ख़ुदेजा ख़ान
कवि सत्येंद्र कुमार रघुवंशी को पढ़ते हुए कहा जा सकता है कि कोई भी कविता या रचना का पाठ संवेदना के स्तर पर झंकृत कर दे तो समझिए उस रचना ने हृदय की सच्चाई को छुआ है, सामान्य विचार शृंखलाओं को ठिठकने पर मजबूर किया है।
कविता में निहित बातें वृहद् घटनाएँ या असामान्य से प्रसंग नहीं होते बल्कि दैनंदिन में घटित होने वाले वह संदर्भ होते हैं जो अछूते, अनदेखे, अनकहे रह जाते हैं। इन्हीं अनदेखियों को एक कवि की तीक्ष्ण दृष्टि जब ग्रहण करके कलमबद्ध करती है तब कविता रूपी विधा जन्म लेकर साकार होती है।
यह विधा साकार होते भाव, बिंबों, प्रतीकों द्वारा अभिव्यंजित होकर उस भाव, विचार या कथ्य की महत्ता का प्रतिनिधित्व करती है उस उपेक्षित वर्ग की बात करती है जो हाशिए पर हैं। इस वर्ग का समर्थन और विरोध दोनों ही अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए काफी है। पाँव की सबसे छोटी उंगली की तरह, भले ही ‘सबसे पहले उसी को काटता है जूता’ आसान शिकार बनती है कनिष्ठा तथापि ‘बाहर आने की कोशिश में पहले वही उधेड़ती है जूते की सीवन’ यानी तख्ता पलट भी इसी सामान्य वर्ग द्वारा संभव हो पाता है।
कवि की कल्पना शक्ति ‘एक टेढ़े खम्बे को देखकर’ जिस तरह उपजती है कमाल की है। एक निर्जीव वस्तु को शिल्प में ढाल कर अनेक आयामों में उसकी कठोरता और झुकी हुई वक्रता को सामाजिक संरचना में देखना सुंदर अनुभव से गुज़रना है। बात सरल सी सूक्ति की तरह है मगर सत्येंद्र कुमार रघुवंशी इस सरलता को मनुष्य के व्यवहार से जोड़कर जीवन के प्रति उद्देश्य पूर्ण बना देते हैं।
छंद मुक्त कविताओं में भी जिस लयबद्धता, भाव प्रवणता और संप्रेषणीयता की दरकार होती है इन कविताओं में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। एक दिन, रस्सियाँ, प्याज़ काटती लड़की, धूल से सना चेहरा आदि कविताएँ सामाजिक ताने बाने, स्थितियों-परस्थितियों, कोरोना काल के त्रासदी दायक समय को चिन्हित करते हुए मानवीय संवेदनाओं को तीव्र स्वर देती हैं।
कविताओं का आस्वादन पाठक को संतोषप्रद पठनीयता के सुख से आपूरित करने में सक्षम है।
सत्येंद्र कुमार रघुवंशी की कविताएँ
1. पैर की पाँचवीं उँगली
मोज़े में
दुबकी-दुबकी रहती है
पैर की पाँचवीं उँगली
रहती है
जूते में
सहमी-सहमी
नीचे की ओर
सबसे ज़्यादा झुकी-झुकी
चाहकर भी
कुरेद नहीं पाती
अँगूठे के बराबर मिट्टी
दूसरी उँगलियों के मुक़ाबले
उस पर
सबसे कम भरोसा करता है पाँव
और हर चहलक़दमी के दौरान
उसे सबसे पीछे रखता है
सबसे कमज़ोर
सबसे छोटा नाखून
उसी का होता है
सबसे पहले
उसी को काटता है
जूता
बाहर आने की कोशिश में
सबसे पहले
वही उधेड़ती है जूते की सीवन
2. एक टेढ़े खम्भे को देखकर
किसने किया है तुम्हारी रीढ़ के बीचोबीच प्रहार
किसने दी है तुम्हें यह अपाहिजी
क्या कभी कोई चिड़िया
बैठी थी तुम पर भारी मन से
या किसी आँधी में गिरते पेड़ ने
टिकना चाहा था कुछ देर तुम्हारे ऊपर
या अपने घर लौट रहा कोई प्रेमी
एकाएक खो बैठा था स्टेयरिंग पर नियंत्रण
या लोगों की नज़र बचाकर तुम झुके थे एकबारगी
ज़मीन पर गिरी कोई चीज़ उठाने के लिए
और सीधे नहीं हो पाये थे
नसों के खिंचाव के कारण
कहीं क्लान्त तो नहीं हो चुके हो तुम
इस तरह खड़े-खड़े
जैसे हम भी थक चुके हैं अपनी कोणहीनता से
और रह जाते हैं अक्सर मुँह के बल गिरते-गिरते
ऐसा तो नहीं
लोगों के पेचोख़म के चक्कर में आकर
तुम ही सोच बैठे थे अचानक लहरदार होने की
तुम कोई धनुष तो नहीं हो प्रत्यंचाविहीन
तुम छाया तो नहीं हो अर्धचंद्र की
कहीं इस कुब्जा दुनिया के सम्मान में तो
नहीं झुके हो तुम
सुनो वक्रता कोई मुद्दा नहीं है इस शहर के लिए
और भले ही यह चौराहा असुन्दर माने तुम्हें
मुझे तुम ऊँट की खड़ी पीठ जैसे नज़र आते हो
पहले एक-दो पाखी ही बैठ पाते थे
तुम्हारे शीर्ष पर
तुम्हारे नम्र और उदार होने से अब
ज़्यादा जगह निकल आयी है उनके किलोल के लिए
3. एक दिन
क्या पता था
बचपन में बार-बार चूमे गये हमारे माथे
एक दिन सिलवटों से परेशान हो जायेंगे
परेशान हो जायेंगे
दुखती कनपटियों से
दिमाग़ को तड़काने वाली मथापच्चियों से
पसीने की वक़्त बेवक़्त चुहचुहाने कीआदत से
दिन-रात चिन्ताओं में खपेंगे
बार-बार ठनकेंगे
बार-बार धुने और पीटे जायेंगे
क्या मालूम था
आशीर्वचनों से दीप्त हमारे मस्तक
एक दिन ढोयेंगे
दुर्भाग्य की लकीरें
सीधी पड़ती धूपों का दाह
रोज़-रोज़ होने वाली दर्दनाक कपालक्रियाएँ
क्या ख़बर थी
द्वादशी की चाँदनियों से होड़ लेते हमारे ललाट
एक दिन तरस जायेंगे
गर्म हथेलियों के लिए
तितली की तरह इधर-उधर उड़ती लटों के लिए
दुश्चिंताओं के बीच दिपदिप किसी अपूर्व विश्वास के लिए
नहीं सोचा था हमने कभी
एक दिन हमारे सारे दिठौने
अचानक धुल जायेंगे
वक़्त की तेज़ बारिश में
4. रस्सियाँ
रस्सियों को अफ़सोस है
वे इस सावन में
पेड़ों तक नहीं पहुँच पायीं
नहीं पहुँच पायीं हवाओं तक
नहीं पहुँच पायीं मल्हारों तक
नहीं पहुँच पायीं चिड़ियों के विस्मय तक
क़ैद रहीं
बड़ी-बड़ी इमारतों में ही
छत की कड़ियों पर ही
टँगी रहीं
लोहे के पाइपों पर ही
लटकती रहीं
नहीं देख पायीं इस बार
बारिश में भीगते हुए बाग़
पत्तों से टपकती हुई बूँदें
बादलों का अटूट बादलपन
नहीं भीग पायीं ख़ुद भी
महीन झींसियों में
रस्सियों को अफ़सोस है
वे इस बार
सावन को नहीं कर कर पायीं कृतार्थ
लड़कियों में नहीं बाँट पायीं खिलखिलाहटें
आसमान को खोलकर नहीं दिखा पायीं
अपनी एक-एक पींग
5. बिछुड़कर
अपने चेहरे पर
टूटकर गिरे इस पत्ते का
मैं क्या करूँ
इसे पेड़ को लौटा दूँ
या सटा दूँ किसी बछड़े के थूथन से
या पहुँचा दूँ
पिंजड़े में बन्द किसी तोते के पास
छूट गया है जिसकी पसन्द का गाछ
इतिहास के किसी कोने में
यह पत्ता
हारिल के रँग से बना है
या पृथ्वी के सारे हीरामन
पत्तों के रँग में रँगकर ही
आये हैं अंडों से बाहर
इसकी शिराएँ
मेरी हथेली में प्रवेश कर रही हैं
जैसे मेरी हथेली में नमी है
इससे भी ढुलकी होगी कभी
रुक-रुककर ओस
इसके इस तरह गिरने से
कम हो गयी होगी एक शाख़ के पास
पत्ते-भर हवा
इतनी ही फरफराहट
कम-से-कम इतनी ही छटा
कम हो गयी होगी
इसके टूटने से
लगभग बालिश्त-भर वसन्त की सम्भावना
पेड़ में
लेकिन इसने
अपनी टहनी से बिछुड़कर
एक किसलय को जगह दी है
6. धूल से सना चेहरा
यह धूल से सना चेहरा
किसका है
यह धूल
बम से ध्वस्त हुई इमारत की है
या भागते नागरिकों के
जूतों से उठी है
या किसी मौसमी अंधड़ का
नतीजा है
आँधी से उड़ी धूल
तो ऐसी नहीं होती
वह साँसों में नहीं घुसती
वह दहशत पैदा नहीं करती
वह खिड़कियों और दरवाज़ों पर बैठकर
बारिश से धुलने की प्रतीक्षा करती है
वह अक्सर
खुला आसमान लेकर आती है
यह धूल डरावनी है
यह सिर्फ़ उड़ क्यों रही है
यह कहीं जम क्यों नहीं रही
क्या इसके कणों में
किसी देह के परखचे शामिल हैं
इसमें बारूद की गन्ध
कहाँ से आयी
यह धूल
आसमान को कब तक
ढँककर रखेगी
कितने समय बाद
फिर से नीला होगा
आसमान
7. कीलें
उन पर
बड़ी ज़िम्मेदारियाँ थीं
दोस्तो
उन्हें जूतों में
ठुँकना था
दरवाज़ों को
बचाना था उखड़ने से
हिलती-डुलती मेज़ों में
फूँकने थे प्राण
दीवारों पर सही जगह
टाँगने थे चेहरे
कसकर थामे रखना था
देवताओं का पतन
धीरे-धीरे धुँधली होने देनी थीं
सिंहासनों और सलीबों के काम आये
अपने कुल की कहानियाँ
और सबसे बढ़कर
अपनी रीढ़ को सीधा रखकर
याद करने थे चुपचाप
हथौड़े की ज़रा-सी चोट से
टेढ़े हुए अपने दोस्तों के कूबड़।
8. प्याज़ काटती लड़की
इतनी तो मैं
कम नम्बर आने पर भी नहीं रोयी
तब भी नहीं
जब भैया ने मेरी गुड़िया पटक दी थी
या इतवार के दिन मुझे डाँटकर
देवी के मन्दिर ले गयी थीं
नानी और मौसी
अलस्सुबह
भैया आँखों की कड़वाहट को क्या समझे
उसे प्याज़ नहीं काटना पड़ता
कोई उसे देवी के मन्दिर ले जाने पर भी
ज़ोर नहीं देता
क्या देवी ने कभी
प्याज़ की गाँठें छीलने का काम किया
या वह राक्षसों को ही मारती रहीं
आजीवन
प्याज़ काटने के लिए
नानी और मौसी
पीढ़े पर बैठकर
फुर्ती से चाक़ू चलाती हैं
माँ उनसे भी अधिक तेज़ है
मुझे इन लोगों के आँसू नहीं दिखते
क्या सूख गये हैं धीरे-धीरे
सिसकी दबाने की कोशिश में
कोशिश एक अच्छा शब्द है
मेरा पसन्दीदा शब्द
मुझे राह दिखाने वाला शब्द
एक दिन अकेले जाऊँगी देवी के मन्दिर
पूछूँगी फुसफुसाकर –
आप राक्षस कैसे मार लेती हैं?
कवि सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
जन्म : 21 नवम्बर,1954 को आगरा में।
शिक्षा : क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर से वर्ष 1975 में अंग्रेज़ी में एम.ए.।
सेवायोजन : नवम्बर, 2014 में आई. ए. एस. अधिकारी के रूप में उ. प्र. शासन के गृह सचिव के पद से सेवानिवृत्त। 2017 से 20 नवम्बर, 2019 तक उ. प्र. राज्य लोक सेवा अधिकरण में सदस्य (प्रशासकीय) के पद पर कार्य किया।
रचनाकर्म : वर्ष 1987 में कविता-संग्रह ‘शब्दों के शीशम पर’ प्रकाशित। दूसरा कविता-संग्रह ‘कितनी दूर और चलने पर’ वर्ष 2016 में प्रकाशित। पिछले चार दशकों में लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। छह दिसम्बर,1992 पर केंद्रित ‘परिवेश’ के चर्चित विशेषांक का अतिथि संपादन। दो कविता-संग्रह प्रकाशनार्थ तैयार हैं !
सम्पर्क : 14/34, इंदिरानगर, लखनऊ – 226016
मोबाइल : 9918165747
ई-मेल : satyendrakumarraghuvanshi@yahoo.in
टिप्पणीकार ख़ुदेजा ख़ान, जन्म- 12 नवम्बर. हिंदी -उर्दू की कवयित्री, समीक्षक और संपादक के रूप में कार्य।
तीन कविता संग्रह। उर्दू में भी दो संग्रह प्रकाशित।साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध।
समकालीन चिंताओं पर लेखन हेतु प्रतिबद्ध।
जगदलपुर(छत्तीसगढ़) में निवासरत।
फोन-7389642591