समकालीन जनमत
कविता

टेकचंद की कविताएँ वर्तमान समय के असंतोष को चिन्हित करती हैं

ख़ुदेजा ख़ान


किसी भी साहित्यकार की लेखन के प्रति प्रतिबद्धता तब तक अधूरी है जब तक वो जन सरोकारों से न जुड़े। देश- दुनिया के सम सामयिक परिदृश्य पर अपनी पैनी दृष्टि से सोच- विचार कर घटित होने वाली घटनाओं पर विचलित होकर अपनी कलम न चलाए।कवि टेकचंद इन्हीं सब प्रतिरोध और असंतोष को अपनी कविताओं में व्यक्त करते हैं।

सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक उठा-पटक कैसे आम जन जीवन को प्रभावित कर जीवन जीने के मूल अधिकार को बाधित करती है उनकी कविताओं में सहज देखा जा सकता है। कहीं-कहीं बहुत मुखर होकर यह अपनी बात रखते हैं। प्रमुखता से जाति, धर्म असहिष्णुता, वर्ग विभाजन की त्रासदियाँ और स्त्री जीवन का संघर्ष उनकी कविताओं के केंद्र में एक विमर्श की तरह उपस्थित हुआ है।
जाति का विद्रूप सच दिनों दिन विकराल रूप धारण करता जा रहा है।

जितना सभ्य मनुष्य, विकास के सोपान चढ़ रहा है उतनी संकीर्ण मानसिकता उस पर हावी होती जा रही है। जाति का ठप्पा, कलंक की तरह चस्पा होकर मनुष्य को दीन हीन प्राणी में तब्दील कर दे रहा है। मनुष्य, मनुष्य के बीच भेदभाव की खाई को और गहरा किया जा रहा है। दो की लड़ाई में तीसरा अपने लाभ के अवसर खोज कर लाभान्वित होने की हर संभव कोशिश में लगा है।

सांप्रदायिकता का तो यह हाल है कि शरबत जैसे निरापद उत्पादों को भी धर्म का जामा पहना कर आपस में बांटने की कोशिश की जा रही है। गृह युद्ध सी स्थितियां निर्मित कर समाज को कई खांचों में बांटने का प्रयास निंदनीय है। यह सारी स्थितियां किसी भी दृष्टि से एक सुदृढ़ एवं समृद्ध समाज के लिए हितकारी नहीं है। युद्ध की विनाशकारी लीलाएं अन्य देशों में दिल दहला देने वाली साबित हो रही हैं।

दलित, आदिवासियों का शोषण और उनकी पीड़ा भी कविता में उभर कर आई है। जाति, भेदभाव, प्रार्थना, सांप्रदायिक बाज़ार, विडंबना जैसी कविताओं में उपरोक्त संदर्भों की स्पष्ट झलक तथा विचार परक संवेदना को अनुभव किया जा सकता है।

किताबें ही नहीं
लड़की दुनिया बचा रही है
उसे उड़ाना है
किताबों में रखे
पंख बचा रही है।

किताबें बचाती लड़की, अरी कमेरी! तथा लड़की, इन कविताओं में स्त्री समाज की चुनौतियाँ परिलक्षित होती हैं।

श्रम फलेगा
कब तक टलेगा
उम्मीद का पहिया चलेगा
होगी कितनी देरी
उसे उड़ना है
डटी रह
अरी कमेरी

एक मेहनतकश स्त्री के जीवन की झलकी इस कविता में दिखाई देती है।

 

टेकचंद की कविताएँ

1. जाति

काफ़ी नहीं था
मेरा साफ़ सुथरा होना
पढ़ा लिखा सभ्य होना
वो सहमत थे
मेरे ज्ञान और सूचनाओं से
वे प्रभावित थे
मेरे तथ्यों और तर्कों से

लेकिन वो बेकरार थे
मेरी जाति जानने को
ऐसे तो वो नहीं होते
तैयार नहीं थे मानने को

 

2. भेद-भाव

पृथ्वी पर मनुष्य का
प्रथम संघर्ष पशुओं से था
फिर मनुष्य का मनुष्य से
फिर मनुष्य
और मनुष्य के भेद से
भेद-भाव बढ़ते गए
संघर्ष भी बढ़ते गए
मनुष्य
और मनुष्य के संघर्ष में
तीसरे ने लाभ उठाया
नेता तीसरा बनकर आया
नित नए नेता आते जा रहे हैं
जाति धर्म भाषा संस्कृति के
भेद-भाव
और संघर्ष बढ़ते जा रहे हैं

 

3.  प्रार्थना

आदिवासी प्रार्थना करते हैं
पानी लेने से पहले
नदी और झरने से
फल और लकड़ी लेने से पहले
पेड़ से
बोलने से पहले धरती से
भोजन से पहले
शिकार और फसल से
ग़लती हो जाने पर
पुरखों और प्रकृति से

द्रोणाचार्य मुस्कुराते हैं
छल से एकलव्य का
अंगूठा कटवाकर
पुरोहित के मुंह से
लार टपकती है
देवदासी शालवेदाली वैंकटसत्री का धर्मोपदेश देकर
पहलोठी के शिशु को
नदी में फिंकवाकर
दलितों और आदिवासियों के हिस्से आई हैं केवल
प्रार्थनाएं और यातनाएं

 

4.  सांप्रदायिक बाज़ार

व्यापार कितना आसान हो गया
शर्बत भी हिंदू मुसलमान हो गया

रुह अफ़ज़ा को उर्दू कह फूल गए
शर्बत फ़ारसी है बताना भूल गए

अज्ञानता ने कैसा दगा दिया
सब बदला शर्बत लगा दिया

ग़रीब लोकतंत्र की खाल खेंच दो
राष्ट्रवाद के नाम पे नफ़रत बेच दो

भाषा धर्म जाति सब जेहाद है
ध्रुवीकृत राजनीति का फ़साद है

 

5. विडंबना

वहां
दुनिया के नक्शे से
एक देश मिट रहा है
यहां
जिबली के रंग बिखरे हैं
आईपीएल हिट रहा है
वहां
मासूम बच्चों समेत
भरी पूरी जनसंख्या
लहुलुहान शून्य में
बदल रही है
यहां
लगता है कि
विश्वगुरु अब बने कि अब
और दुनिया बदल रही है
वहां
आग में जलकर
आग हो रहे देश बचा रहे हैं
यहां
अतिसुरक्षित स्टूडियों में बैठ
जाति धर्म की आग लगा रहे हैं
विडंबना यही कि
देश फ़रोश देशभक्ति का
पाठ पढ़ा रहे हैं

 

6.  क़िताबें बचाती लड़की…

प्रशासन के बुल्डोज़र से
सारी बस्ती घर बचा रही है

लड़की किताबें बचा रही है
उसे उड़ना है पर बचा रही है

अनपढ़ मुखिया गुरूर में
सभी कुछ ढहाता जा रहा

जुमला तो उसी का था
बेटी बचाओ ! बेटी पढ़ाओ !
पढ़ती लड़की मगर बचा रही है

वो धरती से
आकाश तक दौड़ रही है
मन मलूख मुखिया के
झूठ का शीशा तोड़ रही है

तू नाश मैं निर्माण
तू विध्वंस मैं सृजन
बचने और रचने का
दायित्व निभा रही है
किताबें ही नहीं
लड़की दुनिया बचा रही है

तुमने तो इज्ज़त और रीढ़
साहूकार के गल्ले में रख दी
तुम्हारी चौधराहट
पगड़ी और सर बचा रही है
उसे उड़ना है
किताबों में रखे पर बचा रही है

 

7. लड़की 

दुनिया
कंधों पर आ जाती है
लड़की पृथ्वी हो जाती है
आकाश सिर
पर्वत माथा हो जाता है
आंखें समंदर सोख लेती हैं
जीवन में
नमक आ जाता है
हवाएं भारी हो जाती हैं
उम्मीदें सपने हक़ीक़तें
सबका भार उठाए
लड़की पृथ्वी हो जाती है

 

8. अरी कमेरी

मंजिल के क़रीब
क्यों गुमसुम हो
कुछ और नहीं
कोई और नहीं
तुम तो बस तुम हो

तुमने जीवन चुना
कांटों खारों में से
वंचना दुत्कारों में से

आग बरसाती धूप थी
कभी बारिश खूब थी
हाड़ गलाती सर्दी थी

पलायन नहीं
संघर्ष चुना
बेहतर जीवन का
सपना बुना

किया श्रम फलेगा
कब तक टलेगा
उम्मीद का पहियां चलेगा
होगी कितनी देरी
डटी रह अरी कमेरी

 


 

कवि टेकचन्द, जन्म : 1975 दिल्ली ( स्कूली कागज़ों के अनुसार )
शिक्षा : एम.ए. ,एम. फिल., पीएचडी, दिल्ली विश्वविद्यालय
शिक्षण : स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय में 2005 से हिंदी शिक्षण ।
प्रकाशन :
* दौड़ तथा अन्य कहानियां ,
* ( 2012)
* मोर का पंख तथा अन्य कहानियां( 2015 )
* मोक्ष तथा अन्य कहानियां ( 2020)
* दाई
* लघु उपन्यास ( 2017) ( कुरुक्षेत्र , एवं लखनऊ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में )
* दाई अंग्रेजी अनुवाद
* The midwife ‘ ( 2024)
* 500 उपन्यास ( 2025 )
* ओटीटी के लिए फ़िल्म लेखन
हिंदी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानियाँ और कविताएँ प्रकाशित।
सम्मान :
-डॉक्टर अंबेडकर विशिष्ट सेवा सम्मान  हरियाणा दलित साहित्य अकादमी
– राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान 2014
– रज़ा फाउंडेशन द्वारा नव लेखन सम्मान (2016)
संपादन :
– समय संज्ञान त्रैमासिक पत्रिका के संपादन में।
– अपेक्षा और युद्धरत आम आदमी पत्रिकाओं में संपादन।

पता : फ्लैट न. 58 बागबान अपार्टमेंट GH-2 रोहिणी सेक्टर 28 दिल्ली 110042
फोन नं : 09650407519
Email id tekchand.du@gmail.com

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