आलोक रंजन
इधर उषा राजश्री राठौड़ की कुछ कविताओं से रु ब रु होने का मौका मिला और पहले ही पाठ में वे कविताएँ आकर्षित कर गयी ।
कविताओं के उस आकर्षण के पीछे उनका अपना एक संसार है । वह संसार उस समय से उपजा है कहीं कवि की स्मृति में अटका रह गया ।
स्मृति के आँगन में जब ये रचनाएँ अपने सामने वर्तमान को देखती हैं तो एक साथ तुलना , करुणा , टूटन , स्वप्नभंग और हासिल जिंदगी का खोखलापन खुलकर आ जाता है ।
रचनाकार की सृजनात्मकता का यह सबसे मजबूत पक्ष है कि उसने अपने और अपने आसपास के समाज में आ रहे परिवर्तन को बखूबी महसूस करते हुए दर्ज किया । यही वजह है कि इन कविताओं के माध्यम से कवि पाठक को जहाँ भी ले जाए पाठक आँख मूँदकर चला जाता है ।
ये कविताएँ जो भूमि और समाज प्रदर्शित कर रही हैं उससे कवि जिस गहरायी से आबद्ध है वह स्मृतियों के ठहराव और जीवन की गतिशीलता का संघर्ष रच रही है । उषा की ज़्यादातर कविताओं में यह संघर्ष लगातार परिलक्षित होता है ।
एक कविता में वे कहती हैं –
“तितलियाँ उड़ती हुई ठीक लगती हैं
उनकी उदासी या हँसी खोजने की कोशिश न करो।
बहुत देर कर दी तुमने आते आते”
उषा की ये कविताएँ अपने लिए जो वैचारिक आधार तैयार कर रही हैं उसे देखने की जरूरत है । ये कविताएँ उस मजबूती की कविताएँ हैं जो लगातार असफल होते हुए आती है ।
एक समय के बाद स्मृतियों से भावुक रिश्ता टूट जाता है और व्यक्ति की वैचारिकी अपनी वर्तमान दशा को स्वीकार कर लेती है लेकिन यहाँ यह देखना दिलचस्प है कि इन कविताओं में वर्तमान से समझौते के बजाय उसे अपनी शर्तों पर ‘स्पेस’ दिया जाता है ।
अपनी शर्तों का होना और उनके आधार पर अपने निर्णय लेना उस बात का प्रमाण है जहाँ एक व्यक्ति अपनी एजेंसी का प्रयोग कर सके ।
हर दौर अपने भीतर व्यक्ति के सामने उन स्थितियों का संकुल रखता है जहाँ उसे सवाल उठाने और अपने निर्णय लेने के संघर्ष से गुजरना पड़े ।
उस संघर्ष में व्यक्ति कई बार हारकर चुप हो जया है और समझौते में जीने लगता है । उषा की ये कविताएँ उस समझौतावादी रवैये के खिलाफ खड़ी होती हैं ।
‘अतीत के झोले में’ कविता के अंत में एक हिस्सा आता है जब वर्तमान को उसकी वास्तविक स्थिति दर्शायी जाती है ।
कच्ची गलियाँ / खेत और लाल गाय / दौड़ता जेठ / बरसता भादो / ठिठुरता पौष / इसमें नहीं हैं तो बस / तुम्हारा नाम !!
उषा की इन कविताओं को स्त्री की कविताओं के दृष्टिकोण से अवश्य देखा जाएगा और यह देखा जाना स्वाभाविक भी है ।
इन कविताओं में जो स्त्री स्वर है वह उसी वैचारिक दृष्टि को लेकर बढ़ता है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है । इन कविताओं से जो स्त्री छवि निर्मित होती है वह हमारे समय का प्रतीक हैं ।
कविता का यह प्राथमिक कार्य इन कविताओं में दिखता है कि ये अपने समय की मजबूत स्त्री को अभिव्यक्त करती हैं ।
कवयित्री यह अभिव्यक्ति जिस सहजता से प्रस्तुत करती वह प्रशंसनीय है । सामान्य परिस्थितियों में आवृत्त भावों को व्यक्त करने के तरीके से जो अर्थविस्तार मिलता है वही इन कविताओं की सफलता है ।
उनकी पंक्तियों की व्यापकता में वर्तमान समय में अपने लिए रह बनाती हुई नायिकाओं का चित्रण है जहाँ जीवन के बहुआयामी चरित्र में पहली प्राथमिकता मजबूती की होती है ।
ये कविताएँ सबसे पहले स्त्री को एक मनुष्य की तरह रखती है उसके बाद आता है उसका स्त्री होना । इस तरह स्त्री की दो भूमिकाओं में एक द्वंद्व की स्थिति बनती है जो कविताओं को अलग ऊंचाई प्रदान करती है ।
द्वंद्व को समझना तब आसान हो जाता है जब यह समझा जाए कि स्त्री एक मनुष्य के रूप में समाज में कहाँ है और एक स्त्री के रूप में कहाँ है ।
उसकी दोनों ही भूमिकाओं के द्वंद्व में यहाँ ध्यान देने की बात है कि इस द्वंद्व में जो स्त्री उपस्थित है वह अनावश्यक नकार के बदले आत्मीयता को लेकर आगे बढ़ती है ।
उषा की एक कविता में यह अपनत्व और सहजता स्वाभाविक ही देखी जा सकती है –
“क्यों इतनी उदासियां
लिए फिरते हो आँखों मे।
जिंदगी को थैले में रखकर
मौत खरीदते फिरते हो”
उषा की कविताएँ एक आकर्षक लोक रचती हैं । लोक का यह पक्ष उनकी कविताओं को अभिव्यक्ति की अद्भुत शक्ति प्रदान करता है ।
इन कविताओं का लोकपक्ष कविताओं को रोचक और सुग्राह्य बनाता है । लोक के विविध रंगों में बसी ये कविताएँ नयी व्यंजनाओं में अपने को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो पायी हैं ।
आज की विज्ञान और तकनीकी की दुनिया में जब जीवन का लोकपक्ष नष्टप्राय हो रहा है और स्थानिक शब्द अपने दिन गिन रहे हैं तब यदि कविताओं में यह दिख जाये तो सहज प्रसन्नता होती ही है ।
आज विश्वग्राम के सिद्धांत के अधीन लोकचेतना लगातार आहत हो रही है और साहित्य का वैचारिक पहलू उससे जूझने में लगातार पिछड़ रहा है तब कविताओं में लोकदृश्यों का आना साहित्य के पक्ष को ही मजबूत करता है ।
उषा की कविताओं में वे सामाजिक धरोहर प्रकट रूप लेते हैं जो क्रमशः क्षीण होते जा रहे हैं । इन कविताओं का शिल्प भी अप्रसन्न नहीं करता है ।
सहज बोलचाल की भाषा में राजस्थानी हिन्दी के शब्द और झट से ग्राह्य होने वाले प्रतीक इन कविताओं की जान हैं । ‘भरोसे की किश्तें चुका दी है मैंने’ जैसे प्रयोग कवि के भाषिक वैशिष्ट्य से परिचय कराते हैं ।
उषा राजश्री राठौड़ की कुछ कविताएँ पढ़ते हुए उनकी जिस गहरी रचना दृष्टि और सक्षम कवि मनस से हमारा साक्षात्कार होता है उम्मीद है भविष्य में वे और मजबूत होंगे ।
उषा राजश्री राठौड़ की कविताएँ
1. आओ मेरे पास बैठो
कुछ दोस्त थे जो मेरी सहेलियाँ थे।
उनसे माँगी जा सकती थी बेझिझक किताब कॉपी।
पेन पेंसिल या कभी कभी मीठी सुपारी भी।
नहीं था लड़के लड़की का भेद।
माँ बचपन मे जितनी राजकुमारियों की कहानी सुनाती थी।
सब राजकुमारीयां इतनी खूबसूरत होती थी कि वो बोलती तो उनके मुंह से फ़ूल झरते,
चलती तो कुं कुं का पगलिया मंडता।
मैंने कई बार बोलकर देखा राजकुमारी की तरह पर फ़ूल नही झरे।
कुं कुं के पगलियों वाली बात पर भरोसा नही रहा।
बचपन मे कुछ सिक्के थे मेरे पास ।
अमीरो सरीखी साख थी मेरी।
कभी कभी माँ माचिस के लिए चार आने मांग लेती थी।
साहूकारी चलती थी।
गर्मियों में डाला गया कैरी का अचार चौमासे में
स्कूल के टिफिन की खुश्बू हुआ करता था।
उसमे से उस दोस्त ने कभी हिस्सा नही मांगा।
मुझे याद नही उसके टिफिन में क्या होता था।
दो मीटर फ्रॉक का कपड़ा चार मीटर के सलवार कमीज में बदल गया।
अब वो दोस्त अपने दोस्तों के साथ ,
उसने मुझे बाकी सहेलियों के पास अकेला छोड़ दिया।
कभी कभी भटक जाती थी रास्ते
आत्मविश्वास के।
लौट आती थी कूँ कूँ के पगलियों के सहारे वापस।
आखिर थी तो मैं भी अपने पिता की राजकुमारी।
उसने पूछा ‘बुख़ार उतरा?
मैंने कहा ‘हाँ ‘
और भरोसा भी ।
उसने वादा किया।
“भरोसा करो तुम्हारा भरोसा नही टूटने दूँगा।”
फिर मुझे याद आया कुछ महीनों से मैंने मसालों को धूप नही दिखाई।
दालों में सीलन आ गई होगी।
कई काम हैं मेरे पास उसे याद करते हुए करने को।
लेकिन जिद बस इतनी सी कि,
आओ
मेरे पास बैठो।
(तुम्हारे आने से बचपन भी याद आया।)
2. तुम्हें एक चिट्ठी लिखनी उधार है
क्यों इतनी उदासियां
लिए फिरते हो आँखों मे।
जिंदगी को थैले में रखकर
मौत खरीदते फिरते हो।
उदासी तुम्हारी आँखों में सच्ची
गुस्सा तुम्हारी नाक पर झूठ लगता हैं
कितना मरोगे
एक जीवन जीने के लिए
एक बार जी क्यों नही लेते
मरने के लिए।
तुम्हे एक चिट्ठी लिखनी उधार हैं।
पढ़ने की फुर्सत हो तो इतला करना।
तुम्हारा इंतजार मैने
देहरी के आले पर रखा है
तुमने कह दिया
बेवजह मत जागना।
3. वह अब भी सिसक रही है
कवि ने अपनी कविता में ,
इस कद्र भर दिया उसके दर्द को
कि कविता खुद रोने लगी ,
चित्रकार ने रंगों को उड़ेल
हाहाकार करता चित्र
उकेर दिया केनवास पे,
लेखक ने अपनी कहानी की नायिका
को पीड़ा के समन्दर में
इतना गहरा धसा दिया
की फिर वो उबर ही नहीं पाई…..
नर्तकी ने अपने नृत्य में
बिखेर दिया उसका अपमान
कि घुंघरू टूट कर बिखर गए दर्शको में
कलाकार ने दिखाई
अपनी कलाकारी नुकड़ नाटक में
उस दिन जाम हो गया शहर का ट्रेफिक
कोई भूरा बिल्ला घात लगाये बैठा हो जैसे
बिल में से निकलने वाले चूहें पे ठीक उसी तरह
इन सब पे थी कई दिनों से उस पत्रकार की नजर
जिसने इन सब के हुनुर को लाया दुनिया के सामने
और दिला दी राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय ख्याति
लोगो ने की भूरी भूरी प्रशंसा
और पत्रकार सहित सबने जीत लिए
उस साल के सभी पुरस्कार
इनमे से किसी को नहीं मालूम
उसके घर का पता
वो सिसक रही हैं
अपने घर के किसी कोने में
और इनके घरो में चमक रहे है
जीते हुए सम्मान !!
4. अतीत के झोले में
मेरे अतीत के झोले में ढूँढोगे
तो एक गाँव मिलेगा
एक पनघट
एक पगडण्डी
शिव मंदिर
बूढ़ा खेजड़ा
एक बरगद
एक तालाब
तालाब में
आषाढ़ी एकादशी की डायन
कच्ची गलियाँ
खेत और लाल गाय
दौड़ता जेठ
बरसता भादो
ठिठुरता पौष
इसमें नहीं हैं तो बस
तुम्हारा नाम !!
5. अब देर हुई
वक़्त पर आना था तुम्हें,
बहुत देर हुई अब।
वक़्त की ठोकरों ने लहूलुहान कर दिया
तुम कहते हो मुझ पर भरोसा करो
मेरे साथ नंगे पैर चलो।
भरोसे की किश्ते चुका दी हैं मैंने
अब सजगता का कर्जा चढ़ा।
एक बात जान लो
मुझ मैं अब जान बाकी नही।
पीड़ा एक गहरा हृदय माँगती हैं
प्रेम उसमे डूबने का शौकीन।
तितलियाँ उड़ती हुई ठीक लगती हैं
उनकी उदासी या हँसी खोजने की कोशिश न करो।
बहुत देर कर दी तुमने आते आते।
6. पिता
पिता नही होते सड़क
पगडण्डी होते हैं।
वो रखते हैं अपनी पगड़ी साथ
कि न देख सको तुम माथे का कर्ज
पैर की जूती से छुपाते हैं पैरों में चुभे काँटे।
अपनी जेब मे रखते हैं मिठी गोलियाँ
तुम नही लौटते उनके पास से खाली हाथ।
(पिता से किया जा सकता हैं भरोसेमंद प्रेम)
7. तुम्हारे हिस्से का प्रेम सीखा कहीं से
उसकी कमीज उसके तन से बड़ी और मेरी फ्रॉक घुटनो से ऊपर।
एक मीठी गोली को कमीज में दबा कर तोड़ता
बड़ा हिस्सा मेरा, छोटा और किरचें उसकी।
मैंने अपनी आँखों मे रख ली ये बात।
पापा की जेब से बिस्तर में लुढ़के सिक्के मेरी पहली कमाई थी
जो मैंने बिछावन समेटने में पाई थी।
मेरे पास नई स्लेट थी, नया बस्ता, नया पटीपहाड़ा ।
मामा की दिलाई काली फ़ूलों वाली फ्रॉक।
माँ ने खजूर के पेड़ जैसे चोटी बनाई थी।
वो मेरे आगे आगे चला ,उसकी स्कूल अब मेरी भी स्कूल थी।
स्कूल के आखिरी घँटों में अन्तराक्षरी
वो मेरे पास बैठी किसी स्टेशन मास्टर की बेटी थी।
उसने खड़े होकर गाया ला ला ला ला ला ला ला।
बाकी मैने सुना नही, मैंने उसे उस दिन खूब देखा।
वो मुझे घर से खेतों के रास्ते मिलता।
आगे होता तो कदम धीरे करता।
पीछे तो तेज।
फिर हम चुपचाप आगे पीछे चलते।
उसी ने मुझे बताया था कि चुड़ैलों के पैर उल्टे होते हैं।
ग्यारहवीं कक्षा में वो मिली मुझे।
उसे सिर्फ मेरी ही सहेली होना चाहिए था।
लेकिन वो उस की सहेली बनी।
मुझे उस पर कभी गुस्सा नही आया।
जिसकी सहेली बनी उस नाम की लड़कियाँ मुझे आज भी अच्छी नही लगती।
वो शायद कॉलेज का लड़का था।
उसने एक दिन ट्रैन में मेरे लिए खिड़की वाली सीट रोक ली।
हर शनिवार को मुझे खिड़की वाली सीट मिलती।
वो दरवाजे पर जाकर खड़ा हो जाता।
मुझे उस से उसका नाम पूछना चाहिए था।
माँ ने एक दिन कहा था
ध्यान से रहा करो
जमाना खराब हैं।
अपनी परछाई पर भी भरोसा मत करना।
मैंने इस बात को अपने दुप्पटे के कोने में गाँठ बाँध ली।
उन दिनों सीख रही थी मैं
आँगन लीपना।
मांडणा मांडना ।
उसने मुझे कहा
‘मुझे तुम से प्रेम हैं’
मैंने कहा , पापा से बात की?
उसने मेरे दुप्पटे की गाँठ देख ली थी।
वो थोड़ा थोड़ा किसी फिल्म के नायक जैसा था।
उसे और मुझे एक गीत बहुत भाता था।
उसके पास टेप रिकॉर्डर था।
उसकी कैसेट में एक गीत था।
“जब हम जवां होंगे जाने कहाँ होंगे’
तो तय रहा कि अब ब्याह हो।
अब तक सब उसकी आँखों मे था।
विदाई के वक़्त उसने अपनी हथेली में रख ली सारी सहेलियाँ सारे दोस्त।
फिर जादू किया और बना लिया मोगरे का फ़ूल
अपने केशो में खोंस रखा हैं उसने
जब जब वो अपने केश धोती हैं
उसका आँगन महक उठता हैं।
(तुम्हारे हिस्से आया प्रेम मुझे किस किस ने सिखाया था।)
8. एक कविता लिखने में
किसी घड़े को खाली कहकर ,
ठोकर मारने से पहले
एक बार सोच लेते
कितनो की प्यास बुझाई होगी इसने
किसी सूखे पेड़ की छाया न मिले
तो जलते चूल्हे को देख लेना
बूढ़े पिता की फटी जेब
देख कर शर्माने से पहले
वो दो रूपये सेक्रिन की आइसक्रीम
के इस जेब से ही निकले थे याद कर लेना
माँ की बनाई दाल में कंकर निकले तो
चूल्हे से निकलते धुएं में भी तुम्हारे लिए रोटी सेकना
एक बार सोच लेना
पढाई करके शहर में तुम बस गए
रात भर तुम्हारे साथ परीक्षा के दिनों में
माँ का जागना याद कर लेना
दिन भर करते हो इस टोमी की सेवा
गली के शेरू की दिलेरी याद है ना
वो पंडिताइन आती होगी क्या
पूर्णिमा अमावस्या का सीदा लेने
वो बैल मर गया होगा
जिस से हांकते थे अपनी गाड़ी चाचा
जोतते थे खेत
वो कुएं का पानी मीठा ही आता हैं
या लाल दवा मिला दी होगी
ओह वो चोराहे के लड़के छेड़ते होंगे लड़कियां
नीली कमीज और खाकी पेंट
कहा जाते थे हम पहन कर
वो खाली घडा या वो सूखा पेड़
बाबा या माँ ,पंडिताइन
कोण हैं ये सब?
ओह कुछ याद नहीं शायद सपना था मेरा
अरे सुनती हो भागवान …
मेरा चश्मा नहीं मिल रहा हैं
देखो कितनी दिक्कत हो रही हैं मुझे
एक कविता लिखने में ………..
9. चीटियाँ कॉफिन ले जा रही है
अपना दिल अपने पास रखो
धड़केगा तो जी पाओगे
मेरे साथ तुम रहो सफर में
मंजिले किसे चाहिए
मंजिले धोखा हैं
क्षितिज की तरह
कभी देखा हैं तुमने ?
जमी और आसमाँ को मिलते हुए?
वादे इरादे ये सब दीवानगी के खिलौने हैं
वो सफ़ेद साड़ी वाली रातरानी देख रहे हो
उसके पास वादो का गोदाम हैं
वादे करने वाला नहीं रहा
ये चीटियाँ कोफिन ले जा रही हैं
मूछों वाला कर्नल खुद अपनी रोटियाँ सेकता हैं
युद्ध के दौरान ख्वाहिशे मर गई
शांति आई नहीं
बुद्ध , बाद में आये या पहले
या आये ही नहीं
तुम मौन सब मौन
घसीटना पड़ता हैं सड़ी गली जिंदगी को
नर्तकियाँ ,रुदालियाँ सब एक समान प्रतीत होती हैं
अमन का पैगाम लाने वाला सफ़ेद कबूतर ढूंढो
भविष्य नाम का बालक गुमशुदा हैं जंगल के मेले में
खरगोश शेर को नचा रहे हैं
अरे ओ कठपुतलियों कि अब खेल खतम हुआ
साँझ होने को हैं सुबह के इंतजार में !!
10. माफ कर दे मुझे
माफ कर दे मुझे में तेरे इश्क में शामिल न हो सका .
मै ही अदना रह गया मुझे वो हक़ हासिल न हो सका .
उतना प्यासा ना था मै तब, जितने अपने अश्क तूने पिलाये मुझे
आज दरख़्त सा खड़ा मै ,कोई पूछता नहीं मुझे
आज भी तू मेरे आस पास दोड़ती है सिरहन बन के
मेरा रोम रोम तेरे अहसानों से भरा पड़ा है
भुला नहीं हूँ मै वो सवाल ,जो जाने से पहले तेरी अश्को मै थे .
आज भी तन्हाई मे उन्ही के जवाब ढूंढता हूँ .
मेरी तमन्ना ,बन के गुजारिश तेरे दर पे खड़ी है .
तन्हा कर दे मुझे अपनी यादो से
एक बार मेरे आगोश मे आके मेरी पलकों को नम कर दे
11. तुम्हारा गुनाहगार हूँ मैं
आज ऑफिस में बैठे बैठे तुम्हे उकेर रहा था
टेबल पर रखे वर्ल्ड मैप पर तुम्हे खोजा मैंने,
तुम्हारा पता नहीं मिला मुझे ।
बारी बारी तीन तस्वीर बनाई,
तीनों में नहीं भूला मैं तुम्हारे माथे पर लाल बिंदी लगाना।
अचानक तुम्हारी पहली तस्वीर ने मुझ से कहा,
‘कहाँ चलना हैं कहो मैं आँख मूंद कर तुम पर भरोसा करती हूँ।’
ये सुनकर मेरे बदन पर चींटियाँ रेंगने लगी
मुझे घबराहट सी हुई
मैंने खुद से पूछा क्या मैं इस भरोसे के लायक था ?
उस शाम तुमने
अपने बालों में लाल गुलाब लगा रखा था ,
मेरा हाथ पकड़े पकड़े
न जाने कितनी दूर तक निकल आई थी ।
‘तुम्हारा गुनहगार हूँ मैं ‘मैं माफ़ी माँगना चाहता था।
तुम्हारी दूसरी तस्वीर मुस्कुरा कर मौन हो गई।
शायद वो समझ गई थी की जिस पर एतबार किया था उस से शिकायत क्या करना।
मैं इस अंदाज़ से खुश हुआ कि अचानक तुम्हारी मांग का सिंदूर नजर आया मुझे।
और हम दोनों के बीच एक समन्दर आ खड़ा हुआ।
तीसरी तस्वीर से मैंने कहा, तुम कुछ बोलोगी नहीं ?
उसने अपनी चंचल और अनुभवी आँखे मचकाते हुए कहा,
‘कहो कैसे हो तुम याद ही नहीं करते’
ऑफिस से घर के रास्ते को तय करने और उसकी दूरी को कम करने के लिए
मन किया तुम्हारा नम्बर डायल करू और तुमसे बात करूँ
पर फिर खुद से सवाल किया क्या इस से तुम्हारे मेरे बीच की दूरियां मिट जाएगी ?
12. मेरी कविता की लड़की
मेरी कविता में है एक लड़की
पैबंद लगी फ़्रोक पहने
लाल फीते से बंधी दो चोटियाँ
शहर से आए बाबू
बड़े बाबू
बोले सुनो उषा
मैं खरीद सकता हूँ
तुम्हारी ये कविता
करोड़ों में
अगर तुम बना दो
अपनी इस लड़की को औरत
क्या दे पाई हूँ मैं आज तक
इस लड़की को एक पैबंद लगी फ्रोक
दो लाल फीते
एक उड़ते हुए दुप्पटे का ख्याल
और कभी पुरे न होने वाले ख्वाब
बाबुजी हम एक बार उस लड़की से पूछ ले
मैंने खटखटाई कविता की पहली पंक्ति
वो तीसरी पंक्ति से चल के आई
पसीने से तरबतर
अरे दीदी आप
आइये ना अंदर आइये
मैं दूसरी पंक्ति की मुड्डी पे बैठ गई
अगर तुम्हे मिल जाये
इस फ्रोक से छुटकारा
इन लाल फीतों से आजादी
लहराते बाल .उड़ता आँचल
सच दीदी तो दिला दो न मुझे ये सब
इसके लिए होना होगा तुम्हें लड़की से औरत
केसे बनते हैं वो
अरे बड़ा आसान हैं
तुम्हारे तीन वर्णो की जगह नए तीन वर्ण
और बस की से ई की मात्रा को
दो टुकडो में तोड़ के
अ के ऊपर टांगना हैं
फिर तो बना दो मुझे औरत दीदी
ख़ुशी से चिल्ला पड़ी
की अचानक मासूमियत सा सवाल
दो टुकड़े होने में दर्द होगा क्या
जावो बाबूजी कही और जावो
मेरी कविता की लड़की
पैबंद वाली फ्रोक में खुश हैं
13. खोजी मन
बरसों से अकाल ग्रस्त पड़े दरारों वाले तालाब से
अचानक फुट पड़ने वाले अंकुरण सा हे तुम्हारा प्रेम
तुम इतने खोजी अंतर्मन के क्यों हो
कैसे हुआ सम्भव ?
इतने भीषण काल में तुम्हारा अंकुरण
इतना पूछना तुम्हारा
और झुलसा गया मुझे वो एक लू का थपेड़ा
जो रोज हारता था मुझ से !!
14. चौखट लांघती स्त्री
नही लांघती स्त्री
अपनी मर्जी से
घर की दहलीज।
बिना चौखट के
दरवाजे पर भी
खाती है ठोकर ।
अपशगुन के नाम पर
पलट कर बैठ जाती हैं।
परिण्डे से पीती हैं पानी
लंबी साँस लेती हैं।
खुद से करती हैं पचास सवाल
जवाब सबका ना में आता हैं।
पोछती हैं आँख का काजल
चूल्हें को जलाती हैं।
रोटी पर चुंदड़ी बनाती हैं।
बच्चों को ले पास में सुलाती हैं
खुद को ही कहानी सुनाती हैं।
पौ फटे बजाती हैं सांखल
पड़ोसन के घर की
माँगती हैं आटा।
तब उसे ख्याल भी नही आता
दो चौखट लांघ आने का।
15. मोहब्बत वाली लड़की
तुम्हे पुकारना चाहता हूँ
नाम नहीं पूछना हैं मुझे
मैं खुद तुम्हारा नामकरण
करना चाहता हूँ
तुम जो ये हँसी के फूल
बिखेरती हो न
उस से मेरे रास्ते की मुश्किलें
कम हो जाती हैं।
तुम्हारी हँसी मुझे डांटती हैं
और में सीखता हूँ जिंदगी का
एक अध्याय
तुम्हारी खिलखिलाहट
मेरी उदासियो की दुश्मन हैं
तुम जिंदगी का गणित बिन सीखे ही
कैसे बाजार कर आती हो ।
कैसे खरीदती हो सबके हिस्से का शुभ
लाभ हमेशा तुम्हारे बटुए में मुस्कुराता हैं।
तुम्हारे बालों में अटका फूल
कभी मुरझाता क्यों नहीं
कैसे सींचती हो हर रिश्ते को तुम
एक रोज आवाज दूँगा तुम्हे
सुनो “अरे ओ मोहब्बत वाली लड़की ”
क्यों मैंने कभी तुमसे तुम्हारा नाम नहीं पूछा।
16. जिसकी संपत्ति हो बस एक लाठी
बाबा मेरे लिए
पहाड़ी गड़रिया वर ढूंढना।
जिसे कभी न मिला हो प्रेम।
जिसकी माँ हो सौतेली , डाह सौतेली।
जिसने रोक लिया हो उसके जीवन मे पिता प्रेम का भी प्रवाह।
जिसे आती हो उतनी ही गिनती बस गिन सके अपनी भेड़े।
उसकी संपत्ति हो बस एक लाठी जिसके एक छोर बंधी हो रोटी
और एक छोर बंधी हो डोरी डोलची।
जो करे मेरे प्रेम का आदर ।
जो विस्मय से सुने मेरी बातें।
मुझे समझे अपने जीवन सागर का केवट ।
और फिर सिखाए मुझे भागते उछलते मेमनों को गिनना।
17. सलाइयाँ अब कलेजे में चुभती हैं
साइकल की ताड़ी लेकर सीखा था उसने स्वेटर बुनना
माँ ने कहा था थोड़ा नुकीला कर लो इससे आसानी होगी बुनने में।
स्वेटर के बढ़ते फंदों की खुशी ने कभी दर्द नही दिया
नुकीली नोक चुभती रही उसकी उंगलियो के पोरों पर।
इन्ही पोरो से आजकल वो अपने बच्चों के केशो में तेल लगाती हैं।
सलाइयाँ अब उसके कलेजे में चुभती हैं।
तुम सुबह सुबह रजाई में देह अगन से गरमाते हो
वो चूल्हें पर गर्म पानी की देग चढ़ा चुकी हैं
उसकी बेटी को महीना आया हैं।
दूर कही शहर में किसी के घर का गीज़र पानी उबाल रहा हैं।
ओढ़नी संभालने के चलते उसके हाथ से प्रेम गिर गया।
रोटी पोनी तो आई उसे पर साथ बैठकर खानी नही।
माँ ने आधी बात बताई आधी शायद उसे भी पता नही थी।
आदमी के कालजे में पेट की पगडण्डी से जाना।
घर संभालती रही मन मैला होता गया।
उसकी ख्वाहिशों पर जाले जमने लगे।
कुछ वक्त के बाद वो घर का स्टोर रूम बन गई।
उसकी हाथों की लकीरों में राख जमी रही।
कोलतार की सड़कों सी।
वो माँजती रही ठावड़े ठीकरे।
पड़ी बिवाइयों को ग्रीस से भरती रही।
उसका अस्तित्व बंजर ही रहा।
उसकी आँखों से बारिश न हुई
सुण कुसुण के फेरे में गला फाड़ के रो न पाई।
(ये कोई औरतें हैं जिन्हें मैं जानती हूँ,
हर बार मिलने पर एक ही सवाल “और जीव तो सोरो हैं?”
मुझे कभी बैठ कर पूछ लेना चाहिये था ” सब ठीक हैं ना?”
शायद निकाल सकती थी किसी के कलेजे की सलाइयाँ,
बता सकती थी की चतुर गृहणी होना पर प्रेम को अपने पल्ले बाँध कर रखना।
पर में आवाज देती रही किसी को जो बहरा था।
खुदा मानना प्रेम में बड़ी भूल हैं।
इन सब औरतों की पंगत में अगला आसन मेरा लगा हैं।)
स्त्रियोँ की अपनी एक दुनियाँ हैं।
जिसमे ज्वालामुखी उबलते हैं
पर वो हँस कर कहती हैं आइये बैठिए मैं चाय बना कर लाती हूँ।
तुमनें कभी सोचा?
कितने लावा पी चुके हो ?
18. आभास
आभास ही सही
क्षितिज पर धरा और अम्बर का
मिलन तो दिखता है …..
पर तुम को क्या हुआ
तुम तो मेरे अपने थे ना,
फिर तुमने अपना रुख क्यों मोड़ लिया
हर आहट पर लगता है तुम आये हो ,
पर क्यों रखु मैं अपने ह्रदय द्वार खुले
अगर वो तुम ना हुए तो ….
(कवयित्री उषा राजश्री राठौड़ बैचलर्स इन एज्युकेशन, मास्टर इन सोशियोलॉजी मुम्बई के एक स्कूल में अध्यापन। टिप्पणीकार आलोक रंजन पेशे से अध्यापक , विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेखन । यात्रा वृत्तांत की किताब ‘सियाहत’ पर भारतीय ज्ञानपीठ का वर्ष 2107 का नवलेखन पुरस्कार।)
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