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‘सफ़र है कि ख़त्म नहीं होता’ : सोनी पाण्डेय की कविताएँ

मदन कश्यप


हिन्दी में स्त्री कवयित्रियों की सांकेतिक उपस्थिति तो आदिकाल से रही है। लेकिन 1990 की दशक में जो बदलाव आया उसका एक सकारात्माक प्रभाव यह भी रहा कि इस दौरान बडी संख्या में स्त्री, दलित और आदिवासी रचनाकार सामने आये और इनके लेखन और पहचान को लेकर हिन्दी के बौद्धिक समाज में गम्भीर उत्सुकता परिलक्षित होने लगी हालांकि पिछली सदी तक इनकी संख्या सीमित ही रही।

पूर्ववर्ती स्त्री कवयित्रियों अनामिका और कात्यायनी की परम्परा में सविता सिंह, अनीता वर्मा और निलेश रघुवंशी उभर कर आये जिनकी अब मजबूत पहचान बन चुकी है। लेकिन नई सदी के दो दशक में अपने लेखन से प्रभावित करने वाली कवयित्रियों की संख्या 30 से अधिक है। इनमें लीना मल्होत्रा, अनुराधा सिंह, ज्योति चावला, मृदुला शुक्ला, अंजू शर्मा, नेहा नरूका, रमा भारती, दिव्या सिंह, पूनम शुक्ला आदि ऐसे उल्लेखनीय कवयित्री हैं, जिनके नाम अभी याद आ रहे हैं। इन्हीं उल्लेखनीय कवयित्रियों में एक सोनी पाण्डेय भी हैं।

2015 में उनका पहला कविता संग्रह ‘मन की खुलती गिरहें आया था। ग्रामीण व कस्बायी समाज में स्त्रियों के संघर्ष, लोकभाषा के सृजनात्मक उपयोग और संवेदना की अपनी खास बनावट के कारण प्रचलित स्त्री विमर्श के बीच उनकी कवितायें अलग से पहचानी गयी।

वे छोटे शहर आजमगढ में रहती हैं और कोई पन्द्रह बीस किलोमीटर दूर किसी स्कूल में पढ़ाने जाती हैं, सो गांव से उनका जीवन्त रिश्ता अब भी बना हुआ है। गाथान्तर पत्रिका के संपादन के माध्यम से देशभर के रचनाकारों से जुडी हैं, दूसरी तरफ अपने शहर की पढने-लिखने वाली स्त्रियों का मजबूत संगठन भी उन्होंने खड़ा किया है। महत्वपूर्ण यह है कि उनकी इस गतिशीलता को उनकी कविता में लक्षित किया जा सकता है।

उनकी जो ताज़ा कवितायें मेरे सामने हैं, उनमें स्त्री संघर्ष के कुछ नये पात्रों को उद्घाटित करने का उपक्रम दिखायी देता है। स्त्री के दमन का एक कारगर उपाय रहा है, उसे तमाम तरह की आर्थिक अधिकारों से बाधित कर देना।

कानून भले ही बन गया है लेकिन व्यावहारिक स्तर पर आज भी पिता की सम्पत्ति पर बेटी का अधिकार नहीं होता है। आर्थिक आत्मनिर्भरता इसका अच्छा विकल्प हो सकता है, लेकिन विडम्बना यह है कि खुद की कमायी पर भी प्रायः उसका हक नहीं होता है और अपनी जरूरतों के लिए अपनी कमाई के पैसे उसे पति से मांगना पड़ता है और तब वह जिसे संगी साथी होना है, मालिक जैसे लगने लगता है।

‘अस्तित्व’ कविता में उन्होंने इसका बहुत ही मार्मिक चित्र खींचा है। स्त्री मुक्ति पर होने वाले विमर्शों में देह की मुक्ति का प्रश्न बार-बार उठता रहा है। लेकिन सोनी पाण्डेय ने इसको नया आयाम दिया है। एक कामकाजी और पढ़ी-लिखी स्त्री को भी देह से अलग कुछ नहीं समझा जाता है, आते जाते लोग उसकी योग्यता उसके संघर्ष या उसकी उपलब्धियों को नहीं देखते बस देह को देखते हैं। इस क्रूर विसंगति के बीच एक नयी तरह की कामना करती है।

‘‘वह पत्थर हो जाये मन से
आत्मा से
देह से
उसकी भूखी अतडि़यां फटने लगे
और एक दिन ऐसा हो
बस शेष रहे स्त्री
देह से मुक्त हो।‘‘
इस कविता में आक्रोश भले ही तरल दिखता हो लेकिन यह उपजा तो है हमारे समय के क्रूर यथार्थ से ही विचलित कर देने वाली सहजता सोनी की खास विशेषता है। एक कविता में वह सीधा सवाल पूछती है-
‘‘सचमुच बताना
कितने मनुष्य हो तुम
औरत के सन्दर्भ में ?

यह कितना सहज प्रश्न है न इसमें कोई वक्रोक्ति है न ही किसी अन्य तरह की कला। फिर भी सच्चाई की यह सहज अभिव्यक्ति किस तरह बेचैन कर देती है।

सोनी पाण्डेय सच को पहचानती हैं उसकी ताकत को जानती हैं और उसकी सीधी अभिव्यक्ति में ही सहजता के सौन्दर्य को उद्घाटित करने का उपक्रम करती है। एक कविता का अंश देखिये-
‘‘मेरे पास सुन्दर कुछ नहीं था
और मैं सोचती थी हर चीज को
सुन्दर बनाने की ‘‘

यह आकांक्षा विरल भले नहीं हो लेकिन गहरा प्रभाव डालने वाली तो है ही। दिन पर दिन क्रूर और कुरूप होती जा रही दुनिया के उपादानों से ही प्रेम और सौन्दर्य को रचने का उपक्रम आज भी कविता की कठिन चुनौती है को स्वीकार किया है, उनमें एक उल्लेखनीय नाम सोनी पाण्डेय का भी है।

वह सपना देखती हैं। नयी सदी स्त्री की मुक्ति की पहली सदी होगी, लेकिन समय की कठोर सच्चाईयों से भी टकराती हैं और मानती हैं कि यह सफ़र जल्दी खत्म होने वाला नहीं है।

 

सोनी पाण्डेय की कविताएँ

(1) अस्तित्व

अपनी हथेलियों को देखती हूँ
उस वक्त जब फैलतीं हैं
अपना ही हिस्सा मांगने को
उसके सामने
जो मालिक है मेरा
दुनिया जानती है
साथी है….संगी है
लेकर चलता है बराबर
सब सच है
पर यह सबसे बड़ा सच है कि
जैसे एक यात्री के लिए घूम- फिर कर दुनिया गोल है
जैसे घट -बढ़ कर दिखना चन्द्रमा का इक खेल है
वह मालिक है मेरा
और मैंं खट -मर कर अन्ततः सैकड़ों अग्नि परीक्षा देती दासी….

(2) देंह से मुक्ति

गली से निकलते महसूसती हूँ
कुछ भूखी गिद्ध दृष्टि
अश्लील फब्तियां
मनगढंत किस्सों संग उछलती औरत की रूह
प्रेतबाधाओं की तरह करती हैं पीछा
सड़क तक आते-आते बदल जाती हूँ मांँस के लोथडे में
लपलपाती जीभ लिए कुत्ते चलते हैं आगे-पीछे
चौराहे पर घेर लेतीं हैं सैकड़ों कौओं की आँखें

नोचने को आतुर कौवे
भूखे कुत्तों की भूख से बच कर
चली आती हूँ वापस गली के मुहाने पर
कुछ यौनकुण्ठाओं से ग्रस्त मनोरोगी
सिगरेट के धुएं में उड़ाते हुए नैतिकता के छल्ले
छलनी करते हैं हर उस औरत की आबरू
जो लौटती है काम से
किसी सहेली की गाड़ी से
किसी रिश्तेदार के संग
किसी मरीज को देखकर या मातम से
जार -जार रो कर लौटती हैं औरतें
गले तक अपमान का हलाहल पीकर
आत्मा की स्लेट पर लिख लेतीं हैं अपमान की पीड़ा
नहीं दिखातीं गलती से किसी को
फिर भी बडी आसानी से सैकड़ों काम निबटा कर घर को लौटती हुई औरत
उनकी निगाह में मात्र देंंह ही रही
उसे रौंदा जा सकता है
उस पर चढ़ा जा सकता है
उसे नोचा जा सकता है
उनकी नज़र में घर से बाहर निकलती हुई औरतें सर्वसुलभ संपत्ति हैं
जो चाहे हड़प कर बैठ सकता है
जुए में जीत सकता है
सभा में खरीद सकता है
वह बिकाऊ है इस कदर की
खरीद सकतें हैं निगाह से तौलकर
तब तक
जब तक देंह है
इस लिए मैं चाहती हूंँ एक कठोर शाप देना
स्त्रियों की कौम को
वह पत्थर हों जाएँ मन से
आत्मा से
देंह से
उनकी भूखी अतड़ियाँ फटने लगें
और एक दिन ऐसा हो
बस शेष रहे स्त्री
देंह से मुक्त हो…..।

(3) जीवन
एक निरक्षर औरत की तरह
मैं थरिया भर भात ही जान पाई
जीवन को

जुगाड़ती रही भात
भरती रही पेट
भूख के सवाल बड़े थे
गणित में फिसड्डी रही इस लिए
जोड़-घटाना नहीं सीख पायी
दौड़ना तो बिल्कुल नहीं सीख पाई
खेल पर बंदिश रही
प्रतिबंधित रहे सपने नये रास्तों के

इन दिनों मैं थकी यात्री सी
बूढ़े बरगद से पूछती हूँ
पता उस रास्ते का
जहाँ से दौड़ते सब निकल गये आगे
मैं कछुए की कथा पर यकीन कर बढ़ती रही
नहीं जान पाई आज तक
जीवन दौड़ है
विजय का सिद्धांत है “येन केन प्रकारेण”
साम-दाम-दण्ड-भेद
जिसने पढ़ा
वही विजयी रहा।

(4) मुक्ति कामना

सब कुछ धुआं- धुआं सा था
कोलाहल के बीच एक भी आकृति पहचानी नहीं जा सकती थी
सफर था कि अंधे सुरंग में समाता जाता और मैं एक कतरा उजाला तलाशते छटपटाती टटोलती हूँ कुण्डी विशाल दरवाजे की
दरवाजे पर नुकीले बुर्जे हैं पीतल के जो बार -बार चुभते हैं हल के फाल सा कलेजे में
लहू की पतली धार बह निकलती है कलेजे से
सफर है कि खत्म ही नहीं होता
जब की चल रही हूँ सदियों से
चलते- चलते फफोले पड़ गये हैं तलवों में
छाती धौंकनी सी बजती है
बेहया चाहतें हिलोरे मारतीं हैं मन में कि मिलेगी एक न एक दिन मंजिल
और बेरहम सफर है कि दुख की रात की तरह बीतता ही नहीं
सुरंग बढ़ती जाती हैं नागिन की तरह लहराती
मैं चल रही हूँ…गिरते..हाँफते…दौड़ते..
चल रही हूँ निरन्तर
सोचते हुए कि शायद इस सदी में सफर पूरा कर लुंगी
शायद यह सदी मेरी मुक्ति की पहली सदी होगी…।

(5) मूर्तियों का सच
विशाल मूर्तियों को देखकर
सोचती हूँ
कितना जरूरी है रोटी
आदमी के लिए?
रोटी बड़ी है कि मूर्ति?
आदमी से मूर्ति है कि
मूर्ति से आदमी?
और इस तरह सोचते पाया कि
विकास -यात्रा में
रोटी और आदमी से बड़ी होती हैं मूर्तियाँ
क्यों कि मूर्तियाँ ही बताती हैंं अन्ततः विनाश के बाद
खोजी जत्थों को
कभी हुआ करती थींं इसी जगह
मुट्ठी भर अमीरों के बीच
भूखी -नंगी आदमी की कौमें
मर-मीट गयीं मूर्तियाँ बनाते हुए…।

(6) मृत्यु

गीत मर रहे थे और भाषा गूंगी हो रही थी
लोग लंगड़े ,लूले, अपाहिज हो रहे थे
जबकि ये सदी मानव सभ्यता के विकास के चरम पर थी
गाँव के मुहाने तक अस्पताल चलते चले आए और बहुमंजिली ईमारतें बतियाने लगीं पगडंडियों से
इधर बीमारी से ज्यादा बीमारों की संख्या बढ़ी है
हर आदमी हाँफता सा झुका है कमर से
रीढ़विहीन कौमें जिस तरफ चाहे हाँकी जा सकती हैं
जिस रंग में चाहें रंगी जा सकती हैं
हाथों के पास कलम से अधिक तलवारें हैं
कहीं भी,कभी भी,किसो को निहत्थे भीड़ को सौंप मरवाया जा सकता है
यह सदी है विज्ञान के उत्कर्ष की सदी
नासा रोज एक नई इबारत लिखता है अन्तरिक्ष में नई दुनिया की खोज का
अब सूरज ,सूरज है..चाँद उपग्रह
मंगल भी किसी पढ़े लिखे का अमंगल नहीं कर सकता
फिरभी लोग डरे रहते हैं घर से निकलते
शनि -राहु से लेकर मंगल मुट्ठी में है आदमी के
फिरभी ईश्वर के नाम पर मुट्ठियाँ तनी हैं ऐसे कि सबसे असुरक्षित है दुनिया का तथाकथित रक्षक
मैं खेतों से पूछती हूँ कि तुम बदल रहे हो प्लाटों में फिर आदमी क्या खाएगा उगा कर
धरती मुस्कुराकर कहती है धीरे से
छिछियाये लोग एक दिन मार कर खाएंगे एक दूसरे को
जरूरत क्या है खेत खलिहानों की
बाग..बागानों की
पेड़ पहाड़ ..नदी किस काम के तुम्हारे
बढ़ते चलो …बढ़ते चलो…बढ़ते चलो
चढ़ बैठ जाओ आकाश की छाती पर
चाँद को खिलौना बना खेल लो या मंगल पर बरसा लो पानी
सब कर लो …करते चलो
बस मत पूछना पलट कर किसी का हाल
किसी की चिट्ठी भी मत बांचना गलती से
किसी बूढ़ी औरत से मत पूछना पुरानी दुनिया का पता
मैं जानती हूँ कि फिर एक बार सब जल कर भस्म होने वाला है मेरी छाती पर
रोज घावों को सहलाती हूँ
फफोले फोड़ती हूँ
जितना बचा सकती हूँ बचाती हूँ
तुम न मेरे हुए
न गीतों के…न बोली के ..न भाषा के
गाँव क्यो सहेजोगे बटुए में बाबू!
जाओ…भागो…दौड़ो
बह थोड़ा सा समय शेष है बिखरने में
बन्द मुट्ठी की तुम्हारी -हमारी दुनिया
अन्तिम सत्य यही है
अन्त में मुट्ठी को खुलना ही होता है सब छोड़ कर…

(7) ये जो दिखाई दे रहा है

ये जो दिखाई दे रहा है
दरअसल वैसा नहीं है जैसा दिख रहा है
गौर से देखिए
इसके पीले रंग के नीचे की सतह लाल है
लाल की संगत में कुछ हरा है
टहनी में आबनूसी काला है
थोड़ा सा भीतर सफेद ठोस गूदा
और मटमैला द्रव्य लिए
ये जो दिखाई दे रहा है
पीला है….
मान लीजिए
ये जो सामने है
वैसा नहीं है जैसा आप महसूस रहे हैं
उसके पीछे कई परतें छुपी हैं
अनगिन रंग लिए जीवन के
सुख के,दुख के
हास-परिहास और मिलने बिछुड़े के
बहुत कुछ है उसके साथ
रंग केवल लाल-नीला-पीला-हरा नहीं होते
जीवन में भी बेशुमार रंग भरे होते हैं….
इस लिए केवल सामने के चेहरे को देखने से पहले
सोचिएगा कि सच कुछ भी हो सकता है
जैसे अक्सर झूठे आरोपों पर
महज कुछ गवाहियों के आधार पर
बेगुनाह घोषित हो जाता है गुनहगार….
इस लिए उस आदमी के चेहरे को गौर से देखिएगा
जिस पर अपराध का आरोप लगाकर टूट पड़े हैं लोग
चेहरा झूठ नहीं बोलता निहत्थे आदमी का
भीड़ में तब्दील होने से पहले
जुनैद के मारे जाने से पहले
एक बार गौर जरूर करिएगा कि
ये जो गहरा स्याह रंग दिखाई दे रहा है
सुबह होते -होते उजास में बदल जाएगा…..

 

(8) कुछ अधूरी बातें

कुछ चिट्ठियां अधुरी रहीं उम्र भर
कुछ पते लिखे लिफाफे रह गये दराजों में
कुछ बातें दबी रहीं मन में आज तक
यादों की पिटारी में कुछ बातें उफनती रहीं
बरसाती नदी की तरह जीवन में
एक अधुरी लिखी कविता जोहती रही बाट
पूरा होने की
और कविता की दो किताबें छप कर आ गयीं
ज़माने भर से मिले दर्द को पी लेती हूँ
और लिख कर डायरी में कुछ अधुरी कविताओं को
सो लेती हूँ नींद भर…
उनसे मिलने की बेचैनी ज्यादा भली है मनुष्यों से…

दरअसल अधूरी चिट्ठियां गवाह हैं
कि नहीं लिख सकती अम्मा को मन की बात…

पता लिखा लिफाफा जानता है कि
जो कह न सकी तुमसे उन दिनों
वह दर्ज हैं उस खत में
पढ़ते ही तुम लौटोगे उल्टे पाँव
तुम्हारा लौटना ,मेरी देहरी तक संभव नहीं
इस लिए पड़ा रहा लिफाफा दराज में……

(9) एक सवाल

एक सवाल है
सच-सच बताना
जबरन छीनना ज्यादा मोहक था
या प्रेम से समर्पण?

सच-सच बताना
हासिल करने
और प्रेम से पाने में ज्यादा सुखद
कौन था?

इन दिनों तुम मुझे
आतातायी, लुटेरे, भक्षक,नरपशु
अधिक लगे….
इस लिए तुमसे प्रेम करते हुए
अब टटोल लेना चाहती हूँ
तुम्हारे सीने पर
दिल है या पत्थर
क्यों की संवेदनशील कहलाने वाले मनुष्य
औरत देंह को जबरन नोचा नहीं करते
केवल पशु भोगते हैं अपनी मादा को
तुम उनसे भी बत्तर निकले
वह भी थोडा अनुनय-विनय करते दिखे मुझको
इस लिए
सच-सच बताना
कितने मनुष्य हो तुम
औरत के सन्दर्भ में?

 

(10) तलाश

अपनी तलाश में निकली हूँ
एक घर नहीं
एक बिस्तर नहीं
बस देह भर मैं
सजी हूँ थाली में
उसके स्वाद भर मेरे देह का नमक
फिर खिसका दी गयी
धीरे-धीरे मरते गये रंग
भाव और स्वप्न
बचा रहा देह….

(11) नियति

नहीं फड़कती भुजाएँ
बाहुबली भाईयों और पिताओं की
उनके सामने ही
भरी सभा में की जा सकती हूँ मैं नंगी
माँ -बहन- बेटी की गालियाँ खाकर
सिर झुकाए सह सकती हूँ अपमान की पीड़ा
सुबकती हुई एक औरत
दूसरी औरत की हथेलियों पर रख कर
अपने आँसुओं और बेबसी की थाती
बस इतनी ही कहेगी भरे कण्ठ से
यही हमारी नियति है।

(12) दर्द

एक दूसरे के कन्धे पर
टिकाए अपना सिर
हम भागती हुई दुनिया में
सब हैं..सबके लिए
नहीं हैं तो अपने लिए
आत्मा पर लिए नुकीले पंजों का जख्म़
जख्म़ी औरतें टभकते दर्द संग चलती हैं
घर से बाहर
नौकरी पर
सगे संम्बन्धियों से मिलती हैं हँसकर
पहन कर सबके पसंद के कपड़े
खाकर सबके पसंद का खाना
सो लेती हैं
रो लेती हैं
अनगिन तानों और आरोपों के पिघलते मौसम में
तलाशती हैं घर का कोना
जहाँ चीख कर रो सकें मन भर
पर दुख जो सबसे बड़ा है औरतों का
घर का कोई कोना नहीं उनके हिस्से
झख मारकर
दुपट्टे से या आँचल से ढ़क कर सिर
टिका कर कुहनी पर सिर
सुबकती चली जातीं हैं काम पर
उनके हिस्से बस चुटकी भर नमक होना बदा है
जिसे जब चाहे साथ वाला
खुले घावों पर उनके छिड़क सकता है।

(13) औरत

उनके लिए औरत
औरत यानी मैं और तुम
हाँ मैं हमारी बात कर रही हूँ
बस माँस की गुड़िया हैं
जिसे इच्छाओं के छूरी -काँटो से
जब चाहें नमक -मिर्च छिड़कर
नीबूं निचोडकर कर
चटखारे लेकर खा सकते हैं
औरत उनकी थाली में भोजन
बिस्तर पर भोजन
सफर में निगाह का भोजन
ऑफिस में अश्लील फबतियों संग जीभ का जायका
सब है
बस नहीं है तो
मनुष्य…..।

(14) मेरे पास सुन्दर कुछ नहीं था..

मेरे पास सुन्दर कुछ नहीं था
और मैं सोचती थी हर चीज को सुन्दर बनाने की
मैं फूटे हुए मटके में मिट्टी भर कर एक पौधा लगाती
और इन्तजार करती उस ऋतु का
जब वह खिले फूलों से गमक उठता…

एक फटी चादर में पैबन्द लगाते मैं काढ़ देती आस-पास बेल-बूटे और उसे छू कर देखने वाले के चेहरे के मोहक भाव पर मुस्कुरा लेती….

प्लास्टर छोड़ चुकी दीवार पर टांग देती राधा -कृष्ण के महारास का चित्र,
ताकि जीवन में प्रेम बचा रहे आखिरी निवाले तक

मैं जानती थी ईश्वर कुछ नहीं दे सकता ,
फिर भी कहती थी सबसे कि वह देगा एक न एक दिन छप्पर फाड़ कर
ताकि सबकी नज़रों में उम्मीद के जुगनू टिमटिमाते रहें

मेरे आस-पास सब कुछ बेरंग था पतझड़ के मौसम सा नीरस और उबाऊ
टूट कर शाख से गिरे पत्तों सा खड़खड़ाता जीवन कभी भी रौंदा जा सकता था किसी के पैरों तले
फिर भी मैं उम्मीद से भरी जोहती रही बाट बसन्त की
धोखे से भरी दुनिया में भले किसी ने नहीं थामी वक्त पर मेरी उंगली
मैं हर गिरते को लपक कर उठाती रही
कुछ हो न हो मेरे पास
भले लोग हँस लें मेरी फटेहाली पर
मैं जानती हूँ अपनी अमीरी इस लिए
रोज एक कविता लिख कर तकिए के नीचे दबा सो जाती हूँ
अगले दिन वह एक सपना बन लटक जाता है दरवाजे पर।

(15) हिन्दी का कवि..

वह जो गुजरा था मेरे बगल से
एक दम उलझा हुआ,बेतरतीब इन्सान
लोग उसे पागल बता रहे थे
उसकी गहरी धसी आँखों में मैं देख सकती थी
उन सपनों की राख
जिसे सहेजे बढ़ता रहा वह आदमी
लोग बता रहे हैं कि कभी वह बहुत तेज दिमाग हुआ करता था
बड़ी -बड़ी परीक्षाओं को पास कर पाई थीं बड़ी- बड़ी डिग्रियां
बस नहीं पा सका तो एक अदद नौकरी
जिससे प्रेम करता था वह सबसे पहले गयी छोड़ कर असफलताओं को देख
फिर एक -एक कर सब छोड़ते गये
लोग बता रहे हैं फिर वह कवि बन गया
और एक दिन बहुत बड़ा कवि बन गया
उसकी कविता छपती है अख़बारों में इस ख़बर के साथ कि
हिन्दी का एक बड़ा कवि पागल हो फिरता है सड़कों पर इन दिनों
दरअसल हिन्दी वह दीन -हीन भाषा है दुनिया की
जिसका बड़ा कवि अक्सर मर जाता है पागल हो
रोटी के अभाव में…

 

 

(पहली कविता की किताब “मन की खुलती गिरहें”को 2015 का शीला सिद्धांतकर सम्मान, 2016 का अन्तराष्ट्रीय सेतु कविता सम्मान, 2017–का कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित ” माँ धनपती देवी कथा सम्मान”, 2018 में संकल्प साहित्य सर्जना सम्मान, आज़मगढ से विवेकानन्द साहित्य सर्जना सम्मान, पूर्वांचल .पी.जी.कालेज का “शिक्षाविद सम्मान”,रामान्द सरस्वती पुस्तकालय का ‘पावर वूमन सम्मान’ आदि से सम्मानित कवयित्री सोनी पाण्डेय का ‘मन की खुलती गिरहें’ (कविता संग्रह) 2014 में और ‘बलमा जी का स्टूडियो’ (कहानी संग्रह)2018 में प्रकाशित इसके अतिरिक्त कुछ किताबों का संपादन. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन.

ईमेल: pandeysoni.azh@gmail.com

ब्लाग: www.gathantarblog. com

टिप्पणीकार मदन कश्यप ‘गूलर के फूल नहीं खिलते’ (1990), ‘लेकिन उदास है पृथ्वी’ (1993), नीम रोशनी में (2000) के कवि, समकालीन हिंदी कविता के चर्चित और सम्मानित कवि।)

 

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