उर्मिल मोंगा की कविताएँ
1. औरतें
डूबी रहतीं
लोक-परलोक सुधारने
जोड़ती, पाई पाई
खरीदती कभी बर्तन
कभी कपड़े
तलाशती फूलदान किसी मेले में
नहीं पीती सिगरेट, दारू
गम भुलाने के लिए
जाती है, चीटियों की बिलों तक
आटा डालने
कभी पीपल को जल चढाती
रखती मुंडेर पर पानी
पंछियो को डालती दाना
सींचना चाहती
समूची सृष्टि स्नेह से |
2. अपना घर
देश के हर प्लेटफार्म पर
दिखाई देती है
एक स्त्री
जिसके पास सामान
सिर्फ एक पोटली
जिसने कभी नहीं की बालों में कंघी
बिखरे बाल, जटाएँ बन चुके
थक चुकी
खुद से बतियाते -बतियाते
उसकी जुबान से निकलते
गीत कभी
बदल जाते गालियों में
अक्सर सुबकने लगती
शायद याद आ जाता
घर से निकाल दी गई स्त्री को
अपना वो घर |
3. दीवारें
माँ पार कर गई
सातवां दशक |
कभी कभी अचानक
रोने लगती
सिहर उठती
कांपती
शायद उसे याद आ जाता
लाहौर का रेलवे स्टेशन
फौजी का घिनोना चेहरा
जिसने मारा चाबुक
सहलाने लगती अपनी पीठ
छीन लिया उसने माँ के दहेज़ का ट्रंक
बहुत रोती याद कर कर
अपने बिछड़े परिजन
अत्यंत प्रेम करती थी जिन्हें
याद आती उसे कपिला गाय
खजूरों के ऊँचे पेड़, हवेली
याद कर तड़पती
बहुत ऊँची है
मज़हबी
सियासी
दीवारें ||
4. न्याय युद्ध
ठगी गई सीता
देख स्वर्ण मृग
छल तो मेरे साथ भी हुआ
पर नहीं चाहती
कोई राम आये
छुड़ाए रावण की कैद से
ले अग्नि परीक्षा
फिर छोड़ दे
बाल्मीकि के दूवार
मुझे स्वयं
लड़ना होगा
न्याय युद्ध ||
5. दीक्षा
चरखे की घूं -घूं में
सुनती नाम धुन
चरखा और सतगुरु
साथी हैं दो
सुबह सवेरे आश्रम
समाधि में देखती
गहरा नीला आकाश
निराकार
दोपहर में कातती सूत
कर्म करती
खुश रहती
भूल जाती
युवा होती
चार बेटियाँ
आदेश हुआ सतगुरु का
कितनी गुणवती …
दीक्षा दिलाओ बेटियों को
विश्वास ना हुआ स्वंय पर
अहो भाग्य !
सतगुरु ने स्वंय बुलाया
दुल्हन की तरह सजाई बेटियां
कर दी सतगुरु को समर्पित |
साध्वियाँ कहलाने लगी
चन्द ही दिनों में
मुरझा गए फूल से चेहरे
कभी झाड़ती जूते
पिलाती कभी जल
पंखा झुलातीं
फिर भी सुनती सेवादारों की फटकार
अन्धी आस्था की भेंट चढ
गंवाने लगी जिन्दगी
न कुंवारी न सुहागिन, वे बेटियां ||
6. विकास
कूची और रंगो से भरते
बदरंग शहरों की दीवारों पर
इन्द्रधनुषी रंग
छिपा देना चाहते असली चेहरा
ऊंची – ऊंची दीवारों के पीछे
छिपी बस्तियाँ |
सूअर, कुतों संग
कीचड़ में खेलता बचपन
चीथड़ों से झांकता यौवन
गन्दे नालों की सड़ांध
कट रही बदहाल जिन्दगी
बिखर रहा इन्द्रधनुषी स्वप्न ||
7. नये पेड़
जूझता रहा पेड़
तूफानों से
आखिर एक दिन हार गया
पंछियों के घोसले गिर गये
दर्जनों अंडे फूट गए
धराशायी हो गया
फिर भी आश्वस्त रहा
फैल गये हज़ारों बीज
दूर दूर तक
उगेंगे अनेकों नये पेड़ |
8. स्वप्न
स्वप्न में बुद्ध आये
तुम्हें
आजादी चाहिए
या मोक्ष
बस आजादी …
मोक्ष में
जीवन कहां ?
9. कोकिला
हरा भरा जंगल
पेड़ों की छाँव
वनस्पतियों की भीनी महक
बादल
खेल रहे छुप्पन छुप्पी का खेल
उदास, बेचैन कोयल
पंख फैला
उड़ चली
इधर उधर
कुहकने लगी
गूंजने लगी
उसकी क्रंदन भरी आवाज़
दूर पहाड़ियों पर
ढूंढ रही
बिछुड़ा साथी
तभी आ गया उसका प्रेमी
रुदन बदल गया
मीठी तान में
गाने लगी कोयल
मधुर संगीत
पुलकित हो उठा जंगल
देख अनूठा प्रेम ||
10. मैं भी पेड़ हो जाऊँ
कितनी बार कुल्हाड़ी चली
अंग – अंग काट डाला
सहते हर बार
असीम धैर्य था
सावन आया
फूट आई शाखाएं
नई कोंपलें
पंछी, लौट आए
तुम मुस्करा उठें
मन चाहता है
मैं भी पेड़ हो जाऊँ।।
11. बाजार
वर्षो बाद
गई ननिहाल
टूटने के कग़ार पर
शहतीरों की छत वाला
नानी का कमरा
दीवार पर टंगी
धूल भरी तसवीर
पुराना सन्दूक
चूहों के कुतरे
सूत के गोले
टूटा अटेरन
चरखा
पुराना दरी का अड्डा
बता रहा
नानी बुनती थी दरियाँ
बेटियों के दहेज के लिए
बिखरे सरकन्डे
चुभ गये पाँव में
काट लाती थी
नहर किनारे से
पत्ता – पत्ता जोड़
बनाती थी सरफोश छाबे
रंग बिरंगे
बाँटती परिजनों को।
माँ ने सीखा चरखा
कातती रही सूत
सुलझाती रही ताउम्र
उलझे सूत की गुत्थियां
जीवन की पहेलियाँ
हम बहनों ने
सीखा बहुत कुछ
वक्त बदल गया
ढूंढ निकाली
नई राहें
स्कूल
कालेज
पढ़ाई
कमज़ोर पड़ी हस्तकला
बनी शोभा
प्रदर्शनियों की
स्वप्न टूटे
खयालात बिके
बिकने लगे जजबात
सब बाजार हो गया
घर, गाँव, शहर
12. कभी
फूलों ने खिलना
पेड़ो ने झूमना
हवाओं ने बहना
पंछियों ने चहचहाना
बन्द नहीं किया
सूरज ने उगना
लहरों ने उठना
खेतों ने लहलहाना
बन्द नहीं किया
है घुटन चहुंओर
सांसों ने चलना
आँखों ने देखना
कण्ठ ने गुनगुनाना
बन्द नहीं किया
बेशक
बन्द हैं सारे दरवाजे
खिड़कियां भी खुली नहीं
ऊषा की किरण ने आना
बन्द नहीं किया ..
कवयित्री उर्मिल मोंगा, जन्म : 14-11-1961, गांव बलियाली (भिवानी)। प्रकाशित कृति: काव्य संग्रह ‘उड़ना है अपने पंखों से’। अनुवाद: ‘मैं शिखंडी नहीं’ (उपन्यास) तथा ‘एंटीने पर बैठी सोन चिड़ी’ (कविता संग्रह) का पंजाबी से हिंदी अनुवाद । साक्षरता पत्रिका ‘पैगाम’ का संपादन । कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन।
पंजाबी साहित्य अकादमी हरियाणा द्वारा सम्मानित।
सम्पर्क: 9416436082
टिप्पणीकार कौशल किशोर, कवि, समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार
जन्म: सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश), जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख.
लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक।
प्रकाशित कृतियां: दो कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ तथा ‘नयी शुरुआत’। कोरोना त्रासदी पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दर्द के काफिले’ का संपादन। वैचारिक व सांस्कृतिक लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘शहीद भगत सिंह और पाश – अंधियारे का उजाला’ प्रकाशित। कविता के अनेक साझा संकलन में शामिल। 16 मई 2014 के बाद की कविताआों का संकलन ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ और प्रेम, प्रकृति और स्त्री जीवन पर लिखी कविताओं का संकलन ‘दुनिया की सबसे सुन्दर कविता’ प्रकाशनाधीन। समकालीन कविता पर आलोचना पुस्तक की पाण्डुलिपी प्रकाशन के लिए तैयार। कुछ कविताओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
मो – 8400208031)