मेहजबीं
उज़्मा सरवत की कविताएँ समकालीन समय की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक परिस्थितियों और पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा निर्मित यथार्थ का आईना हैं। बहुत नपे-तुले शब्दों में उज़्मा परिस्थितियों का चित्र खींच देती हैं। उनकी कुछ कविताएँ एक पत्रकार की तरह रिपोर्टिंग का काम करती हैं। हमारे इर्द-गिर्द जो आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक असाधारण घटनाएँ घटित हो रही हैं, ख़बरनवीस की मानिंद सरवत उनका फीचर खींच देती हैं। उदाहरण के लिए उनकी कविता ‘म्यूट विडियोज़’ है।
फासिस्ट पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा बहुमत के जोर पर अमानवीय असंवैधानिक अलोकतांत्रिक क़ानून बनाकर जनता पर थोप दिया जाता है। मीडिया इन आदेशों को जनकल्याणकारी घोषित करता है। जो सवाल पत्रकार को व्यवस्था से पूछने चाहिए। वो सवाल युवा पीढ़ी अपनी कक्षा छोड़ कर सड़क पर जनांदोलन द्वारा पूछती है। सत्ता उन युवाओं पर लाठीचार्ज करवाती है। काले क़ानून असंवैधानिक असंवेदनशील, अमानवीय, अलोकतांत्रिक आदेशों का सबसे पहले विरोधी स्वर उच्च शिक्षण संस्थानों से निकल कर आता है। इसलिए फासिस्ट ताकतें सबसे पहले उच्च शिक्षण संस्थानों को ध्वस्त करती हैं। बीते समय में इन असंवैधानिक, असंवेदनशील अमानवीय घटनाओं को जेएनयू ,जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अंजाम दिया गया। लाइब्रेरी में घुसकर छात्रों को पीटा गया, होस्टल में घुसकर छात्रों को पीटा गया। उज़्मा की कविता ‘म्यूट विडियोज़’ इन्हीं घटनाओं का दस्तावेज़ है।
पहला वीडियो –
नक़ाबपोश ‘सुरक्षाकर्मी’
धड़ाधड़ घुसते हैं लाइब्रेरी में
जिससे अफ़रातफ़री मच गयी है
वे आते ही छात्रों पर
ताबड़तोड़ लाठियाँ बरसाने लगते हैं
बदहवास छात्र
अपनी जान बचाने को
यहाँ-वहाँ भागते नज़र आ रहे हैं
मगर किताबों की ढाल उनकी हड्डियों को
टूटने से क्या ही बचा पायेगी
राजनैतिक लाभ के लिए अलोकतांत्रिक घटनाएँ अंजाम दे दी जाती हैं। बीते एक दशक में मोबलिचिंग की घटनाएँ आम हो गई हैं। सड़क, रेल कहीं पर भी एक विशेष समाज के लोग सुरक्षित नहीं हैं। छोटे कस्बे और महानगरों की प्यास पानी से/ बरसात से नहीं बुझती, शहर की प्यास ख़ून से बुझती है, आँखों के खारे पानी से बुझती है। इन घटनाओं के नतीजे बहुत बुरे होते हैं, जिनका बुरा प्रभाव आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक स्थिति पर पड़ता है। किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं है, ‘अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता’ वही हाल है। औपचारिकता के तौर पर ग़ैर ज़िम्मेदाराना ब्यान दे दिया जाता है। खोखला विकास किया जा रहा है, कहीं रेल हर दूसरे तीसरे दिन पटरी से उतर रही, लाखों जाने जा रही हैं, कहीं नये पुल गिरे रहे हैं, कहीं सड़कें धंसी हुई हैं। एयरपोर्ट फ्लाईओवर रेलवे स्टेशन यहां तक कि नयी संसद भी सब जगह पानी पानी हो गया है। इसकी कोई जिम्मेदारी जवाब देही सत्ता के पास नहीं है। औपचारिक बयान हैं बस।
“हम कड़ी निन्दा करते हैं।”
उज़्मा सरवत की कविता हम ‘हिंसा की निंदा करते हैं’ फासिस्ट सत्ता की थेथरबाजी का वर्णन है।
मुल्क का हर हत्यारा बोले
हम हिंसा की निंदा करते हैं
ख़ून से लथपथ सबके चोले
इंसानों का धंधा करते हैं
धर्म के हम बड़के अनुयायी
हम नफ़रत का चंदा करते हैं
पढ़े-लिखों से बड़ी लड़ाई
उन्हें पीटकर अंधा करते हैं
लाठी-डंडे-गोली और तेज़ाब
जज़्बात इन्हीं से चंगा करते हैं
अमन-मुहब्बत-मिल्लत-ख़ाब
हम थेथर हैं, डंडा करते हैं
जहाँ लिखी हो बात अक़्ल की
वहीं जमूरे पंगा करते हैं
नाज़ी-प्यास मदारी(जी) की
ख़ून से उसको ठंडा करते हैं
मुल्क का हर हत्यारा बोले
हम हिंसा की निंदा करते हैं.
उज़्मा सरवत की कुछ कविताएँ सीधे-सीधे अर्थ नहीं खोलती हैं। अप्रत्यक्ष रूप से अर्थ कविता के भीतर हैं। ये कविताएँ एक फेंटेसी तैयार करती हैं, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष दृश्यों में बुनी हुई हैं। इनके केन्द्र में बिल्ली है, काली ऊन है। बिल्ली काली ऊन के गोले को आपने क़ाबू में करने की कोशिश करती रहती है, ऊन उलझी हुई है उसको सुलझाने की कोशिश करती रहती है। बिल्ली आम आदमी का प्रतिनिधित्व करती है इन कविताओं में, वो आम आदमी जो पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा चलाए जा रहे आर्थिक, शारीरिक और राजनैतिक शोषण की चक्की में पिस रहा है। उसकी ज़िन्दगी बेकाबू परिस्थितियों में उलझ गई है जिसे सुलझाने की कोशिश ही ज़िन्दगी की अहम ज़द्दोज़हद है। उज़्मा की कविता नफ्सियाती बस्ता और ख़ाब और हक़ीक़त, ऐसे ही दृश्यों और बिंबों का दस्तावेज़ हैं।
ख़ाब में देखी चितकबरी बिल्ली
ऊन के गोले से खेलती –
गहरा काला ऊन का गोला
बड़ी देर से उसे पूरा का पूरा
अपने गदीले पंजों में
धर लेना चाहती थी शायद
मगर जैसे ही एक सिरा पकड़ में आता
तो दूसरा दूर फिसल जाता
उछलकर उसे पकड़ने जाती
तो हाथ का सिरा गिर पड़ता
और वो और भी उलझ जाती
बिल्ली भी कैसी ज़िद्दी निकली
दम लेने का नाम ही न ले
देखते देखते मेरी ही आँखें
बोझिल हो गईं
मैंने जैसे ही आँखें बंद कीं
दृश्य बदल गया.
‘माँएँ और उदास लड़कियाँ’ पितृसत्तात्मक समाज की मध्यकालीन सामंती सोच को प्रस्तुत करती है। ससुराल जाने के बाद बेटियों को वहीं ज़िन्दगी गुज़ारना है, ज़िन्दगी अच्छी गुज़रे या बुरी। कैसी भी विपरीत और विरोधी परिस्थिति हो बेटियों को सब्र करना है। जहाँ डोली गई है वहीं से अर्थी उठनी है। मुँह नहीं खोलना है, सवाल नहीं पूछने हैं अपने अधिकार, स्वाभिमान और अस्तित्व को भूलना है और मर्ज़ हो जाना है उपलब्ध विपरीत विरोधी परिस्थितियों में। जन्म से लेकर विवाह तक माएँ यही सिखाती रहतीं हैं बेटियों को। उन्हें नागरिक बोध नहीं बताती, उन्हें सर उठाकर जिंदगी गुज़ारने का हुनर नहीं सिखाती, एक जीते-जागते इंसान को गाय बनाने की प्रक्रिया में लगी रहती हैं। यह चेन आगे बढ़ती रहती है एक माँ से दूसरी तीसरी माँ बेटी तक। निम्न वर्गीय परिवार में आज भी बेटियों की परवरिश ऐसे ही की जाती है। मल्टीनेशनल कंपनियों में कार्यरत आधुनिक प्रगतिशील सुविधाओं का सुख हासिल कर चुकी महिलाओं को लगता है हमारे इर्द-गिर्द सब बदल गया है। चारों तरफ़ महिलाओं की परिस्थितियों में बदलाव आ गया है। अब कोई अबला नारी नहीं है। इस सीमित दृष्टि से अलग छोटे गाँव-कस्बे और महानगरों की डी ग्रेड कॉलोनी की बेटियों की परिस्थितियों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है, वेशभूषा खान-पान को छोड़कर।
मगर माँएँ इससे बेहतर नहीं जानतीं
उन्होंने सदियों से चली आ रही
परंपरा से यही सीखा है कि लड़कियों को
अलग-अलग क़िस्म की उदासियाँ मिलती रहें
तो वे शिकायत करने की बजाय
अपनी क़िस्मत को सुलझाने में उलझी रह जाती हैं
उनसे कुछ धागे निकालकर फूल बनाती हैं
चादरें काढ़ती हैं और कपड़े सिलती हैं
उनके हाथों में घट्ठे पड़ जाते हैं
नींद में बेहोशी और बेहोशी में नींद ढूँढती हैं
इसी को हासिल-ए-ज़िन्दगी समझती हैं
और इस तरह अपनी ज़िन्दगी में
खप जाती हैं
यही कारगर होता है
ऐसी ही लड़कियाँ घर बसाने के हुनर में
पारंगत मानी जाती हैं
ऐसी ही लड़कियों को गुणी होने का तमग़ा मिलता है
ऐसी लड़कियाँ अपनी उदासी को हँसकर व्यक्त करती हैं
ऐसी ही लड़कियाँ फिर अपनी लड़कियों को भी
उदासी से बचाने के लिए
यही पुरानी आज़माई घुट्टी पिलाकर
नई अनजान जगहों पर भेज कर
सुख की नींद सोती हैं.
उज़्मा की कविताओं में शहर महानगरों की भयावह परिस्थितियों का जीवंत चित्रण किया गया है। चारों तरफ़ अफरातफरी मची हुई है। कहीं जुलूस का विभत्स शोर-शराबा है, कहीं संसद में भाषा का गिरता हुआ स्तर है, कहीं मॉब लिंचिंग की दहशत है, कहीं बेरोजगार युवाओं का अंधभक्ति में मचाया गया आतंक है। कहीं साफ सुथरा माहौल नहीं है, क़यामत जैसे क़ब्र के अंधेरे जैसे दहशतगर्द मनाज़िर देखते रहते हैं। पेट के अंदर जो गंदगी है वो दिमाग़ में पहुँच गई है और वही गंदगी चारों ओर फैली हुई है। कहीं सुकून नहीं है। बरज़ख़ का स्वाद जीति ज़िन्दगी में चख रहा है इंसान। उज़्मा सरवत की कविता ‘बरज़ख़ की दास्तां’ भयावह परिस्थितियों को सामने प्रस्तुत करती है।
ये ख़ंजर
ये भाले
ये तलवार
ये लहू में लिपटी ज़ीस्त
और इसका हू
ये चीख़
ये हंगामे
ये शोर
ये कान फाड़ती-सी चुप्पियाँ
चार सू चार सू
है कौन सी ज़बान ये
है वक़्त की ढलान ये
आदमी लहूलुहान है यहाँ
कहाँ किसी में जान है यहाँ?
बाद इसके एक मो’जिज़ा होगा
बरज़ख़ की दास्तान है ये
आख़िरी बयान है ये.
बीते एक दशक में मीडिया ने विभाजनकारी सोच, नफ़रत के प्रोपेगेंडा और अलोकतांत्रिक दृष्टिकोण नयी पीढ़ी में भर दिया है। एक इंसान दूसरे इंसान को धर्म जाति, बिरादरी, क्षेत्र, भाषा, कल्चर के चश्मे से ही देखता है उसको जज करता है। मनुष्य को अब मनुष्य में ख़ालिस मनुष्य नहीं दिखता। कृत्रिम जानकारी पूर्वाग्रह साम्प्रदायिक सोच को मद्देनजर रखते हुए ही दूसरे इंसान को अब जज किया जाता है। कविता ‘दिल्ली मेट्रो’ में दो अलग-अलग दृश्य हैं दोनों दृश्य अलग-अलग सोच और व्यवहार को सामने प्रस्तुत करते हैं। उज़्मा सरवत की काव्यात्मक शैली, विशेषता, मूल संवेदना को जानने के लिए आईये पढ़ते हैं उनकी कुछ कविताएँ।
1. ख़ाब और हक़ीक़त
ख़ाब में देखी चितकबरी बिल्ली
ऊन के गोले से खेलती –
गहरा काला ऊन का गोला
बड़ी देर से उसे पूरा का पूरा
अपने गदीले पंजों में
धर लेना चाहती थी शायद
मगर जैसे ही एक सिरा पकड़ में आता
तो दूसरा दूर फिसल जाता
उछलकर उसे पकड़ने जाती
तो हाथ का सिरा गिर पड़ता
और वो और भी उलझ जाती
बिल्ली भी कैसी ज़िद्दी निकली
दम लेने का नाम ही न ले
देखते देखते मेरी ही आँखें
बोझिल हो गईं
मैंने जैसे ही आँखें बंद कीं
दृश्य बदल गया.
(2)
वो… पुच्छल तारा टूटा
मेरे हाथ किरकिराने लगे
मैंने झट से नीचे देखा
मैंने कोई मन्नत माँगी थी क्या?
और बिना कुछ सोचे
ज़ोर से हाथ झटक दिया
हथेली दूर जा गिरी – अरे!
दर्द महसूस करूँ?
या हैरान होऊँ?
या चीख़ पड़ूँ?
या डर जाऊँ?
इतने में ही हाथ में रौशनी भरने लगी
तेज़ी से ऊपर कंधों की तरफ़ बढ़ने लगी
सूझबूझ का वक़्त कहाँ मिला
मेरी आँखें बड़ी होने लगीं
शरीर ने सारी उलझन को जमा कर
एक गहरे अंधेरे का रस्सीनुमा गोला
तैयार करना शुरू किया
आँखों से होते हुए नसों में
भरना शुरू किया
इससे पहले की
रौशनी और अंधेरे की भिड़ंत होती
मेरी बीनाई चली गई.
(3)
फिर से आँख खुली
ये तो मेरा ही कमरा है
मेरा चश्मा कहाँ है?
अरे ये कुपोषित बच्चा किसका है?
मैं घबराकर उठ बैठी
पैर ज़मीन पर रक्खा
तो ज़ैतून की चादर बिछी थी
फिसलकर धप् से बैठ गयी
फिर ज़मीन थर्राने लगी
धमाकों की दहलाती आवाज़
दूर से आती हुई सुनाई दी
ये कोई युद्धस्थल है?
कमरे की छत के अलावा नज़र दौड़ाई
ओह, ये तो मेरा कमरा नहीं
दरवाज़े पर काले ऊन का पर्दा?
चश्मा हो तो साफ़ देखूँ
खिसकते हुए दीवार के क़रीब गयी
ये तो किसी विशालकाय जानवर के
पेट के भीतर का मंज़र है!
मुझे मितली आने लगी
वहीं गश खाकर गिर पड़ी
और इस बार सचमुच पलंग से नीचे – धड़ाम!
नींद खुल गयी.
2. सहायक कलाकार
ये दुनिया
नायकों की थी
उनके हिसाब से चलती हुई
सिर झुकाए उनके पीछे-पीछे
जिनके इर्द-गिर्द ही बनाये गए
सारे नियम, ताम-झाम आदि
शोहरत के पायदान पर
उनको मुक़र्रर कर दिया गया – ताउम्र
ख़ुद उन्होंने भी इसे ख़ूब पसंद किया
तारीफ़ें बटोरी और झूमते रहे
ये एक ऐसा दस्तूर बन पड़ा
जिसपर किसी ने आपत्ति नहीं जतायी
मगर ये दुनिया
जिनके दम पर
हमेशा सरपट दौड़ी
न आगे देखा न पीछे
बलखाती इतराती रही
वो ठहरे सहायक कलाकार!
जिन्होंने नायकों के मंच खड़े किए, उसे सजाया
उनके सामने एक मदमस्त भीड़ जमा की
जिन्होंने रात के अंधेरे में बेहद सफ़ाई से
ठिकाने लगा दिए राह के सब रोड़े
जिन्होंने फ़ज़ा में एक नशा-सा तारी किया
जिनके इशारों पर टिकी हुई थीं
बड़ी-बड़ी सत्ताएँ
जिनकी पीठ पर खड़े नायक
अपने देवता होने के भ्रम में डूबे तो फिर
कभी न उबरे
दुनिया के
तमाम नायकों ने सदैव जोड़े रक्खा
अपने नाम के साथ एक सहायक कलाकार
जो उनके लिए उतने ही ज़रूरी थे
जैसे गायक को संगतकार
जैसे सनसनी को समाचार
जैसे पैग़म्बर को अनुयायी
जैसे राजा को मंत्री
जैसे राम को लक्ष्मण
जैसे अकबर को बीरबल
जैसे कुंदन को मुरारी
जैसे कासे को भिखारी
और जैसे, नरेंदर को अमित.
3. कलियुग
काला समय:
काले समय में
नींद के गहरे प्रभाव में
सोया समूचा महादेश
एक कृत्रिम फ़ज़ा
जिसका तिलिस्म बड़ी देर से टूटेगा
काला करतब:
काले करतब करती हुकूमत
रोमांच से भरी
झूमती, नाचती जनता
वहशत के कारोबार से
फलता-फूलता सदी के मुहाने से
दनदनाता हुआ घुसता अलमस्त राष्ट्र
काला दिल:
काले दिल से अब
किसी को नहीं आती शर्म
सबने सीना चीर के है दिखलाया
आस्तीनों पर सजाया
अपने अपने काले दिल
ऐसे जैसे कोई रत्न
काली बिल्ली:
काली बिल्ली यानी मैं
इक रात को मैंने सोचा
काश कि मैं भी एक बिल्ली होती
फिर नींद से उठकर मैंने
अपना ही रस्ता काट लिया.
4. दिल्ली मेट्रो
(अव्वल)
मेट्रो में एक महिला
मुश्किल से दो फ़िट की दूरी पर
खड़ी रही होगी मुझसे
मेरी नज़रें अचानक उससे जा मिलीं
और यूँ कि मेरी हड्डियाँ सिहर उठीं
मैं उसे देखती रही
कुछ ऐसा था
जिसने बाँधे रखा मुझे थोड़ी देर
मैं थक गई
मगर वो देखती रही
मैंने चाहा कि कुछ कहूँ
शायद ये मेरा वहम हो
पर मेरी ज़बान भीतर ही ऐंठ गयी
गले में कुछ रिसने लगा
बहुत भीतर कुछ विचलित हो उठा
शायद मन;
ट्रेन रुकी
और बिना कुछ सोचे मैं
मंज़िल से पहले ही उतर गई
इतनी नफ़रत भरी आँखें अपने लिए
एक औरत की
मैंने पहली बार देखी थीं.
(दोम)
मेट्रो की एक जाँच कर्मचारी
नहीं भूलती
मैं भुलाती भी नहीं
कम से कम तीन बार
सामना हुआ होगा मेरा उससे
मुझे अब भी याद है
पहली बार जब उसने
मुस्कुराकर कहा था –
“आपका हिजाब…
(मेरा कलेजा धक् से हुआ)
…बहुत प्यारा है”
फिर दूसरी और तीसरी बार भी
और बस;
उसकी मुस्कान मेरे चेहरे से जा लगी
कई दिनों तक मेरे साथ ही रही
वो हल्की मुस्कुराहट
बुरे ख़यालों को धक्का देती, हल्का ही सही
मैंने एक अजीब आत्मीयता देखी
उसकी आँखों में, ख़ालिस
कितना ख़ुश्लेहान-सा चेहरा था उसका
वर्दी में इतनी ख़ूबसूरत औरत
मैंने पहले कभी नहीं देखी थी.
5. बरज़ख़ की दास्तान
है इंतेज़ार का मंज़र
आलमे बरज़ख़ का मंज़र
कर रही हैं इंतेज़ार रूहें
रोज़े हश्र का –
जलती हुई
तड़पती हुई
चटकती हुई
अपनी दर्दनाक मौत के बाद
है बरज़ख़ की दास्तान ये
है आख़िरी बयान ये
न कोई ज़िन्दगी रही
न ज़िन्दा रहा कोई
बाद इसके फ़ैसला होगा
ये आग
ये शरारे
ये वार
ये सड़ी-गली सी हड्डियाँ
और इनकी बू
ये ख़ंजर
ये भाले
ये तलवार
ये लहू में लिपटी ज़ीस्त
और इसका हू
ये चीख़
ये हंगामे
ये शोर
ये कान फाड़ती-सी चुप्पियाँ
चार सू चार सू
है कौन सी ज़बान ये
है वक़्त की ढलान ये
आदमी लहूलुहान है यहाँ
कहाँ किसी में जान है यहाँ?
बाद इसके एक मो’जिज़ा होगा
बरज़ख़ की दास्तान है ये
आख़िरी बयान है ये.
6. नफ़्सियाती बस्ता
बीते दिनों में बहुत कुछ बदल गया
सबसे पहले अपने नए-पुराने ख़्वाब
मैंने पलकों से नीचे उतारकर
बस्ते में रख लिया
इसी बस्ते में अपनी सारी
क़ीमती चीज़ें रखती हूँ –
मेरे ख़्वाबों का स्टोर रूम!
हरदम इन्हें आँखों में
सजाए रखना भी
कहाँ मुमकिन है
इतने में ही कुछ चीज़ें
बस्ते से कूदकर
बाहर निकल आयीं
जो पहले कभी
रखकर भूल गयी थी
हैरानी की बात नहीं कि
यहाँ सब ज़िन्दा बाशिंदे हैं
सब ख़ुद-मुख़्तार, अपनी मर्ज़ी से आने जाने
मुझे सताने को आज़ाद;
आगे आगे दौड़े मेरे ख़दशात
फिर इतराते निकले कुछ उसूल
धम्म् से गिरीं कुछ ज़िम्मेदारियाँ
फ़िसल गए कुछ न भेजे हुए ख़त
खनक गए कुछ याद के सिक्के
और घंटे की तेज़ आवाज़ में छिपे
कानों में कोड़े की तरह पड़े
कुछ पुराने सबक़
जो ज़िन्दगी से लिये थे मैंने
किसी और ज़माने में
‘ये शरारती बाशिंदे
मुझे चैन से जीने नहीं देते’
यही सोचते हुए
झुंझलाने की ख़राब कोशिश के साथ
मैंने वापस सबको भीतर रखकर
बस्ता क़रीने से बंद कर दिया।
7. माँएँ और उदास लड़कियाँ
माँएँ सब जानती हैं
अपनी उदास बेटियों की उदासी का सबब
उनके ख़ाबों में डराने वाले बन-मानुस
उनके वसवसे
उनके सहमे दिल की सदा
यहाँ तक कि उनके ख़ाब भी
जिनकी कोई ताबीर नहीं
मगर माँएँ इससे बेहतर नहीं जानतीं
उन्होंने सदियों से चली आ रही
परंपरा से यही सीखा है कि लड़कियों को
अलग-अलग क़िस्म की उदासियाँ मिलती रहें
तो वे शिकायत करने की बजाय
अपनी क़िस्मत को सुलझाने में उलझी रह जाती हैं
उनसे कुछ धागे निकालकर फूल बनाती हैं
चादरें काढ़ती हैं और कपड़े सिलती हैं
उनके हाथों में घट्ठे पड़ जाते हैं
नींद में बेहोशी और बेहोशी में नींद ढूँढती हैं
इसी को हासिल-ए-ज़िन्दगी समझती हैं
और इस तरह अपनी ज़िन्दगी में
खप जाती हैं
यही कारगर होता है
ऐसी ही लड़कियाँ घर बसाने के हुनर में
पारंगत मानी जाती हैं
ऐसी ही लड़कियों को गुणी होने का तमग़ा मिलता है
ऐसी लड़कियाँ अपनी उदासी को हँसकर व्यक्त करती हैं
ऐसी ही लड़कियाँ फिर अपनी लड़कियों को भी
उदासी से बचाने के लिए
यही पुरानी आज़माई घुट्टी पिलाकर
नई अनजान जगहों पर भेज कर
सुख की नींद सोती हैं.
8. कभी तो आस्माँ झुके
कभी तो आस्माँ झुके
दर्द का समाँ खुले
जिये यूँ बालाओं में
थमी थमी सी ख़्वाहिशें
दुआ रही न बंदगी
बिखर गयी ये ज़िन्दगी
उदासियों की शाम में
जवाब के मक़ाम में
बड़े बड़े सवाल थे
सफ़र के कुछ इनाम थे
कभी तो आस्माँ झुके
दर्द का समाँ खुले
ख़्वाब थे, अज़ाब थे
सराब ही थे सामने
प्यास थी, एक आस थी
कहीं कहीं गुलाब भी
फ़रेब बन के छा गए
जवाब सब बिला गए
गुमान भी न कर सके
बयान भी न कर सके
कभी तो आस्माँ झुके
दर्द का समाँ खुले
एक आग सी मचल गयी
उम्मीद फिर संभल गयी
ख़ुशी के बुत बना लिए
दीवार दिल के ढा दिए
हसीन शाम, सुर्ख़ ज़ौ
चली सबा भी तेज़ रौ
बलाएँ ली अदा से यूँ
दमक गया हो चार सू
कभी तो आस्माँ झुके
दर्द का समाँ खुले रे.
9. बिछड़ गया हर साथी
हमने नहीं कहा अलविदा
हमें नहीं मालूम था
कि ये हमारा आख़िरी बार मिलना था
हमने कितने प्रंसग दिल ही में रहने दिए
कितना कुछ सेंसर कर दिया
अगली होने वाली मुलाक़ातों के लिए
या ऐसा होने के ख़याल भर के लिए
नामुमकिन-सी उम्मीद के लिए
कितना कुछ अनकहा रह गया
कितना कुछ हम भूल गए
कितना कुछ हँसकर टाल दिया
कितना कुछ तो हमने सोचा ही नहीं
वो सबकुछ जो सोचा भी नहीं
जिनका कोई मूर्त रूप ही न था
जिनको कभी तवज्जो नहीं मिली
वो अब रातों को
काली सुनसान सड़कों पर
ख़ुद तय किया करते हैं रास्ते
मीलों मील
सुकून की तलाश में
अपनी ही आवाज़ की आस में
बेचैनी यूँ कि
जैसे छूट गया हो किसी का हाथ
किसी तूफ़ान में
जैसे मौत के तांडव में
बिखर गया हो बदन
किसी धमाके में.
10. म्यूट विडिओज़
पहला वीडियो –
नक़ाबपोश ‘सुरक्षाकर्मी’
धड़ाधड़ घुसते हैं लाइब्रेरी में
जिससे अफ़रातफ़री मच गयी है
वे आते ही छात्रों पर
ताबड़तोड़ लाठियाँ बरसाने लगते हैं
बदहवास छात्र
अपनी जान बचाने को
यहाँ-वहाँ भागते नज़र आ रहे हैं
मगर किताबों की ढाल उनकी हड्डियों को
टूटने से क्या ही बचा पायेगी
दूसरा वीडियो –
इस बार नक़ाबपोश गुंडे
दरवाज़ा तोड़कर भीतर घुसे
छात्रों का एक हुजूम
दहशत के मारे दौड़ते हुए
बरसती लाठियों के बीच
आपस में टकराता है
वे एक दूसरे पर गिरते हैं
हाथ जोड़ते हैं
लड़खड़ाते हैं
गिड़गिड़ाते हैं
चीख़ते हैं
उनकी आवाज़ बहुत दूर तक जाती है
झकझोरती है
और तोड़ देती है
मेरी आत्मा सुन्न हो गयी है
इसके आगे न देख सकूँगी
बिल्कुल नहीं;
जितना देखा है
उसके पीछे की सब बातें
याद आ गयी हैं
सच है कि ये तो कुछ भी नहीं
उन काली यादों के घाव
क्या ही भुलाए जा सकेंगे;
उस हौलनाक वक़्त को वे
हर लम्हा जीते हैं
उस रात गिरा हर क़तरा ख़ून
ख़्वाब में मेरे फूटे सिर से
टपकता है लगातार
और उन म्यूट वीडिओज़ की
जानलेवा चीख़ें मुझे
मौत की नींद में खींचती हैं
जकड़ती हैं
फिर गला दबाकर ज़िंदा कर देती हैं.
11. हम हिंसा की निंदा करते हैं
मुल्क का हर हत्यारा बोले
हम हिंसा की निंदा करते हैं
ख़ून से लथपथ सबके चोले
इंसानों का धंधा करते हैं
धर्म के हम बड़के अनुयायी
हम नफ़रत का चंदा करते हैं
पढ़े-लिखों से बड़ी लड़ाई
उन्हें पीटकर अंधा करते हैं
लाठी-डंडे-गोली और तेज़ाब
जज़्बात इन्हीं से चंगा करते हैं
अमन-मुहब्बत-मिल्लत-ख़ाब
हम थेथर हैं, डंडा करते हैं
जहाँ लिखी हो बात अक़्ल की
वहीं जमूरे पंगा करते हैं
नाज़ी-प्यास मदारी(जी) की
ख़ून से उसको ठंडा करते हैं
मुल्क का हर हत्यारा बोले
हम हिंसा की निंदा करते हैं.
12. पिता का साया
ऐसे तो संतान प्राप्ति होते ही
पिता बन जाते हैं तमाम पुरुष
पर वे पिता हो पाते हैं या नहीं
ये सवाल हमेशा बना रहता है
एक अनचाहे दुःख की तरह
जीवनभर सालता रहता है
हमने कितने बाइ-डिफ़ॉल्ट पिता देखे हैं
जो कभी अपने पिता होने की ज़िम्मेदारी
ना ही निभा सके
और ना इसका कोई अफ़सोस हुआ उन्हें
कुछ ने अपनी इच्छा से
ऐसा करना अपने आप से कमतर जाना
और ता-उम्र अनुपस्थित रहे
कुछ उपस्थित रहे मगर उनका होना
महज़ कलंकित करता रहा
एक विषधारी साँप की तरह डंसता रहा
और कुछ अपनी दीगर कमियों या हालात की वजह से
पिता होने में असमर्थ रहे
ऐसा भी देखा हमने
कि उनके पिता बनने के पूरे अंतराल में
ऐसे दुर्लभ पल भी आये जब वे वाक़ई पिता ‘हुए’
अक्सर इन्हीं दुर्लभ पलों से उनके व्यक्तित्व के
खाई-से गहरे खोखलेपन को भर देने का काम लिया गया
उनके पिता ‘बनने’ और पिता ‘होने’ के बीच की दूरी को
नज़रअंदाज़ कर दिया गया
गौण कर दिया गया
गो कि उन्हें इस अपराध से
बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया
ऐसे पिताओं का प्रभाव
उनके बच्चों के जीवन पर
एक ज़िद्दी साये की तरह मंडराता रहता है
ये साया उनकी मृत्यु के बाद और गहराता है
यही उनकी परवरिश भी करता है
यही उनका व्यक्तित्व गढ़ता है
और यही उनके सबसे नाज़ुक पलों को
सबसे मुलायम एहसासात को
सबसे मासूम ख़यालों को
अपने स्याह अंधेरेपन से दाग़दार कर देता है
ऐसे अंधेरे नस्लों बाद कहीं छंटने का नाम लेते हैं
ऐसे पिता का साया
दुश्मन के बच्चे पर भी न पड़े!
कवयित्री उज़्मा सरवत बीनिश
जन्म: 2 सितंबर 1998
जन्म स्थान: ग्राम- गड़वार, ज़िला- बलिया, उत्तर प्रदेश.
शिक्षा: मनोविज्ञान से परास्नातक, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़
कॉग्निटिव साइंस से परास्नातक, आईआईटी (गाँधीनगर), गुजरात
ई-मेल: beenishreadsmails@gmail.com
सम्प्रति: ऑपरेशंस मैनेजर, आईयूएस डिजिटल सॉल्युशंस
टिप्पणीकार मेहजबीं, जन्म 16/12/1981. पैदाइश, परवरिश और रिहाइश दिल्ली में पिता सहारनपुर उत्तरप्रदेश से हैं माँ बिहार के दरभंगा से। ग्रेजुएट हिन्दी ऑनर्स और पोस्ट ग्रेजुएट दिल्ली विश्वविद्यालय से, पत्रकारिता की पढ़ाई जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय
व्यवसाय: सेल्फ टीचिंग हिन्दी उर्दू अर्बी इंग्लिश लेंग्वेज
स्वतंत्र लेखन : नज्म, कविता, संस्मरण, संस्मरणात्मक कहानी,फिल्म समीक्षा, लेख
सम्पर्क: 88020 80227