सोनी पाण्डेय
जब भी स्त्री कविता से गुजरती हूँ मन कविता की आत्मा में कान लगा उसकी धड़कने(कहन) सुनने की कोशिश करने लगता है।मुझे याद आता है ब्याह – शादियों ,पुत्र जन्म पर दरी बिछा समूह में बैठी स्त्रियों की कोरस में उठती हूक जिसमें वह कह उठती हैं कि…
इ वेदना हमें ना सहाए
पिया के लाल कइसे कहइहें…?
उन तमाम लोक गीतों में स्त्री जीवन का संत्रास देखा जा सकता जहाँ वह पितृसत्ता से सवाल करती हैं? अनमेल विवाह से लेकर बेटा और बेटी में विभेद के सैकड़ों गीतों का संचयन मेरी माँ के पास है। उपासना की कविताओं से गुजरते हुए मैं विशेष तौर पर इन लोकगीतों का उल्लेख इस लिए कर रही हूँ क्यों कि उपासना की कविता उसी ज़मीन पर विस्तार पाती है जहाँ हमारी पुरखिन अपने अनगढ़ से गीतों में स्त्री जीवन की मार्मिक यात्रा को सहज ही अपने गीतमाला मेंं पिरो कर गाती- सुनाती रहीं।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सबसे अधिक अनदेखी स्त्री श्रम की है, सबसे अधिक पहरे स्त्री देंह पर है।वह एक साथ पितृसत्ता और धर्मसत्ता दोनों से लड़ती है। धर्म उसके शोषण के हथियार तैयार करता है और पितृसत्ता उसे पोषित करती है। एक आम भारतीय स्त्री अपना पूरा जीवन देह के भूगोल को ढ़कने – छिपाने में बिता देती है और सबसे अधिक शोषण उसकी यौनिकता के कारण होता है। पाप – पुण्य की बेमेल परिभाषाओं, धर्म के दोहरेमानदंड ,दोहरी मानसिकता आदि से आज की सजग स्त्री टकरा रही है और सवाल कर रही है।
समकालीन स्त्री कविता की प्रमुख प्रवृत्ति सवाल करना है, स्त्रियों ने सवाल पूछने की अपनी भाषा का विकास कर लिया है और लोकधुन सी पितृसत्ता की चौखट पर बजने लगी हैं। इन कविताओं की आवाज़ कर्कश नहीं है, यह बड़े सहज ढंग से सवाल करती हैं, उलाहने देती हैं और पूछती हैं कि आखिर कब एक स्त्री की स्थापना एक मनुष्य के रूप में हमारे समाज में होगी। ‘महामाया’ शीर्षक कविता में उपासना धर्मसत्ता से पूछती है…
कृष्ण की भगिनी
तुम्हारा नाम महामाया किसने रखा!
किशोरवय में ‘माया महाठगिनी’ सुनकर मैं विस्मित होती थी
सोचती थी तुमने किसका क्या ठगा!
बाद में बताया गया कि ‘ ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या’
सत्य तो तुम्हारा भाई था और तुम मिथ्या!
भाद्रपद के कृष्ण-पक्ष की मध्यरात्रि में
तुम भी तो जन्मी थी
लेकिन तुम्हारे प्राण का मोल कम था जोगमाया
भाई के अनमोल जीवन में अनगिनत बहनों का
चुपचाप मार दिया जाना पुरानी परंपरा रही देवि!
‘इसी दुनिया की बातें’ शीर्षक कविता में वह पूछती हैं कि स्त्री के लिए हर हाल में उपमाएँ गढ़ लेनेवाला हमारा मर्दवादी समाज कब स्त्री को प्रेम से देखना सीखेगा? ‘मेरे गाँव की लड़कियाँ’ शीर्षक कविता में गाँव के बदलते परिवेश का सुन्दर चित्रण करती उपासना अनन्त ध्वनियां शीर्षक कविता में दार्शनिक रूप में सामने आती हैं।
यथार्थ कथ्य और सुन्दर शिल्प अपनी कविताओं में गढ़ती उपासना समकालीन स्त्री कविता में मजबूती से हस्तक्षेप करती हैं।आपके पास वर्तमान समय में युवाओं के संघर्ष से उपजी चेतना की उर्वर ज़मीन है,गाँव ,कस्बे से लेकर महानगर तक की यात्रा आपके अनुभव संसार को समृद्ध करती है। कस्बाई जीवन के संत्रास की जो बानगी नताशा, सीमा संगसार, रूपम मिश्र, गति उपाध्याय, उषा दोशरा आदि कवयित्रियों की कविताओं में दिखाई देती है उस निरंतरता को उपासना की कविताओं में भी देखा जा सकता है. इस निरंतरता को आगे बढ़ाते हुए उपासना ने स्त्री वेदना से स्त्री चेतना तक के सफ़र को बख़ूबी तय किया है.
1.इसी दुनिया की बातें
स्त्री सुन्दर हुई तो तुमने उसके सौंदर्य पर कालिख मली
कमनीय हुई तो कहा काया का जाल पसारती है
लंबी हुई तो तुमने उसे असम्भव कहा
कद में छोटी हुई तो छाँट दिया
काली हुई रंग में तो तुम उसे बचपन से दिखाते रहे आईना
चमड़ी हुई उजली तो तुम उस पर तेजाब से कलाकृति बना देते रहे
वजन बढ़ गया तो भैंस हो गयी
दुबली रही तो कंगलो के घर से आई कहलाई
कभी तुमने उसे विषवृक्ष कहा कभी मायाविनी
तुम उसे रिझा न सके तो मानिनी हो गयी
दबा न सके तो दुष्टा, पा ना सके तो कुलटा
कलंक का जल सदैव उसपर छिड़कने को आतुर रहे तुम
हँसती मिली स्त्री तो चरित्रहीन हो गयी
गम्भीर हो गयी तो घमंडी
डिग्रियाँ न बटोर सकी तो मूर्खा हो गयी
पढ़ कर कुछ बन गयी तो फूहड़ कह दिया उसे
बच्चा नहीं जन्मा तो बाँझ हो गयी
बेटियों की माँ बनी तो बोझ हो गयी
औरतों ने तुम्हारे घरों को स्वर्ग बनाया और वे खुद नर्क का द्वार हो गईं
तुमने उसे जब भी देखा संदेह और संशय से देखा
काश तुम स्त्री को प्रेम से देखना सीखते
2. गीदड़ के दाँत
आठ महीने की गर्भवती वह स्त्री
रुग्ण काया और शिथिल कदमों से कछुए की तरह
पैरों को घसीटती हुई दवा की दुकान गयी थी
इस देश की असंख्य स्त्रियों की तरह न वह पति को प्यारी थी
न ससुराल को
मायका भी कन्यादान को तिलांजलि मान संतुष्ट बैठा था
उसकी खोज-ख़बर कोई नहीं लेता था तो वह कितने दिनों की भूखी थी या रक्त कितना कम था यह कौन पूछता
थककर खरगोश की तरह लौटती बेर एक पेड़ के नीचे सो गई
कार्तिक की ठंडी भोर में मिला उसका शव
परदेसी पति लौट आया शरीर पर बने घावों का दाम लेने
गाँव के चुनाव का खेल ही उलट गया
अगड़े-पिछड़े, झूठ-सच, दुष्कर्म-अकाल मृत्यु, पुलिस-अस्पताल, अग्नि-आकाश, राजनीति- जाति, खुदबुद-खुदबुद
सरकारी अस्पताल में चुपचाप बैठा वह जूनियर डॉक्टर हतप्रभ होकर सोचता है आदमी और गीदड़ के दांतों का अंतर
3. महामाया
ओ मेरी कुलदेवी!
कृष्ण की भगिनी
तुम्हारा नाम महामाया किसने रखा!
किशोरवय में ‘माया महाठगिनी’ सुनकर मैं विस्मित होती थी
सोचती थी तुमने किसका क्या ठगा!
बाद में बताया गया कि ‘ ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या’
सत्य तो तुम्हारा भाई था और तुम मिथ्या!
भाद्रपद के कृष्ण-पक्ष की मध्यरात्रि में
तुम भी तो जन्मी थी
लेकिन तुम्हारे प्राण का मोल कम था जोगमाया
भाई के अनमोल जीवन में अनगिनत बहनों का
चुपचाप मार दिया जाना पुरानी परंपरा रही देवि!
सोचती हूँ तुम अगर बचपन में चोरियाँ करती तो क्या वैसा दुलार मिलता!
तुम भी गाँव के सभी पुरुषों संग रास रचाती तो क्या भगवती कहलाती
गौ-चारण के बहाने तुम कालिंदी-तट पर प्रेयस से मिलती तो गाँव आह्लादित हो भावमग्न रहता!
पांचजन्य फूंकती, चक्र चलाती, गीता का ज्ञान देती हुई
तुम्हारी ओजस्विनी काया की कल्पना करती हूँ
धर्म के नाम पर अपने बांधवों का रक्त बहाने पर संसार तुम्हें पूजता!
मुझे भय है कि तुम्हें हर कदम पर लांछित और अपमानित किया जाता…
4.अनंत ध्वनियाँ
*
स्मृतियाँ केवल अतीत की छांह भर नहीं होती
वे होती हैं जीवन का अब तक हुआ सम्वर्द्धन
गढ़ ली गयी कई मूर्तियाँ
समय के साथ भग्नावशेष मात्र हुई
लेकिन उनकी स्तुतियाँ गूँजती है अब भी
शब्द ब्रह्म है यह पढ़ा था मैंने
और जीवन ने सिखाया अन्न ब्रह्म है
लेकिन असल में तो ब्रह्म केवल पीड़ा है
सृष्टि के सबसे मधुरतम क्षणों का
उन्नयन होता है केवल पीड़ा में
ईश्वर नामक कल्पना ने उपहार में दी थी पीड़ा
कि हम याद करते रहे उसे
और जाप करते रहे मुक्ति मंत्र का
स्मृतियाँ होती हैं जीवन का इतिहास
किसी यम और चित्रगुप्त को
कोई बही नही रखनी पड़ती,
हम चुनते हैं अपना स्वर्ग-नर्क अपनी स्मृतियों से
**
तुमने कहा था कि एक तारा चुन लेना चाहिए
हर स्त्री को और समेट रखना चाहिए अपना आकाश
स्त्री के अन्तस् में बहते है कई-कई प्रशांत महासागर
उसे बन जाना चाहिए उर्ध्वगामिनी
उसे हँसना चाहिए जोर से
उसकी हँसी में बह जाने चाहिए लोक-लाज
जानते हो, कई बार
चुने हुए तारे असल में धूमकेतु होते हैं
और दे जाते हैं अपनी ही ऊर्जा से जलती हुई इच्छाएं
हँसी को अट्टाहास में परिणत होते देखना
कंठ से रोष भी फूटता है सस्वर
छिन्नमस्ता भी हंसी थी अपना ही मुंड हाथ में लेकर
***
ग्रीष्म, शरद, शिशिर और हेमंत के बीच
एक ऋतु ऐसी भी आती है
जिसमें खाना-पीना-जीना हो जाता है असंभव
आयुर्वेद में कहते हैं कि कफ का बाहुल्य हो तो
रक्त नही केवल कफ ही बनता है
तो यह क्या है कि केवल उब और निराशा
बहती है देह में
नींद से उठते ही हताशा कंधे पर बैठ जाती है
अरुचियों का भी उपाय सम्भव है,
लेकिन दर्शन, वेद, पुराण और विज्ञान ने भी
कोई उपाय नहीं सुझाया है
सृष्टि की हर स्त्री को यह अबूझ ऋतु
कभी भी कहीं भी ग्रस लेती है
हवन के धूम्र जैसी
कंठ में, नेत्रों में, प्राण में रहती है यह ऋतु प्रज्ज्वलित
****
देह क्या मर जाती है जब मर जाती है आत्मा
जीवित रहना केवल साँस लेना भर हो सकता है क्या
कई धुनें और कई राग जिस देह में उमगते थे
उनके स्वर कहाँ खो जाते हैं
प्रेम छूटने के बाद क्या सागर भी सूखते होंगे
सुना है एक सागर मृत है और एक काला भी
तुमने कहा था कि प्रेम और देह दोनों
बोलते-पढ़ते हैं अलग भाषायें
स्पर्श की भाषा अलग होती है आँसुओं की भाषा से
सब भाषायें गड्डमगड्ड हो गयी है अब
और इन्हें पढ़ना नहीं आता
किसी भी स्त्री को
*****
जीवन प्रतीक्षा में रुकी हुई साँस है
मैंने तुम्हारे हर प्रश्न के उत्तर में यही कहा था
और तुम मुस्कुराकर सर हिला देते थे
वह सहमति थी या नकारना
मैं नहीं पूछती थी
निर्निमेष तुम्हें देखते रहना सुख हो सकता है
तुम नहीं मान पाते थे
प्रतीक्षा पूर्ण होगी तो क्या करोगी
होता था तुम्हारी दृष्टि में
इस क्षण को रोक रखूँगी
कब तक कह तुम बीच में हँस देते थे
कुछ भी नहीं होता आदि से अंत तक
प्रेम भी मार्ग में हो जाता है विचलित, विघटित
बचा रहेगा अंतरिक्ष के माथे पर
सूरज की लाल गोल बिंदी
जला करेगी पृथ्वी अनंत…
******
संसार के सब युद्ध
लड़े गये स्त्रियों की सूनी आँखों पर
उनके शिशुओं की मृत देहों पर
मापचित्रों और नक्शों के पीछे से
झाँकती रहती हैं असंख्य उदास आँखे
इतिहास लिखा जीती हुई सेनाओं ने
ट्रॉय की हेलेन का रूप
द्रौपदी का गर्व और क्लियोपेट्रा का मद
युद्ध के बताये गए कारण
हारी हुई सेनाओं ने उद्घोष किया
सत्य है! सत्य है!
तबसे दुनिया के हर युद्ध का कारण है स्त्रियाँ
देह बनी उनकी युद्धस्थल अनंत
*******
प्रेम में डूबी हुई स्त्री की आँखे
होती हैं दीप्त नक्षत्रों सी धवल
कई सभ्यताओं और संस्कृतियों का
उत्थान-पतन बन जाते हैं उनके अश्रु
उनका स्वेद बन जाता है स्फटिक
उन नक्षत्रों की लौ से गढ़ते हैं पुरुष
कई चित्र, कई कवित्त, कई गद्य
प्रेम में डूबी स्त्रियाँ बनती है प्रेरणा
पुरुषों ने ऐसे समर्पण का उत्तर दिया है
छल से..
म्लान होकर सर झुकाए
प्रेम और प्रतीक्षा शिथिल पड़ जाते हैं
स्त्री बन जाती है अंत में विसर्जन भी
5. मेरे गाँव की लड़कियाँ
गाँव की छाती पर पैर रखकर सरपट दौड़ती जा रही हैं
मेरे गाँव की लड़कियाँ
हाँफती-काँपती, सिर पर पैर रखकर भागती जा रही हैं ये नन्हीं किशोरियाँ
घर लीपतीं, चूल्हा-जोड़तीं, बासन माँजती, घर का सौदा-सुलुफ लातीं, गाली खातीं
कब बन गईं ये अदद जीवित मनुष्य!
बभनटोले से लेकर जुलहाटोल तक टुनटुना रहा है नए समय का औजार!
गालियों के स्वस्तिवाचन से आकाश कट कर गिर रहा
सूर्य की तरफ मुँह करके दैव को अरोगती ये मातायें
उनके पैदा होते ही मर जाने का अरण्य श्राप जाप रहीं
दबी फुसफुसाहटों में इन अभागिनों के उरहर जाने की कथाएँ
प्रागैतिहासिक काल से सुन रहा है स्तब्ध गाँव
एक तरफ बेमेल विवाह का गड्ढा है दूजी तरफ कमउम्र का मातृत्व
निशीथ-रात्रि या सुनसान दुपहरों में कौन दैत्य इन बालिकाओं को गायब कर रहा
कौन बरगला रहा है इन सिया-सुकुमारियों को
हर छमाहे, साल बीतते कोई न कोई लड़की भाग जाती है
इस विकट दुष्चक्र को तोड़ना क्या संविधान में लिखना भूल गए थे मेरे पूर्वज
और उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बस समझा जाँघ पर बिठाकर पुण्य अर्जने का सामान
6. ग्यारह बरस की माँ
*
उसे नहीं भाती देर रात
शिशु की रुलाई
उठते डर लगता है उसे कम रौशनी में
अचानक उसकी टूटती है नींद
माघ की ठंड में उसकी गात है
पसीने से धुली हुई
**
एक क्षण को कभी
मन में उठता है दुलार
उमगती है नसों में एक पवित्र अनुभूति
अवयस्क उसकी छातियों में
उतरता है दूध
लेकिन ये क्षण भीषण अंधकार को
पाट नहीं पाते
***
उसके सपनों में परियाँ नहीं आती
उसकी किताबें हैं
बोरी में बन्द, दुछत्ती पर धरी हुई
छोटे भाई की किताबों को
देखती है छूकर
सोचती है कि स्कूल जाना
उसे इतना तो नापसन्द न था
****
नहीं आती उसकी सहेलियाँ अब घर
गुड्डे-गुड़ियों की बारात में
उसकी अब कोई जरूरत नहीं
न छुप्पमछुपाई में अब उसकी डाक होती है
उसे कर दिया गया है निर्वासित
जीवन के सभी सुखों से
*****
दादी अब नहीं देती उसे मीठी गालियाँ
पिता की आँखों में सूनेपन के सिवा कुछ नहीं
चाचा के गुस्से की जगह
आ बैठा है डबडबाया हुआ पछतावा
(कवयित्री उपासना झा ,बिहार के हथुआ (जिला-गोपालगंज) में जन्म। हॉस्पिटैलिटी मैनेजमेंट और ह्यूमन रिसोर्स में स्नातक और परास्नातक। 6 वर्षों तक का मीडिया और कॉरपोरेट अनुभव
बाद में हिंदी से स्नातक, परास्नातक और नेट। शमशेर की कविताओं पर पीएचडी जारी। समस्तीपुर कॉलेज में हिंदी की अतिथि शिक्षक।
फोटोग्राफी, साहित्य और लोक-कलाओं में गहरी रुचि। कई महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कविताएँ , अनुवाद, कहानियाँ और आलेख पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में प्रकाशित
सम्पर्क: upasana999@gmail.com
पहली कविता की किताब “मन की खुलती गिरहें”को 2015 का शीला सिद्धांतकर सम्मान, 2016 का अन्तराष्ट्रीय सेतु कविता सम्मान, 2017–का कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित ” माँ धनपती देवी कथा सम्मान”, 2018 में संकल्प साहित्य सर्जना सम्मान, आज़मगढ से विवेकानन्द साहित्य सर्जना सम्मान, पूर्वांचल .पी.जी.कालेज का “शिक्षाविद सम्मान”,रामान्द सरस्वती पुस्तकालय का ‘पावर वूमन सम्मान’ आदि से सम्मानित कवयित्री सोनी पाण्डेय का ‘मन की खुलती गिरहें’ (कविता संग्रह) 2014 में और ‘बलमा जी का स्टूडियो’ (कहानी संग्रह)2018 में प्रकाशित इसके अतिरिक्त कुछ किताबों का संपादन. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन.
सम्पर्क: ईमेल: pandeysoni.azh@gmail.com ब्लाग: www.gathantarblog. com)