समकालीन जनमत
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गन्ना मिल मालिक, सरकार और किसान- एक

जयप्रकाश नारायण 

महाराष्ट्र के बाद उत्तर प्रदेश गन्ना उत्पादन में दूसरा बड़ा राज्य है। यूपी में लगभग 120 चीनी मिलें हैं। जिसमें अधिकांश अब निजी हाथों में चली गई हैं।

सरकारी और सहकारी क्षेत्रों की मिलें बीमार हैं और अंतिम सांसें गिन रही हैं। निजीकरण की आंधी में वे किसी भी समय  पूंजीपतियों के हाथ में जा सकती हैं।

उदारीकरण के बाद अधिकांश चीनी मिल मालिक बेलगाम होते गये।  उन पर किसानों के गन्ने का हजारों-करोड़ों रुपए बरसों से बकाया रह जाता है। मिल मालिकों द्वारा कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ा दी जाती है। सरकारें और गन्ना  विभाग मिल मालिकों के हाथ में कठपुतली बन गये हैं।

चाहे  धरतीपुत्रों या किसानों के मसीहाओं की सरकार हो या संतों-महात्माओं की। राष्ट्रवादी हो या समाजवादी। सभी सरकारें गन्ना मिल मालिकों के सामने नतमस्तक दिखती हैं। जिस कारण गन्ना किसानों की स्थिति दयनीय बनी हुई है।

उत्तर प्रदेश में गन्ना उत्पादन और गन्ना किसान
आजादी के पहले मेरठ और गोरखपुर मंडल गन्ना उत्पादन के बड़े क्षेत्र हुआ करते थे। अकेले गोरखपुर के देवरिया जनपद में  14 मिलें थीं। इसके अलावा गोरखपुर, बस्ती जिलों में भी मिलों की श्रृंखलाएं खड़ी हो गई थी। इसमें से अधिकांश अब बंद हो चुकी है या निजी हाथों में चली गयी है। इसके अलावा सहारनपुर, मुजफ्फर नगर और मेरठ में सघन गन्ना उत्पादन के क्षेत्र और मिलें थीं। बाद के दिनों में मेरठ मंडल के साथ मुरादाबाद, बरेली, पीलीभीत, लखीमपुर, बहराइच जैसे जिले गन्ना उत्पादन के नये  क्षेत्र के रूप में उभरे।

आधुनिक खेती के विस्तार के साथ उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की  सामाजिक और राजनीतिक हैसियत बढ़ती गयी।
देवरिया शुरुआती दौर में गन्ना किसानों के आंदोलन का बड़ा केंद्र था। जहां प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (जो बाद में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के बदल गयी।) के हाथ में गन्ना आंदोलन की बागडोर थी। सोशलिस्ट पार्टी में कई बड़े किसान नेता उभरे। देवरिया के प्रसोपा नेता गेंदा सिंह गन्ना किसानों के नेता के बतौर  स्थापित हुए थे। जिन्हें बोलचाल की भाषा में गन्ना सिंह कहा जाता था। बाद में वह सोशलिस्ट पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गये और गन्ना तथा कृषि मंत्री बनाये गये।

गेंदा सिंह के ही समय में लखीमपुर, पीलीभीत और नैनीताल की तराई में उपनिवेशन योजना के तहत जंगलों और घास के खाली पड़े मैदानों में किसानों को बसाया गया। उन्हें हर तरह से प्रोत्साहित कर आधुनिक खेती के लिए तैयार किया गया। इसलिए गन्ना उत्पादन का तीसरा जोन उभरा। जहां करीब डेढ़ दर्जन चीनी मिलें हैं। जिसमें पीलीभीत की पूरनपुर,  लखीमपुर के संपूर्णानगर और बिलरायां मिल सहकारी चीनी मिलें है। गोला गोकरण नाथ की मशहूर चीनी मिल और पलिया  मिल बजाज घराने की चीनी मिलें हैं। कहने का मतलब यह है कि इन सभी जिलों में चीनी मिलों की एक श्रृंखला तैयार हुई, जिससे कृषि क्षेत्र में उत्पादक गतिविधियों को बल मिला और गन्ना किसानों की माली हालत थोड़ा सुधरी।

कृषि के इस बुनियादी बदलाव के कारण किसान खाद्यान्न उत्पादन की जगह बाजार के लिए कच्चा माल तैयार करने लगे। गन्ना नकदी फसल है। बाजार और मुद्रा के साथ जुड़ने से किसानों के जीवन व्यवहार और चेतना में भारी बदलाव आया।  यही नहीं, गन्ना मिलों ने अपने निर्धारित इलाकों में इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया।

1980 के दशक में जब मुझे सुदूर लखीमपुर के सम्पूर्णानगर खजूरिया और पीलीभीत के हजारा इलाके में जाने का मौका मिला तो देखा कि वहां दुर्गम जगहों पर भी सड़कों के जाल बिछे थे। जैसा उस समय तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए एक सपना था।

इस तरह जहां चीनी मिलों ने कच्चा माल के उत्पादन और ढुलाई के लिए बुनियादी ढांचे का विस्तार किया, वहीं किसानों को संगठित होने में भी उत्प्रेरक की भूमिका निभायी।

गन्ना सप्लाई का ढांचा
अधिकांश इलाकों में गन्ना उत्पादक किसान गन्ना सोसायटियों में संगठित किए गये। उनके खेतों के सर्वे होते थे। उस सर्वे के आधार पर क्रमिक ढंग से गन्ने की सप्लाई के लिए पर्चियां किसानों के पास आती थी।

जिसमें तीन तरह से सप्लाई का ढांचा तैयार किया गया था। बैलगाड़ी (डनलप) , ट्रैक्टर और बड़े कंटेनर के माध्यम से गन्ने की सप्लाई की पर्चियां निकलती थी। जिससे 18 कुंटल से लेकर 70 से 110 कुंटल तक  एक बार में किसान गन्ना सप्लाई कर सकता था।

चूंकि तराई में छोटे-मझोले किसानों से लेकर बड़े-बड़े फार्मर हैं। इसलिए त्रिस्तरीय गन्ना सप्लाई की व्यवस्था थी।

गन्ना समितियां
गन्ना समितियों में किसान अपनी भूमि के रकबे  के आधार पर पंजीकृत होते हैं। जिनमें निर्देशकों का चुनाव गन्ना किसानों द्वारा किया जाता है। इनका प्रभाव उनकी आर्थिक हैसियत के आधार पर ही तय होता है।

बाद के दिनों में  देवरिया से लेकर मेरठ तक  राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं पर  सोसाइटी से जुड़े लोगों का प्रभुत्व भी कायम होने लगा। जिससे अंततोगत्वा माफिया  की एक श्रेणी पैदा हुई।

सोसायटियों  के डायरेक्टर वस्तुतः शहरों के कार्पोरेटर की हैसियत में बदल गए। जिससे भ्रष्टाचार का एक मजबूत ढांचा इन क्षेत्रों में खड़ा हुआ। अब किसानों को मिल मालिकों सहित सोसायटियों के  नये माफियाओं से भी लड़ने  के लिए बाध्य होना पड़ा। स्वाभाविक है यह माफिया जमींदारों के आधुनिक रूपांतरण  थे।

गन्ना किसानों का संघर्ष
आमतौर पर गन्ना किसानों को मिल मालिकों से दो स्तर पर लड़ना होता है ।
एक, समय से गन्ने की सप्लाई और दूसरा, समय से ही गन्ने के मूल्य का भुगतान।
गन्ने की सप्लाई का टकराव सोसाइटियों  पर काबिज लोगों से होता था। कहीं-कहीं मिलें सीधे  किसानों से गन्ना लेती हैं। इन इलाकों में मिल मालिकों से भी किसानों का  समय पर सप्लाई के लिए टकराव होता रहा है। दूसरा गन्ने के बकाए मूल्य के भुगतान के सवाल पर भी लंबे आंदोलन किसानों द्वारा चलाए गए। क्योंकि अधिकांश मिल मालिक गन्ना से लूटे गए मुनाफे को अन्य जगहों पर निवेश करते रहते हैं।

इसलिए उनकी कोशिश होती थी, कि किसानों के पैसे के भुगतान में देरी की जाए। मूल्य भुगतान के लिए अदालतों  से समय-समय पर कड़े निर्देश -आदेश जारी किए जाते रहे हैं। लेकिन मिल मालिकों ने उन्हें कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया। इस स्थिति में मिल मालिकों और राज्य संस्थाओं में मिली-भगत साफ-साफ दिखाई देती है।

चूंकि गन्ना उद्योग मौसमी चरित्र वाला  है। इसलिए यहां मजदूरों के संघर्ष में  भी जटिलता मौजूद है। जिसमें स्थाई और सिग्नल मजदूरों की दो श्रेणियां हैं।  1980 के दशक तक राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर गन्ना मजदूरों के फेडरेशन सक्रिय थे। कभी-कभी गन्ना किसान और मिल मजदूर संयुक्त संघर्षों में उतरते थे। जिससे मिल मालिकों पर दबाव बना रहता था। लेकिन उदारीकरण के बाद ये संस्थाएं अब मृतप्राय हो गई हैं।

उदारीकरण की नीतियां
1990 के दशक में लागू की गई उदारवादी नीतियों ने संगठित मजदूरों की ताकत को कमजोर किया। उद्योगों में ठेकाकरण और निजीकरण को बल मिला। जिससे मजदूरों के अधिकारों और सेवा सुरक्षा में कटौती होती गई। मिलों में मजदूरों की संरचना में  आए बदलाव ने उनके संघर्ष को कमजोर कर दिया है। जिसका असर गन्ना उत्पादन में लगे किसानों पर भी दिख गया। इस परिस्थिति का फायदा उठाकर मिल मालिक गन्ने की गुणवत्ता के नाम पर सप्लाई और मूल्य के भुगतान तक में अलग-अलग तरह से अडंगे लगाने लगे।

किसान सभाओं व फार्मर फेडरेशनों से किसान यूनियनों के निर्माण तक
1980 के दशक के मध्य तक आते-आते हरित क्रांति ठहर गई। जिससे किसानों के उत्पाद के मूल्य और कृषि में निवेश के खर्चे का संतुलन बिगड़ गया। औद्योगिक मालों के मूल्य में भारी वृद्धि और कृषि उत्पाद के मूल्यों में गिरावट के कारण या ठहराव के कारण किसान घाटे में जाने लगा। यही स्थिति गेहूं, धान, आलू, कपास, प्याज सहित किसानों के अन्य उत्पादों के साथ भी हुआ।

इस अंतर्विरोध ने नए तरह के किसान आंदोलनों और संगठनों को जन्म दिया। जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन  तथा महाराष्ट्र में शरद जोशी के नेतृत्व में  शेतकरी संघटना महत्वपूर्ण है।  इन संगठनों ने जुझारू किसान प्रतिवादों को जन्म दिया।

जिसके प्रभाव से भारत के अनेकों किसान यूनियनें बनी। जिन्होंने गन्ना किसानों को भी प्रभावित किया।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश
भारतीय किसान यूनियन के अभ्युदय ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के आंदोलन को नई दिशा और ऊंचाई दी। खासतौर पर मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ और मुरादाबाद मंडल तक किसान यूनियनों का जाल फैल गया था। इसका असर गोरखपुर परिक्षेत्र क्षेत्र के गन्ना किसानों के संगठनों पर भी दिखाई दिया। जिस कारण समय-समय पर कई किसान आंदोलन खड़े हुए ।

तत्कालीन देवरिया जिले के रामकोला चीनी मिल पर हुए किसान आंदोलन पर कल्याण सिंह सरकार द्वारा 1991 में  गोली बारी में 4 किसान मारे गए । इस घटना ने प्रदेश के गन्ना किसानों सहित अन्य किसानों को भी उद्वेलित कर दिया था।

बस्ती जिले के मुंडेरवा में किसान यूनियन के कार्यकर्ता लखनऊ  के प्रदर्शन के बाद वापस लौट रहे थे। जहां रेल प्रशासन ने बिना टिकट  के कारण किसानों को गिरफ्तार करने की कोशिश की। जिस कारण हुआ  रेल चक्का जाम  आंदोलन एक ऐतिहासिक आंदोलन बन गया।  जिसकी अगुवाई लाल सिंह जैसे युवा किसान नेता कर रहे थे।

लेकिन 1980 के मध्य में राम जन्म भूमि मुक्ति अभियान  और 1990 में वीपी सिंह द्वारा लागू किए गए मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने भारत की राजनीति और सामाजिक संबंधों पर असर डाला । जिसने समाज में पेशेगत संघर्षों को कमजोर किया और धर्म और जाति आधारित विभाजन की खाई को बढ़ा दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि किसान समाज भी कई ध्रुवों में विभाजित हो गया।

जिस कारण से संगठित मजदूर आंदोलन के साथ-साथ किसान आंदोलन को भी भारी धक्का लगा। मंडल और मंदिर के तूफानी काल में नई आर्थिक नीति लागू हुई। उदारीकरण के कारण बदल रहे  सामाजिक संरचना ने किसान यूनियनों को लगभग निष्प्रभावी कर दिया और वे विभाजित होकर लगभग निष्क्रिय हो गईं।

किसान आंदोलन को फिर से अपनी भूमिका में आने के लिए लंबे समय तक इंतजार करना पड़ा। नई आर्थिक नीतियों के साथ घनिष्ठ रूप से संबंद्ध हिंदुत्व तथा पहचानवादी राजनीति के एक चरण पूरा करने के बाद ही  किसान आंदोलन की नई लहर उठना शुरू हुई है ।

2014 के बाद कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के सत्ता में आने के बाद कृषि जगत पर हमला तेज हो गया। इस हमले के पहले चरण में 2013 के भूमि संशोधन अधिनियम में अध्यादेश द्वारा लाए  गये  संशोधन के बाद ही किसान आंदोलन और संगठनों की गतिविधियां तेज हुई।

अंततोगत्वा कारपोरेट द्वारा कृषि क्षेत्र के अधिग्रहण के लिए  लाए गए तीन कृषि कानूनों के बाद ही किसान आंदोलन के लिए परिस्थिति तैयार हुई। जिसे दुनिया ने दिल्ली के इर्द-गिर्द एक वर्ष तक चले  किसानों के बेमिसाल आंदोलन को किसान महापड़ाव के रूप में दर्ज किया।

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