अमरजीत कौंके
हिंदी की समकालीन स्त्री कविता में वंदना मिश्रा एक महत्वपूर्ण नाम है .उनकी कविताएँ समकालीन समाज के संकटों और विसंगतियों को अपने कलेवर में लेती हैं.
वंदना मिश्र पेशे से प्रोफ़ेसर हैं इसी लिए उनकी शैली बेहद सधी हुई और अलंकृत है. अपनी अब तक की तीन पुस्तकों में उन्होंने अपनी प्रतिभा की एक सार्थक पहचान बनाई है. समाज के समकालीन संकटों के साथ उन्होंने नारी अस्तित्व के विभिन्न प्रश्नों को भी अपनी कविता में उठाया है.
इन कविताओं में स्त्री विमर्श एक शोर या नारे के रूप में नहीं बल्कि बेहद सहज और प्रभावी रूप में अभिव्यक्त होता है. माँ हमारे जीवन का मूल है. हमारी जीवनदाई है. हम सदैव माँ के प्रति आदर और कृतज्ञता से भरे होते हैं, लेकिन उसे कभी एक इंसान के तौर अलग अस्तित्व के रूप में बहुत कम पहचानते हैं. हमारे लिए वह पूज्य रहती है लेकिन हम माँ के भीतर एक सिसकते अस्तित्व को देखने में असमर्थ रहते हैं. अपनी कविता ‘माँ’ ने कभी उफ़ नहीं किया, में वंदना ऐसे ही प्रश्नों को पाठकों के समक्ष उठाती है.
विवाह के बाद पारिवारिक सम्बन्धों में गैरबराबरी और स्नेह के आभाव से पैदा उथल पुथल और ऐसे अहसासों को वंदना ने अपनी कविता ‘मंगल खराब था’ में प्रकट किया है.
ऐसे ही ‘उदासी’ कविता में लेखिका ने एक नौकरी करती औरत किस तरह अपने बच्चों को अपना पूरा स्नेह और मुहब्बत नहीं दे पाती, इस अहसास और अपराधबोध को बहुत ही सूक्ष्म लहजे में पेश किया है.
‘शरीफ’ लोग कविता में कवियत्री ने तथाकथित ‘शरीफ’ लोगों पर बहुत गहरा व्यंग्य किया है कि शरीफ लोग इतने शरीफ होते हैं कि वे कभी किसी स्त्री कि मदद नहीं करते. वे उसे बदनाम करते हैं उस पर छींटे कसते हैं लेकिन फिर भी वे शरीफ बने रहते हैं.
ऐसे प्रश्न, ऐसे व्यंग्य उठाती वंदना मिश्रा बेहद सरल भाषा में जीवन की जटिल विसंगतियों को अपनी कविताओं में पेश करती हैं. उनकी कविता का शिल्प बेहद सधा हुआ और जीवंत बिंबों, अलंकारों से भरपूर है. वह अपनी बात को ऐसे रखती हैं जो पाठक मन पर अपना पूर्ण प्रभाव छोड़ती हैं. ऐसी कविताओं के समकालीन जनमत के पाठकों के लिए पेश करते मुझे बेहद ख़ुशी और तसल्ली हो रही है.
वंदना मिश्र की कविताएँ
1. माँ ने कभी उफ़ नहीं किया
माँ ने कभी उफ़ नहीं किया कष्टों में
और हम खुश होते रहे
माँ की इसी अदा पर ।
माँ हमारे लिए त्याग की मूर्ति रही,
गांधी की तरह पूजते रहे मां को हम
और सिसकती रही मां की भावनाएं
भीतर भीतर ।
माँ जरूरत पड़ने पर चट्टान की
तरह खड़ी हो जाती थी हमारे लिए
दुःखो की बारिश में छाते की तरह ओढ़ लेते थे
मां को हम,
और तहा कर रख देते थे रजाई की तरह
सर्दी खत्म होते ही ।
माँ बनने के बाद पता चला मां का कष्ट
अपने लिए जरा सा जी लेती तो हम गुणगान करते
मां का ?
अकेले रहने पर मां नहीं बनाया अपने लिए कुछ
इसे हंसते हुए स्वीकार किया हमने ।
क्या माँ की तारीफ सिर्फ अपना ध्यान न
रखने के कारण की जानी चाहिए
उपयोगिता के तराजू पर तौलते रहे हम मां को
और दावा करते रहे प्रेम का ।
माँ को कभी जरूरत नहीं पड़ी ऐसे दावों की
हमारी जरूरतें पूरी करने में ही गुजार दी सारी
उम्र माँ ने ।
2. वो गीत
वो गाती थी
“मेरी भीगी भीगी सी पलकों में रह गए..”
गीत को बिना पलकें भिगाए
पर गाने के बाद
उसकी आँखों में अजीब सूनापन
तैरने लगता था
लड़कियाँ आपस में फुसफुसाती थी
ये ज़रूर किसी से प्रेम करती थी
जैसे हत्या से कम न हो ये अपराध
उस तक भी पहुँचती होगी ये आवाज़े
पर कहती नहीं थी कुछ भी
हाँ उसके गीतों की डिमाण्ड बढ़ती जा रही थी
सीनियर लड़कियाँ भी इसी गीत की फरमाइश करती
और वो गाती ,उदास होती
और अटकलें तेज़ होती जाती
कभी पूछ नहीं पाई
और उसे कभी इतना
विश्वास नहीं हुआ कि
बता सके खुद अपना दर्द
पता नहीं कहाँ होगी
पर यह गीत उसके साथ
लोगों की ओछी सोच
की याद भी
दिला देता है ।
किसी को क्यों होना चाहिए
इतना उदास
कि गीत भी न बहला सकें !
3. मंगल ख़राब था
बन नहीं रही थी पति की
कु आदतों से
और
ज्योतिष के अनुसार
मंगल खराब था बहू का
मायके से दोबारा आई तो बाँह में
काले कपड़े में बंधा ताबीज़ था
सास की पैनी नज़र उसे देख चुकी थी
अधपगला सा पति माँ के आँचल से
प्रेम में नहीं स्वार्थ से बंधा हुआ
सारी बुरी आदतों पर पर्दा डालना
माँ का काम था
एक दिन पता नहीं किस झोंक में बोल दिया
पत्नी के पक्ष में कुछ
आगबबूला हो गई माँ
सारा काम इसी ताबीज़ का
क्रोध में कैंची पटक कर
तुरंत ताबीज़ काटने का हुक्म हुआ
आज्ञाकारी बेटा बताये गए पण्डित के पास
गया पता लगाने
क्या है इस ताबीज़ में
कोई क्या खा कर बदल देगा
किसी की किस्मत
किसी की नियति
बहू जानती है
कि
जिसके नौग्रह खराब हो
उसका सिर्फ मंगल ठीक हो कर भी
क्या कर लेगा !
4. उदासी
मैं तुम्हारे कपड़े न पहनने के खिलवाड़ को
कभी न मान सकी प्रहसन की तरह
बहुत त्रासद था मेरे लिए वह खेल
जिसे मैंने कभी खेल की तरह नहीं लिया
मुझे देर होती थी
उसी समय भाग कर जाना होता था
छः सौ रुपये वाले स्कूल में
लिहाज़ा जिन अदाओं पर माएँ
निहाल हो जाती हैं
मैं खीझ जाती थी
और पिट जाती थी मेरी नन्हीं बच्ची
ज़बरदस्ती
पहना देती थी उसे कपड़े
और लगभग घसीटते हुए ले जाती थी
स्कूल की तरफ़
लौटने पर मुझे जूझना पड़ता था
अपनी किताबों और स्कूल की कॉपियों से
उस समय तुम चाहती थी
कि मैं खूब -खूब खेलूँ तुम्हारे साथ
दौड़े हम दोनों देर तक
हँसते-हँसते,लोट-पोट हो जाये
पर मेरी थकान न सिर्फ तन बल्कि मन पर भी
छाई रहती थी बुरी तरह
मैं चाहती थी तुम मोम की गुडिया की तरह
शांत रहो सिर्फ मुस्कुराती
मैं पढ़ लूं जब तक
तुम्हारा जीवन सँवारने
लायक न बन जाऊं
तुम्हारे उत्साह से छलकते मन पर
मेरी चुप्पी और खीझ
ओस की तरह नहीं ओले की तरह
पड़ती होगी मेरी बच्ची
आज तुम्हें सुविधा दे सकती हूँ
थोड़ी-सी
पर तुम्हारा बचपन खो गया कहीं
तुम्हारी ही माँ के हाथों
आज जब चाहती हूँ कि तुम हँसों खूब
तुममे समा गई मेरी ही उदासी ।
5. काश !
हिंदू इतना मुसलमान सा
और सिख इतना ईसाई सा दिख रहा था
महाविद्यालय में कि कहा नहीं जा सकता था
कि तुम क्या बना बनो
तो अच्छे लगोगे
अंत तक नहीं निर्णय हुआ तो
किसी को भी कुछ भी बना दिया गया
और जब जो बना
वह उतना ही कट्टर लगा
उतना ही सजीव
खुशबू ऐन मुसलमान की तरह
और यास्मिन पंडितानी सी
जो दक्षिण भारतीय बना
उसने कभी उत्तर प्रदेश से
बाहर कदम नहीं रखा था
कभी महाराष्ट्र नहीं गई लड़की ने
लावनी से
दिल जीत लिया निर्णायकों का
गुजराती बनी लड़की ने गरबा किया
तो गर्व हो गया हम लोगों को
उसकी शिक्षिका होने का
जबकि गुजरात से उसका दूर-दूर तक
कोई संबंध नहीं था
मन में प्रार्थना उठी
काश !
बस ऐसे ही हम पहचान ना पाए तुम्हें या खुदा!
कि भगवान हो या
जरथुस्त्र तुम ।
6. शरीफ लोग
शरीफ़ लोग, इतने शरीफ़ होते हैं, कि, कभी किसी स्त्री की मदद नहीं करते ।
जब कभी उनकी शराफ़त पर भरोसा कर ,
उनकी तरफ देखती हैं ,
वे दूसरी तरफ देखने लगते हैं
और सावधानी से पीछे हट जाते हैं ।
उनके पीछे से झाँकने लगते हैं,
फिर वही बदनाम लोग,
वक़्त ज़रूरत पर वे ही बदनाम व्यक्ति
कर देते हैं उस स्त्री के काम।
शरीफ़ लोग कहते हैं ,
यह तो था ही इसी चक्कर में ।
शरीफ़ लोग कभी नहीं पड़ते मदद जैसे चक्करों में ,
मरती है ,मर जाये स्त्री ,
वे नहीं पडेगें इस तमाशे में।
इतनी मदद ज़रूर करते हैं कि देखते रहे बदनाम
लोगो के आने ,जाने,रुकने का समय
बदनाम लोगों के फिसल जाने में ही उत्थान
होता है उनका ।
वैसे बडी चिंता होती है उन्हें अपनी इज़्ज़त और
अपने परिवार की ।
बदनाम लोंगो से मदद लेती स्त्री बड़ी सतर्क होती है
सोचती हैं, कृतज्ञ हो,
पिला दे एक कप चाय या एक गिलास पानी ही
पर डर कर शरीफ़ लोगोँ से लौटा देती हैं,
दरवाजे से ही ।
मदद लेकर दरवाजे से लौटती स्त्री की
शक़्ल कितनी मिलती है,
शरीफ़ लोगों से ।
7. कुछ बेरोज़गार लड़के
कुछ बेरोज़गार लड़के न हो
तो
सूनी रह जाये गलियां,
बिना फुलझड़ियों के रह जाये दीवाली
बिना रंगों के रह जाये होली
बेरौनक रह जाये सड़के , त्यौहारों
का पता न
चल पाए ,
बिना इनके हुडदंग के ।
मंदिर सूने रह जाये,
बिना श्रृंगार के
यदि ये चंदा न उगाहे
,फूँके ट्रांसफार्मर दिनो तक न बने, यदि ये नारे न लगाएं
धरने , प्रदर्शन, तमाशों के लिए
हमेशा
हाज़िर रहती है इनकी जमात
हम बड़े खुश होते हैं जब हमारी
सुविधाओं के लिए ये नारे लगाते हैं,
या पत्थर फेकते हैं,
पर सामने पड़ते ही बिदक
जाता हैं हमारा अभिजात्य, हम इन्हें मुँह नहीं लगाते, इनकी खिलखिलाहट खिजाती है, हमें ।
हम बन्द कर लेते हैं, खिड़कियाँ, दरवाजे इनकी आवाज़ सुनकर
अजीब तरह से ताली बजाकर
हँसते हैं,
नुक्कड़ पर खड़ा देख कर कोसते हैं हम,
लफंगा समझते हैं हम इन्हें
और ये हमे
स्वार्थी समझते हैं ।
सचमुच हम चाहते हैं, ये नज़र न आये
हमें बिना काम
पर इन्हें कही खड़ा रहने की जगह
नहीं दे पा रहे है ,हम या हमारी सरकार ।
8. अम्मा का बक्सा
अम्मा का एक बक्सा था ।
हरे रंग का ।
बचपन से उसे उसी तरह देखा था ।
एक पुरानी रेशमी साड़ी का बेठन लगा था
उसके तले में जिसके बचे
आधे हिस्से से ढका रहता था
उसका सब माल असबाब
कोई किमखाब का लहंगा नहीं
कोई नथ ,बेसर नहीं
कोई जड़ाऊ कंगन नहीं
सिर्फ
कुछ साड़ियाँ
पुरानी एक किताब
पढ़ने के लिए नहीं
रुपयों को महफूज़ रखने के लिए
क़ुछ पुरानी फ़ोटो ।
कोई बड़ा पर्स नहीं था माँ के पास
कोई खज़ाना भी नहीं ।
पर पता नहीं क्यों वो बक्सा खुलते ही
हम पहुँच जाते थे
उसके पास ।
झांकने लगते थे
कुछ न कुछ तो मिल ही जाता था
और कुछ नहीं तो माँ से
सटकर बैठने का सुख
सामान को
उलट पुलट कर
डांट
खाना ।
एक सोंधी सी महक निकलती थी
उस बक्से में से
माँ चली गई तो दीदी
उस बक्से को पकड़ के बहुत रोई
उस बक्से को चाह कर भी
‘बॉक्स’ नहीं कह सकते
जैसे अम्मा को मम्मी
भाई ने कुछ साल पहले खरीद दी थी
एक बड़ी अलमारी माँ के लिए
पर वो हरे बक्से जैसा
मोह नहीं जगा पाई
कभी हमारे दिलों में ।
माँ की गन्ध बसी है
उस बक्से में ।
9. ताबीज़
किताबें खींचती थी मुझे
बचपन से
एक दिन
एक कनस्तर के नीचे रखी
सील के भी
नीचे रखी किताब
हल्की-सी दिख गई
सावधानी से निकाल
अभी पढ़ना शुरू किया था
कि गुस्से में माँ चिल्लाई
कहाँ से मिल गई तुम्हें ये किताब?
क्यों निकाली ?
कहाँ हैं इसमें से निकला ताबीज़ ?
इतनी छुपा कर रखी किताब
दिखी कैसे तुम्हें ?
इतने सवाल सुन कर
घबरा सी गई
तब तक माँ को मिल गया
ज़मीन पर गिरा ताबीज़
किताब छीन फिर रखा
उसमें ताबीज़ और
फिर दबा दिया उसी तरह
दीदी की शादी जल्दी तय होने के लिए
किसी पंडित जी ने ये उपाय बताया था
सहम के बैठी मुझे हँसाने के लिए
दीदी ने कहा -अच्छा किया निकाल दिया ताबीज़
शायद मुझे इसीलिए पेट में
कई दिन से दर्द हो रहा था
लड़कियाँ इसी तरह दबाई जाती हैं
सील के नीचे, विवाह के लिए
और विवाह के बाद भी
बाप के सीने पर
पत्थर की तरह पड़ी बेटियाँ
चाहती हैं जल्दी से जल्दी
मुक्त कर देना पिता को
अपने कलेजे पर पत्थर रख
खुश दिखना चाहती बेटियाँ
पत्थर होने तक ।
10. खिड़की जितनी जगह
दीदी लोग पड़ोस के मौर्या जी के
घर चली गई थी
बहू देखने
जबकि पिता जी और उनमें
दीवार के लिए लाठी
और मुकदमा चल चुका था
सचमुच ।
चुपके से गई और बहू देखने की
फरमाइश कर दी
मौर्या जी
बड़बड़ाये
पर उनकी पत्नी
हँस के बोली
,घर से बिना बताए आई हैं
ये सब
दिखा दो
बहू देख
उससे गाना सुन,
लड्डू ले लौटी तो
उसे छिपाना
बड़ा कठिन लगा उन लोंगों को
कुछ खाया छत पर जा
कुछ फेक दिया
बाद के दिनों में
मुहल्ले की किसी स्त्री
के आने पर बढ़ -चढ़ के बड़ाई की
बहू की तो पोल खुली
माँ ने हँसते हुए धमकाया
फिर पता नहीं क्या गुप्त सन्धि हुई
कि खिड़की से देख नई बहू को
माँ ने मुँह दिखाई दी
दीवारें नहीं टूटती
पर महिलाओं ने
हमेशा बना रखी है
एक खिड़की जितनी जगह
प्रेम के लिए ।
कवयित्री वंदना मिश्रा का जन्म 15 अगस्त जौनपुर उत्तरप्रदेश में हुआ। एम.ए., बी.एड. और पीएचडी के बाद फिलहाल ये G. D. बिनानी कॉलेज, मिर्ज़ापुर के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर हैं।
कविता संग्रह –
1.कुछ सुनती ही नहीं लड़की
2. कितना जानती है स्त्री अपने बारे में
3.खिड़की जितनी जगह
गद्य साहित्य – 1. सिद्ध नाथ साहित्य की अभिव्यंजना शैली पर संत साहित्य का प्रभाव
2. महादेवी वर्मा का काव्य और बिम्ब शिल्प
3.समकालीन लेखन और आलोचना
कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।
सम्पर्क: vandnamkk@rediffmail.com
टिप्पणीकार अमरजीत कौंके, जन्मः 27 अगस्त 1964, लुधियाना में, शिक्षाः एम.ए., पी-एच.डी. (पंजाबी)। सृजनः पंजाबी भाषा में कई कृतियाँ प्रकाशित। हिन्दी में ‘मुट्ठी भर रोशनी’, ‘अँधेरे में
आवाज़’, ‘अंतहीन दौड़’, ‘बन रही है नई दुनिया’ प्रकाशित। हिन्दी से पंजाबी और
पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद की 35 पुस्तकें प्रकाशित। ‘प्रतिमान’ नामक पंजाबी पत्रिका का संपादन।
पुरस्कारः साहित्य अकादमी, दिल्ली से अनुवाद पुरस्कार। भाषा विभाग, पंजाब द्वारा
‘मुट्ठी भर रोशनी’ पर सर्वोत्तम पुस्तक पुरस्कार एवं गुरू नानक देव विश्वविद्यालय के सम्मान।
संप्रतिः स्वतंत्र लेखन
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