समकालीन जनमत
कविता

सुप्रिया मिश्रा की कविताएँ प्रेम में सहारे की नहीं साथीपन की तलाश हैं

नाज़िश अंसारी


अनुभव सिन्हा निर्देशित “तुम बिन” फिल्म की ग़ज़ल “कोई फ़रियाद तेरे दिल में दबी हो जैसे” में बहुत पहले ही हीरो ने हीरोइन से कहा था, जानता हूँ आपको सहारे की ज़रूरत नहीं है, मैं तो बस साथ देने आया हूँ।

हर स्तर पर बराबरी (सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, व्यवसायिक) का अधिकार या दूसरे शब्दों में कहें तो पुरुष से साथ मांगती स्त्री दशक पे दशक बिताए दे रही है, फिर भी उसके हाथ क्या आ रहा– इस प्रश्न का उत्तर सुप्रिया मिश्रा कुछ यूं देती है–

औरत ढूंढ रही है
साथ देने वाला आदमी
उस समाज में जहां आदमी
सिर्फ “छूट” देना जानता है।

डबल इनवर्टेड कॉमा के घेरे में बंद शब्द “छूट” महज़ एक शब्द नहीं तराजू है, जो परंपरागत भारतीय समाज में स्त्री के अस्तित्व से लेकर व्यक्तित्व तक को तौल के धर देता है।

सुप्रिया जानती हैं स्त्री की मुक्ति की राह शिक्षा है लेकिन वो भी आसान कहां–
भूगोल की कक्षा में
अव्वल आई लड़की
बनाती है नक्शे कई देशों के
और उन्हें तवे पर सेंक देती है

फिर कवयित्री को लगता है कि यही लड़कियाँ अपने नशेड़ी, अत्याचारी, आतताई पिताओं, चाचाओं, ताऊओ से होते हुए पतियों के पैर छूती है। ईश्वर का दर्ज़ा देती हैं और उन्हें पाषाण बना देती हैं–
सौभाग्यवती स्त्रियों ने जब जब
आदमियों के पैर छुए
नशेड़ियों और दुराचारियों के
शराबियों के और अत्याचारियों के
पतियों के पिताओं के
ताऊ–चाचाओं के
वो पैर धरती में धंसती गए
स्पर्श के भार से
ये पैर इस कदर धंस गए कि
चल नहीं पाए समय की रफ़्तार से
औरत ने आदमी को ईश्वर बनाते बनाते
“पाषाण” बना दिया

कविता की आख़िरी पंक्ति पितृसत्ता पर सवाल उठाने के बजाय स्त्री पर ही सवालिया निशान लगाती है लेकिन कवयित्री सुप्रिया “अगर ईश्वर करता लड़के और लड़कियों में भेद” लिखकर स्त्री विमर्श को कुछ–कुछ बचा लेती हैं।

उनकी संवेदनात्मक काव्यात्मक दृष्टि के पास प्रेमी से संवाद करने के लिए पुराने होकर भी नए वाक्य विन्यास हैं। मिडिल क्लास जोड़े का संघर्ष है। जंगलों, जानवरों, समुद्रों, तालाबों से लेकर कविता, कहानी, उपन्यास, साहित्यकार मसलन– मंटो के प्रति अनुराग है जो उनके साहित्य के प्रति प्रेम को दर्शाता है।

शायद इसीलिए एक स्त्री जो इंस्टाग्राम पर खुद को पोएट, शायरा और राइटर कहती हैं। जो ओपन माइक पर कविताएं पढ़ती हैं। जिनके पास आसानी से वायरल हो जाने वाली पोस्टर कविताएँ हैं लेकिन साथ साहित्यिक समझ और दृष्टि वाली कविताएँ भी हैं।
(हालांकि ये और संपादित होने की मांग करती हैं। इसके अतिरिक्त इनमें निर्मला पुतुल, कविता कादंबरी की भी झलक साफ दिखाई पड़ती है )

प्रस्तुत हैं, “जिन बालों में कोई हाथ नहीं फेरता, वो खिसिया कर सफ़ेद हो जाते हैं,“ जैसी कुछ लीक से अलग रचने वाली सुप्रिया मिश्रा की कुछ कविताएँ–

 

सुप्रिया मिश्रा की कविताएँ

 

1.

भूगोल की कक्षा में
अव्वल आई लड़की,
बनाती है नक्शे
कई देशों के
और
उन्हें तवे पर सेंक देती हैं।

 

2.

औरत ढूंढ रही है
साथ देने वाला आदमी
उस समाज में जहां
आदमी
सिर्फ ‘छूूट’ देना जानता है।

 

3.

ऐ, किताब पढ़ने वाली लड़की!
तेरी आंखें किताब का आईना हो चुकी हैं।
तेरी भौवें “ई” की मात्राएं हैं
जो तेरे बदलते भावों के साथ
ह्रस्व और दीर्घ में बदलती जाती हैं।
गुस्सा होने पर नाक पूर्णविराम हो जाती हैं।
तेरी हर मुद्रा अक्षरों की कैलीग्राफी है।
अक्सर फ़ोटो खिंचवाती हुई तू
अपनी उंगलियों को “वाई” बना लेती है।
पोज़ करते हुए तू अंग्रेजी के “आर” सी लगती है।
तुम्हारे भावों को जोड़ कर जो शब्द बनते हैं
अपनी खिलखिलाहट के तर्ज पर
उनसे गीत बना, तू लोगों में बांट देती है।
तेरी दोनों आंखें मीर और गुलज़ार का घर है।
तू जब मंटो को पढ़ते हुए सो जाती है
इस्मत आपा तेरा चश्मा हटा,
तुझे लिहाफ ओढ़ा जाती हैं।
सिर्फ तुझे आता है जॉन की किताबों को
सहेज कर रखना।
तू रॉबर्ट फ्रॉस्ट के साथ निकल जाती है
रिल्के को खोजने।
इस बच्चे ने पहली बार क़िताब पर जो कलम खुर्ची है
साहित्य उन्हें अपना मार्ग बना तेरे अंदर चल रहा है।
ऐ, लड़की, तू किताब का आईना हो चुकी है।
तुझमें बस्ती हैं हजारों कहानियां
और लाखों कविताएं।

 

4.

मिडिल क्लास का आदमी,
दफ़्तर जाते हुए निहारता है
रस्ते के दोनों तरफ़ उगे ऊंचे मकानों को।
चुराता है किसी से रंग,
किसी से दरवाज़े
किसी से खिड़कियां,
तो किसी के बरामदे का डिज़ाइन।
लौट कर वो जोड़ता है
दिन भर की चोरी
और फिर नापता है
दिन की कमाई के साथ।
चोरी का माल हमेशा महंगा रहता है।
अर्थराइटिस से पीड़ित
उसकी औरत बेलती है रोटियां
और सेंकती है ख़्वाब
एक झरोखेदार, बड़े रसोई घर के।
वो सोचते है घर की खिड़की
पूरब में नहीं खुलनी चाहिए।
मकान के किराए के बोझ तले
जब घुटने लगता है दम
तो सांसों कि तलाश में भागता आदमी
तोड़ बैठता है ताख़ पर रखी
गुल्लक।

 

5.

वो बदकिस्मत जिसने
उपन्यासों को साहित्य के खानाें में भर दिया
अगर अपनी पीठ के बल लेटे हुए
अपनी बाहों को हवा में उठाए उपन्यास के पन्ने पलटता
तो गुरुत्वाकर्षण समझ आता उसे।
किरदारों के साथ जगह जगह घूमता तो समझता
सुपरसोनिक किसे कहते हैं,
शायद समझ पाता कि टाइम ट्रैवल किसे कहते हैं।
पेशाब की इच्छा को रोक कर
कोई पन्ना या अध्याय ख़त्म करता
तो चुंबकत्व(मैग्नेटिज़्म) समझ जाता।
किसी किरदार की दुःख पढ़ते हुए
उसके एक भी आंसू टपका होता तो
वो जानता टेलीपैथी क्या होती है,
क्या होता है आउटर बॉडी एक्सपीरियंस।
किरदार की मृत्यु पर खोखलापन महसूस कर पाता
तो ब्लैक होल समझता।
एक किताब के ख़ुमार से बाहर निकल
जब दूसरी किताब चुनता तो उसे
जिंदगी समझ आती।
बेचारे ने एक भी उपन्यास पढ़ा होता
तो किताबों को विज्ञान के खाने में रखता।

 

6. 

मुझे लिखना
उस कविता की तरह
जो तुमने बहुत पढ़ने के बाद लिखी हो
मुझे पढ़ना
उस कविता की तरह
जो तुमने एक अरसे के बाद लिखी हो

मुझे कहना
उस कविता की तरह
जो तुम्हारे पसंदीदा कवि की खास रचना हो
मुझे सुनना
उस कविता की तरह
जिसे तुम्हे अपने दिल के सबसे पास रखना हो

मुझे भूल जाना
उस कविता की तरह
जो तुम्हें कभी समझ ही ना आई हो
मुझे याद रखना
उस कविता की तरह
जो तुमने अपनी प्रेयसि को सुनाई हो।

 

7.

डायनासोर छिपकली हुआ और दीवार पे भागा
जंगल बगीचे हुए और बालकनी में भागे
पेड़ पौधे बोनसाई बन गमलों में भागे
तारे फेयरिलाइट
जुगनू बल्ब में भागे
समंदर स्विगिंग पूल में भागा
बर्फ़ फ्रिज में
जानवर मीट हुए और कही नहीं भाग पाए
इंसान गीदड़ हुआ और भागा शहर की ओर।

 

8.

सौभाग्यवती स्त्रियों ने जब जब
आदमी के पैर छुए
नशेडियों और दुराचारियों के और
शराबी और अत्याचारियों के,
पतियों के, पिताओं के,
ताऊ-चाचाओं के,
वो पैर धरती में धंसते गए।
स्पर्श के भार से
ये पैर इस कदर धंस गए कि
चल नहीं पाए समय की रफ़्तार से।
औरत ने आदमी को ईश्वर बनाते बनाते
पाषाण बना दिया।

 

9.

मैंने कई बार माँगा ‘लाइसेंस’
अपनी कविताओं को टाँगा बना,
इस समाज में चलाने का।
चाहती थी भावनाओं को पहुँचाना
उनकी मंज़िल तक।
मगर मेरी अर्ज़ी ख़ारिज कर दी गयी।

मैंने विरोध ज़ाहिर करने के लिए
पहन ली काली समीज़,
मैचिंग ‘काली सलवार’,
मगर नहीं ओढ़ा कोई दुप्पटा।
उठा लिया मोर्चा मैंने
अकेले हीं
भावनाओं को मंज़िल तक पहुँचाने का।

जुलुस जमता गया मेरे चारों ओर
मैं पढ़ती रही कविताएँ
‘दो कौमों’ की,
तवायफों की
और सज्जनों की।
मुझसे पूछा गया
मेरे ‘सड़क के किनारे’ बैठने का सबब
और ये कि मैंने ‘बुरक़ा’ क्यों नहीं पहना
और ये भी कि ‘टोबा टेक सिंह’ कहाँ है!’
‘खुदा की कसम’
मेरे पास जवाब में कहने को कुछ नहीं था,
लिखने को, बस कविता।

दिन सप्ताह बीतते चले गए,
मचलती ‘बारिश’, तड़कती धुप
में भी मैं बैठी रही,
और बैठी रही भीड़।
‘तमाशा’ ख़त्म करने को
फेंके गए ऊपर से कई फरमान
टूटी किसी की पिंडली, किसी की रीढ़।
मारे गए सारे ‘उल्लू के पट्ठे’।
मैं फिर भी बैठी रही
बाँचती रही कवितायेँ।
दिन, सप्ताह, बरस
सड़ते समाज से आने लगी थी ‘बू’
किसी घाटन लौंडिया सी।

फिर उतार दी गयी एक ‘गोली’
मेरे सीने में।
मेरा ‘ठंडा गोश्त’ छू कर वो समझे
कि हो गया है मेरी ‘बादशाहत का खात्मा’।
मैंने ‘आँखें’ बन्द करते हुए
एक आखरी बार कहा
‘खोल दो’।

 

10.

एक वक्त के बाद हर बारिश
एक वक्त की बारिश की याद भर होती है।
खिड़की के इस ओर बैठे हम,
उस ओर अपने बचपन को
पानी के छींटे उड़ाते देखते हैं
या देखना चाहते हैं।
और एक मानसिक बिंब मात्र देख पाते हैं।
बादलों के गड़गड़ाहट से डरी
अपनी उन सभी भावनाओं को,
जिनके लिए अभी शब्द नहीं बने,
हम जगजीत सिंह की ग़ज़लें सुना
सुलाने की कोशिश करने लगते हैं।
चाय के कप से उड़ती रहती है
पहले प्रेम की स्मृति।
और हम दोनों हाथों से कप को पकड़े
खड़े रहते हैं खिड़की के इस पार।
इस पार जहां हमारा वर्तमान है
उस तरफ़ भीगता हमारा अतीत,
धुंधलाता है,
खिड़की पर निशान छोड़ता जाता है।

 

11.

इस घर की किवाड़ें, झरोखें, खिड़कियां
बंद है क्यों, क्या घर की ये है लड़कियां?
बस दीवारें, दीवारें, दीवारें ही हैं
घुट घुट के मरते अब सारे ही हैं।
खुला घर ना बरसों, वो खंडहर हुआ
ना लगी धूप जिसको, ना पानी हवा।
खोल दो खिड़की, ठंडी हवा आने दो
लगे जाले बरसों के झड़ जाने दो।
झांक कर देखो फैला अनंतकाल नभ
ये आज़ाद पक्षी, निरंत चाल सब।
झांक कर देखो, खिलती हुई क्यारियां
झांक कर देखो, फल से लदी डालियां।
झांक कर देखो बहुत खूबसूरत है जग
यहां लड़की का होना, कहां और कब।
झांक कर देखो, गिरेबान की गन्दगी
झरोखे में लड़की कैद है, कैद थी।
ये समाजों में बंधी, डरी लड़कियां
खोल दो इनको, घर की ये है खिड़कियां।

 

12.

अपना हाथ जीन्स की जेब में डाल
तुम रच देते हो
स्वावलंबन का एक चक्र
और इस तरह पूरा हो जाता है
तुम्हारा पुरुषत्व का ब्रह्माण्ड।
मैं तुम्हारे हाथों के बीच
अपना हाथ डाल
टांक देती हूं
एकादशी का एक चांद
तुम्हारे ब्रह्माण्ड में
और इस तरह
पूरा करती हूं तुम्हारा संसार।
दो ब्रह्माण्ड के होने से अच्छा है
एक संसार का होना।

 

13.

आदम ने खोजा लौह
उससे तलवारें और तीर बनाए,
फिर बनाई बेड़ियां
और औरत को बांध दिया।
स्त्री ने उगाया कपास
उससे चादर और रुमाल बनाए
फिर बनाया आंचल
और आदम को ढांक दिया।

 

 


 

कवयित्री सुप्रिया मिश्रा  2 फरवरी, आरा बिहार में पैदाइश। सुप्रिया हिंदी की लेखिका भी हैं। उनकी कविता ‘लाइसेंस’ को नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी द्वारा उनके फिल्म मंटो के मंचन के लिए पढ़ा गया है। साथ ही उन्होंने नेटफ्लिक्स की कई फिल्मों और वेब शृंखलाओं का हिंदी अनुवाद किया है, एमएक्स प्लेयर में सहायक निदेशक के रूप में काम किया है और वर्तमान में एक अमेरिकी कंपनी के लिए गुड़गांव में लेखक के रूप में काम कर रही हैं।
सुप्रिया ‘व्हाइटबर्डट्रेल्स’ नाम की एक संस्था की संस्थापक भी है जिसका उद्देश्य फिल्मों की स्क्रीनिंग और सिनेमा उद्योग के विशेषज्ञों के साथ चर्चा करते हुए सिनेमा से जुड़ी छोटी बड़ी जानकारी को लोगों तक पहुँचाना है।

सम्पर्क: supnewforwork@gmail.com

 

टिप्पणीकार कवयित्री नाजि़श अंसारी, जन्म स्थान –गोण्डा। निवास स्थान– लखनऊ। शिक्षा– मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर
कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
दर्ज़न भर पत्रिकाओं में विभिन्न कवियों, लेखकों पर लेख प्रकाशित।
पहली कहानी “हराम” को हंस कथा 2023 सम्मान।

सम्पर्क: nazish.ansari2011@gmail.com

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