिज्म को परिभाषित करने का एक सर्जनात्मक साहस! तभी तो वह मच्छर आपके खून के आदिम संगीत का ग्राहक हो पाता है। और अंत में ताली। वह ताली जो ‘प्रतिभा’ के सम्मान में बजते हुए कब उसी का अंत कर देती है, पता ही नहीं चलता। ‘यदि कामदेव ने उबले आलू का चोखा और चिप्स के थाल महादेव को प्रस्तुत किए होते तो उल्फत में इतना उत्पात न मचता’ यह निष्कर्ष है ‘आलू’ कविता का। आलू की साधारणता का इतना असाधारण और गहन आख्यान विजया सिंह जैसी प्रतिभाशाली कवयित्री ही संभव कर सकती है।
‘फैमिली एल्बम’ के जरिये वे एक परिवार का आत्मीय दृश्य उपस्थित करती हैं लेकिन सामाजिक सरोकारों के साथ। लेकिन जैसा कि कहा उनकी चिन्ताएँ वैश्विक हैं और एप्रोच बहुआयामी तो फिर वह पर्यावरण की चिंता में भी उदास हो जाती है।
रेहाना जेब्बारी पर लिखी कविता स्त्री विमर्श को अलग ही कोण से उकेरती है। हम औरतों को आत्मरक्षा के प्रशिक्षण हेतु प्रेरित करते हैं लेकिन ईरान ने रेहाना को इस आत्मरक्षा के प्रयास हेतु मात्र 26 वर्ष की उम्र में मृत्युदण्ड दे दिया था। बता दें कि रेहाना जेब्बारी एक बेहद खूबसूरत महिला थी जिस पर एक अफसर की हत्या का आरोप था जो उसका बलात्कार करने की कोशिश कर रहा था।
‘पुराना तकिया’ एक मार्मिक कविता है। तकिया विजया के लिए अंतरमन का प्रथम प्रहरी है। वह हमारे आँसू, राल और सिर के तेल से भलीभांति परिचित है और इस तरह हमारे सुख-दुख से भी। इस तरह तकिया कविता में आकर मनुष्य की आंतरिकता की अंतिम शरणस्थली बन जाता है।
‘खरगोश या पत्थर’ एक अंतरण की कविता है। प्रतीकों के जरिये व्यक्तित्वांतरण की प्रक्रिया। यह एक अंडरटोन कविता जरूर है लेकिन अपने अभिप्राय में स्पष्ट है। और इमेजरी देखिए- ‘क्योंकि सांभर थकी हुई सब्जियों का बोझ ले सकता था।‘
‘26 जनवरी 2017’ कविता में गणतंत्र दिवस उत्सव के वर्णन के जरिये वे ‘टोकन नेशनलिज्म’ पर भी कटाक्ष करती हैं। कवि की दृष्टि टीवी स्क्रीन से अचानक हट कर मणिपुर के उस न दिखाए जा रहे दृश्य तक पहुँचती है जहाँ बारिश में भीगा तिरंगा फहराने से इन्कार करता है।
‘सीरिया और इराक के बच्चों के लिए’ कविता में तानाशाह सत्ता, युद्ध और आतंक के साए में घुट रही बच्चों की सांसें हैं। दुर्दान्त दृश्यों को साक्षात् करते हुए अंत में प्रार्थना है कि 21 जून की सबसे छोटी रात तो कम-अज़-कम बच्चों को सोने दिया जाए।
यह मार्मिक प्रार्थना मानवता के पक्ष में छेड़ा गया अद्भुत संगीत है। विजया सिंह एक बेहद प्रज्ञावान कवयित्री हैं। सघन संवेदन और व्यापक दृष्टिबोध एक कविता को किस तरह बड़ी कविता बनाते हैं यह विजया का कवित्व हमें बताता है।
विजया सिंह की कविताएँ
1. पार्क में हाथी
महापुरूष की माताओं के स्वप्नों
अजन्ता के भित्ति चित्रों
और पौराणिक कथाओं से उठ कर
श्वेत हाथी चण्डीगढ़ के सार्वजनिक पार्को में
आ बैठे हैं
कोई सूँड उठाए बैठा है, तो कोई फुटबॉल लिए
बच्चे जो उनकी पीठ पर फिसलने के करतब दिखा रहे हैं
वे नहीं जानते इनकी सूँड सलामी के लिए नहीं
सूक्ष्म और स्थूल की पड़ताल के लिए बनी है
जैसे मूँगफली को छीलने और केले के गुणों की व्याख्या के लिए
हम यह भूल चुके हैं पर करीब सत्तर हजार साल पहले
जब आदिमानव अफ्रीका के महाद्वीप पर भटक रहा था
हाथी सामाजिक हो चुके थे
बुज़ुर्ग हथिनियाँ परिवार नाम की इकाई गढ़ चुकी थीं
बच्चों की परवरिश को सामुदायिक रूप दे चुकी थीं
मृत्यु के संस्कार रच चुकी थीं
और शोक सभाएँ बुलाना शुरू कर चुकी थीं
एशिया,यूरोप, और अफ्रीका में उपनिवेश स्थापित कर चुकी थीं
हालाँकि राष्ट्र नाम की इकाई से वे बची रहीं
बिना पासपोर्ट, वीसा के एक महाद्वीप से दूसरे विचरना उन्हें अच्छा लगता था
नदियों की गहराई उन्हें विचलित नहीं करती थी
और ना ही दूसरी प्रजातियों के जीव
खुश मिजाज़ होने की वजह से वे होलोकास्ट और जीनोसाइड जैसी चीजों से बचे रहे
कंगो के विशाल जंगल, ऊँचे रबड़ के दरख़्त उनके लालच का सबब कभी नहीं बन पाए
छाल पहने, हाथ में भाला लिए मनुष्य को पहचान तो वे तभी गए थे
पर उन्हें अपनी करूणा और ताकत पर भरोसा था
यह कोई संयोग नहीं कि बुद्ध जब बुद्ध नहीं थे तब वे हाथी ही थे
कुर्त्स और छदंत का आमना-सामना हुआ होता
तो क्या संभव था कि कुर्त्स भिक्षु हो जाता ?
या छदंत जातक कथाओं का पात्र नहीं
आनुवंशिक उत्परिवर्तन का एक नमूना मात्र ?
यूँ हाथी चाहते तो डील-डौल के हिसाब से
क्रम-विकास की दौड़ में आगे निकल सकते थे
पर वे संतुलन और खुशी का मर्म जान गए थे
मनुष्य, जो हमेशा ही से दयनीय और दुखी जान पड़ता था
को उन्होंने आग और पहिये का खेल खेलने से नहीं रोका
इसे याद कर छतबीर के चिड़ियाघर का इकलौता हाथी
रस्सी से बंधा, बार-बार अपने पैर पटक रहा है।
कुर्त्सः जोसेफ कोनराड के उपन्यास ‘हार्ट ऑफ डार्कनेस’ का मुख्य पात्र
2. रज़ाई
बुढ़ापे की पहली निशानी है
नाखूनों के बीच गंदगी का जम जाना
बूढ़े लोग हाथ धोने से कतराते हैं
उन्हें ठण्ड ज्यादा लगती है
रज़ाई उन्हें दुनिया की सबसे शानदार जगह लगती है
वे उसे लेकर निकल पड़ते हैं
और घर के अन्दर ही रज़ाई के एक मामूली मोड़ से
कभी पहाड़, कभी दरिया, कभी दरख़्त बन जाते हैं
ऐसा नहीं कि उन्हें दुनिया की सैर में कोई दिलचस्पी नहीं
पर रज़ाई को हर जगह नहीं ले जाया जा सकता
खासकर हवाई जहाज पर तो बिलकुल नहीं
फिर रज़ाई चाल को बहुत धीमा कर देती है
पेरिस में लूव्र के अन्दर रज़ाई ले जाने की सख्त मनाई है
उसी तर्ज पर न्यूयॉर्क, लन्दन, एम्सटर्डम के हर अजायबघर में
रज़ाई को बाहर ही छोड़ने के निर्देश हैं
दुनिया के हर दर्शनीय स्थल को रजाई से खास चिढ़ है
नियाग्रा फाल्स की हवाएँ
रज़ाई को उड़ा देना चाहती हैं
साओ पाउलो के नर्तक रज़ाई पर कढ़े फूलों और तितलियों पर नज़र गड़ाए हैं
उन्हें फूल गज़रों के लिए और तितलियाँ जूड़ो के लिए चाहिए
किसी अदृश्य नगाड़े की थाप पर वे बढ़ते आ रहे हैं
उनके थिरकते कदम रज़ाई को रौंद देना चाहते हैं
उनके सुन्दर शरीर कांसे की मूर्तियों से भी अधिक लोच लिये हैं
उन्होंने सजाने की हर चीज सिरों, कलाइयों और पाँवों में पहनी हैं
सूरज की रोशनी, चाँदनी, हवाएँ और बरसात
उनके उघड़े शरीर के आमंत्रण को गहरी कृतज्ञता से चख रही हैं
रज़ाई की नरम रूई का भरोसा अभी उनके अथके विचारों को नहीं
अभी उन्होंने जाने नहीं हैं, उसके प्रतीकों के गूढ़ रहस्य
आम का पेड़, उस पर बैठा तोता और नायिका के हाथों में पत्र
उनके लिए खास मायने नहीं रखते
अनकही से अधिक उन्हें कही में विश्वास है
कही की तलाश में वो मंगल ग्रह तक जा पहुँचे हैं
जबकि रज़ाई अनकही की साम्राज्ञी है
जो जीवन की कठिन से कठिन घड़ी को नींद को सौंप देना चाहती है
समस्याओं के हल वो गूढ़ फ़लसफ़ी की भाषा में नहीं
सपनों की विखंडित उक्तियों में हम तक पहुँचाती है
सच तो यह भी है कि सिनेमा का पर्दा उसकी ही ईज़ाद है
पहला चलचित्र रज़ाई के भीतर आँखों केे बंद पर्दे पर ही तो देखा गया था
नवगृह उसकी मुट्ठी में झिलमिलाते तारों से अधिक कुछ नहीं
यह बात किसी इतिहास में दर्ज़ नहीं
कि रज़ाई या उससे मिलती-जुलती चीज़ दुनिया के हर आविष्कार की तह में है
उसकी नर्म आँच दुनिया की हर निर्ममता का प्रतिकार करने में सक्षम है
यह सचाई यातनागृहों के प्रभारी सबसे बेहतर समझते हैं
और नींद से वंचित रखते हैं उन्हें, जिन्हें वे सबसे ज्यादा सताना चाहते हैं।
3. छिपकलियाँ
सच तो यह है कि छिपकलियाँ कला के बारे में हमसे ज्यादा जानती हैं
वे उच्च कोटि की कला प्रेमी हैं
आश्चर्य नहीं कि उनका निवास अक्सर चित्रों की दीवार से सटी पीठ पर होता है
उन्हें सच्चे कलाकारों की तरह इस बात से फर्क नहीं पड़ता
कि दीवार और तस्वीर के बीच की जगह कितनी असुविधाजनक है
कि वहाँ रोशनी कम है
यूँ प्रकाश के बारे में उन्हें कोई भ्रम भी नहीं
अलबत्ता यह ज़रूर है कि वहाँ से अनजान और लापरवाह कीट पतंगों को
छोटी चमकदार आँखों से ताका जा सकता है
और लपक कर हजम किया जा सकता है
परवाने जो शमा के इर्द गिर्द सूफियों-सा चक्कर काटते हैं
उनकी मासूमियत पर दिल खोल कर हँसा जा सकता है
और मौका मिलते ही उनके सुन्दर, मुलायम परों वाले शरीर को
लपलपाती जीभ से दुलारा जा सकता है
यही नहीं कीमती पेंटिग्स पर इत्मीनान से रंेगा जा सकता है
उनकी बनावट को पेट और टूटी दुम से महसूस करते हुए
एक कलाकृति से दूसरी की ओर जोरदार दौड़ लगाई जा सकती है
उनके बीच की दूरी को इस तरह से नापा जा सकता है
और जो पेंटिंग पसंद आ जाए
उसके पीछे घूमतेे हुए उस पर एक सटीक पर टेढ़ी समीक्षा दी जा सकती है
और जो नापसंद हो
उसे जैसी है वैसे ही छोड़ा जा सकता है
बिना टिप्पणी के
जैसा समझदार आलोचक अक्सर किया करते हैं।
4. मच्छर
मच्छर सुन्दर संगीत का वाहक है
एक उड़ता हुआ गवैया
जो अपने पंखों से मधुर संगीत उत्पन्न करता है
जब वो आपके कान में गुनगुनाता है
तो दरअसल वो आपके और नज़दीक आने की गुज़ारिश कर रहा होता है
वो आपके इतना करीब आना चाहता है
कि अपनी शहनाई-सी चोंच से आपके खून तक में संगीत भर दे
अपने खून से आपके खून में वो प्लाज्मोडियम वाईवॉक्स
का धारदार परकुशन प्रवाहित करता है
जो आपके हीमोग्लोबिन को तबले-सा थपकाता है
तभी तो आपके शरीर का तापमान गिरता और उठता है
आप थिरकते हैं, कंपकंपाते हैं, पसीने से सराबोर हो जाते हैं
मच्छर दरअसल आपके खून के आदिम संगीत का ग्राहक है
आपका ताली बजा कर उसका स्वागत करना
उसकी प्रतिभा का सम्मान ही तो है
5. आलू
आलू साक्षात् प्रेम है
नर्म है उसका स्पर्श और मीठा उसका स्वाद
जीभ से फिसलता वो कब हलक में
और कब दिल में
सुकून बन दौड़ने लगता है
ये कामसूत्र से आगे की घटना है
और शिव का तीसरा नेत्र खुलने से पहले की भी
उसकी उन्मुक्त अभिव्यक्ति पर कोई शास्त्र नहीं संभव
वह स्वयं दर्शन है और उसका प्रभाव भी
कामना उसके एक फूल से दूसरे फूल की तरफ उड़ती तितली भर है
यदि कामदेव ने गन्ने के धनुष से फूलों के तीर नहीं
उबले आलू का चोखा और चिप्स के थाल
आत्मयोनी श्री महादेव को प्रस्तुत किये होते
तो यह संभव था कि उल्फत में इतना उत्पात न होता
और न होता प्रणय गुप्त अत्याचार का माध्यम
आलू की सत्ता देवत्व और दानत्व से परे रस का सम्पूर्ण प्रबंध है
धरती के नीचे उसकी जड़ों ने थाम रखे हैं महाद्वीप
उसके बैंगनी फूल और पीले पुंकेसर
केसर से अधिक वैभव लिये हैं
और अफीम से अधिक मादकता
उसकी आँखें इंद्र की शत आँखों से वृहद कामुक हैं
और उर्वर है उनका हर आँसू
सिर्फ दृष्टि से स्थापित किये हैं उन्होंने विशाल साम्राज्य
एण्डीज से हिमालय तक वे सिर्फ आँखों के सहारे चले आए हैं
असंख्य सर्वहारा जन इन्क़लाब की तलाश में
उसकी सराय में आ रहे हैं
घूँट दर घूँट पी रहे हैं इंतज़ार
मनुष्य के मनुष्य होने का।
6. फैमिली एल्बम
यह बांका नौजवान, यह लाज की मारी भोली दुल्हन
ये मेरे मात-पिता हैं
क्या हमारे मात-पिता जवाने के दिनों में इतने खूबसूरत थे ?
ब्रिलक्रीम से पीछे की ओर करीने से काढ़े बाल
एक हाथ पॉकेट में, दूसरा साइकिल के हैंडल पर
उनकी आँखें जो हलके विस्मय और बहुत सारे विश्वास से संसार को देख रही हैं
क्या वो देख पा रहे हैं अपने और हमारे भविष्य को ?
क्या उन्हें अंदाज़ा है कि उनकी बेटियाँ कितनी जिद्दी होंगी
और बेटे कितने भावुक और अव्यावहारिक ?
उनकी आँखें जो मेरी आँखें हैं
क्या नज़र घुमा के पीछे देखने से
लौट पाएँगे वे क्षण
जब विस्मय और विश्वास इस तरह से गड्डमड्ड थे
कि एक की सीमा दूसरे के क्षितिज से आरम्भ होती थी
क्या मुझे उन्हें बता देना चाहिए कि पिताजी-
आप जो इतने हल्के हाथों मेरी दो मास की बहिन को थामे हैं
मेरी माँ जो बेल-बॉटम और कुरता खास तौर पर शायद फोटो ही के लिए
सिलवाए थे- पहने खड़ी हैं और सामने बिल्कुल सामने देख रही हैं
मैं, जो आप दोनों के बीच रखे स्टूल पर खड़ी उद्दण्डता और मासूमियत से मुस्कुरा
रही हूँ
आप नहीं जानते ये दुनिया कितनी जल्दी शालीनता खोने वाली है
हवा कितनी प्रदूषित हो जाएगी और नदिया कितनी मैली
आप नहीं जानते कि वहाँ जहाँ आप खड़े हैं काले गॉगल्स पहने
हाथ में स्की थामे, चुंधियाती बर्फ के सफेद पहाड़ पर
सरहद की चौकसी में
वहाँ से बहुत जल्द पानी के स्रोत विलीन होने वाले हैं
ग्लेशियर हिमालय की चोटियों पर नहीं
नीचे बंगाल की खाड़ी में पिघलते नज़र आएँगे
माँ तुम तो बिलकुल ही भोली हो
तुम नहीं जानती कैसे एक दिन
तुम्हारी बेटियाँ तुम्हारे खिलाफ बगावत में खड़ी होंगी
समझते हुए भी नहीं समझते पाएँगी
तुम्हारी अपने प्रति कठोर तपस्या को।
7. वो तराशे नाखूनों वाली सुन्दर लड़की
( रेहाना ज़ेब्बारी के लिए )
रेहाना, कितनी सच्चाई से तुमने कह दिया
‘‘औरत होने के सबक मेरे काम नहीं आए’’
और यह भी कि ‘‘इस ज़माने में खूबसूरती की कोई कद्र नहीं’’
तराशे नाखूनों की खूबसूरती सिपहसालार बरदाश्त नहीं कर सकते
उन्हें तराशी हुई हर चीज से डर लगता है
तराशा हुआ सच, फ़लसफ़ा
भावों की कोमलता, आँखों का तेज, खुले में लिया चुम्बन
सब उन्हें डराते हैं
डराते हैं उन्हें अपनी नरमी से, अपनी कमनीयता, अपनी रोशनी से
रेहाना, तुम्हारे पक्ष में कुछ भी नहीं था
न तुम्हारा यौवन, न तुम्हारा भोलापन, न तुम्हारी ईमानदारी
सिर्फ तुम अपने पक्ष में खड़ी थीं
कितना संकरा था तुम्हारा सुरक्षा का घेरा
तुम्हारी माँ की दुआएँ
और तुम्हारे पिता के शब्दः तुम एक कुर्द हो, शेर की तरह बहादुर मेरी बच्ची
तुम्हारे हाथों को माँ को छूने से रोकती काँच की दीवार
और गौहरदश्त की वे तमाम बदनसीब औरतें
जिनके जिस्म चाबुकों से छलनी और रूहें सहमी हुईं
तयेबेह, शाहला, सोहेइला, जाहरा, शीरीन…
जिनके नाम तक लोग भूल गए
जिनकी संताने यतीमखानों में भेज दी गईं
और तुम रेहाना
कभी कालकोठरी के घुप्प अँधेरे में, कभी प्रतिदीप्त रूखे उजाले में
उनींदी, माँ को पुकारती
तुम्हें उम्मीद थी न्याय की
अपने घर और कॉलेज लौट जाने की
अपनी जिन्दगी को फिर वहीं से शुरू करने की
जहाँ हाथ से छिटक कर वो एविन काराग्रह में आ पड़ी थी
जब तुम मात्र 19 साल की थीं
कभी सिर्फ एक पल काफी होता है
छलावों, मुखौटों और रूमानियत भरे ख्यालों
से परे राष्ट्र की असीम हिंसा और बर्बरता को उजागर करने में
उस धरातल से कौन लौट पाता है ?
…रेहाना, तुम्हारे लिये कहीं कोई योगमाया नहीं थी
जिससे तुम्हें अदला-बदला जा सकता
तुम्हें तो खुद अपने लिए फ़नाह होना था
बिजली की तरह पल भर को चमकना था
और गायब हो जाना था।
8. पुराना तकिया
पुराना तकिया बूढ़ी डायन की तरह
कहे-अनकहे सब राज जानता है
नींद के हर कुँए, बावड़ी, इमारत का नक्शा
रूई की तहों में सहेजे
कितने ही घायल रास्तों से लौटा लाता है
-कि अब गिरे तब गिरे
पहाड़ से
या पानी में –
अंतरमन का प्रथम प्रहरी
हमारे आँसू, राल और सर के तेल का स्वाद चख चुका
तकिया जानता है सर की गोलाई
कितनी-सी जगह में सिमट आती है
गिलाफ़ पर छपे बादाम के हलके गुलाबी फूल
वैन गोफ़ की पेंटिंग की सस्ती-सी नकल तो है
पर नींद के लिए उपयुक्त
इन नर्म किनारों से उतरा जा सकता है
पाताल और अंतरिक्ष दोनों ही में
हालाँकि नींद और बूढ़ी डायनें
हमेशा भरोसे के लायक हों यह ज़रूरी नहीं
कि अज्ञात तटों पर वे आपको ला पटकेंगी
इस भेद को जाना नहीं जा सकता
कि आप सुरक्षित लौट आएँगे
यह कहा नहीं जा सकता
हो सकता है आप कभी न लौट पाएँ
उन आदिम रास्तों से
जहाँ आज भी विक्रम वेताल को तलाश रहा है
और बेताब है वेताल नए प्रश्न लिए
तकिये के किसी छोर से निकली सूत की डोर
ही थी थीसीएस की साथी
उन भूल-भुलैयों में
जहाँ दहशत मनुष्य का धड़ और बैल का सर है
नींद मरने का अभ्यास है तो
चेतना जरूर
तकिये से ही होकर निकली होंगी
फिर ये ज़रूरी तो नहीं कि तकिया हाथ का हो यह गठरी का
नींद सबके लिए बनी है।
9. खरगोश या पत्थर
खरगोश सफ़ेद पत्थर हो गए
या सफ़ेद पत्थर ही खरगोश थे
मँा की देह
खरगोश थी या पत्थर
किस धातु की गंध आती थी उसके पोरों से
क्या पिघला लोहा ?
कौन-सा फल था जिसे वो बेहद पसन्द करती थी
तरबूज शायद
क्योंकि वो विस्मयकारी नहीं था
उसका हरा, लाल रंग और असंख्य बीज सामान्य थे
और वो सस्ता था
कहीं सुदूर नहीं पास की नदी के तट पर उपजा
लम्बी यात्राओं से न थकने वाला
रस से भरपूर
चार बच्चों की ऊष्मा के लिए पर्याप्त ठण्डा
कौन-सा व्यंजन था जिसे वो सप्ताह के अंत में बनाती थी ?
सांभर और इडली
क्योंकि सांभर थकी हुई सब्जियों का बोझ ले सकता था
और इडली खमीर के रहस्य से उपजी
कोई रोमांच जरूर भरती होगी उसके थके कदमों में
पिता के पीछे-पीछे
असम, अरूणाचल, नागालैण्ड, पठानकोट
ढेर सारे सामान और बच्चों के साथ
रेल में, खिड़की से बाहर झांकते
तीसरी कसम की वहीदा रहमान
छूटती जाती थी
गाँव, खलिहान, मेलों और अपने आप से।
10. 9 दिसम्बर 2016
आज 9 दिसम्बर 2916 की सुबह चार बजे
रसोई की खिड़की के ठीक पीछे
आम के पेड़ के पास का लैम्पपोस्ट
एकाएक पूरणमासी के चाँद में तब्दील हो गया
कुछ दूरी पर इंद्र का ऐरावत
सूँड ऊपर किये चिंघाड़ने लगा
दूसरा हवा में उठा
अभी तक नीचे नहीं आया
उसकी बगल में जो जिराफ है
उसका चेहरा पत्तियों से ढँका है
धुंध से घिरा वो वाष्प में बदल रहा है
अब सिर्फ उसके कान रह गए हैं
और पूँछ पर कुछ सफेद फूल
समुद्री सीलें, पोलर भालू, पेंगुइन पानी में बहे जा रहे हैं
कुछ मेरी बालकनी में इकट्ठा हो गए हैं
और दरवाज़ा पीट रहे हैं
कोई है जो अंटार्टिका में बेहिसाब बर्फ चुरा रहा है
मैं उनके गुस्से का सामना नहीं कर पाऊँगी
उनके प्रश्नों के जवाब मेरे पास नहीं ही होंगे
उनसे आँखें नहीं मिला पाऊँगी
और यह तो कतई नहीं समझा पाऊँगी कि
और यह तो कतई नहीं समझा पाऊँगी कि
कैसे मेरा घर सलामत है, जबकि उनके रहने की हर जगह जा चुकी है।
हम कहाँ-कहाँ, क्या-क्या हटा सकते हैं
कि जीवन की संभावना बनी रहे
85 प्रतिशत या उससे अधिक ?
मसलन क्या आप अपने स्तन कटवा सकते हैं
या हटवा सकते हैं अण्डकोष
कैंसर की आशंका से ?
जो कोशिका दर कोशिका, ऊतक दर ऊतक
आपके जीवन की शक्यता को लेकर 5 प्रतिशत या उससे कुछ कम
किये दे रहा है
यूँ हमारे युग में हमारी चटोरी जीभ निगल रही है 120 प्रतिशत
धरती के हर ऊतक, हर कोशिका, हर स्नायु को
बढ़ती जा रही है जेसीबी मशीनों और पीले बुलडोजरों की संख्या
सिमट रहे हैं पहाड़, जंगल, नदियाँ
बिछ रहे हैं सड़कों के जाल
नूह की नाव उलट चुकी है
टुन्ड्रा की पिघलती बर्फ में
लौट रहे हैं शव बिना शिनाख्त के
हजारों, हजारों सालों के इंतज़ार के बाद
आने को बेताब हैं सूक्ष्मधारी
अपने कंटीले बदन और तीखे ज़हर लिये।
11. 26 जनवरी 2017
गणतंत्र ने बारिश को माफ कर दिया
माफ कर दिया घने काले मेघों, सर्द हवाओं को
राजधानी के पेड़ः चुक्का, पनिया, कंजु, चमरोड़
शोर करते, हवाओं के राजपथ की ओर धकेल रहे हैं
पर उसके सिपाही कदम से कदम मिलाते बढ़ते आ रहे हैं
टैंकों पर बैठे जवान सलामी लेते बारिश पी रहे हैं
बूटों की कदमताल, जहाजों की उड़ानें, घोड़ों की टापें
राज्यों की झांकियाँ, बच्चों के नाच, जांबाजों के करतब
हजारों-हजार बंदूकें सलामी देती हुई
राष्ट्र के कोने-कोने पहुँचेंगी
हजारों जो परेड देखने आए हैं
और वे जो उसे टीवी पर देख रहे हैं
रोमांचित होते बूझ रहे हैं
यह ही राष्ट्र है
फिरन, रोगनजोश, यखनी
ये कुछ खास मायने नहीं रखते
और न ही चिकनकारी, दस्तकारी और गोंड चित्र
राष्ट्र की नज़र तीक्ष्ण तो है, पर खुदपरस्त
मणिपुर में दुनिया का सबसे पुराना नाट्य समारोह
एफ्प्सा की जहानत से परे है
तमाम इंतज़ामात के बावजूद
यहाँ-वहाँ एकाध तिरंगा भीग गया और खुल नहीं पाया।
12. सीरिया और इराक के बच्चों के लिए
बच्चे जिन्हें स्कूल जाना था
दोस्तों से मिलना था आज शाम, ठीक पाँच बजे फुटबॉल के मैदान में
उनके सब कार्यक्रम रद्द कर दिए हैं तानाशाहों ने
वे जा रहे हैं अपना शहर, अपना घर छोड़
जल चुके आँगन के पेड़ के नीचे उन्होंने दफ़न की हैं कुछ चीजें
जिन्हें वे साथ नहीं ले जा सकतेः
एक गुड़िया जिसकी एक आँख अब बंद नहीं होती
एक बोलने वाला मेंढक जो अब शांत है और बरसात को नहीं पहचानता
एक उछलने वाला लट्टू जिसकी कील टूट चुकी है
पर उसके रंग अब भी मोहक हैं
एक हाथी जिसका नाम जम्बो है पर अब सर्कस के लायक नहीं रहा
एक जिराफ़ जिसकी गर्दन में बल आ गया है
ये सब वे छोड़े जा रहे हैं पीछे
लौट के आने के लिए
उन शहरों से जहाँ स्कूल अभी खुले हैं
जहाँ बच्चे सीख रहे हैं दुनिया का भूगोल, इतिहास जिसमें बच्चों का कोई जिक्र नहीं
और राजनीति के मायने- जो सिर्फ बड़ों का खेल है
गणित सब को नहीं आता, जिन्हें आता है
वे गिनना नहीं चाहते हताहतों की संख्या
जिनमें उनके अपने प्रिय, बहुत प्रिय लोग हैं
कोई एक उस प्रिय का आखिरी फोटो लिये अकेला ही चला जा रहा है
दुनिया से निपटने
उसके आँसू उसके अपने हैं जिन्हें गर्म धरती गिरते ही सोख लेती है
आज 21 जून जब साल का सबसे बड़ा दिन और सबसे छोटी रात है
बच्चे सारा दिन चले हैं और रूके नहीं हैं
दुनिया के सब तानाशाहों -जो किसी भी तरफ से लड़ रहे हों-से अपील है
आज सबसे छोटी रात, इन्हें सोने दें
बमों के धमाके रोक दें, रोक दें लड़ाकू विमानों की उड़ानें, फौजी के बूटों की दिलों को
दहलाने वाली आवाजें
बच्चों की आँखें भारी हो चली हैं, कदम शिथिल और आवाजें धीमी
आज रात इन्हें सोने दें, कल इन्हें फिर कूच करना है
उन शहरों की ओर जहाँ सामान्य होने की कोशिश अभी जारी है।
कवयित्री विजया सिंह, जन्मः 29 जनवरी 1973 को कोटा (राजस्थान) में। शिक्षाः राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से एम.फिल., पी-एच.डी.
सृजनः अंग्रेजी कविताओं की एक पुस्तक Railway journeys in Hindi cinema प्रकाशित, फिल्म आलोचना की एक पुस्तक प्रकाशित, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की फुलब्राइट फैलो, दो लघु फिल्मों का निर्देशन
पुरस्कारः दोनों निर्देशित लघु फिल्में प्रतिष्ठित पुरस्कारों से पुरस्कृत
सम्प्रतिः चण्डीगढ़ के एक स्नातकोत्तर महाविद्यालय में अध्यापन
सम्पर्कः 708, सी सैक्टर, 33 बी, चण्डीगढ़
मोबाइलः 7508278711
ई-मेलःsinghvijaya.singh@gmail.com
टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।
संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com