निरंजन श्रोत्रिय
युवा कवि शिरोमणि महतो की इन कविताओं में भाषा और अनुभवों की ताजगी साफ देखी जा सकती है। इन कविताओं मे कवि ने एक आदिम गंध बिखेरी है जो उसके निजी अनुभवों का सत्व है।
इनमें कहन की सायास कोशिश न होकर एक स्वस्फूर्त प्रवाह और कवि की चेतस दृष्टि है जो लगातार अपने चारों ओर घटित हुए को कहीं बाँध लेना चाहती है।
‘‘अनुवादक’’ कविता में कवि ने एक श्रमसाध्य कार्य का उचित महत्व प्रतिपादित किया है। आम तौर पर कवि इसे कविता का विषय नहीे बनाते-‘‘कहीे किसी शब्द को/ खरोंच न लग जाए/ या किसी अनुच्छेद का/ रस न निचुड़ जाए/ इतना सतर्क और सचेत/ रहता है हरदम- अनुवादक।’’
एक अन्य कविता ‘‘धरती के इन्द्रधनुष’’ में कवि ने चित्रकार हुसैन के निर्वासन की पीड़ा के जरिए समाज में इन दिनों पसर चुकी असहिष्णुता पर चोट की है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ अपनी मिट्टी से जुदा होने के दंश को मार्मिकता से अभिव्यक्त करती है-‘‘सात रंगों से लबरेज/ तुम धरती के हो इन्द्रधनुष/ सात साल भी टिक न सके/ भला पूरब को छोड़कर/ कहीं उगता है इन्द्रधनुष!’’
‘‘नानी’’ कविता में एक उम्रदराज पीढ़ी की स्मृृतियों और वेदना को उकेरा गया है-‘झूलने लगी है चमड़ी/ जिसमें जीवन झूल रहा झूला’ जैसे अनूठे बिम्बों से कवि वृृद्धावस्था की जीर्णता को कविता में साक्षात् कर देता है।
‘पिता की मूँछें’ में कवि ने परिवार के उस मुखिया की तस्वीर गढ़ी है जो तमाम दायित्वों को ओढ़ता है लेकिन फिर भी कहीं न कहीं एकाकी है। मूँछें उसके व्यक्तित्व और अंततः उसकी उदासी का भी अवलम्ब है।
‘चाँद का कटोरा’ बचपन की स्मृृतियों को संजोती कविता है जिसमें कवि ने बिम्बों का विलोम रचकर पाठकों को चमत्कृत किया है। ‘चींटियाँ’ लघुता और क्रूरता के द्वन्द्व की कविता है। इस कविता में व्यंग्य भी है और कटाक्ष भी! ‘पाँव’ कविता एक तरह से हमारी जड़ों की ओर इंगित करती है। इसमें ‘चरैवेति-चरैवेति’ का एक संदेश भी छुपा है और पैरों का महत्व भी।
‘भात का भूगोल’ शिरोमणि की एक महत्वपूर्ण कविता है जिसमें स्थानीयता का रूप-गंध-स्पर्श रचा-बसा है। भात के पकने की समूची प्रक्रिया को कवि ने लोकरंग में रचकर पाठकों को परोसा है- उसमें आपको दर्शन भी नजर आएगा और ताजे भात की सुगंध भी।
‘रिहर्सल’ कविता जीवन के दर्शन को सहज रूप में व्यक्त करती है। ‘जो मारे जाते’ कविता एक भिन्न स्वर की कविता है जिसमें आम मनुष्य के संघर्षों को बयां किया गया है। इसमें कवि की राजनीतिक चेतना भी दृृष्टिगोचर होती है। एक बार फिर से कटाक्ष के माध्यम से कवि अपने समय और मूल्यों से दो-चार होता दीख पड़ता है। शिरोमणि महतो की कविताओं की प्रकृति देशज है। उन्होंने कविता के समस्त उपादान अपने स्थानीय परिवेश से लिए हैं इसीलिए उनकी कविताओं में एक आंतरिक सच्चाई व्याप्त है-एक गहन सहजता के साथ!
शिरोमणि महतो की कविताएँ
1. अनुवादक
मूल लेखक के
भावों के अतल में
संवेदना के सागर में
गोते लगाते हुए
अर्थ और आशय को
पकड़ने की कोशिश करता है अनुवादक
कहीं किसी शब्द को
न लग जाए खरोंच
या किसी अनुच्छेद का
रस न निचुड़ जाए
हरदम सचेत और सतर्क
रहता है अनुवादक
तब जाकर सफल होता
अनुवादक का श्रम
श्रेष्ठ सिद्ध होता अनुवाद
अब अनूदित कृति पर
हो रहे खूब चर्चे
मानो मूल लेखक के
उग आए हो पंख
मंच पर बैठा मूल लेखक
गर्व से मुस्कुरा रहा
फूला न समाता
पाकर मान-सम्मान
दर्शक-दीर्घा में बैठा अनुवादक
बजा रहा तालियाँ ।
2. धरती के इन्द्रधनुष
(एम.एफ. हुसैन की स्मृति में)
जब तक तुम रहे
धरती पर छाई रही
इन्द्रधनुषी छटा
तुम्हारे होने से
सातों सागर हिलोरते रहे
सात रंगों से
तुम्हारी कल्पनाएँ
तुम्हारे सपने
इन्द्रधनुष के रंगों से लबरेज थे
तुम्हारे हाथों के स्पर्श से
सातों रंग साकार हुए
तुम आजीवन चले नंगे पाँव
जुड़े रहे जमीन से
तुम्हारी कल्पनाएँ
रंग भरती रही आकाश की ऊँचाईयों में
तुम चले गए छोड़कर
अपना देश अपना वतन
अपनी मिट्टी अपनी जमीन
सात रंगों से लबरेज
तुम धरती के इन्द्रधनुष
सात साल भी टिक न सके
भला पूरब को छोड़कर
कहीं उगता है इन्द्रधनुष!
3. चापलूस
वे हर बात को ऐसे कहते जैसे
लार के शहद से शब्द घुले हों
और उनकी बातों से टपकता मधु
चापलूस के चेहरे पर चमकती है चपलता
जैसे समस्त सृष्टि की ऊर्जा उनमें हो
वे कहीं भी झुक जाते हैं ऐसे
फलों से लदी डार हर हाल में झुकती है
और कहीं भी बिछ जाती है मखमल-सी उनकी आत्मा!
चापलूसों ने हर असंभव को संभव कर दिखाया है
उनकी जिव्हा में होता है मंत्र-‘खुल जा सिम-सिम’
और उनके लिए खुलने लगते हैं हर दरवाजे
अंगारों से फूटने लगती है बर्फ की शीतलता
चापलूस गढ़ते हैं नई भाषा नए शब्द
जरूरत के हिसाब से रचते हैं वाक्जाल
जाल में फँसी हुई मछली भले ही छूट जाए
उनके जाल से डायनोसोर भी नहीं निकल सकता
उनके बोलने में चलने में हँसने में रोने में
महीन कला की बारीकियाँ होती हैं
पतले-पतले रेशे से गढ़ता है रस्सा
कि कोई बंधकर भी बंधा हुआ नहीं महसूसता
चापलूस बात-बात में रचते हैं ऐसे तिलिस्म
कि बातों की हवा से फूलने लगता है गुब्बारा
फिर तो मुश्किल है डोर को पकड़े रख पाना
और तमक कर खड़े हो उठते हैं नीति-नियंता
यदि इस दुनिया में चापलूस न होते
तो दुनिया मंे दम्भ का साम्राज्य न पसरता!
4. नानी
अस्सी के चौखट पर
खड़ी होकर मेरी नानी
दस्तक दे रही है
अपने पुरखों को
कि कोई तो दरवाजा खोले
अब वह थकने लगी
अपने शरीर को ढोने से
कभी पाँच-पाँच नातियों
और दसों छरनातियों को
ढोते नहीं थकता था उसका शरीर
अब वह सुना नहीं पाती है
राजा-रानी की कहानियाँ
उसके दाँतों ने छोड़ दिया
उसकी जिव्हा का साथ
और माँस छोड़ने लगा है
हड्डियों से अपनी पकड़
झूलने लगी है चमड़ी
जिसमें जीवन झूल रहा झूला
यह एक ऐसा पड़ाव है
जहाँ पहुँचकर आदमी को
आनंद का अनुभव होता है
आठ दशक पीछे का आनंद
और आनंद अपने पुरखों के
आगोश में समाने का।
5. पिता की मूँछें
पिता के फोटो में
कड़क-कड़क मूँछें हैं
ऊपर की ओर उठी हुई
पिता शुरू से ही रखते थे
ऐसी मूँछें जिसकी लोग करते नकल
जब बीमार पड़ते पिता
शरीर हो जाता लस्त
लेकिन मूँछें वैसी ही रहती
ऊपर को उठी हुई
उनकी मूँछों का उड़ता मजाक
मैं सोचता पिता कटवा क्यों नहीं देते इसे
एक बार मेले में
पिता के साथियों की
जब हुई लड़ाई कुछ लोगों से
पिता ठोंकते हुए लाठी
देने लगे मूँछों पर ताव
दुम दबा कर भाग गए सब
कहते हुए-‘बाप रे बाप
कड़क -कड़क मूँछों वाला मानुष!’
फिर क्या था
जम गई धाक पिता की मूँछों की
पूरे इलाके में
पिता को मूँछों से
कभी कोई शिकायत नहीं रही
उन्होंने चालीस साल
मूँछों को सोटते हुए काटे
दुःखों को चिढ़ाते हुए
पिता रिटायर हो रहने लगे गुमसुम
दूर क्षितिज ताकते सहलाते मूँछों को
एक दिन पिता ने चुपचाप कटवा ली मूँछें
अब रोज ढूँढता हूँ उन्हें पिता के चेहरे पर !
6. चाँद का कटोरा
बचपन में भाईयों के साथ
मिलकर गाता था
चाँद का गीत
उस गीत में
चंदा को मामा कहते
गुड़ के पुए पकाते
अपने खाते थाली में
चंदा को परोसते प्याली में
प्याली जाती टूट
चंदा जाता रूठ!
उन दिनों मेरी एक आदत थी
मैं अक्सर आँगन में
एक कटोरा पानी लाकर
उसमें चाँद को देखता
बड़ा सुखद लगता
मुझे पता ही नहीं चला
कि चंदा कब मामा से
कटोरे में बदल गया
तब कटोरे के पानी में
चाँद को देखता था
अब चाँद के कटोरे में
पानी देखना चाहता हूँ।
7. चींटियाँ
कभी नहीं देखा चींटियों को
एक-दूसरे पर झपट्टा मारते
चींटियों ने कभी
किसी का खून नहीं किया
और न ही घेराबंदी कर
दंगा-फसाद किया
चींटियों ने कभी किसी का
भोजन नहीं छीना
वे खुद ही ढोती हैं
अपने से दुगने भार वाले
गेहूँ के दाने
चींटियों को डर लगा रहता है
मनुष्य की क्रूरता से
कि कहीं कोई पाँव
उन्हें कुचल न दे
इसीलिए वे
यह अनहोनी होने से पहले ही
आक्रमण कर देती हैं
मनुष्य के पाँवों से चिपक जाती हैं!
8. पाँव
पाँवों के सहारे
आदमी पार कर लेता
उम्र की एक सदी
बचपन से बुढ़ापे तक
आदमी पाँवों से चलता है
एक-एक डग भरके
नाप लेता है पृथ्वी के ध्रुवों को
कादो भरे खेत/ धूल भरे पठार
दुर्गम पहाड़/ दुर्दांत समुन्दर
पाँवों के सहारे पार करता आदमी
आदमी भले उड़े आकाश में
उसके पाँव जमीन पर टिके हों
जमीन से उखड़े पेड़
हवा में उठे हुए पाँव
रूई-से हल्के हो जाते
पाँव ही उठाते
आदमी का बोझ
पूरे धड़ का भार
माथे का वजन
ललाट का तेज
पाँव ही ढोते
जीवन भर के पाप
पाँव ही हरते
जीवन के संताप
इसीलिए तो पाँव पूजे जाते हैं।
9. भात का भूगोल
पहले चावल को
बड़े यत्न से निरखा जाता
फिर धोया जाता स्वच्छ पानी में
तन-मन को धोने की तरह
फिर सनसनाते हुए अधन में
पितरों को नमन करते हुए
डाला जाता है चावल को
अधन का ताप बढ़ने लगता है
और चावल का रूप-गंध बदलने लगता है
लोहे को पिघलना पड़ता है
औजारों में ढलने के लिए
सोने को गलना पड़ता है
जेवर बनने के लिए
और चावल को उबलना पड़ता है
भात बनने के लिए
मानो,
सृजन का प्रस्थान बिन्दु होता है-दुःख!
लगभग पौन घण्टा डबकने के बाद
एक भात को दबाकर परखा जाता है
और एक भात से पता चल जाता
पूरे भात का एक साथ होना
बड़े यत्न से पसाया जाता है मांड
फिर थोड़ी देर के लिए
आग में चढ़ाया जाता है
ताकि लजबज न रहे
आग के कटिबंध से होकर
गुजरता है भात का भूगोल
तब जाके भरता है
मानव का पेट गोल-गोल।
10. रिहर्सल
दुनिया के रंगमंच पर
जीवन का नाटक होता है
जो कभी दुखांत होता
तो कभी सुखांत
किन्तु इस नाटक में
कैसा अभिनय करना है
कौन-सा बोलना है संवाद
कौन-सा गीत गाना है
कितना हँसना है
कितना रोना
कुछ भी नहीं होता पता
आज क्या होगा
कल क्या होगा
पल भर बाद क्या होगा
कुछ भी नहीं होता पता
जीवन जीने का रिहर्सल नहीं होता
न ही होता है री-टेक
सौ साल का जीवन भी आदमी
बिना रिहर्सल के जीता है।
11. जो मारे जाते
वे एक हाँक में
दौड़े आते सरपट गौओं की तरह
वे बलि-वेदी पर गर्दन डालकर
मुँह से उफ भी नहीं करते
बिल्कुल भेड़ों की तरह
वे मंदिर और मस्जिद में
गुरूद्वारे और गिरिजाघर में
कोई फर्क नहीं समझते
उनके लिए देव-थान
आत्मा का स्नानघर होते
जिन्हें बारूद से उड़ाना तो दूर
वे पत्थर भी नहीं फेंकते
वे याद नहीं रखते
वेदों की ऋचाएँ/ कुरान की आयतें
वे दिन-रात खटते
तन भर कपड़ा, सर पर छप्पर
और पेट भर भात के लिए
वे कभी नहीं चाहते
सत्ता की सेज पर सोना
क्योंकि वे नहीं जानते
राजनीति का व्याकरण
भाषा का भेद
उच्चारणों का अनुतान
हाँ
वे रोजी कमाते हैं
चूल्हे में रोटी सेंकते हैं
लेकिन वे नहीं जानते
आग से दूर रहकर
रोटी सेंकने की कला!
कवि शिरोमणि महतो, जन्मः 29 जुलाई 1973 को नावाडीह (झारखण्ड) में। शिक्षाः एम. ए. हिन्दी (प्रथम वर्ष) सृजनः देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। एक उपन्यास‘उपेक्षिता’ एवं दो काव्य-संग्रह ‘कभी अकेले नहीं’ और ‘भात का भूगोल’ प्रकाशित। पत्रिका ‘महुआ’ का सम्पादन। पुरस्कारः डॉ. रामबली परवाना स्मृति सम्मान, अबुआ कथा-कविता पुरस्कार, नागार्जुन स्मृति पुरस्कार.
संप्रतिः अध्यापन। सम्पर्कः नावाडीह, बोकारो (झारखण्ड) 829 144। मोबाइलः 09931552982
ई-मेलः shiromani_mahto@rediffmail.com
टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।
संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com