संजीव कौशल
कविता कुछ ना कुछ बचाने की कोशिश है कोई आँसू कोई मुस्कान कुछ उम्मीद कुछ निराशा कुछ दर्द ताकि मुश्किल वक्त में कुछ स्वाद बचा रहे। किसी बूढ़ी दादी की तरह है जो चुपचाप कुछ न कुछ उठाकर सहेज लेती है कवि भी उसी तरह चुपचाप अपना काम करता रहता है न जाने किन-किन चीजों को उठाकर हमारी स्मृतियों के लिए बचा कर रखता है। वसंत सकरगाए इसी परंपरा के कवि हैं जो लगातार टूटती बिखरती दुनिया में कुछ जोड़ने, कुछ सहेजने की कोशिश में लगे रहते हैं। इनकी कविताएं गहरे व्यक्तिगत अनुभवों से बुनी हैं और भाषा ऐसी है जैसे सालों से पक रही हो। यहां विडंबनाएं हैं, कथाएं हैं। एक ऐसी ही कथा है ‘कि सनद रहे’। आज के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक।
जंगल था तो कुत्ते थे जंगली
जंगल में
कुत्ते चूँकि जंगली थे;शेर के पालतू नहीं
इसलिए दुम नहीं हिलाते थे शेर के आगे
बल्कि आगे आकर शेर को
घेर लेते थे बाज़दफ़ा
और इतना मूतते थे उसकी आँखों में
कि शेर अँधा हो जाता था
ज़िन्दगी की पनाह माँगता
फिर शेर भागता था पूरा जंगल मारा-मारा
और कुत्ते थे कि उसे मारते थे दौड़ा-दौड़ाकर
सनद रहे
कि जंगलराज की स्थापना करनेवाला
शेर
इसतरह भी मरता है-
कुत्ते की मौत!
सनद रहे!
सनद रहे!!
सनद रहे!!!
सरकारी तंत्र किस तरह हमारे सामाजिक ताने-बाने में सेंध लगा रहा है, हमारी जीवन पद्धति को एक अलग तरह बदलने की कोशिश कर रहा है इसकी पड़ताल वसंत अपनी कविता ‘हरसूद में बाल्टियां’ में करते हैं। जब मदद के लिए किसी को पहले से निर्धारित नहीं किया जाता था तब मदद का दायित्व सबका होता था, इसे लोग समझते थे। आग लगने की किसी भी घटना में लोग घरों से बाल्टियों में पानी ले लेकर भागते थे और उस घर का बचाव करते थे। उन दिनों विपदा का एक सामाजिक पक्ष था। एक की विपदा सबकी विपदा थी। आज यह ताना बाना जल रहा है हम जलते हुए देख रहे हैं और कुछ नहीं कर पा रहे।
महानगर की तर्ज़ पर
हरसूद में नहीं थीं दमकलें
लिहाज़ा नहीं फैली दहशत
कभी सायरन के ज़रिए
और आग की ख़बर आग की तरह
चूँकि दमकलें नहीं थी इसलिए आग बुझाना
नैतिक दायित्व में शामिल था, नौकरी नहीं
सामाजिक विपदाएं दरअसल मनुष्यता के लिए चुनौती होती हैं जिन्हें हजारों साल से लोगों ने स्वीकार किया है और इनका हर संभव मुकाबला किया है। वे हमें एक दूसरे के करीब लाती हैं हमें अपनी बंद दुनिया से बाहर निकाल कर एक बड़ी दुनिया का हिस्सा बनने की सीख और ट्रेनिंग देती हैं। लोगों से लोगों का संबल है। जब लोग साथ आते हैं तो भय अपने आप चला जाता है। सामूहिकता दहशत को खा जाती है क्योंकि सामूहिक प्रयास किसी भी विपदा को फैलने नहीं देते, उसे उसके भ्रूण में ही खत्म कर देते हैं।
जीवन में सब गड्ड मड्ड है -राजनीति, धर्म, समाज सब। जिन कार्यों को हम खालिस व्यक्तिगत विश्वास तक ही सीमित रखते हैं और बिना देश दुनिया के बड़े सवालों से जुड़े जीते रहते हैं उस पर वसंत बड़ी गहरी चुटकी लेते हैं। अपनी कविता ‘जनेऊ’ में वे पूछते हैं कि पवित्रता क्या सिर्फ शरीर की पवित्रता है या मन और कर्म भी इससे जुड़े हैं। जो लोग पूरी दुनिया को लूट रहे हैं किसानों की रोज होती हत्याओं में जिनका सीधा हाथ है वह आखिर धार्मिक कर्मकांडों से कैसे पवित्र हो सकते हैं, गंगा कैसे उनके पापों को धो सकती है:
बहरहाल,जनेऊ को लेकर
मेरा ताजा अनुभव यह है चुनाव के ठीक पहले
कि तमाम किस्म की दीर्घ और लघु शंकाओं के मद्देनज़र
विकास-दर के ये तमाम आँकड़ें
नोटबंदी, रोजगार और किसानों के नृशंस हत्यारे
पता नहीं कैसे हो गए मैली गंगा में नहा कर पवित्र-पावन
कि एकाएक उछलाकर ऊपर लाए गए
और जिनके कानों पर लेपटे जा रहा है कसकर
जबरन जनेऊ
मुझे तो सचमुच बड़ी कोफ़्त हो रही है
ऐसे देशद्रोहियों पर
जो सबकुछ अनसुना कर सिर्फ हगने-मूतने के लिए
लपेट रहे हैं कान पर
जनेऊ।
जीवन ही जीवन नहीं है, मृत्यु का भी अपना जीवन है। हम सिर्फ इसी जीवन की आपाधापी में लगे रहते हैं और दूसरे जीवन को भूल जाते हैं। वसंत अपनी कविता ‘पखेरू जानते हैं’ में जीवन और मृत्यु के सवालों को उठाते हैं। जिस तरह हमें जीवन में कितनी ही चीजों की प्रतीक्षा रहती है उसी तरह है पखेरू भी हमारी इस शरीर से बाहर आने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। सबसे पहले उन्हें ही पता चलता है और वे चुपचाप बिना कोई आहट किए आ धमकते हैं अपने साथी को साथ ले जाने के लिए:
जैसे ही शुरु होता है हमारा रोना-धोना सिर-पिटना
वे आसमान में भरते हैं लम्बी उड़ान
कि तन के पिंजरे से अभी-अभी आज़ाद
आख़िरी तड़प के बाद संगी साथी की देख पहली स्वतंत्र मुस्कान
खुलते ही परवाज़;खुलती हैं कितनी ही बातें कितने ही सवाल;
कि थकी देह के भीतर क्यूँ है संतापों का इतना विस्तृत संसार
क्या पिंजरे के भीतर से भी,दिखता है वैसा ही
बाहर का यह जंजाल
कैसे जिरता होगा दाना-पानी
पिंजरे पड़े-पड़े
बिना उड़ान
उड़कर पँख चार साथ-साथ
साझा करते हैं दिल का हर हाल
पखेरु
प्राण-पखेरु से
कुछ कविताएं रिश्तो पर हैं जैसे ‘राजवैद मास्साब’ और ‘मां के बंधन’। यहाँ भी वसंत की तीव्र गहरी नजर महसूस की जा सकती है। आश्वस्त हूँ ये कविताएँ अपने पाठकों के साथ दूर तक सफ़र करेंगी।
वसंत सकरगाए की कविताएँ
1. हरसूद में बाल्टियाँ
महानगर की तर्ज़ पर
हरसूद में नहीं थीं दमकलें
लिहाज़ा नहीं फैली दहशत
कभी सायरन के ज़रिए
और आग की ख़बर आग की तरह
चूँकि दमकलें नहीं थी इसलिए आग बुझाना
नैतिक दायित्व में शामिल था,नौकरी नहीं
छठवें दशक के उस दौर में भी
बूँद-बूँद पानी के जब जूझ रहा था हरसूद
उठते ही कोई लपट नाजायज़
किसी घर से ग़ैर वाजिब़ धुआँ
पलक झपकने से पहले ही
पानी भरी बाल्टियाँ लिए लोग
दौड़ पड़ते थे आग की ओर
हाँ, थाना कचहरी और रेल्वे-स्टेशन पर
टँगी ज़रुर रहीं ये निकम्मी… ताउम्र
सड़कर गल जाने की आख़िरी हद तक
रेत भरी कुछ लाल बाल्टियाँ
जिनकी पीठ पर लिखा होता था ‘आग’
जो तक़दीर बनने की पायदान पर
इस्तेमाल होती रहीं ऐश-ट्रे और पीकदान बतौर
कि बुझाते थे लोग ‘आग’ में
बीड़ी-सिगरेट की आग और थूकते थे आग पर
दुनिया की बड़ी से बड़ी अदालत में
ख़ुदा को हाज़िर नाज़िर मान
कि एक दिल की अदालत भी है यहाँ
दे सकता हूँ यह बयान
कि मेरे पूरे होशो-हवास म़े
कभी नहीं बनी बड़ी तबाही की वजह आग
फिर किसने और क्यों फैलायी अफ़वाह यह
तबाही की हद तक फैलती है आग
बहरहाल करते हुए ज़मीनी आस्थाओं को ख़ारिज़
जिंदा दफ़न, अमान्य हर शर्त तक
लिया गया फ़ैसला
कि पाट दिया जाए कोना-कोना
पानी से हरसूद का
जगह-जगह से नुँची-पीटीं
मूक रहीं जो बरसों-बरस
लटकी-पटकी वक़्त की तरह
होते-होते हरसूद से बेदख़ल
लोगों के संग-साथ
बहुत रोयी थीं बाल्टियाँ भी।
2. जनेऊ
ब्राह्मण कुल में जन्मा और जनेऊ धारण नहीं किया
मेरा तो यह जीवन अकारथ गया
हाय! मैंने यह क्या किया
ऐसा नहीं कि मेरा ब्राह्मणत्व कभी जागा नहीं
और मैंने पहनी नहीं जनेऊ
लेकिन जनेऊ को लेकर मेरे तजुर्बें कभी ठीक-ठाक नहीं रहे,
मसलन-
एक बार नर्मदा में तैरते समय
मेरे हाथों में उलझ गया था जनेऊ
और मुझे डूब मरने से बचाने की
मानवीय भूल की थी कुछ लोगों ने
ऐसे ही कार का स्टेरिंग घुमाते समय एक मर्तबा
मेरा बायाँ हाथ फँस गया था जनेऊ में
कि सामने से आ रहे ट्रक के ड्रायवर ने
ठीक वक्त पर मोड़ दिया ट्रक दूसरी दिशा में
वो तो गनीमत थी कि बावजूद इसके
कि ट्रक का ड्रायवर मुसलमान था
जबकि मेरी कार पर लिखा हुआ था जयश्री राम
और तो और मेरी एक प्रेमिका
रुठकर जो गई,फिर लौटी नहीं मेरे जीवन में
उसने जब फैलायी थीं बाँहें
जनेऊ में उलझा मेरा हाथ बना नहीं पाया बाँहें
तब से जनेऊ टाँग आया था
हरसूद के पुश्तैनी घर की किसी खूँटी पर
हालाँकि घर के बड़े-बुजुर्गों ने नाक-भौं सिकुड़ते हुए
मशविरा दिया था कि जनेऊ जाकर सिरा दूँ
बाईस किलोमीटर दूर नर्मदा के बड़केश्वर घाट पे
पर मैंने सोचा क्यों जाना इतनी दूर
जबकि नर्मदा को खुद आना है
सबका सबकुछ सिराने हरसूद
बहरहाल,जनेऊ को लेकर
मेरा ताजा अनुभव यह है चुनाव के ठीक पहले
कि तमाम किस्म की दीर्घ और लघु शंकाओं के मद्देनज़र
विकास-दर के ये तमाम आँकड़ें
नोटबंदी, रोजगार और किसानों के नृशंस हत्यारे
पता नहीं कैसे हो गए मैली गंगा में नहा कर पवित्र-पावन
कि एकाएक उछलाकर ऊपर लाए गए
और जिनके कानों पर लेपटे जा रहा है कसकर
जबरन जनेऊ
मुझे तो सचमुच बड़ी कोफ़्त हो रही है
ऐसे देशद्रोहियों पर
जो सबकुछ अनसुना कर सिर्फ हगने-मूतने के लिए
लपेट रहे हैं कान पर
जनेऊ।
3. पखेरु जानते हैं
(एक)
भाँप लेते हैं मरणासन्न स्थिति को
पता चलता है उन्हें ही सबसे पहले
आम हो या खास,सारे जतन बेकार
अब ज़िंदगी नहीं होगी माफ़
परिजनों की चीख़-पुकार ह्रदय-विदारक प्रलाप
ताप महसूसते हैं फट पड़ने का सबसे पहले
इसीलिए आते हैं अपनी भाषायी संवेदनाएँ लिए
और हम,उन्हें नज़र अंदाज़ कर देते हैं
घर की मुंडेर, अस्पताल की खिड़कियों पर बैठे बेचैन
फँख फड़फड़ाते बार-बार
झाँकते हैं पल-पल हर जायज़े के भीतर तक
यहाँ तक की इस बदहवास
परकतर सड़क-यातायात से होते हुए दो-चार
बचते-बचाते हर चोट-चपेट से
आकर बैठते हैं घड़ी-दो-घड़ी
हताहत देह के आसपास
यूँ ही नहीं तकते शून्य में आकाश
जैसे ही शुरु होता है हमारा रोना-धोना सिर-पिटना
वे आसमान में भरते हैं लम्बी उड़ान
कि तन के पिंजरे से अभी-अभी आज़ाद
आख़िरी तड़प के बाद संगी साथी की देख पहली स्वतंत्र मुस्कान
खुलते ही परवाज़;खुलती हैं कितनी ही बातें कितने ही सवाल;
कि थकी देह के भीतर क्यूँ है संतापों का इतना विस्तृत संसार
क्या पिंजरे के भीतर से भी,दिखता है वैसा ही
बाहर का यह जंजाल
कैसे जिरता होगा दाना-पानी
पिंजरे पड़े-पड़े
बिना उड़ान
उड़कर पँख चार साथ-साथ
साझा करते हैं दिल का हर हाल
पखेरु
प्राण-पखेरु से
(दो)
हमारी अनिवार्यताएँ जब करने लगती हैं आनाकानी
होने लगते हैं धीरे-धीरे आत्मीय से औपचारिक
ह़द दर्जा चालक और इतने कपटी
कि सामान्य भावदशा पर पहले से तय हमारा मोबाइल
एकाएक बदल जाता है शांत या कंपन की मनोदशा में
और जताते हुए कि आ रही है किसी की बहुत ज़रूरी पुकार
करते हुए झूठमूठ बातचीत का बहाना
खिसकने लगते हैं धीमे से शवयात्रा को छोड़
गमज़दा भीड़ से दूर
तब वे ही होते हैं हमारे-अपनों के सच्चे हमराह
दूर तक जाते हैं विदा करने
पखेरु जानते हैंं-
जातीय धर्म निभाना
(3)
(एक संदर्भ:भोपाल गैस कांड)
काल से काली,ज़हर से ज़हरीली
भोपाल ठिठुरा इतना उस रात
साँसें जहाँ,जम गई थीं जहाँ की तहाँ
पिंजरों में बंद रह गए थे फड़फड़ाकर तौता-मैना
दिन की पाली से लौटे थके-माँदे
ज़्यादातर पँछी-पखेरु तो खैर
फड़फड़ा भी नहीं पाये थे
खुद को आख़िरी बार
इतने तंग थे उनके तिनकों के आशियाने
जो थे बेघर-बार और लटके पड़े थे टहनियों पे
टपककर छटपटा रहे थे सड़कों पर
लोगों के संग-साथ
तड़प रहे थे दरअसल
पखेरुओं के भी प्राण-पखेरु
पखेरुओं के लिए
उस रात
उधर, रात पाली में कर्त्तव्य पर तैनात,चिमगादड़
करते-करते प्राण पखेरुओं को अतिरिक्त समय तक विदा
लौटे इतनी देर से कि
आँखें चौंधियाने लगी थीं काले सूरज की मनहूस रौशनी में
एक तो गहरी थकान जिस पर हड़बड़ी वापसी की
कई तो उलझकर रह गए थे बिजली के तारों में
आते-आते कमला पार्क स्थित
पेड़ों पर अपने मुकाम
पता नहीं हुई कि नहीं
जामा मस्जिद में अज़ान
आरती बड़वाले महादेव मंदिर में
हमीदिया रोड के गुरुद्वारे में अरदास
पर इनमें शामिल नहीं रहा होगा
कबूतरों की गुटरगूं का संगीत
अगली सुबह
हालाँकि हर बात को हूबहू पकड़ने में माहिर
ज्यों की त्यों आवाज़ निकालने के उस्ताद
कुछ उल्लुओं की यह दलील
कतराती रही उत्तरदायित्व की कसौटी पर
भला हम कहाँ भर पाते हैं आसमान में लम्बी उड़ान
बहुत हुआ तो हो लिए
इस शाख से उस शाख
और लोग हैं कि हमारी विवशताओं को
समझने-समझाने के बजाए
ले जाते हैं कहाँ से कहाँ…
जहाँ-तहाँ।
4. त…से
व्यंजन को स्वर में जोड़ते हुए अक्सर गलती हो जाती थी
त लिखते वक़्त
आधे त की नौंक को अ के डंड़े तक खींच देता था-
तरबूज को वरबूज लिख दिया करता था
और पहली-दूसरी कक्षाओं में पढ़ाने वाले मास्साब
मेरे सर पर स्लेट-पट्टी मारते हुए पूछते थे-
‘ये वरबूज क्या होता है बे!’
मैं बकायदा व्याख्या करता-
‘ऊपर से हरा और अंदर से हल्की सफेद परत के बाद
जो होता है गुदगुदा काले बीजों के साथ लाल-लाल’
मेरी इस व्याख्या पर पूरी क्लास ठहाके लगाती
वरक़े गुल मेरी हथेलियों पर
इसलिए संटियाँ पड़ती कि तरबूज को बताता सही हूँ
फिर लिखता क्यूँ गलत हूँ
इसतरह अपने लिखे को
कभी गलत साबित नहीं होने दिया मैंने
बेशक़ इसे एक कवि की जन्मजात खुरापात मान लीजिए
बहरहाल,त से तमीज़ और तहजीब पढ़ने का दौर था वो
शिक्षा परिसरों में नहीं रची जाती थी ऐसी शौर्य-गाथाएँ
छात्र नहीं आते थे स्कूलों में बरछी और तलवार
और पीछे-पीछे उनके अभिभावक चाकू-तलवारों से लैस
अब तो खैर…
5. सिर पर पहाड़
यूँ ही नहीं उठाता हूँ सिर पर पहाड़
तना रहता हूँँ
तमाम जटिलताओं
उबड़-खाबड़पन के साथ
तना रहता हूँँ कि नदी
कर सके प्रस्थान
हो प्रबहमान वेगवान
इसलिए झुकता हूँ
मैं धरती का एक टुकड़ा
यूँ ही उठाए नहीं फिरता
सिर पर पहाड़़।
6. राजवैद्य मास्साब
राजवैद्य मास्साब होने का मतलब
सरकारी स्कूल का एक अदद मास्टर होना होता
हर महीने सिर्फ तनख्वाह पाना होता
तो राजवैद्य मास्साब होने का मतलब
जरुरी सामाजिक हस्तक्षेप नहीं होता
राजवैद्य मास्साब का होना
दिन-ब-दिन भोथरे और बेढब हो रहे इस समय में
आग के भट्टे में लगातार तपना
जंग खा रहे निरर्थक और उपेक्षित लौहे को
ठोंक-पिंज कर,नया ढब नई धार देना होता है
कितने जरुरी होते हैं
तप कर निकलने वाले सुंदर गहने
तो इस जुगत में कि हरहाल बची रहे
डिबरी की यह लौ जरा सी
कितना वाजिब होता है तब
फूँकनी में लगातार फैंफड़ों को झौंकना
राजवैद्य मास्साब होने का मतलब
लुहार और सुनार होना भी होता है
शाम को खाना खाने के बाद
सुंदर काका की पान की दूकान पर
यूँ ही घंटों नहीं गप्पियाते थे राजवैद्य मास्साब
अगली सुबह गुस्से में तर्राती उनकी आँखें
और लपलपाती हुई बैंत
जब करती थी किसी सहपाठी से सवाल
कि क्यों रे!क्यों घूम रहा था देर रात बाजार
थर-थर,थर-थरथराती थी पूरी क्लास
बहुत मुमकिन कि झर-झर बहती थी अश्रुधार
कोई फिक्र थी जो उन्हें ले जाती थी
कमल टॉकीज़ के पास
गरज यह कि ‘कटी पतंग’,’आराधना’ और ‘काँरवा’
की रंगीन मिजाज अदाओं में फिलहाल
शामिल तो नहीं
देश का होनहार कोई कर्णधार
राजवैद्य मास्साब होने का मतलब
दरअसल उस दौर का होना है
जब मानवाधिकार की दुहाइयों के समक्ष
कटघरे में कानूनन
खड़ा नहीं किया जाता था कोई मास्साब…
रिरयाते थे,गिड़गिड़ाते थे माँ-बाप
बच्चों को सौंपते थे यह कहते हुए
कि अब से इसकी खाल माँस तुम्हारा
बचेगा तो कंकाल हमारा…
राजवैद्य मास्साब होने का मतलब
किसी को कंकाल में बदलना नहीं
खब्ती-कंगालों को
उनका वास्तविक मानव अधिकार दिलाना होता है
राजवैद्य मास्साब का मतलब
एक देह का बुझना तो हरगिज नहीं
किसी भी अँधेरे समय में
एक दीप का सतत जलना होता है!
(हिंदी के मेरे पहले गुरु पं.बालकृष्ण राजवैद्य के निधन पर विनम्र काव्यांजलि)
7. बचा हुआ क्लासवर्क
सोचो,
सोचो बच्चों सोचो!
सोचो कि तुम्हें कितना जरुरी सोचना है
सोचो कि तुम्हें कितना जरुरी खोजना है
सोचो,इसलिए सोचो
कि तपिश की इन तमाम लकीरों के पार
तुम्हें नया सूरज लोचना है
और यह तुम जो देख रहे हो ना!
चाँद के चेहरे पर
जिन्दगी न होने का दाग
इसे भी तुम्हें ही पोंछना है
खोजो,
खोजो बच्चों खोजो!
खोजो कि तुम्हें बहुत जरुरी खोजना है
कि इधर -किधर ही तो धरती पर
कहीं रखी हुई है एक टार्च बहुत जरुरी
जिसे तुम्हें खोजना है,
कि जिसके प्रकाशस्तंभ के पल्ले सिरे पर बैठकर
अब तक के तमाम प्रकाशवर्षों से तेज
तेज बहुत तेज
तुम्हें कहीं पहुँचना है
सोचो,
सोचो बच्चों सोचो
सोचो कि तुम्हारे लिए हर रोज एक नई सुबह के ख़ातिर
कब से घूम रही है टीचर दीदी पृथ्वी
कि जिसकी अलग अलग कक्षाओं में बैठकर तुम्हें
आइस्टिन,निकोलस,गैलिलियो और कलाम का
बचा हुआ क्लासवर्क
पूरा करना है !
8. …कि सनद रहे
जंगल था
तो जंगल था
जंगल में शेर था,तो
शेर था
शेर जंगल का राजा था
मगर शेर जानवर था
तो जंगली राज था
जंगल था तो कुत्ते थे जंगली
जंगल में
कुत्ते चूँकि जंगली थे;शेर के पालतू नहीं
इसलिए दुम नहीं हिलाते थे शेर के आगे
बल्कि आगे आकर शेर को
घेर लेते थे बाज़दफ़ा
और इतना मूतते थे उसकी आँखों में
कि शेर अँधा हो जाता था
ज़िन्दगी की पनाह माँगता
फिर शेर भागता था पूरा जंगल मारा-मारा
और कुत्ते थे कि उसे मारते थे दौड़ा-दौड़ाकर
सनद रहे
कि जंगलराज की स्थापना करनेवाला
शेर
इसतरह भी मरता है-
कुत्ते की मौत!
सनद रहे!
सनद रहे!!
सनद रहे!!!
(एक लोककथा के मुताबिक़;शेर का शिकार करने से पूर्व जंगली कुत्ते शेर की आँखों में सामूहिक रुप से पेशाब कर उसे अँधा करते हैं)
9. अब कुछ सूझता नहीं
अब ठीक से उसे कुछ सूझता नहीं
अपनी ही आव़ाज उसे अब सुनाई नहीं देती
सिर्फ़ उसे ही महसूस होता है कि उसने कुछ कहा
उसका कहा लेकिन किसी को सुनाई नहीं पड़ता
आमतौर पर उससे कोई मिलता नहीं
पर आसपास के हर व्यक्ति को देखकर
उसे लगता है कोई आ रहा है उससे मिलने…
कोई पूछता है उससे खैर-ख़बर
वह उसी के चेहरे पर पढ़ने लगता है उसका समय
और ठीक-ठीक पहचान नहीं कर पाता चेहरे को
उसे लगता है कुछ गुमशुदा लोग
अब भी पूछ रहे हैं उससे वापसी का रास्ता
लेकिन किसी को सुनाई नहीं पड़ रहा उसका कहा
अब बीचोबीच आ गए हैं हाशिए और उसे
अब कुछ सूझता नहीं!!
10. दृश्य यह बचा रहे
हथेलियाँ फैलाना तो बच्चों की तरह
इसतरह फैलाना
कवेलू या टीन की छतों के नीचे
जैसे बच्चें फैलाते हैं बारिशों में हथेलियाँ
पानी के रकवालों के लिए
हथेलियाँ फैलाना तो इस तरह फैलाना
जैसे पानी को मुट्ठी में बाँधने की
नाकामयाब़ी के बाद
बच्चें फिर फैलाते हैं हथेलियाँ
बाँधने की कामयाब़ी के लिए
ऊपर वाले के सामने हाथ फैलाना तो
तो सिर्फ़ इसलिए फैलाना
यह दृश्य बचा रहे!
11. माँ के बंधन
माँ!
तुमने कहाँ से सीखा
मेरे जूतों के तस्मे बांधना
मेरी हर टूटन पर
भरोसे की पक्की कसमें बांधना
नसीहतों में सदा भान कराना
कभी कहीं,कोई गाँठ पड़े न ढीली
तमाम बंधनों गाँठों से इतर
न लडख़ड़ाऊँ मैं कभी कहीं
मुझे सिखाना
दौड़ना संभलना
खुली हवा में कायदे से चलना
निरे सन्नाटों से भरी
फिरती रहीं उभाने पाँव
चुभती पगडंडियाँ
सड़कों के इस निष्ठुर संसार में,
स्त्री-चेतना,महिला-विमर्श की
बकवासों से परे
खरे रिश्तों ने भी कभी सहलाए नहीं
तुम्हारे घाव
तुम चलती रहीं
मीलों-मील सालों-साल..
मेरे और खुद के भीतर थामे एक आव
सच बताना माँ!
तुमने कहाँ से सीखा
मेरी हर टूटन पर
भरोसे की पक्की कसमें बांधना
उभाने पाँव रहते हुए
मेरे जूतों के तसमें बाँधना।
(1) कवि की आँखों से प्रेम देखो
यह समयचक्र है-
तमतमाया है,तो तुम्हें भी तपना पड़ा
किन्तु तुम्हीं पर प्रेम भी तो बरसाया है
बूँद नहीं रखी एक पास
तुम्हीं पर सब न्यौछारा है
यह समयचक्र है-
कि दरमियान कोहरा घना है
तुम्हें शायद पता नहीं
आकाश तुम बिन
पूरी रात कितना रोया है
ये जो गिरी हैं ओस की बूँदें
ये आँसू हैं आकाश के
ठहर कर रह गए जो तुम्हारी सतह पर
एक सच्चा प्रेम भीगो न सका तुम्हारे अंतरंग को,
लेकिन मैंने देखी है सूर्ख गुलाब और फूल-पत्तियों पर
कतरा-ए-शबनम की सजी हुई महफिल,
सूरज की पहली किरन के साथ
कि उन शबनमी अश्कों में कितना छुपा है
सप्तरंगी प्यार,तुम्हारे लिए
ओ,धरती!
तुम पर जन्मा एक कवि हूँ मैं
मरना है तुम पर,मिटना है मुझको तुम्हीं पर
मैं तुम्हारा कवि हूँ,अक्षुण्ण आश्वासन हूँ तुम्हारा
शिद्दत से खड़ा होता हूँ तो
सिर मेरा छूता है आकाश को
तो देखो…ओ धरती देखो!!
समूची उतर आओ एक कवि की आँखों में
एक कवि की आँखों से फिर देखो
देखो अपने चहुँओर,देखो हर दिशा दूर-दूर
पूछो इस छोर से उस छोर…अपने हर छोर से पूछो
देखो कि कितना झुका हुआ है आकाश
तुम्हारे प्रेम में
पूछो समन्दर के किसी छोर से
कि क्यों डूबा हुआ है आकाश सदियों से तुम्हारे प्रेम में
माना तुम बँधी हो मर्यादाओं में
मगर तुम्हारे भीतर मचलते समुंदर की
ये उदात्त लहरें
क्यों होती हैं बेताब
छूने को
आकाश!
13. मुझे चाँद ही चाहिए
इसे फितरत मान लीजिए मेरी
या निमाड़ की तपती-पथरीली माटी में
पैदाइश और परवरिश का असर
जिसने बेहद जिद्द़ी बनाया है मुझको,
आँखों में समा गया किसी पके बेर का नेह
फिर कहाँ परवाह कि तार-तार होगी कमीज
काँटों से बिध जाएगी देह
कंकर चुभते खेतों में फिरा है छुटपन मेरा
भले ही पथरीली राहों से सख्त हुईं मेरी पगथलियाँ
मगर तोड़कर खायी हैं ताजी-मीठी ककड़ियाँ
छू कर बड़ा हुआ हूँ कपास की पौध-कतारों को
लिहाजा बहुत मुलायम और मीठा है भीतर मेरा
इतना अटूट प्यार है अपनी जिद़ से मुझको
टूटती हैं साँसें तो टूट जाएं अभी की अभी
हर्ज़ नहीं,उखड़ जाए समूचा वजूद मेरा
मगर आख़िरी साँस तक
अटोप कर रखा हूँ जिद़ अपनी
जिद़ है कि ज्वार के गरम टिक्कड़ के साथ
खाना है गुड़ रखकर
तो संभव नहीं हो पाया इस जिद़ पर
मालपुओं से समझौता कर पाना मुझसे
इसे किसी जिद्द़ी कवि का जनजात लक्षण कहो
या मानो स्वभाविकता मेरी
कि चाँद से हरक-हरक बातें करता आया हूँ नन्हेंपन से
जब-जब ले जाया चाँद से दूर
और बंद कमरे में कोशिशें हुई
दीया जलाकर बहलाने की मुझको
मैं मचला-बिफरा हुआ अक्सर बुझा देता था
झपट्टा मारकर दीया
मेरी कपासी हथेलियाँ इस तरह भी जली हैं नन्हेपन में
बेशक तुम जलाओ रुहानी-कु़र्बत का दीया मेरे लिए
मगर मुझे चाँद चाहिए
तो सिर्फ चाँद ही चाहिए
वरना मंजूर है तमाम उम्र
गहन तमस और ठोकरों भरी राहों पर चलना।
14. शाख से टूटा हूँ अभी-अभी-
बाजू-ए-दरख़्त का पत्ता
मैं टूटकर गिरा हूँ बिल्कुल अभी-अभी
पता नहीं अब कहाँ जाना है मुझको
बेपता हुआ हूँ
अभी-अभी
गुजारिश है, अपने नापाक कदमों से
मुझको मत कुचलो ओ!दुनिया वालों
बाखुदा,बाईमान कि बहुत पाकसाफ है वो शाख
जिसने खारिज किया है मुझको
अभी-अभी
होता अगर बस में मेरे
तो बुला लेता बारिशों को,
कहता कि गला दो मुझको
मिला दो इसी माटी में मुझको
कि लौटना चाहता हूँ फिर
अपनी टहनी तक
यूँ यह इल्जामात ठीक नहीं
मगर यह फितरत है,कुदरत है
कि मिलते ही आहट
किसी नयी पत्ती की आमद की
कि यह मौका है फिर से संवरने का,
तब,अक्सर हवाओ को इशारा करती हैं टहनियाँ
कि अब बेमतलब है पका हुआ यह पीला पत्ता
तेज झौंका बन आओ
इसे झड़ा दो मेरे वजूद से…
मगर सुनो…
सुनो ओ! ओ हवाओं ..सुनो!
कभी मैं भी मुस्कुराया हूँ तुम्हारे आने की खुशी में
कितना तो उदास रहा हूँ तुम्हारे न आने पर…
तो आज माँगता हूँ तुम से कुछ पहली बार
कि दौड़ी-दौड़ी जाओ
और सूखा दो टहनी की उस जगह को
कि रह ना जाए कोई दाग,मेरे नाम का वहाँ
जहाँ मैं ठहरा था कभी
मेरे होने से शाख का हुस्न संवरा था कभी
सुना है-
कोई शाख हरीभरी नहीं रहती ताउम्र
टूटकर बिखरती है एक-ना-एक दिन
तब उसे बहुत सताती है
खारिज़ किए गए अपने पत्ते की याद..
मगर,सुनो..सुनो…सुनो ओ!शजर सुनो!
मैं करता हूँ अरदास…माँगता हूँ दुआ तुम्ही से
कि बहुत नसीब वाले होते हैं वो दरख्त,
वो वृक्ष,वो पेड़..जिनका बाजू होती है
बाकसम,बाईमान इतनी पाकसाफ
कोई शाख
कि सदा हरीभरी रहे यह शाख
बेशक किसी बददुआ की तरह
जिसने खारिज किया मुझको
अभी-अभी….
15. बेशक समांतर रहो….
रेल यात्रा में बहुत याद आता है तुम्हारा प्रेम..
तुम साथ होती हो, तो जुड़ते हैं
कई-कई जीवन की कई-कई कड़ियाँ
सब गतिमान…जैसे ठहरा हुआ नहीं है कहींकुछ
सहयात्री हो जाते हैं सारे जीवन-दृश्य-
पकी फसलें लिए साथ दौड़ते हैं खेत
फलों से लदे पेड़ दौड़े-दौड़े आते हैं
और खिले गुलाब टुकुर-टुकुर देखते हैं
आँखों से ओझल न हो तब तक
बहुत सुहाता है इतराती बल खाती नदी का बहना
और ये पहाड़-
जैसे गर्भवती के पेट का उभार
कद के ये अलग-अलग
जैसे बताते हैं अलग-अलग माह
फिर नई उम्मीद से बंधी हुई हूँ तुम्हारे प्रेम में
जैसे धरती कह रही हो आकाश से…
बेशक ऐसी रहो जैसे समांतर रहती हैं
रेल की पटरियाँ
दिखती नहीं किसी को मगर,भीतर ही भीतर
बहुत मजबूत बंधी होती हैं परस्पर
इनव्हाइटेट-कामा की तरह कितने नजदीक होते हैं
हर कदम लगे लोहे के एंगल
इस गठबंधन पर फैला दी जाती है गिट्टी
कि उघाड़ा ना हो
समांतर जो चल रहा है दो पटरियों का प्रेम,
तभी तो दौड़ पाती है
कई साँसों से स्पंदित रेल।
16. उल्टी गिनती,उल्टे दिन
सीधी गिनती के साथ
उल्टी गिनती भी सिखायी गई थी छुटपन में मुझको
यह भी कि दिन फिरते हैं सभी के दिन
एक-ना-एक दिन
आते हैं अच्छे दिन
तो बुरे बन लौटते हैं किसी के अच्छे दिन
मैं सोचता था,
जब चलता है सबकुछ सीधा-सीधा
सबको भाता है कुछ-ना-कुछ जोड़ा जाना
सचमुच तब मुझको बहुत अखरता था
जोड़े हुए से कुछ घटाया जाना
हर्गिज नहीं जानता था,
कितना जरुरी होता है घटाया जाना
गणित और समीकरण से भरी इस दुनिया में
मैं चूँकि तब भी फैल कर दिया जाता था
और अभी-अभी करार कर दिया गया हूँ नाकामयाब
किसी के बदले रुखे बर्ताव से
लेकिन मैं तब भी सोचता था और सोचता हूँ अब भी
कि नौ के बाद बजते हैं दस
सोमवार के बाद तय है मंगलवार का आना
जनवरी का पन्ना बदला जाना
फरवरी की आहट आते ही
फिर क्यूँ लम्बी छलाँग लगाना
किसी के कदमों में गलीचे की तरह बिछ जाना
अब तक सीधा-सीधा चलते
क्यूँ लगने लगा है कि
होता है सबका गणित-समीकरण अलग-अलग
कब किसको जोड़ा जाना
किसको कब घटाया जाना
बस!इस बात को कभी समझ नहीं पाया
सीधासादा मेरा भोलामन!
अब क्यूँ लगने लगा है मन मेरा
सीधी के एवज उल्टी गिनती में
कि अमाँ छोड़ो यार!
एक जज्बे की इस तयशुदा मुकम्मल हार के बाद
आखिर क्यूँ जिया जाए
क्यूँ न गिने जाए उल्टे दिन
क्यूँ न घटा लिए जाएं
जल्द से जल्द
जिन्दगी के बाकी दिन।
कवि वसंत सकरगाए 2 फरवरी 1960 को हरसूद(अब जलमग्न) जिला खंडवा मध्यप्रदेश में जन्म। म.प्र. साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार,मप्र साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान,शिवना प्रकाशन अंतरराष्ट्रीय कविता सम्मान तथा अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्यिक पत्रकारिता के लिए ‘संवादश्री सम्मान।
-बाल कविता-‘धूप की संदूक’ केरल राज्य के माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल।
-दूसरे कविता-संग्रह ‘पखेरु जानते हैं’ की कविता-‘एक संदर्भ:भोपाल गैसकांड’ जैन संभाव्य विश्विलालय द्वारा स्नातक पाठ्यक्रम हेतु वर्ष 2020-24 चयनित।दो कविता-संग्रह-‘निगहबानी में फूल’ और ‘पखेरु जानते हैं’
संपर्क-ए/5 कमला नगर (कोटरा सुल्तानाबाद) भोपाल-462003
संपर्क: 9893074173, 9977449467, ईमेल- vasantsakargaye@gmail.com
वर्ष 2017 में कविता के लिए दिए जाने वाले प्रतिष्ठित मलखान सिंह सिसोदिया पुरस्कार से सम्मानित टिप्पणीकार संजीव कौशल, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में पी.एच.डी. 1998 से लगातार कविता लेखन। ‘उँगलियों में परछाइयाँ’ शीर्षक से पहला कविता संग्रह साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित।
देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविताएं, लेख तथा समीक्षाएं प्रकाशित। भारतीय और विश्व साहित्य के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित)