समकालीन जनमत
कविता

सपना भट्ट की कविताएँ: निर्मम हक़ीक़त के मध्य जीवन की आर्द्रता बचाने की जद्दोजहद

मंजुला बिष्ट


हमारा मौजूदा समय मानवीय संघर्ष के साथ अदृश्य स्वास्थ्य शत्रु की गिरगिटिया गिरफ्त में है। हमारे समक्ष सपनों व निर्मम हकीकत के मध्य जीवन में आर्द्रता बचाने की जद्दोजहद तारी है। इस जद्दोजहद को हम स्वयं में और अपने इर्दगिर्द महसूस कर सकते हैं। ज़ाहिर है इन सबसे साहित्य,कला और संस्कृति भी अछूती नहीं रह सकती।

अन्य समकालीन कलमकारों की ही तरह सपना भट्ट के काव्य-लेखन में यह जद्दोजहद अनवरत महसूस होती रहती है..लेकिन अपनी स्वाभाविक आर्द्रता व कोमलता के साथ। जैसा कि हर कविता के साथ है सपना की कविताओं के सिरे भी पाठकों के लिए व्यक्तिगत सामर्थ्य से ही खुलते हैं। वे उत्तराखंड के दुरूह रास्तों से गुजरते हुए अपने अध्यापन कर्तव्य का निवर्हन करती हैं, ज़ाहिर है पहाड़ी रास्ते उनकी संवेदनशील नज़रों को ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव को आत्मसात करने का अवसर देते हैं।

साहित्य, जीवन की ऐसी ही राहों से चलकर, छनकर सहजता के साथ चला आता है।

इसका बेहतरीन उदाहरण कविता ‘रुकमा घसियारीन’है, जहाँ कवि ने स्थानिकता के साथ एक आम व्यक्तित्व को बहुत ही कुशलता से समायोजित किया है..जो इस कविता को सहज स्वीकार्यता देता है। प्रेम से पहले अपने दैनिक कर्तव्यों को याद करती रुकमा प्रेम में सन्तुलन का अलग ही दिव्य रूप प्रकट करती है..बगैर कर्तव्यों पूर्ति के प्रेम भी कहाँ आत्मोत्सर्ग का वाहक बनता है!!

“उसके सपनो में उसका फौजी पति नहीं
लकदक पत्तियों से लदे
बांज ,गुरियाल ,खड़ीक और भीमल के पेड़ आते हैं ।”

सपना की कविताओं में प्रेम जैसे आत्मसंघर्ष को आसान बनाते रहने का दैनिक अनुष्ठान है..पवित्र ज़िद है।उनकी कविताओं में सुवासित प्रेम..जीवन की तपिश में किसी पहाड़ी झरने सा झरता है, जिसमें भीजकर प्रेम के अस्तित्व पर भरोसा करने को जी करता है। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने स्वप्नलोक रचा है..बेशर्त प्रेम यूँ ही जीवन को कम निर्मम बनाने में पुनर्नवा की भांति कार्य करता है। प्रेम स्त्री का अस्तित्व है.. जो सपना की कविताओं में बारबार लौटता है।बावजूद इन प्रेम कविताओं में दोहराव नहीं है..इसका कारण है प्रेम से अपने लिए कुछ न चाहना..सिर्फ एकांतिक प्रवास की कामना, बेशर्त साथ बने रहने रहने की अभूतपूर्व आश्वस्ति है।

प्रेमिल भावनाओं का इस निर्मम समय में उदात्त बने रहना इतना भी कठिन नही है..यह सपना की कविताएँ बारबार विश्वास दिलाती हैं। उनकी कविताओं में प्रेम आत्म-निर्वासन कर किसी उपेक्षित खोह में पनाह नहीं लेता है..बल्कि यह प्रेम के सम्मानीय व स्मरणीय बने रहने का यकीन देता है।

मैं तुम्हारे भीतर के एकांत में रमती हूँ
तुम्हारा नहीं ,
तुम्हारी पीड़ाओं का वरण करती हूँ
प्रेम के इसी अंतहीन शोक में दहती हूँ ।

किताबों की महत्ता को वही समझ सकता है जिसने अपने एकांतिक पर्व में किताबों से प्रेम किया हो, गले लगाया हो। कविता ‘किताबें’ में किताबें भौतिक वस्तुओं को मुँह चिढ़ाती दिखाई देती है। यह एक बहुत जरूरी कविता है जो इस डिजिटल युग में लिखत-पढ़त परम्परा में अथाह विश्वास बनाए रखने को सजग करती है।

मेरे बाद मेरा सब कुछ बँट जाएगा मेरे बच्चों में
किताबें मगर 14 बरस की उस पहाड़ी बच्ची को मिलेंगी
जो चार कोस आंधी पानी मे चलकर
पुरानी किताब लौटाकर
मुझसे नई मांग ले जाती है।

स्त्री जीवन की विसंगतियों के प्रति विस्मृति की आदत और स्वयं के अनुताप को खामोशी से लिपिबद्ध करना ही क्या हर स्त्री लेखन की परंपरा है..मजबूरी है।नहीं!..विडम्बनाओं, छद्म समानताओं, कुरीतियों और आडम्बर से पलायन आखिर एक मुखर कलम के लिए कहाँ सम्भव है! रोने के लिए अपने हिस्से की जगह खोजती स्त्री की यह मुखरता कविता ‘स्वीकारोक्ति’ में क्या खूब परिलक्षित हुई है–

स्त्री होना और प्रेम व सम्मान की इच्छा रखना

यहाँ अपराध की तरह देखा जाता है ।
मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूँ।

सदियों से समाज में व्याप्त कथनी-करनी के महीन अंतर को ‘नवरात्र में देवियाँ’ कविता में देखा जा सकता है..जो कहने को तो आम दृश्य है लेक़िन सपना की कलम ने बड़ी कुशलता से खोखले आदर्शो की विद्रूपता को उघेड़ दिया है..

इससे पहले कि तुम्हे अछूत कहकर
खदेड़ दिया जाए
आओ नन्ही देवियों
मैं पूज दूँ तुम्हारे नन्हे पैर
अपना मस्तक धर दूँ, कांटे बिंधे तुम्हारे पैरों पर

आओ हे देवियों !
हमारे ब्राह्मणत्व और अहंकार को
एक ही पदाघात से छिन्न भिन्न करके भीतर चली आओ ।
आसन ग्रहण करो , प्रसाद पाओ
और बताओ कि भीतर
हठीले गौरव से भरी बैठी राजेश्वरी
और बाहर द्वार पर खड़ी मंगसीरी में
कोई अंतर नहीं !

ऐसे ही स्त्री संसार के प्रति पितृसत्ता के दोगले व्यवहार के खिलाफ़ एक स्त्री की उठती अंगुली की थरथराहट महसूस कीजिये…इन पंक्तियों में!

हमें कमज़ोर कहने से पहले
अपनी क्षुद्र कामनाओं को धिक्कारिये जनाब
हम स्त्रियों ने ही डाल रक्खी हैं
आपकी सैद्धांतिक मर्दानगी और वहशीपन पर
लाज और संकोच की चादर
हमसे ढके रहते हैं आपके ज़ुल्म
और घातक मूर्खताएं पर्दे के भीतर।

हम बस देह भर ही तो नहीं ।
हमे सिर्फ़ कमनीय सूरत और लचकती कमर का पर्याय मत समझिये

सपना के सृजन संसार का पाट विस्तीर्णता व गहनता लिए है जहाँ वे प्रेम कविताओं से इतर(जिसके लिए वे बखूबी जानी जाती हैं) जब लोक में प्रवेश करती हैं तो उनकी कलम ख़ूब न्याय करती है।

सपना की कविताओं में शनैःशनैः ही सही लोक से जुड़े व्यक्तित्व, आत्मीयता व बेचैनियों का प्रवेश स्वागतयोग्य है। कवि धर्म ही समन्वय की मांग करता है, जहाँ स्वीकार और अस्वीकार के मध्य उसे चलना होता है। सपना के सृजनलोक में भाववादी शिल्प के साथ कटु यथार्थवादी शिल्प का मौजूद होना आधुनिक स्त्री का अपने व्यक्तित्व और सामाजिक परिस्थितियों को बराबर सम्मान व जगह देना है।

 

 

सपना भट्ट की कविताएँ

 

1. किताबें

मैंने ईमान की तरह बरती किताबें
किताबें ही मेरी संगी रही ,
मैंने किताबों से प्यार किया।

जीवन के घनघोर नैराश्य में
मैंने ईश्वर को नहीं पुकारा
मन्दिरों में घण्टियाँ नहीं बजाई
प्रार्थना में विनत रहकर दीपक नही जलाए
मैंने दयालु किताबों की सतरें पलटीं ।

मैंने उन लोगों से कभी हाथ नहीं मिलाया
जिनके हाथों में नहीं थी
किताबों को स्पर्श करने की सलाहियत
जिनके घरों में किताबें न थीं
वो घर अजाने अदेखे ही रहे सदा

मैंने बाबा से ब्याह में मांगा
उनका वो बड़ा फौजी सन्दूक
जिसपर लिखा था
ओमप्रकाश , 1623 पायनियर कम्पनी
नहीं, स्त्रीधन रखने को नहीं,
किताबें ही मेरा स्त्रीधन हैं।
उन्हें रखने को आज भी मेरे पास आलमारी नहीं।
आलमारी खरीदने निकलते ही हमेशा मुझे दिखा,
बहुप्रतीक्षित किसी अनुपलब्ध किताब का नया संस्करण।

मैंने किताबों से प्रणय किया , किताबों से लिपटकर रोई
किताबें ही मेरी राज़दार रहीं
मेरे भीतर अस्थि रक्त मांस मज्जा नहीं
किताबों की सीली सी गन्ध है,
किताबों की ही क्षुधा और प्यास भी ।

मैंने माँ से नहीं किताबों से सीखी दुनियादारी
किताबों ने मुझे बेहतर मनुष्य होने में सहायता की
मैंने अकेले चलते हुए काटे
सबसे कठिन दिन ,सबसे खराब मौसमों में इन्ही के सहारे
किताबें ही मेरे जीवन का सरमाया हैं।

मेरे बाद मेरा सब कुछ बंट जाएगा मेरे बच्चों में
किताबें मगर 14 बरस की उस पहाड़ी बच्ची को मिलेंगी
जो चार कोस आंधी पानी मे चलकर
पुरानी किताब लौटाकर
मुझसे नई मांग ले जाती है।

 

2. नवरात्र पर देवियाँ

नवरात्र की नवमी पर
भीतर देवथान में गुंजारित हैं
मुख्य पुजारी के दैविक मंत्रोच्चार के साथ
बड़े बूढ़ों के विह्वल स्वर भी ।
‘ॐ जयंती मंगला काली
भद्रकाली कपालिनी’!

रसोई घर से आ रही है
हलवे की भीनी भीनी महक
छानी जा रही हैं गर्मागर्म पूड़ियाँ
नौ बच्चियाँ बैठ चुकीं आसनो पर
और बड़े ससुरजी का नाती
भैरव वाली गद्दी पर इठला रहा है।

इधर द्वार पर आ गयी है
पाँच नन्ही लड़कियों की टोली भी
मैं उन्हें पहचानती हूँ
सरूली, चैनी और सुरेखा ।
वे जब तब अपनी माँ के साथ आती रही हैं
किसी पुरानी चादर , साड़ी या अनाज की चाह लिए
मैंने उनके मुंह मे गुड़ भर कर मुस्कुराते हुए
पूछ लिया था एक दिन उनका नाम।

खाने के बाद पंडित जी हाथ धोने
आँगन में चले आये हैं
कड़क कर बोले हैं ‘ क्यों री छोकरियो !
यहां क्यों खड़ी हो, जाओ यहां से
मैं देखती हूँ नन्ही अम्बिकाओं दुर्गाओं और कालियों
के मुरझाए उदास मुखों को
आँगन के भीमल पेड़ से चिपकी तामी की आंखों में नमी तैर गयी है

इससे पहले कि तुम्हे अछूत कहकर
खदेड़ दिया जाए
आओ नन्ही देवियों
मैं पूज दूँ तुम्हारे नन्हे पैर
अपना मस्तक धर दूँ, कांटे बिंधे तुम्हारे पैरों पर

आओ हे देवियो !
हमारे ब्राह्मणत्व और अहंकार को
एक ही पदाघात से छिन्न भिन्न करके भीतर चली आओ ।
आसन ग्रहण करो , प्रसाद पाओ
और बताओ कि भीतर
हठीले गौरव से भरी बैठी राजेश्वरी
और बाहर द्वार पर खड़ी मंगसीरी में
कोई अंतर नहीं !

 

3. रोने के लिए जगहें

रोने के लिए जगहें कहीं नहीं थीं
घर के किसी कोने ने नहीं दी कभी खुलकर
घड़ी भर रो लेने की सहूलत ।

रसोई में प्याज़ काटते,
बहुत बार कृतज्ञता से भर आया मन ,
अगर ये नन्हा साथी भी न होता
तो कैसे बहता भरा हुआ सैलाब।

ग़ुस्लखानों में सुबकने से
तन के साथ मन भी धुलता रहा
ताज़ादम होकर बनाई चाय , चढ़ाई दाल
बेटी को चूमते हुए सोचा
ये लाटी भी कितनी बड़ी हो गयी देखते देखते …

रोने की आदत ने हमे, कायर नहीं ,साहसी बनाया
सिसकने और बिलख कर रो देने के बीच
मुस्कुराती रही हमेशा एक जिजीविषा
जिसने दी कठोर परिस्थितियों में भी जीने
और अडिग खड़े रहने की हिम्मत ।

छक कर रो लेने के बाद
छंट गए बादल, निकल आई धूप
सूरज लगा और चमकीला , पृथ्वी और उदार
और जीने की चाह गुलाब सी कोमल नहीं
मेरे गमले में अचाहे ही उग आई
नागफ़नी की तरह सुंदर और दीर्घजीवी…

 

 

4. आत्मा का अनुवाद

अनुवाद एक मज़ाहिया सी कोई व्यवस्था है!
ठीक ठीक कब हो सका
किसी भाषा के अंदर बहती
भावध्वनि का अनुवाद ?

आप रो सकते हैं, धीरे धीरे सुबकियों में
आंसुओं का अनुवाद
मगर नहीं हो सकता ठीक उतनी तरलता में !
आप कहते हैं “मैं ठीक नहीं” ,
उस ‘ठीक’ नहीं में
उस बेचैन मन का ठीक ठीक अनुवाद कैसे कर सकेंगे
जो ठीक होना ही नहीं चाहता ।

आप प्रतीक्षारत रहते हुए बिताते हैं पहरों
पीते हैं कॉफी , कहवा, या चाय
एक कप के बाद दूसरा कप,
बार बार आप प्रतीक्षा का अनुवाद करते हैं
उस बेक़रार वक़्फे मे पी गयी
कॉफी या चाय का
कड़वा कसैला अनुवाद असम्भव है

आप कैसे टिक टिक करती
किसी घड़ी की सुई की बेचैन
परिक्रमा का अनुवाद कर सकेंगे !
आप देर तक देखते हैं किसी
नदी, तस्वीर या बल्ब को
उसमे पानी , छब या रोशनी का अनुवाद कैसे करेंगे !

बहुत बेकली से
बार बार घड़ी देखते हुए
किसी के आने की आहट के इंतज़ार में
पढ़ते हैं मन की किसी कविता का मर्सिया
दहते हैं ख़ुद के भीतर भीतर
देह के पिंजर के राख होने तक
उसे याद करते हुए दोहराते हैं कोई उदास धुन
कोई रुंआसा याद भरा गीत ,
मरे हुए मन मे निरन्तर चल रही
निशब्द कविता का अनुवाद कैसे किया जा सकता है भला!!!

 

 

5. औरतें

हम हव्वा की बेटियाँ
आदम ज़ात की तिलिस्मी चालों से नहीं
भाषा की राजनीति से छली गई औरतें हैं।
ईश्वर के लिए
हमे हिरनी,कोयल,चिरैया नहीं
बल्कि एक इंसान समझिए ।

आप हमें चौतरफा संघर्षों में धकेलकर
हमारी ही छाती पर कुंडली मारकर
कर तो रहे हैं ;
स्त्री विमर्श और नारी चेतना पर खोखली बहसें,
फुला रहे हैं छाती , ठोक रहे हैं खुद की ही पीठ
मगर जान लीजिए ;
आपकी स्त्री हँसती है
आपके तमाम तमगों और मान पत्रों पर
आपकी पीठ पीछे ।

हमें कमज़ोर कहने से पहले
अपनी क्षुद्र कामनाओं को धिक्कारिये जनाब
हम स्त्रियों ने ही डाल रक्खी हैं
आपकी सैद्धांतिक मर्दानगी और वहशीपन पर
लाज और संकोच की चादर
हमसे ढके रहते हैं आपके ज़ुल्म
और घातक मूर्खताएं पर्दे के भीतर।

हम बस देह भर ही तो नहीं ।
हमे सिर्फ़ कमनीय सूरत और लचकती कमर का पर्याय मत समझिये, सम्भव हो तो
हमे एक बुद्धि, एक विचार
एक मस्तिष्क के निकष पर आंकिये
और स्वयं बताइए कि
हम आपसे किस लिहाज से कमतर हैं !

हम आपके अहंकारी और झूठे
मर्दवादी ज़हर से नीली पड़ी औरतें हैं
हमें अपना ज़हर आप चूस कर थूकने दीजिये
ये दुनिया सिर्फ़ आपकी नहीं है
हमें भी मन भर अपने मन से जीने दीजिये ।

 

6. रुक्मा घसियारिन

वह धरती की सबसे करुण संतान है
उसके पैरों की थाप पर
थिरकते हैं पवन , पानी और पत्थर

जूड़े में फ्योंली बुराँस का फूल खोंसे
वह ठोकर पर रखती है
तमाम शहरी वैभव ।

भोर उसके दिन का आरंभ नहीं
मध्यांतर है
नीम अंधेरे उठ , सानी पानी निबटा
अपने दुधमुँहों को छोड़
वह चल पड़ती है एक मुट्ठी चावल
और गुड़ साड़ी के छोर से बांधे ।
इसी से आज का कौतुक जगेगा
यही आज का प्रसाद होगा
इसी को चबा, हँसती हँसती
दोहरी हो जाएगी वह
सखियों से कोई किस्सा रसीला सुन कर ।

उसकी पीठ पर उग आया है भूख का जंगल
उसके मस्तक पर है परिश्रम के स्वेद की आभा
एक रस्सी और दरांती अपनी कमर में बांधे
रुक्मा काट लाती हैं अपने भार से दोगुना घास

उसके सपनो में उसका फौजी पति नहीं
लकदक पत्तियों से लदे
बांज ,गुरियाल ,खड़ीक और भीमल के पेड़ आते हैं ।

किसी रुआंसी अनगढ़ लोकधुन में
अपने मैत का कोई खुदेड गीत पिरोती रुक्मा
साधारण घसियारिन नही
बल्कि कोई ‘वन देवी’ है
जिसके मनाकाश में है भय का निषेध।

‘क ख ग’ भी नहीं जानने वाली रुक्मा
इनदिनों गिनाती है मुझे
सौ तरह की जड़ी बूटियों और वन्य जीवों के नाम।

पर्यावरण संरक्षण से अनभिज्ञ रुक्मा
बताती है कि पौधे रोपने से
ईष्ट करते हैं हमारे अतिवाद को क्षमा।
स्वर्ग में बैठे पितर मना लाते हैं
रूठे बादलों को समय पर ।

स्वर गम्भीर कर कहती है
“वर्षा होने से ही तो फलेंगे दीदी
चारे वाले पेड़ !
उन्ही से तो शांत होगी पशुओं की क्षुधा
और मिलेगा दुधमूहों को दूध “!!

मैं उसके भोलेपन पर रीझ रीझ जाती हूँ
और उसे गले लगा कर कहती हूँ
“ओ पण्डिता रुक्मा” अब कब आएगी ?

अगली बार मैं तुझे, तुझ पर लिखी
कविता सुनाना चाहती हूँ ।

 

7. वरण

तुम्हारे दिव्य स्मित से दमकते
मुख की आभा को नहीं देखती।
तुम्हारे शब्दों और भावों के
अकूत वैभव को नहीं गहती

तुम्हारी ख्यातियों, उपलब्धियों की
स्तुति नहीं करती
तुम्हारे विनीत किन्तु तीक्ष्ण प्रभाव से
आतंकित नहीं होती

सदा की खोखली आदिम सभ्यता की चेष्टाओं
और रीतियों/ लोकाचारों में नहीं बँधती

सुनो प्यार !
कभी ढूँढो मुझे तो अपनी ही टोह लेना ।
स्मृतियों को संगी करना ।

मैं तुम्हारे भीतर के एकांत में रमती हूँ
तुम्हारा नहीं ,
तुम्हारी पीड़ाओं का वरण करती हूँ
प्रेम के इसी अंतहीन शोक में दहती हूँ ।

 

 

8. स्वीकारोक्ति

एक दिन रक्त मांस अस्थि से नहीं
बल्कि मर्यादा से बंधी स
मेरी इस देह को छोड़ देंगे प्राण ।

एक दिन छूट जाएँगे श्वास के सब बन्ध
और लाज की सब डोरियां

रीतियों उपदेशों और लोकाचारों से दबी
मेरी छाती से हट जाएगा
यह क्रूर कठिन पत्थर एक दिन।

मेरी आत्मा देह-अदेह के चक्रव्यूह से छूटकर
कई-कई प्रकाश वर्षों की अलंघ्य दूरी पर
करती रहेगी अपनी ही परिक्रमा अंतरिक्ष में।

एक दिन मेरे नहीं होने से
मिट जाएंगी मेरी मर्मान्तक पीड़ाएं ।
और निश्छल चाहनाएं भी।

एक दिन मेरी आंखें प्रतीक्षा से
और हृदय अकुंठ आदिम प्यास से मुक्त हो जाएगा ।
मेरी अकथ पीर बह जाएगी
यह अंतिम दुःख,
मेरी मृत आसक्तियों की तरह यहीं छूट जाएगा ।

स्त्री होना और प्रेम व सम्मान की इच्छा रखना यहां
अपराध की तरह देखा जाता है ।
मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूं।

और यह भी कि
जब मैं नहीं रहूँगी तब भी
मेरे अतृप्त और खाली अन्तस् की उदास प्रार्थनाओं में,
एक स्त्री होकर सुखी रह सकने की कामनाएँ रहेंगी

 

कवयित्री सपना भट्ट का जन्म 25 अक्टूबर को जम्मू कश्मीर में हुआ। शिक्षा दीक्षा उत्तराखण्ड में सम्पन्न। सपना हिंदी और अंग्रेज़ी विषय मे परास्नातक हैं और उत्तराखंड शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं।

सिनेमा साहित्य और संगीत में गहरी रुचि ।
लंबे समय से विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में रचनाएं प्रकाशित।

फोन नम्बर- 8006559588

 

टिप्पणीकार मंजुला बिष्ट कवि और कहानीकार हैं, विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में प्रकाशित हैं। कुमाऊँ यूनिवर्सिटी से बीए और मुंबई यूनिवर्सिटी से बीएड।जन्मभूमि उत्तराखंड,कर्मभूमि राजस्थान है। सद्यः प्रकाशित प्रथम कविता-संग्रह’ खाँटी ही भली’ बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित।
सम्पर्क:-8209933491
Mail:-bistmanjula123@gmail.com

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